Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 2 - 4 - 2 (85) 129 %3 त्रिविधेन या अपि तस्य तत्र मात्रा भवति, अल्पा वा बह्वी वा, स तत्र गृद्धः तिष्ठति, भोजनाय, ततः तस्य एकदा विपरिशिष्टं सम्भूतं महोपकरणं भवति, तदपि तस्य एकदा दायादाः विभजन्ते, अदत्तहारः वा तस्य हरति, राजानः वा तस्य विलुम्पन्ति, नश्यति वा विनश्यति वा, अगारदाहेन वा तस्य दह्यते इति, सः परस्मै अर्थाय क्रूराणि कर्माणि बाल: प्रकुर्वाणः, तेन दुःखेन मूढः विपर्यासं उपैति // 85 // III . सूत्रार्थ : त्रिविध-त्रिविध से उसके पास जो कुछ थोडी या बहोत अर्थ = धनकी मात्रा है, उसमें वह आसक्त रहता है, और सोचता है कि- यह धन भोजन के लिये होगा... उसके बाद उसके पास जब कभी बचा हुआ बहोत सारा धन इकट्ठा होता है, तब उस धन को उसके पुत्र आदि स्वजन या भागीदार बांट लेते हैं, अथवा चौर चोरकर ले जाता है, अथवा राजा लुट लेता है, अथवा स्वयं हि वह धन नष्ट विनष्ट होता है... अथवा आगमें जल जाता है इत्यादि... वह अज्ञानी प्राणी अन्य स्वजनों के लिये क्रूर हिंसादि कर्म करता हुआ, और दुःखों से मूढ बना हुआ विपर्यास को पाता है... // 85 // IV टीका-अनुवाद : . इस सूत्र की व्याख्या सूत्रार्थ में कह चूके हैं अतः यहां विस्तार से नहि कही है... इस प्रकार “दुःखों के विपाक वाले भोगोपभोग है" अतः अब क्या करना चाहिये ? वह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... v सूत्रसार : मनुष्य धन के लिए दूसरों का संभवित अहित नहीं देखता। वह येन-केन-प्रकरेण धन बटोरने में लगा रहता है और दिन-रात धन का संचय करता रहता है। परन्तु वह धन कभी भी अवस्थित नहीं रहता। जैसे कि- कभी परिजन उसे बांट कर खा जाते हैं, तो कभी राजा विभिन्न प्रकार से कर-टेक्ष लगाकर या निर्माण योजना आदि के बहाने उससे धन ले लेता है। कभी चोर-डाकू उसे लूट ले जाते हैं, तो कभी व्यापार आदि में घाटा पड़ जाने से धन का नाश हो जाता है या कभी घर में आग लग गई तो सब-कुछ धन-संपत्ति जलकर भस्म हो जाती है। इस तरह अनेक प्रकार से धन का विनाश हो जाता है। परन्तु धन को पाने के लिये कीये हुए क्रूर कार्य से कर्मबन्ध हो जाता है, जिससे आत्मा संसार में परिभ्रमण करती है तथा पाप कार्य से प्राप्त धन अकस्मात् विनष्ट हो जाने से मन में अत्यधिक वेदना एवं संकल्प-विकल्प होता है और कभी-कभी मनुष्य विक्षिप्त भी हो जाता है और उस मूढ़ अवस्था में विपरीत आचरण करने लगता है।