Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 381 - 2 -0-0% श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन गंध, रस, स्पर्श, तिर्यंच एवं मनुष्य आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, श्वासोच्छ्वास, आतप, उद्योत, शुभ एवं अशुभ विहायोगति, यश:कीर्ति के बिना त्रस दशक याने त्रसादि नव प्रकृतियां, स्थावर दशक, निर्माण, नीचगोत्र, देवगति एवं आनुपूर्वी, नरकगति एवं आनुपूर्वी, वैक्रिय शरीर एवं अंगोपांग स्वरूप अडसठ (68) उत्तर प्रकृतियों की जघन्य स्थितिबंध पल्योपम के असंख्येय भाग न्यून 2/7 सागरोपम तथा अबाधाकाल अंतर्मुहूर्त है... आहारक शरीर एवं अंगोपांग तथा तीर्थंकर नामकर्म की जघन्य स्थितिबंध अंत:कोडाकोडी सागरोपम है, और अबाधाकाल अंतर्मुहूर्त है... वैक्रिय षट्क याने नरकत्रिक देवत्रिक तथा वैक्रिय द्विक इन आठ कर्मो की जघन्य स्थिति भी पल्योपम के असंख्येयभाग न्यून 2/7 सागरोपम है तथा अबाधाकाल अंतर्मुहूर्त है... यहां प्रश्न यह होता है कि- इन तीनों कर्मों की उत्कृष्ट स्थितिबंध भी अंत:कोडाकोडी सागरोपम कही है, तो अब इन उत्कृष्ट एवं जघन्य में क्या अंतर है ? उत्तर- उत्कृष्ट अंत: कोडाकोडी से जघन्य अंत: कोडाकोडी संख्येयगुण हीन है... अब यश:कीर्ति एवं उच्चगोत्र की जघन्य स्थितिबंध आठ मुहूर्त हैं और अबाधाकाल अंतर्मुहूर्त्तकाल है... देव तथा नरक के आयुष्य की जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष है और अबाधाकाल अंतर्मुहूर्त है... तिर्यंच एवं मनुष्य के आयुष्य.की जघन्य स्थिति क्षुल्लक भव (256 आवलिका) है, और अबाधाकाल अंतर्मुहूर्त है... पांच बंधन एवं पांच संघातन तो औदारिकादि पांच शरीर के सहचारी है अत: उनकी जघन्य एवं उत्कृष्ट स्थिति बंध औदारिकादि शरीर के समान हि जानीयेगा... यहां यह स्थितिबंध का स्वरूप पूर्ण हुआ... . . अब अनुभाव = रसबंध कहते हैं... वह इस प्रकार है... शुभ एवं अशुभ योग से ग्रहण कीये हुए, प्रकृति स्थिति एवं प्रदेश स्वरूप शुभ एवं अशुभ कर्म प्रकृतियों का तीव्र या मंद अनुभाव = रस से जो अनुभव करना उसे अनुभाव = रसबंध कहतें हैं... और वह रसबंध एकस्थानीय दो स्थानीय तीन स्थानीय और चार स्थानीय भेद से है... उनमें अशुभ कर्म प्रकृतिओं का कोशातकी = पटोल नाम की वेल-लता वनस्पति अथवा अघाडो नाम की वनस्पति के रस समान जो रस वह एकस्थानीय रस है.. उकालने के बाद आधा रहे तब वह दो स्थानीय रस है... और 1/3 (तीसरा भाग) रहे तब तीन स्थानीय रस है... तथा चौथा भाग (1/4) रहे तब वह चार स्थानीय रस कहलाता है... इस प्रकार क्रम से तीव्र तीव्रतर एवं तीव्रतम रस जानीयेगा... और मंद अनुभाव = रस इस प्रकार है- कोशातकी के रस में एकगुण, द्विगुण और चार गुण जल मीलाने से होनेवाले स्वाद के समान जानीयेगा... तथा शुभ कर्म प्रकृतियों का रस क्षीर याने दुध अथवा इक्षु = शेलडी के रस के दृष्टांत से पूर्व की