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सम्यक-चारित्र-चिन्तामणि
लेखक डॉ० पं० पन्नालालजो साहित्याचार्य
वीर-सेवा-मन्दिर-ट्रस्ट प्रकाशन
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प्रकाशाकीय सन् १९८३-८४ में वीर-सेवा-मन्दिर-ट्रस्ट से हमने आठ ग्रन्थोंका प्रकाशन किया था, जो सभी महत्त्वपूर्ण रहे। इनमें समाधिमरणो. स्साहदोपकका द्वितीय संस्करण था। शेष सातों ग्रन्थ इतःपूर्व अप्रकाशित रचनाएँ थीं। इस दृष्टिसे यह बर्ष ट्रस्टके इतिहासमें अभूतपूर्व और सुखद रहा । संयोगसे साढ़े पांच हजार रुपयोंका आर्थिक सहयोग भी प्राप्त हुआ।
१६८५-८६ में हम कोई ग्रन्थ पाठकोंको नहीं दे पाये, इसके मुख्य कारण थे- बनारस छोड़कर श्रीमहावोरजो जाना और वहाँ के जनविद्या-संस्थान में चल रहे पुराण कोषके कार्य में मानद सहयोग करना तथा १८ दिसम्बर १६८५ को मेरी सहमिणो श्रीमती चमेलोबाई कोठियाका टीकमगढ़ (म.प्र.) में श्वासका उपचार कराते हुए देहावसान हो जाना। फिर भी हमने १९८६-८७ में करणानुयोग प्रवेशिका, चरणानुयोग प्रवेशिका और द्रव्यानुयोग प्रवेशिका इन तीन ग्रन्थोंका पुनर्मुद्रण कराया, जिनको पाठकों द्वारा अधिक माग हो रही थी। ___ डॉ० भागचन्द्रजी भास्कर' के सम्पादकत्व में 'चंयहचरित' का जयपुरसे मुद्रण कराने में अवश्य दो-ढाई वर्षका समय लगा और उसे पाठकोंके समक्ष हम विलम्बसे रख पाये, जिसके लिए क्षमा-प्रार्थी हैं।
आज हमें समाजके ख्यातिप्राप्त विद्वान डॉ. पं० पन्नालालजी साहित्याचार्यको संस्कृत में रचित और उन्हींके द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनूदित सैद्धान्तिक कृति 'सम्यक-चारित्र-चिन्तामणि' का प्रकाशन करते हुए हर्ष हो रहा है। यह चरणानुयोगसे सम्बन्धित साधु और श्रावकके आचारको प्रतिपादिका एक महत्वपूर्ण एवं मौलिक रचना है। आशा है उनकी यह कृति मुनि वृन्दों और श्रावकों के लिए बड़ी उपयोगी सिद्ध होगो और वे इसे चावसे पढ़ेंगे तथा अपने आचारको समृद्ध बनायेंगे। स्मरणीय है कि साहित्याचार्यजी द्वारा रचित सम्यक्त्वचिन्तामणि और सम्यग्ज्ञान-चिन्तामणि ये दो रचनाएं ट्रस्टसे पहले प्रकाशित हो चुकी हैं, जो पाठकोंके लिए बहुत पसन्द आयी हैं और पर्याप्त समादृत हुई हैं।
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भूमिका
प्राचीन ग्रन्थ लेखनको भी प्रारम्भिक प्रक्रिया यहो पाई जाती है कि ग्रंथकार उस ग्रंथ में वर्णित विषयोंको संक्षिप्त रूपरेखा ग्रन्यके प्रारंभमें लिखा करते थे । उसे ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषयकी सूची कह सकते हैं । इसीका आजकल कुछ विस्तृत रूप हो गया है और उसे भूमिका, प्रस्ताबना, प्रास्ताविक, प्रस्तवन उपोद्घात प्रारंभिक, दो शब्द, प्राक्कथन, आमुख आदि विभिन्न नामोंसे उल्लिखित किया जाता है ।
श्री डॉ० दरबारी लालजो कोठिया न्यायाचार्यने जो दोर-सेवामंदिर ट्रस्ट के मानद मंत्री तथा 'युगवीर-समन्तभद्र-ग्रंथमाला' के सम्पादक और नियामक हैं मुझसे प्रस्तुत ग्रन्थ 'सम्यक् वारित्र-चिन्तामणि' की भूमिका लिखने का आग्रह किया। मैंने उनके आग्रहको सहर्ष स्वीकार कर समाज के प्रख्यात विद्वान् डॉ० पं० पन्नालाल जो साहित्याचार्य द्वारा लिखित प्रस्तुत ग्रन्थपर यह भूमिका लिख रहा हूँ ।
