Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 114 // 1-2 -3 - 4/5 (81/82) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'हओवहए भवई' शब्द का यह अर्थ है कि- विषयासक्त प्राणी विभिन्न शारीरिक एवं मानसिक रोगों से, दुःखों से हत-पीड़ित होते हैं और दूसरे व्यक्तियों के द्वारा तिरस्कृत एवं अपमानित होने से उपहत-विशेष पीड़ित होते हैं। या उच्च गोत्र के अभिमान से हत होते हैं और नीच गोत्र में तिरस्कार का संवेदन करते हुए उपहत होते हैं। इस प्रकार सभी प्रमादी प्राणी विषयों में आसक्त होकर जन्म-मरण के प्रवाह में प्रवहमान होते रहते हैं। विषयों में अत्यधिक ममता-मूर्छा के कारण विचारों में विपरीतता आ जाती है। इसीलिए कहा गया है कि- वह 'विप्परियासमुवेई' अर्थात् विपरीतता को प्राप्त होता है। तत्त्व में अतत्त्व और अतत्त्व में तत्त्व बुद्धि रखने का नाम विपर्यास है। यही विपरीत-विचारणा आत्मा को संसार में परिभ्रमण कराती है। सांसारिक भोगों की पूर्ति धन एवं स्त्री की प्राप्ति होने पर होती है। धन की प्राप्ति हो परन्तु स्त्री का अभाव हो तो वैषयिक भोगोपभोग की पूर्ति नहीं हो सकती अथवा वैषयिक भोगोपभोग के लिये स्त्री का संयोग प्राप्त हो परन्तु धन का अभाव हो तब भी भोगोपभोग की पूर्णता नहीं हो शकती, क्योंकि- भोगेच्छा की पूर्ति के साधनों को जुटाने के लिए धन की अपेक्षा रहती है। अतः विषय-वासना की पूर्ति के लिए दोनों साधन अपेक्षित है। सूत्रकार ने यही बात 'सह हिरण्णेण इत्थियाओ परिगिज्झति' शब्द से अभिव्यक्त की है। और साथ में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि- विषयासक्त प्राणी भोगों के लिए विभिन्न प्रकार के प्रलाप करते रहते हैं। अर्थात् वैषयिक भोग भोगते हुए भी उन्हें तृप्ति नहीं होती, वे सदा अतृप्त हि रहते हैं... अत: साधक को विषय-वासना का परित्याग करके आत्म विकास की और बढ़ना चाहिए। अब आत्म साधना के पथ पर बढ़ने वाले साधकों के विषय में जो कहना है, वह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगेI सूत्र // 4/5 // // 81-82 // 1-2-3-4/5 इणमेव नावकंखंति, जे जणा धुवचारिणो / जाइमरणं परिण्णाय, चरे संकमणे दढे // 81 // नत्थि कालस्स नागमो, सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया, दुक्खपडिकूला, अप्पियवहा पियजीविणो जीविउकामा, सव्वेसिं जीवियं पियं, तं परिगिज्झ दुपयं चउप्पयं, अभिजुंजिया णं संसिंचिया णं, तिविहेण जा वि से तत्थ मत्ता प्रवइ, अप्पा वा बहुया वा, ते तत्थ गड्डिए चिट्ठइ, भोयणाए, तओ से एगया तिविहं परिसिटुं संभूयं