Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 2 - 5 - 4 (91) 149 यह है कि- सग और द्वेष का छेद करके की हुइ प्रतिज्ञा गुणवती (गुणवाली) है, और यदि राग-द्वेष का छेद नहि कीया तो वह प्रतिज्ञा निष्फल (व्यर्थ) हि है... वह इस प्रकार- कालज्ञ बलज्ञ यावत् राग और द्वेष का छेदक साधु क्या करतें हैं? यह बात अब कहतें हैं कि- पुत्र-परिवार आदि के लिये आरंभ-समारंभ में प्रवृत्त तथा संनिधिसंनिचय करने में तत्पर गृहस्थो के यहां वस्त्र आदि की शुद्धि एवं अशुद्धि का विवेक करें अर्थात् शुद्ध वस्त्रादि ग्रहण करें, और अशुद्ध का त्याग करें... वे वस्त्रादि इस प्रकार हैं... वस्त्र पद से वस्त्रैषणा कही है, तथा पतद्ग्रह याने पात्र शब्द से पात्रैषणा कही है... तथा कंबल पद से उनके पात्र के उपकरण तथा ऊनी वस्त्र याने कंबल का ग्रहण सूचित है... और पादपुंछनक पद से रजोहरण (ओधो) का सूचन है, इन सूत्रों से ओघ उपधि और औपग्रहिक उपधि का सूचन है... इस प्रकार इन सूत्रों से वस्त्रैषणा और पात्रैषणा कही है... तथा अवग्रह के पांच प्रकार है... देवेन्द्र का अवग्रह... सौधर्मेंद्र का अवग्रह 2. राजा का अवग्रह... भरत चक्रवर्ती का अवग्रह 3. गृहपति-अवग्रह... घर-मकानका स्वामी-मालिक... शय्यातर-अवग्रह... जिस के यहां वसति की हो वह... साधर्मिक-अवग्रह... समान धर्मवाले साधुओं का अवग्रह... इस अवग्रह पद से अवग्रह-प्रतिमा का सूचन कीया है... तथा अवग्रह कल्पवाले साधुओं का यहां निर्देश है... तथा कटासन पद में कट पद से संथारे का ग्रहण करें और आसन पद से आसंदक याने कुर्शी, सिंहासन आदि... अथवा जहां बैठा जाय, रहा जाय वह आसनशय्या... अतः आसन पद से शय्या सूचित की है... यह सभी वस्त्र आदि और आहार आदि के निर्माण में स्वयमेव प्रवृत्त गृहस्थों के यहां साधु वस्त्र आदि की गवेषणा करे... अर्थात् सर्वामगंधं याने सभी प्रकार के दोषों को जानकर निरामगंध याने निर्दोष प्रकार से साधु प्रव्रजित बने = संयमानुष्ठान करें... अब कहतें हैं कि- अपने आप आरंभ में प्रवृत्त गृहस्थों के यहां गवेषणा करनेवाला साधु जितना मिले उतना ग्रहण करे कि- वस्त्रादि ग्रहण करने में कोई नियम है ? इस प्रश्न का उत्तर अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र में कहेंगे... V सूत्रसार : .. पूर्व सूत्र में जो अप्रतिज्ञा अर्थात् प्रतिज्ञा नहीं करने की बात कही गई है, उसका अभिप्राय प्रस्तुत सूत्र में स्पष्ट कर दिया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि- सूत्रकार ने पूर्व सूत्र