भूमिका का अर्थ आधारशिला है। इस ग्रंथको आधारशिला क्या है, इसका प्रतिपाद्य विषय क्या है, लेखक विद्वान् इसे लिखने में कितने सफल हुए हैं इत्यादि अनेक बातों का स्पष्टोकरण हो भूमिका लेखकका ध्येय होता है । यह एक प्रकारसे ग्रन्थका परिचय तथा उसको समा लोचनाका रूप भी बन जाता है। सामान्य पाठक इसे पढ़कर ग्रन्थका हृद्य जान लेता है और फिर उसको विस्तृत व्याख्याको ग्रन्थ में पढ़ता है तो उसे आनन्द भी आता है तथा ज्ञान-वृद्धि भो होतो है ।
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सम्यग्दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र जिनागमके प्रतिपाद्य मुख्य विषय हैं। अनेकानेक ग्रन्थ इन पर जनाचायों द्वारा प्रणीत हैं । उसी श्रृङ्खला में डॉ० पन्नालाल जी के दो ग्रन्थ 'सम्यकत्व - चिन्तामणि' और 'सज्ज्ञान चन्द्रिका' इसो ग्रन्थमालासे प्रकाशित हो चुके हैं । यह तृतीय ग्रन्थ 'सम्यक् चारित्र-चिन्तामणि' भो उसोसे प्रकाशित हो रहा है, यह स्तुत्य है । ये दोनों कृतियाँ संस्कृत भाषा में तथा विविध छन्दों में लिखो गई हैं। इस ग्रन्थ में १५ छन्दोंका उपयोग किया गया है, जिसको सूचो भो अन्यत्र प्रकाशित है। इस कृति में भो पहलेको दो कृतियोंके समान मूल जिनागमके विविध ग्रन्थो में वर्णित ( उपदिष्ट )
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विषयको बहुत सावधानीसे निबद्ध किया गया है। मूल ग्रन्थकर्ता तो इस युगमें श्री १००८ भगवान् महाबोर हो हैं, उनको दिध्यवाणोके अनुसार गौतम गणधर स्वामोने द्वादशांग रूप रचनाको और कालक्रमसे आचार्योंकी गुरु-शिष्य परम्परामें मौखिक रूपमें प्रदत्त इस उपदेशमें क्षीणता आतो रहो, तब अंग पूर्व के अंशमात्र ज्ञानको आचार्य धरसेनसे उनके दो शिष्योंने प्राप्तकर, जिनके प्रख्यातनाम भूतिबनी और पुष्पदन्त हैं, उसे पुस्तकारूढ़ किया।
इसी परम्परामें अनेक जैनाचार्योको अनेक कृतियाँ ग्रन्थके रूप में उपलब्ध हैं । उसो जिनागमकी समागत परम्पराको सुरक्षित रखनेका यह डॉ० पन्नालालजोका सुप्रयास है। संस्कृत-भाषामें गद्य और विशेषकर पद्य-लेखन कार्यमें वर्तमानके विद्वत्वर्गमें डॉ० पन्नालाल जो अग्नणो
__सम्यग-दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग है और इसके विपरीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान चारित्र हो संसारको पद्धति { मार्ग ) है । यह वात रत्नकरण्डश्रावकाचारमें अपने प्रारम्भिक कथनमें हो पूज्य आचार्य समन्समद्र स्वामो लिख गये हैं।
जीवके कल्याणके लिए हो सम्यग-दर्शनादि तीनका वर्णन है। इन्हें जिनागममें रत्नत्रय कहा गया है। यद्यपि ये तोनों आत्म-गुण हैं । जब कि रल, जिन्हें होरा, पन्ना, मणि, माणिक्य आदि नामोंसे कहा जाता है, जड़, अचेतन पदार्थ है और इस दृष्टिसे सचेतनके श्रेष्ठ गुणोंको अचेतन रत्नोंके साथ जो यथार्थमें एक भिन्न प्रकारके पत्थरके टुकड़े हैं-समता मिलाना संगत प्रतीत नहीं होता, फिर आचार्योंने उन तीनोंको रत्नकी उपमा दी है, ऐसा क्यों ? यह एक प्रश्न तो है ।
