Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 58 1 - 2 - 1 - 2 (64) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने वृद्धावस्था के इसी चित्र को उपस्थित किया है। इस अवस्था में शारीरिक सामर्थ्य शक्ति एवं इन्द्रिय बल इतना क्षीण हो जाता है कि- व्यक्ति अपने एवं परिजनों के लिए बोझ रूप बन जाता है। और प्रायः इस अवस्था को प्राप्त व्यक्ति मूढ़भाव को प्राप्त हो जाते हैं अथवा इसके प्रहारों से अत्यधिक प्रताड़ित होने के कारण उस में कर्तव्यअकर्तव्य का भी विवेक नहीं रहता / यहां एक प्रश्न हो सकता है कि- आत्मा ज्ञान स्वरूप है, फिर उसमें वृद्धावस्था के आने पर श्रोत्र आदि इन्द्रियों का ज्ञान मन्द क्यों हो जाता है ? क्या ज्ञान अवस्था के अधीन रहता है ? यदि ऐसा नहीं है, तो ज्ञान की बोधकता शिथिल क्यों हो जाती है ? उक्त प्रश्न का समाधान यह है कि- आत्मा ज्ञान स्वरूप है, आत्मा के ज्ञान का अवस्था के साथ नहीं, कर्म के साथ संबन्ध है। हम देखते हैं कि- कुछ बालकों में ज्ञान का इतना विकास होता है कि- युवक एवं प्रौढ़ व्यक्ति भी उनकी समानता नहीं कर सकते हैं। कुछ वृद्धों में जीवन के अंतिम क्षण तक ज्ञान की ज्योति जगमगती रहती है तथा कुछ युवक एवं प्रौढ़ व्यक्तियों में ज्ञान का विकास बहुत ही स्वल्प दिखाई देता है। इससे स्पष्ट है कि- ज्ञान का विकास अवस्था के अधीन नहीं, किंतु ज्ञानावरणीय आदि घातिकर्म के क्षयोपशम पर आधारित है। चाहे बाल्यकाल हो, युवाकाल हो या वृद्वावस्था का अन्तिम चरण हो, जितना ज्ञानवरणीय कर्म का अधिक या कम क्षयोपशम होगा, उसी के अनुरूप आत्मा में ज्ञान का आविर्भाव होगा। अर्थात् ज्ञान की स्वल्पता या विशेषता में जो विचित्रता देखी जाती है, वह ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम की न्यूनता एवं अधिकता के आधार पर ही स्थित है। दूसरा प्रश्न इन्द्रियों से संबद्ध है। इसमें इतना अवश्य समझ लेना चाहिए कि- ज्ञान आत्मा का गुण है, इन्द्रियों का नहीं। वह सदा आत्मा के साथ रहता है।' इन्द्रियों के अभाव में भी ज्ञान का अस्तित्व बना रहता है। अत: ज्ञान का इन्द्रियों के साथ सीधा संबन्ध नहीं है। फिर भी आत्मा को इन्द्रियों के द्वारा पदार्थ ज्ञान होता है, इसका कारण यह है कि- यह इन्द्रियां छद्मस्थ अवस्था में ज्ञान के साधन हैं, निमित्त हैं। क्योंकि- छद्मस्थ अवस्था में आत्मा पर ज्ञानावरणीय कर्म का इतना आवरण छाया रहता है कि- वह बिना किसी साधन के किसी पदार्थ का बोध नहीं कर सकती। वह मति और श्रुतज्ञान के द्वारा ही पदार्थों का ज्ञान करती है और उक्त दोनों ज्ञान इन्द्रिय और मन की अपेक्षा रखते हैं। इसी कारण इन्हें आगम में परोक्ष ज्ञान कहा गया है। क्योंकि- यह मति एवं श्रुतज्ञान इन्द्रियों के आधार पर आधारित हैं। अत: छद्मस्थ अवस्था में जितना ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के साथ साथ इंद्रियों का जितना सहयोग मिलता है, उतना ही आत्मा के ज्ञान का विकास होता है।