Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 2 - 1 - 6 (68) 71 I सूत्र // 6 // // 68 // 1-2-1-6 उपाइय-सेसेण वा संनिहि-संनिचओ किज्जइ, इहमेगेसिं असंजयाण भोयणाए, तओ से एगया नियगा तं पुव्विं परिहरंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिहरिज्जा, नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमं पि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा // 68 // II संस्कृत-छाया : उपादित-शेषेण वा सन्निधि-सन्निचयः क्रियते, इह एकेषां असंयतानां भोजनाय, ततः तस्य एकदा रोगसमुत्पादाः समुत्पद्यन्ते, यैः वा सार्दू संवसति, ते वा एकदा निजकाः तं पूर्व परिहरन्ति, सः वा तान् निजकान् पश्चात् परिहरेत्, न अलं ते तव त्राणाय वा शरणाय वा, त्वं अपि तेषां न अलं त्राणाय वा शरणाय वा // 68 // III सूत्रार्थ : इस संसार में कितनेक असंयत लोग भोजन के लिये प्राप्त-उपभोग-शेष धन का संनिधि-संचय करता है... उसके बाद उसे ज्वर आदि रोग उत्पन्न होते हैं, तब जिन्हों के साथ रहता है, वे आत्मीय लोग एकदा पहले से हि उसको छोड़ देते हैं, और वह भी उनको बाद में छोड़ देता है, वे लोग तुम्हारे त्राण एवं शरण के लिये समर्थ नहि है, और तुम भी उनके त्राण एवं रक्षण के लिये समर्थ नहि हो... // 68 // IV टीका-अनुवाद : . उप + अद् + त = उपादित याने उपभोग के बाद शेष बचे हुए धन एवं उपभोग न करनेवाले कृपण मनुष्य सभी धन-समृद्धि का संनिधि-संचय करता है... संनिधि याने उपभोग के लिये जो धन इकट्ठा कीया जाय... और संनिचय याने उसकी प्रचुरता... इस संसार में कितनेक असंयत अथवा संयत के आभासवाले साधु लोग अपने भोजन-उपभोग के लिये धन इक्कट्ठा करतें हैं... किंतु जिस शब्दादि विषय भोग के लिये धन इक्कट्ठा कीया था, वह विषय भोग भी अंतराय कर्म के उदय से उन्हें नहि मीलता है... यह बात अब सूत्र के हि पदों से कहतें है- धन के निधि की प्रचुरता प्राप्त करने के बाद जब उस प्राणी को भोगोपभोग की इच्छा होती है तब द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव के कारणों से उदय में आये हुए असाता वेदनीय कर्म से ज्वर आदि रोग शरीर में उत्पन्न होते हैं, तब वह प्राणी ज्वर, कुष्ठ, राजयक्ष्म (क्षयरोग T.B.) आदि रोगों से पराभव पाता हुआ, कोढरोग से चीबडे नाकवाले, गल रहे हाथ-पैरवाले और क्षयरोग से निरंतर श्वासोच्छ्वास की पीडावाले होता है, ऐसे उसको रोगी अवस्था में मात-पितादि स्वजन लोग पहेले से हि छोड देते हैं और परिजनों के पराभव से विवेक हीन ऐसा वह मनुष्य भी अपने उन स्वजनों को बाद में छोड़ देता है, स्वजनों के प्रति निरपेक्ष