Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 100 १-२-3-१(७८)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 2 उद्देशक - 3 ॐ मदत्यागः // द्वितीय उद्देशक पूर्ण हुआ... अब तृतीय उद्देशक का आरंभ करतें हैं... और इसका परस्पर यह संबंध है कि- यहां द्वितीय उद्देशक में कहा गया है, कि- संयम में दृढता करें और असंयम में शिथिलता करें... किंतु यह दोनों कार्य कषायों के परिहार से हि हो शकता है... और चार कषाय में भी मान कषाय उत्पत्ति से लेकर हि उच्चगोत्र का अभिमान करता है... अत: उच्चगोत्र का अभिमान दूर करने के लिये यहां इस तृतीय उद्देशक में कहा जाएगा... पूर्व के सूत्र में कहा था कि- कुशल मुनी उच्चगोत्र के अभिमान में मदोन्मत्तता न हो ऐसी सावधानी के साथ हि संयमानुष्ठान करें... यह बात अब तृतीय उद्देशक के प्रथम सूत्र में कहतें हैं... I सूत्र // 1 // // 78 // 1-2-3-1 से असई उच्चागोए असई नीआगोए, नो हीणे, नो अइरित्ते, नोऽपि ईहए, इय संखाय को गोयावाई ? को माणावाई ? कंसि वा एगे गिज्झा, तम्हा नो हरिसे, नो कुप्पे, भूएहिं जाण पडिलेह सायं // 78 // // संस्कृत-छाया : सः असकृत् उच्चैर्गोत्रे, असकृद् नीचैौत्रे न हीने, न अतिरिक्ते, न अपि ईहेत, इति परिसङ्ख्याय कः गोत्रवादी ? कः मानवादी ? कस्मिन् वा एकः गृध्येत ? तस्मात् न हृष्येत्, न कुप्येत्, भूतेषु जानीहि प्रतिलिख्य (प्रत्युपेक्ष्य) सातम् // 78 // II सूत्रार्थ : वह (यह) जीव कर्मानुसार बार बार उच्चगोत्र में, बार बार नीचगोत्र में उत्पन्न होता है, अतः हीन और अतिरिक्त भाव न रखें, और न चाहें... यह बात जानकर कौन गोत्रवादी हो ? कौन मानवादी हो ? कौनसे स्थान में कौन आसक्ति करे ? इसलिये न हर्षित हो और न तो कोप करें... तथा विचारकर जानो कि- जीवों में साता की चाहना है... // 78 //