Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-2 - 5 - 2 (89) 143 उत्तर- आपकी बात सही है, किंतु अशुद्ध कहने से सामान्य दोषवाले आहार आदि का ग्रहण होता है, जब कि- पूति के ग्रहण से आधाकर्म आदि अविशुद्धकोटिवाले आहार आदि का ग्रहण कीया गया है... और पूति-दोष, बडा दोष है अतः उसकी मुख्यता (प्रधानता) बताने के लिये अलग से कथन किया गया है... अतः सारांश यह है कि- गंध शब्द से 1. आधाकर्म, 2. औद्देशिक त्रिक, 3. पूतिकर्म, 4. मिश्रजात, 5. बादर प्राभृतिका, 6. अध्यवपूरक... यह छह (6) उद्गम दोष अविशोधिकोटि के अंतर्गत हैं, शेष सभी दोष विशोधिकोटि के अंतर्गत हैं और वे आम शब्द से ग्रहण कीया गया हैं... यहां सर्व शब्द प्रकार-वाचक होने से जिस किसी भी प्रकार से आम याने अपरिशुद्ध और गंध याने पूतिकर्म होता है, उन सभी दोषों को ज्ञ-परिज्ञा से जानकर एवं प्रत्याख्यान परिज्ञा से निरामगंध याने आम और गंध दोष का त्याग करता हुआ मुनि प्रव्रजित बने... ज्ञान, दर्शन और चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग में चारों और से अच्छी तरह से गमन करे अर्थात् संयम के अनुष्ठानों का अच्छी तरह से पालन करें.. अब कहतें हैं कि- आम शब्द से क्रीतदोष का प्रतिषद्ध हो हि गया है, तो भी अल्प सत्त्ववाले जीवों की क्रीतदोष में प्रवृत्ति न हो, इसलिये नाम लेकर हि उसका निषेध करने की इच्छा से सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त ‘समुट्ठिए' शब्द का अर्थ है- उत्थितः अर्थात् सम्यक् प्रकार से संयम मार्ग में प्रवृत्ति करने वाला साधक। संयम मार्ग में प्रवर्त्तमान होकर जिस मुनि ने घर, परिवार एवं धन-वैभव आदि का सर्वथा त्याग कर दिया है, उसे अनगार कहते हैं। आर्य वह है-जिसने त्यागने योग्य -अधर्म का त्याग कर दिया है। और श्रुत के अध्ययन से जिसकी बुद्धि शुद्ध एवं निर्मल हो गई है, उसे आर्यप्रज्ञ कहते है। सत्य एवं न्याय मार्ग के दृष्टा को आर्यदर्शी कहते हैं। साधु जीवन की समस्त क्रियाओं को यथाविधि एवं यथासमय अर्थात् जिस अनुष्ठान से लिए आगम में जो विधि एवं समय का विधान किया है: तदनुसार आचरण करने वाला साधु संधिदृष्टा है.. 'निराम' का अर्थ होगा-निष्पाप, क्लेश रहित और ‘आमगन्ध' का अर्थआधाकर्म आदि दोषों से दूषित अशुद्ध आहार है। अतः समस्त दोषों से रहित शुद्ध आहार को ग्रहण करके संयम साधना में संलग्न रहना ही साधु का प्रमुख उद्देश्य है। इसी बात को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं...