Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 120 7 1-2-3-4/5 (81-82), श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन जैसे कि- वितथ याने असद्भूत और दुर्गति के कारण ऐसे विपरीत उपदेश को प्राप्त करके अखेदज्ञ याने अकुशल... अथवा खेदज्ञ याने वेषधारी द्रव्य साधु मात्र वर्तमानकाल को देखते हुए विपरीत आचरण स्वरूप असंयमस्थान में रहते हैं... अर्थात् असंयमस्थान में हि मग्न रहता है... इसलिये कहते हैं कि- कुतीर्थिकलोग संसार को तैरकर पारगामी नहि होतें... अब जो वितथ याने आदानीय भोगांग से भिन्न ऐसे संयमस्थान को प्राप्त करके खेदज्ञ याने निपुण साधु आदानीय याने कर्मो के विनाश के कारण ऐसे संयमस्थान में रहते हैं... अर्थात् सर्वज्ञ प्रभु की आज्ञा में आत्मा को रखते हैं... यह उपदेश तत्त्व को नहि जाननेवाले किंतु तत्त्व की अभिरुची के साथ उपदेश अनुसार आचारवाले विनेय शिष्य को दीया गया है... और जो शिष्य हेय और उपादेय के स्वरूप को जानता है वह तो अवसर अनुरूप अपने कर्तव्य को स्वयमेव करता हि है... इत्यादि... यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में साधना के प्रशस्त मार्ग का तथा उसके प्रतिबन्धक कारणों का विवेचन किया गया है। इसके लिए सूत्रकार ने 'ध्रुव' शब्द का प्रयोग किया है। ध्रुव का अर्थ स्थायी होता है और मोक्ष में आत्मा सदैव अवस्थित रहती है। कर्म बन्धन से मुक्त होने के बाद आत्मा फिर से संसार में नहीं लौटती / इसलिए मोक्ष को ध्रुव कहा है। और इसके विपरीत संसार अध्रुव कहलाता है। और इसी कारण सांसारिक वैषयिक सुख भी अस्थिर, क्षणिक एवं अध्रुव कहलाते हैं। अत: मोक्षाभिलाषी साधक क्षणिक, विनश्वर और परिणाम में दुःख रूप विषय-भोगों की आकांक्षा नहीं रखते, इतना ही नहीं, अपितु वे तो प्राप्त भोगों का त्याग करके संयम-साधना के पथ पर गतिशील होते हैं। क्योंकि- वे जानते हैं कि- ऊपर से आकर्षक एवं सुहावने प्रतीत होने वाले विषय सुख, आत्मा को पतन के गर्त में गिराने वाले हैं। इस लिए साधुलोग विषयोपभोग के प्रलोभन में नहीं फंसते। प्रथम तो भौतिक सुख-साधन ही अस्थिर है। जो धन-वैभव आज दिखाई दे रहा है, वह कल या कभी भी नष्ट-विनष्ट हो सकता है। और परिक्षीण होने की परिस्थिति में उसकी समाप्ति के अनेक कारण उपस्थित हो जाते हैं। जैसे कि- कभी परिवार में विभक्त हो जाने के कारण ऐश्वर्य की शक्ति कम हो जाती है या चोर लट ले जाते हैं। नदी आदि के प्रवाह में बह जाता है, आग में जल जाता है या व्यापार में हानि हो जाती है। इस प्रकार संपत्ति के स्थिर रहने का कोई निश्चय नहीं है। और दूसरा यह जीवन भी अस्थिर है। कोई नहीं जानता कि- काल (मृत्यु) किस समय आकर सारे बने-बनाए खेल को ही बिगाड़ दे। समस्त वैभव एवं परिवार यहीं पड़ा रहता है और व्यक्ति मरण पाकर अगले जन्म की और चल पड़ता