Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-2-5-3 (90) // 147 इस प्रकार अप्रतिज्ञ पद से यह सार प्राप्त हुआ कि- कोइ भी साधु कहिं पर भी कोइ प्रतिज्ञा न करें... तथा आगमसूत्र में विविध प्रकार के अभिग्रह कहे गये है... अतः आगे पीछे के सूत्रो में परस्पर व्याघात जैसा दिखता है अत: सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र में विरोध का निवारण करके समन्वयभाव का निर्देश करेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में संयम मार्ग में प्रवर्त्तमान अनगार को निर्दोष आहार की गवेषणा करने एवं संयम मार्ग की क्रियाओं के परिपालन करने का सामान्य रूप से उपदेश दिया गया है। साधु अपनी संयम साधना में आवश्यक उपकरण आदि को न स्वयं खरीदे, न अन्य व्यक्ति को खरीदने के लिए उपदेश दे और खरीदते हुए व्यक्ति का समर्थन या अनुमोदन भी न करे। पूर्व सूत्र में 'निरामगन्धो परिव्वए' पाठ में प्रयुक्त 'निराम और गन्ध' शब्द हनन एवं पचन आदि क्रिया से होने वाली हिंसा का त्रि-करण और त्रि-योग से त्याग करने का उपदेश दिया हे और प्रस्तुत सूत्र में क्रय-विक्रय के द्वारा होने वाले दोष का सर्वथा त्रि-करण और त्रि-योग से त्याग करने का निर्देश किया है। जैसे आधाकर्म आदि कार्य में हिंसा होती है। उसी प्रकार क्रय-विक्रय की क्रिया भी हिंसा आदि दोष का कारण है। क्योंकि- क्रय-विक्रय में पैसे की, धन की आवश्यकता रहती है और पैसे की प्राप्ति हिंसा आदि दोषों के विना संभवित हि नहीं है। अतः हिंसा आदि दोषों के सर्वथा त्यागी मुनि के लिए अधाकर्म एवं क्रय आदि दोषों से युक्त आहार वस्त्र, पात्र, मकान आदि ग्रहण करने योग्य नहीं हैं। साधु को पूर्णतया शुद्ध, एषणीय एवं निर्दोष आहार की गवेषणा करनी चाहिए / निर्दोष संयम का परिपालन करने वाला साधु काल-समय का, आत्मशक्ति का; आहार आदि के परिमाण का परिज्ञाता है। तथा अभ्यास के द्वारा पदार्थो का ज्ञाता, संसार पर्यटन एवं संसार-क्षेत्र को भी खेद कहते है। इसी दृष्टि से खेदज्ञ का अर्थ होगा-संसार परिभ्रमण के लिए किए जाने वाले श्रम (कर्म) को एवं क्षेत्र के स्वरूप को जानने वाला तथा प्रत्येक व्यक्ति के आंतरिक भावों का परिज्ञाता। और स्व मत एवं परमत का विशिष्ट ज्ञाता होना चाहिए। जो साधु स्व-परमत का ज्ञाता नहीं होगा, वह अन्य मतावलम्बी व्यक्तियों द्वारा या किसी भी व्यक्ति द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर भली-भांति नहीं दे सकेगा। 'अपडिन्ने' का अर्थ है- कषाय के वश होकर किसी भी प्रकार की प्रतिज्ञा न करने वाला। क्योकिं- कषायों के वेग एवं आवेश के समय अविवेक की स्थिति में की गई प्रतिज्ञा स्व और पर के लिए अहितकर भी हो सकती है। जैसे कि- स्कन्धाचार्य ने अपने शिष्यों