Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 52 // 1-2-1-1(3) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन परन्तु इन्द्रियों एवं उनके विभिन्नता के कारण काम-भोग भी अपना-अपना भिन्न एवं स्वतंत्र अर्थ रखते हैं / कुछ ऐसे विषय हैं जिनके आकर्षण से इन्द्रियों में स्पन्दन होता है, और आत्मा उनके द्वारा हर्ष एवं शोक का संवेदन भी करती है; इस प्रकार उक्त विषय से काम-वासना प्रगट होती है परन्तु वे इन्द्रिये उन विषय के साथ सीधा उपभोग नहीं करती। और कुछ इन्द्रियें अपने विषयों के साथ सीधा भोगोपभोग करके ही वासना में प्रवृत्त होती है। इसी विभिन्नता की अपेक्षा से आगम में श्रोत्र ओर चक्षु इन्द्रिय को कामी और शेष इन्द्रियों को भोगी कहा है। चक्षु एवं श्रोत्र इन्द्रिय अपने विषय को ग्रहण करने में इतनी पटु हैं कि- उसका स्पर्श किए बिना ही आत्मा को उसकी अनुभूति करा देती हैं, परन्तु शेष स्पर्शन रसन एवं नासिका यह तीनों इन्द्रियें अपने-अपने विषयों का अपने साथ सीधा संबन्ध होने पर ही अथवा यों कहिए उनका भोग-उपभोग करके ही उन्हें ग्रहण करती हैं। इस अपेक्षा से कामभोग भिन्न अर्थ बोधक दो विषय भी हैं। ___ कुछ भी हो, इतना तो स्पष्ट है कि- काम-भोग में होने वाली प्रवृत्ति राग-द्वेष जन्य होती है। इस कारण से विषय-वासना में आसक्ति बढ़ती है और उससे संसार संबन्ध प्रगाढ़ होता है और आत्मा की गति शेब्दादि-विषयाभिमुख हो जाती है अतः वह मनुष्य शब्दादिविषयों के भोगोपभोगों में इतना आसक्त बन जाता है कि- अपने एवं प्राणीजगत के हिताहित को भूल कर दुष्कर्म में प्रवृत्त होते ज़रा भी संकोच नहि करता। यहां इतिहास साक्षी है और हम स्वयं भी देखते हैं कि- व्यक्ति जब मोहमूढ होता है, तब कितना अनर्थ कर बैठता हैं। आज विश्व में व्याप्त हिंसा चोरी एवं लूंट आदि की घटनाएं तथा छल-कपट, धोखा और विश्वास घात इत्यादि विकृत मनोवृत्ति के ही परिणाम है। इसी बात को सूत्रकार ने “अट्ठालोभी आलुपे, सहसाकारे विणिविट्ठ चित्ते...." पदों से स्पष्ट कर दिया है... कामभोगों में निमग्न वह व्यक्ति सदा अपने परिवार में आसक्त रहता है और अपने व्यक्तिगत एवं परिवारगत वैषयिक भोगोपभोगों को पाने के लिए विभिन्न पाप कार्यों में प्रवृत्त होता है। वह कहता है कि- यह मेरी माता है, यह मेरा पिता है तथा यह मेरा भाई, बहन, पत्नी, पुत्र, पुत्री, पुत्रवधू या स्वजन-स्नेही है। इस प्रकार मनुष्य परिजनों में आसक्त होकर धन की प्राप्ति के लिये पापों में प्रवृत्त होता है, और उस पापों के परिणाम स्वरूप भविष्य में यदि मनुष्य जन्म पाता है, तब भी अल्प आयु में ही मर जाता है। यदि दीर्घ आयु भी प्राप्त कर ले, तो भी उस का जीवन दुःख-कष्ट से भरा-भरा होता है... उसका जीवन अन्य के लिए एवं स्वयं के लिए दुःखद हो जाता है। वह रात-दिन संकटों के झूले में झूलता रहता है।