Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 2 - 3 - 4/5 (81-82) // 119 जैसे कि- ओघ के दो प्रकार है... द्रव्य ओघ और भाव ओघ... द्रव्य ओघ याने नदी. का पूर आदि और भाव ओघ याने आठ प्रकार के कर्म अथवा संसार... इन कर्मो से आत्मा-प्राणी अनंतकाल पर्यंत संसार में घुमता रहता है... इस ओघ याने संसार समुद्र को ज्ञान-दर्शन-चारित्र स्वरूप जहाज में रहे हुए साधुजन तैरतें है, और जो लोग कुतीर्थिक या पासत्था हैं वे ज्ञानादि यान = जहाज के अभाव में नहिं तैर शकतें... यद्यपि वे संसार समुद्र तैरने के लिये तत्पर तो है किंतु योग्य उपाय के अभाव में संसार को तैरने में समर्थ नहि होतें... यह बात कहते हुए सूत्रकार कहते हैं कि- असंयत-प्राणी संसार समुद्र को तैरने में समर्थ नहिं हैं तथा तीर = किनारे पे जो पहुंचता है वह तीरंगम... और जो ऐसे नहि हैं वे अतीरंगम हैं, तथा प्रत्यक्ष सामने रहे हुए कुतीर्थिक लोगों को दिखाते हुए गुरुजी शिष्य को कहते हैं कि- सर्वज्ञ परमात्मा के बताये हुए मोक्षमार्ग के अभाव से यह लोग अतीरंगम है, अतः किनारे को पाने के लिये समर्थ नहि हैं... तथा अपारंगमा याने पार = सामने वाला किनारा, उनको जो प्राप्त नहिं कर पातें वे अपारंगम हैं अथवा पारगत ऐसे परमात्मा के उपदेश के अभाव से वे अपारंगत है... और वे पार पाने के लिये तत्पर होते हुए भी पारगत के उपदेश = मार्गदर्शन के बिना पार पाने के लिये समर्थ नहि होते हैं... .. अथवा पार पाना वह पारगम... ऐसे पार पाने के लिये वे कुतीर्थिक लोग समर्थ नहि होतें अत: वे अज्ञ लोग अनंतकाल पर्यंत संसार के अंदर हि रहनेवाले होते हैं, यद्यपि वे पार पाने के लिये उद्यम तो करतें हैं तो भी सर्वज्ञ प्रभु के उपदेश का अभाव और अपनी इच्छा अनुसार बनाये गये शास्त्रों की प्रवृत्तिवाले कुतीर्थिक लोग संसार के पार पाने में समर्थ नहि होतें... अब प्रश्न यह होता है कि- तीर और पार में क्या विशेषता है ? उत्तर- तीर याने मोहनीय कर्म का क्षय और पार याने शेष घातिकर्मो का क्षय... अथवा तीर याने चार घातिकर्मो का विनाश और पार याने भवोपग्राही शेष चार अघातिकर्मो का क्षय... प्रश्न- कुतीर्थिक साधु-लोग ओघ याने संसार को क्यों नहिं तैरतें ? और तीरगामी तथा पारगामी क्यों नहिं होतें ? उत्तर- सभी वस्तु के स्वरूप भाव जिससे प्राप्त हो वह आदानीय याने श्रुतज्ञान... अर्थात् कुतीर्थिक लोग श्रुतज्ञान को प्राप्त करने के बाद भी कुमति के कारण से संयमस्थान में नहिं रहतें हैं... अथवा आदानीय याने भोगसुख के अंग द्विपद, चतुष्पद, धन धान्य हिरण्य आदि... इनको ग्रहण करके अथवा मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय और योग से आदानीय ऐसे कर्म को ग्रहण करके ज्ञानादि स्वरूप मोक्षमार्ग में अथवा प्रशस्त गुणस्थान के अच्छे उपदेश में नहिं रहते हैं अर्थात् मोक्षमार्ग के अच्छे उपदेश में आत्मा को नहि रखतें... वे मात्र सर्वज्ञ से कथित उपदेशस्थान में नहिं रहतें हैं इतना हि नहिं किंतु मोक्षमार्ग से विपरीत आचरण करतें हैं...