Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
View full book text
________________ 86 1 -2-2-1 (73) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इसी कारण प्रथम उद्देशक में मोह एवं आसक्ति के परित्याग की बात कही गई है। इससे साधक के मन में साहस एवं उत्साह का संचार होता है। परन्तु कभी कभी कुछ ऐसी परिस्थितियां सामने आती हैं कि- साधक का मन लड़खड़ाने लगता है। उसकी अस्थिरता को दूर करके संयम साधना में दृढता लाने के लिए प्रस्तुत उद्देशक में सूत्रकार संयम मार्ग में आने वाली अरुचियों का वर्णन करके यह स्पष्ट कर रहे हैं कि- साधक को उन पर कैसे विजय पाना चाहिए। एक विचारक ने सत्य ही कहा है कि “साधना का मार्ग फूलों का मार्ग नहीं, किंतु कंटीली पगडंडी है।" अत: उस पर गतिशील साधक को पूरी सावधानी रखने का आदेश दिया गया है, प्रतिक्षण विवेकपूर्वक गति करने को कहा गया है। इतने पर भी परीषहों का कोई न कोई कांटा चुभ ही जाता है। उस समय निर्बल साधक के मन में असाता वेदना की अनुभूति का होना भी संभवित है। इसलिए सूत्रकार ने साधक को सावधान करते हुए प्रस्तुत सूत्र में यह बताया है कि- ऐसे विकट समय में भी अपने मार्ग पर गतिशील रहने वाला व्यक्ति ही बुद्धिमान है और वह हि साधक कर्म बन्धन की शृंखला को तोड़कर मुक्त हो सकता है। अतः साधक को थोड़े से परीषह से घबराकर अपने प्रशस्त मार्ग से विचलित नहीं होना चाहिए और अपनी श्रद्धा एवं ज्ञान की ज्योति को धूमिल नहीं पड़ने देना चाहिए। साधना के पथ से विचलित होने का अर्थ है-पतन के गर्त में गिरना। अतः थोडे से परीषह से परास्त होने वाला व्यक्ति कंडरीक की तरह अपने जीवन को बर्बाद कर देता है, अनुपम क्षमादि आत्म-सुखों को खो देता है और इसके विपरीत उसके भ्राता पुंडरीक का अनुकरण करने वाला व्यक्ति निर्बाध गति से मुक्ति की और कदम बढ़ाता है। साधना पथ पर गतिशील साधक के लिए ये दोनों उदाहरण सर्चलाईट की तरह उपयोगी हैं। कंडरीक और पुंडरीक दोनों सगे भाई थे। एक दिन मुनि के सदुपदेश से राज्य का त्याग करके वह कंडरीक साधु बन गया और निरन्तर एक हज़ार वर्ष तक साधना करता रहा। परन्तु जीवन के अन्तिम दिनों में वह परीषहों एवं वासना से परास्त हो गया। अपने भ्राता पुण्डरीक राज्य समृद्धि को देखकर उसका मन भी उस और लुढ़क गया। वह अपने को संभाल नहीं सका। अत: उसने अपनी अभिलाषा पुण्डरीक के सामने व्यक्त कर दी। पुण्डरीक को भाई के विचार सुनकर अति चिंता हुई और उसने धर्म एवं शासन की प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए अपने भ्राता कंडरीक को अपना राज्य सौंप कर, उसके स्थान में उन्होंने स्वयं दीक्षा ग्रहण कर ली और तप साधना में संलग्न हो गये। यहां राज्य समृद्धि पाकर कंडरीक, प्रकाम भोजन एवं भोगों में आसक्त हो गया और पुंडरीक मुनि संयम जीवन को पाकर तप करने लगा तथा रूखा-सूखा जैसा भी आहार मिल