Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१-२-०-०॥ तरह जानीयेगा... यद्यपि यहां कोशातकी और इक्षुरस आदि में जल के प्रक्षेप से या उबालने से अनंत-अनंत भेद होते हैं... तो भी संक्षेप से चार प्रकार कहे गये हैं... इन कर्मप्रकृतिओं में चार आयुष्य कर्म भवविपाकी है, चार आनुपूर्वी क्षेत्रविपाकी है, शरीर, संस्थान, अंगोपांग, संघातन, संहनन, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उद्योत, आतप, निर्माण, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ एवं अशुभ स्वरूप कर्म प्रकृतियां पुद्गलविपाकी है, तथा शेष ज्ञानावरणीयादि कर्म प्रकृतियां जीव विपाकी है... इस प्रकार यहां अनुभाव = रसबंध पूर्ण हुआ... __ अब प्रदेशबंध का स्वरूप कहतें हैं... और वे एकविध आदि अपेक्षावाला है... उनमें जब एकविध कर्मबंध होता है तब योग के कारण से एक समय स्थितिवाले कर्मपुद्गल सातावेदनीय स्वरूप से परिणाम पाते हैं... तथा षड्विधबंधक को आयुष्य एवं मोहनीय को छोडकर शेष छह (6) कर्मबंध होते हैं... और सप्तविधबंधक को आयुष्य के बिना सात प्रकार के कर्मो का बंध होता है, और अष्टविधबंधक को आठों कर्मो का बंध होता है... उनमें प्रथम समय में ग्रहण कीये हुए कर्म पुद्गलों के समुदान से द्वितीयादि समयों में बहु एवं बहुतर प्रदेश रूप से ग्रहण होता है... और उस क्रम से व्यवस्था-विभाग करतें हैं कि- उनमें आयुष्य में थोडे पुद्गल, उससे विशेषाधिक पुद्गल नामकर्म एवं गोत्रकर्म में, किंतु परस्पर तुल्य... और उससे भी विशेषाधिक कर्म पुद्गल ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, और अंतरायकर्म में, किंतु यहां भी परस्पर तुल्य... और उनसे भी विशेषाधिक मोहनीय कर्म में... प्रश्न- यहां पंचमी विभक्ति का प्रयोग क्यों कीया है ? षष्ठी या सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होना चाहिये था... उत्तर- जहां विभाग बताना हो वहां षष्ठी अथवा सप्तमी विभक्ति होती है, किंतु जहां अवधि बताना हो वहां पंचमी विभक्ति का हि प्रयोग उचित है... अब आगे कहतें हैं कि- मोहनीयकर्म से विशेषाधिक अर्थात् सर्वाधिक कर्म पुद्गल वेदनीय कर्म में होते हैं... इस प्रकार यहां प्रदेशबंध का स्वरूप पूर्ण हुआ और साथ साथ समुदानकर्म का स्वरूप भी पूर्ण हुआ... अब ईर्यापथिक कर्म कहते हैं, ईर्या याने गति, पंथा याने मार्ग = ईर्यापथ याने गति का मार्ग... उसमें जो कर्म हो उसे ईर्यापथिक कर्म कहतें हैं... जिस कारण से ईर्या होती वह ईर्या... इस व्युत्पत्ति के कारण से खडे रहे हुए जीव को भी ईर्यापथिक कर्म होता है... उपशांतमोह, क्षीणमोह, और सयोगिकेवलीओं को यह ईर्यापथिक कर्म होता है... सयोगिकेवली परमात्मा स्थिर रहे हुए हो तो भी गात्र = शरीर में सूक्ष्म संचार होता है...