Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-2 -1 - 2 (64) 55 उत्तर- एक इंद्रिय से यह संभव नहि है, क्योंकि- केवलज्ञानी को भी एक साथ दो उपयोग . नहिं होतें... तो भी निकट = समीप भाग में दिखनेवाले होनेवाले पांच उपयोग भले हो... होने दो... यह बात हमने अन्य ग्रंथो में विस्तार से कही है, इसीलिये यहां नहिं कहतें... और जो एक साथ हि अनुभव का आभास होता है, वह मन की शीघ्र वृत्ति होने से हि होता है... कहा भी है कि- आत्मा मन के साथ होता है, और मन इंद्रियों के साथ, और इंद्रियां अपने अपने विषय के साथ... यह क्रम अतिशीघ्रता से होता है... यह मन का योग अगम्य है, अर्थात् जहां मन है वहां यह आत्मा भी है... इस विश्व में इंद्रियों की लब्धिवाला यह आत्मा ग्रहण कीये जा रहे जन्म के स्थान में एक समय में हि आहार पर्याप्ति को पूर्ण करता है, उसके बाद अंतर्मुहूर्त में शरीर पर्याप्ति और उसके बाद इंद्रिय पर्याप्ति भी अंतर्मुहर्त प्रमाण काल में पूर्ण करता है... और वे स्पर्शन, रसन. घ्राण, चक्षु. और श्रोत्र इंद्रियां पांच है, और वे भी द्रव्य एवं भाव के भेद से एक एक के दो दो भेद है, और उन में भी द्रव्येंद्रिय के भी निर्वृत्ति और उपकरण के भेद से दो प्रकार है, तथा निर्वृत्ति द्रव्य इंद्रिय भी अभ्यंतर और बाह्य भेद से दो प्रकार की है... उत्सेधांगुल के असंख्येय भाग संख्या प्रमाण शुद्ध आत्म प्रदेशों का नियत स्थान में चक्षु आदि इंद्रिय संस्थान से रही हुइ जो वृत्ति यह अभ्यंतर निर्वृत्ति है... उन आत्मप्रदेशों में इंद्रिय संज्ञा को प्राप्त जो नियत आकार है वह पुद्गलविपाकी वार्द्धकि के समान निर्माण नामकर्म ने बनाया है, और अंगोपांग नामकर्म ने कर्णशष्कुलि आदि बनाया है, वह बाह्यनिर्वृत्ति है... .. इन दोनो प्रकार की निर्वृत्ति के उपर जो उपकार करता है वह उपकरण, और वह इंद्रिय के कार्य करने में समर्थ है... मसूर की आकृति के समान निर्वृत्ति विनष्ट न हो तो भी उपकरण के उपघात से जीव देख नहिं शकता... यह उपकरण भी निर्वृत्ति की तरह बाह्य एवं अभ्यंतर भेद से दो प्रकार के हैं उनमें अभ्यंतर उपकरण आंख के अंदर के काले एवं सफेद मंडल है, तथा बाह्य उपकरण आंख के उपर के पांपण, बरौनी इत्यादि... इसी प्रकार अन्य इंद्रियों में भी जानीयेगा... भाव इंद्रिय भी लब्धि एवं उपयोग के भेद से दो प्रकार की है... उनमें ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम स्वरूप लब्धि है, इस लब्धि के होने में हि आत्मा द्रव्येंद्रिय की निवृत्ति का उपयोग करता है... इस निर्वृत्ति के द्वारा आत्मा मन के सहयोग से अर्थ याने वस्तु के बोध के लिये जो क्रिया करता है वह उपयोग है... सारांश यह रहा कि- लब्धि होने पर हि निर्वृत्ति, उपकरण और उपयोग सफल है, और निर्वृत्ति होने पर हि उपकरण और उपयोग तथा उपकरण होने पर हि उपयोग हो शकता है...