Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-2-5-9 (96) 167 के चले जाने से चिंता होती है, और यदि पास में हो तब विक्षोभ होता है, यदि उनका त्याग कर देते हैं, तब अधिक संताप होता है और कामक्रीडा करने पर अतृप्ति होती है, यदि अन्य के पास हो तब द्वेष होता है, और स्वाधीन न होने पर शोक से संतप्त होना पडता है, अत: इस संसार में कहा भी सुख की प्राप्ति कहीं भी होना असंभव है... __ अनेक प्रकार से कामभोगों के विपाक (फल) कह कर अब प्रस्तुत उदेशक का उपसंहार करतें हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... V सूत्रसार : पूर्व के सूत्र में अशुचि भावना के द्वारा त्याग पथ पर गति करने का आदेश दिया गया है और प्रस्तुत सूत्र में उस पथ पर दृढता के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हुए कहा गया है, कि- साधु को त्यागे हुए भोगों को फिर से प्राप्त करने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। इस विषय में बालचेष्टा का बहुत ही सुन्दर उदाहरण दिया गया है। जैसे अबोध बालक अपनी गिरती हुई लार को फिर से मुंह में लेकर चूसने लगता है। अतः प्रबुद्ध साधु त्यागे हुए भोगों को फिर से आस्वादन करने की कामना न करे। किंतु ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के पथ पर आत्मा को सदा गतिशील रखे... अर्थात् अपने आप को विषय-वासना एवं अविरति आदि की ओर न दौडने दे। क्योंकि- इच्छित भोग कभी भी परिपूर्ण प्राप्त नहीं होते और जो प्राप्त हुए हैं उनका भी वियोग होता रहता है, इस प्रकार आशा की अपूर्ति एवं प्राप्त के वियोग से कामी व्यक्ति का मन सदा शोक एवं चिन्ता से सन्तप्त रहता है। और विषयों की तृष्णा एवं आसक्ति से इस. जीवन में विभिन्न दुःख आते हैं तथा परलोक में आत्मा दु:ख के महागर्त में गिरती है, अतः साधु भोगोपभोग की कामना से सदा दूर रहे... भोगों में आसक्त होने वाले प्राणियों की विषम स्थिति को देखकर साधु भोगोपभोग से सदा दूर रहे... प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है-कि विचारशील पुरुष अविरति, मिथ्यात्व आदि दोषों से अपनी आत्मा को बचाकर उसे ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की ओर मोडे तथा निरन्तर संयम साधना मे संलग्न रहे जिससे शीघ्र ही कर्म बन्धन से सर्वथा मुक्त होकर निर्वाण पद को पा सके। जो व्यक्ति अपने धन, यौवन, अधिकार और रूप के गर्व में देव न होते हुए भी अपने आपको देव तुल्य मान कर भोगों में आसक्त रहता है, वह अंततः विभिन्न वेदनाओं एवं चिन्ताओं का संवेदन करता है। इस बात को 'अठुमेयं तु पेहाए' पद से व्यक्त किया गया है। अतः उनकी शारीरिक एवं मानसिक पीडाओं को देखकर मुमुक्षु पुरुष को भोगों में अपने आप को नहीं लगाना चाहिए।