Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 421 - 2 -1 - 1(3) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 2 उद्देशक - 1 ___ स्वजनपरिज्ञा I सूत्र // 1 // // 63 // 1-2-1-1 जे गुणे से मूलट्ठाणे, जे मूलट्ठाणे से गुणे। इति से गुणट्ठी महया परियावेणं पुणो पुणो वसे पमत्ते - माया मे, पिया मे, धुया मे, ण्हुसा मे, सहि - सयण - संगंथ संथुआ मे, विवित्तुवगरण - परिवट्टण - भोयणच्छायणं मे, इच्चत्थं गड्डिए लोए अहो य राओ य परितप्पमाणे कालाकाल समुट्ठाई संजोगट्ठी अट्ठालोभी आलंपे सहसाकारे विणिविट्ठचि त्ते (चिट्ठे), एत्थ सत्थे पुणो पुणो, अप्पं च खलु चाउयं इहमेगेसिं माणवाणं तं जहा // II संस्कृत-छाया : __यः गुणः सः मूलस्थानम्, यः मूलस्थानं सः गुणः। इति सः गुणार्थी महता परितापेन पुनः पुनः वसेत् प्रमत्तः, माता मम, पिता मम, दुहिता मम, स्नुषा मम, सखिस्वजनसङ्ग्रन्थ-संस्तुता: मम, विविक्त-उपकरण-परिवर्तन-भोजन-आच्छादनं मम, इत्यर्थं गृद्धः लोकः अहः च रात्रिं च परितप्यमान: कालाकाल-समुत्थायी संयोगार्थी अर्थालोभी आलुम्पः सहसाकारः विनिविष्टचित्तः (चेष्टः), एतस्मिन् शस्त्रं पुनः पुनः, अल्पं च खलु आयुष्कं, इह एकेषां मानवानां, तद्-यथा // 63 // III सूत्रार्थ : - जो गुण है वह मूलस्थान है, और जो मूलस्थान है वह गुण है... इस प्रकार वह गुणार्थी प्रमत्तः साधु बहोत परिताप से बार बार संसार में निवास करता है... मेरी मां, मेरे पिताजी, मेरी पुत्री, मेरी पुत्रवधू, मेरे मित्र, स्वजन, परिचितलोग हैं... अच्छे उपकरण, परिवर्तन, भोजन, अच्छादन (वस्त्र) आदि मेरे है... इत्यादि में आसक्त लोक दिन और रात परिताप पाता हुआ, काल और अकाल में उठनेवाला संयोगार्थी अर्थलोभी आलुंपक, सहसाकारी विनष्ट चित्तवाला... इन मात-पितादि के लिये पृथ्वीकायादि के शस्त्रारंभ में प्रवृत्त होता है... किंतु यहां कितनेक मनुष्यों का आयुष्य अल्प होता है... वह इस प्रकार... IV टीका-अनुवाद : यहां पूर्व के सूत्रों के साथ इस सूत्र का परस्पर यह संबंध है कि- जिस मुनि ने यह