Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 174 1 -2-6-2 (99) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - II संस्कृत-छाया : स्यात् तत्र एकतरं विपरामृशति, षट्सु अन्यतरस्मिन् अपि कल्पते, सुखार्थी लालप्यमानः स्वकेन दुःखेन मूढः विपर्यासं उपैति, स्वकेन विप्रमादेन पृथक् वयं (संसारं) प्रकरोति, यस्मिन् इमे प्राणाः प्रव्यथिताः, प्रत्युपेक्ष्य न निकाराय, एषा परिज्ञा प्रोच्यते, कर्मोपशान्तिः // 99 // III सूत्रार्थ : कदाचित् कोइक मनुष्य एक पापारंभ में कोइ भी पृथ्वीकायादि एक का परामर्श करता है तब छह जीवनिकाय में प्रवृत्त होना संभव है... सुख को चाहनेवाला एवं स्नान-पान का लालचु यह मूढ प्राणी अपने दुःखों से विपर्यास को पाता है... और अपने हि विविध प्रकार के प्रमादों से पुन: विविध-संसार को करता है... कि- जिस संसार में यह प्राणी पीडित हैं... अतः ऐसा देख करके विकार न करें... यह परिज्ञा कही है... इस परिज्ञा से कर्मो का उपशम होता है // 99 // IV टीका-अनुवाद : जब कभी कोइक मनुष्य कोइ भी एक पापारंभ में पृथ्वींकायादि एक का समारंभ सोचता है, अथवा अट्ठारह पापों में से कोई भी एक पाप को सोचता है तब यद्यपि वह मनुष्य छह जीवनिकाय में कोई भी एक पृथ्वीकाय आदि का आरंभ करता है अर्थात् जिस पृथ्वीकायादि का विचार है उसमें हि प्रवृत्त हुआ है तो भी यहां सारांश यह है कि- पृथ्वीकायादि छह जीवनिकाय में अथवा अट्ठारह पापस्थानक = आश्रव द्वारों में से कोई भी एक में भी प्रवृत्त होनेवाला वह मनुष्य अपनी बदलती हुइ इच्छा के अनुसार शेष अप्कायं आदि के वधमें एवं अट्ठारह पापस्थानकों में प्रवृत्त हो शकता है अर्थात् सभी में प्रवृत्त होता है... प्रश्न- कोइ भी एक पृथ्वीकायादि के समारंभ में प्रवृत्त होनेवाला प्राणी अन्यकाय के समारंभ में या सर्व पापों के समारंभ में कैसे प्रवृत्त हो ? कि- जो आप ऐसा मानते हो... उत्तर- जैसे कि- कुंभकारशालोदकप्लावन-दृष्टांत से एक काय का आरंभ करनेवाला, अन्य काय का भी समारंभ करता है... अथवा प्राणातिपात-आश्रव द्वार के विघटन से एक जीव के अतिपात (मरण-वध) से या एक काय के वध से अन्य जीवों का वध करनेवाला माना गया है.. तथा मृषावादी भी है, क्योंकि- उसने परिज्ञा का लोप (विनाश) कीया है... अतः वह जुठ है... तथा वह चोर भी है क्योंकि- वध कीये जानेवाले प्राणी ने अपने प्राण हिंसक को दीये नहिं हैं, और तीर्थंकरो ने भी अनुज्ञा