Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 112 1 - 2 - 3 - 3 (80) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन संपुण्णं बाले जीविउकामे लालप्रमाणे मूढे विप्परियासमुवेइ // 8 // II संस्कृत-छाया : स: अबुध्यमानः हतोपहतः, जातिमरणं अनुपरिवर्तमानः जीवितं पृथक् प्रियं इह एकेषां मानवानां क्षेत्र-वास्तु-ममायमानानां आरक्तं विरक्तं मणिकुण्डलं सह हिरण्येन स्त्री: परिगृह्णाति, तत्रैव रक्ताः, न अत्र तपः वा, दम: वा, नियमः वा दृश्यते, सम्पूर्णम् बालः जीवितुकामः लालप्यमानः मूढः विपर्यासं उपैति // 80 // III सूत्रार्थ : कर्मविपाक को नहि जाननेवाला वह प्राणी हत-उपहत होता हुआ जन्म-मरण के चक्र में घुमता है... प्रत्येक प्राणी को जीवित प्रिय है... इस संसार में कितनेक मनुष्य क्षेत्र और मकानो में ममता करनेवाले होते हैं, तथा मणिकुंडल और हिरण्य के साथ स्त्रीयों का परिग्रह करता है... अतः उनमें हि रागी, ऐसे उन लोगों में न तप है, न दमन है, अथवा तो न कोइ नियम दिखता है... तथा यथावसर कामभोग को प्राप्त करनेवाले बाल = अज्ञानी, भोगसुख के लालचु, और मूढ ऐसे वे लोग विपर्यास को पातें हैं // 80 // IV टीका-अनुवाद : उच्चगोत्र के अभिमानी अथवा अंधपना बहेरापना आदि भावो के संवेदन करनेवाले कर्मविपाक को न जानते हुए हत और उपहत होतें हैं हत याने विविध प्रकार के व्याधि-रोगों के कारण से क्षत (घाव) शरीरवाला... और उपहत याने सभी लोगों से पराभव पाया हुआ... अथवा- उच्चगोत्र के गर्व के अभिमान से शिट पुरुषों के उचित विनय मर्यादा में न रहने के कारण से शिष्टजनो से अपयश का पात्र बनना वह “हत", और अभिमान के कारण से प्राप्त हुए नीचगोत्र कर्म के उदय से अनेक कोटि भवों पर्यंत संसार में घूमना वह "उपहत"... अतः हत और उपहत से मूढ प्राणी विपर्यास को पाता है... तथा जाति याने जन्म और मरण स्वरूप अरहट्ट-घटीयंत्र के न्याय से संसार. के उदर में रहा हुआ यह प्राणी आवीचीमरण के द्वारा प्रतिक्षण जन्म के विनाश स्वरूप मरण का अनुभव करता हुआ दुःख के सागर में डूबा हुआ, विनाश शील पदार्थों में नित्यता की मतिवाला, हित में भी अहित माननेवाला यह प्राणी विपर्यास को पाता है... और कहते हैं कि- इस संसार में अविद्या से विनष्ट चित्तवाले कितनेक मनुष्यों को आयुष्य के दल पूर्ण न होने स्वरूप जीवित अथवा असंयमवाला जीवित प्रिय है... वह इस प्रकार- दीर्घ जीवन के लिये जीवों के वध हो ऐसी रसायण आदि का आसेवन करतें है...