विचार करनेपर यह समझमें आता है कि यह अज्ञानी संसारों प्राणो निजको महत्ताको भूलकर इन अचेतन रत्नोंको सर्वश्रेष्ठ मानता है तथा इस मोही ( मूढ़ ) को इसकी भाषामें ही इन तीनों आत्म-गुणों की महत्ता समझानो होगो इसके बिना यह उनको कीमत न करेगा, इसलिए रत्नोंके साथ समता न होते हुए भो समता मिलाई है। ___ यह बात सुप्रसिद्ध है और प्रत्येक प्राणोंके अनुभवगोचर है कि यह संसार दुःखमय है और सुखको प्रक्रियाके विरुद्ध है। अतः सभी मत-मतान्तरों में मोक्ष निर्वाण-श्रेय परमात्म-प्राप्ति आदिके नामपर संसारके कारण-विषय-कषायोंको छोड़कर साधना करने वाले साधुपद
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धारी होते हैं जो गृहस्थाश्रमका त्याग करते हैं । आचार्य समन्तभद्रने लिखा है कि-संसार अशरण है, अशुभ है। अनित्य है, दुःख रूप है तथा अनात्मरूप है। इसके विपरोत संसारसे मुक्ति शरणरूप है, शुभरूप है, नित्य-स्थायी है, सुखरूप है तथा आस्मके स्वस्वभावरूप है। . __ इसी आत्म-स्वभावकी प्राप्तिके लिए सम्यग्-दर्शन-ज्ञान-चारित्र है। इन तीनोंके ऐक्यको ही मोक्षका मार्ग कहा है। एक-एकसे या दो दोसे मुक्ति सम्भव नहीं है, अतः तोनोंको एकताको ही उमा स्वामीने तत्त्वार्थ -सूत्र में प्रथम सूत्र द्वारा मोक्षमार्ग प्रतिपादित किया है । सम्यक्त्व चारों गतियोंमें किन हो जोवोंमें पाया जाता है. सम्यकज्ञान भो उसो कारण हो जाता है, परन्तु सम्यक्चारित्र मात्र मनुष्य पर्यायमें हो हो सकता है, अन्यत्र नहीं। यद्यपि देश-चारित्र किसी-किसी नियम भी पाया जाता है. पर उसकी बड़ी विरलता है और वह स्वर्ग जानेका कारण बनता है, मोक्षका कारण नहीं। सकल-चारित्र मनुष्योंमें उनमें भी कर्मभूमिके मनुष्यों में पाया जाता है । कर्म भूमिके भो उत्सपिणोके तृतीय कालमें और अवस पिणोके चतुर्थ कालमें हो सम्भव है--पंचम, षष्ठ काल में नहीं। जो अपवाद-पद्धतिमें पंचमकालके प्रारम्भमें मुक्तिपधारेबे भी चतुर्थकाल में उत्पन्न हुए थे। हां इस हण्डावसपिणो काल में तृतोय कालमें भो मुक्तिगमनका अपवाद पाया जाता है, पर सामान्य नियम तो यहो है. जिसका ऊपर विवरण किया है।
सम्यक् चारित्र दो रूपोंमें देखा जाता है, एक तो आभ्यन्तर परिणाम विशुद्धिके रूप में और दुसरा आन्तरिक शुद्धि वालेको बाह्य क्रियाके रूपमें। आभ्यन्तर चारित्रके साथ-साथ जो साधकका बाह्याचरण है वही व्यवहारसे चारित्र कहा जाता है क्योंकि वह शरोराश्रित क्रिया है। प्रकारान्तरसे यह कहा जा सकता है कि आन्तरिक क्रिया आत्म-विशुद्धि है और शारीरिक क्रिया उसोका बाह्यरूप है। चूंकि देह-पर है अतः उसको क्रिया पराश्चित होने से व्यवहारमय से चारित्र है और आभ्यन्तरशुद्धि आत्मपरिणमन रूप क्रिया है, अतः वह निश्चयसे चारित्र है।
निश्चयचारित्र मोक्षका साक्षात्कारण और व्यवहार चारित्र उस आभ्यन्तरको शुद्धिका कारण है। यदि साधक आन्तरिक शुद्धिका प्रयत्न न करे और मात्र बाह्म आचार आगमानुसार भो करे तो उससे माक्ष नहीं होता। इनमें साध्य-साधक भाव हो तो दोनोंको भी कारण मान लेते हैं । निश्चय चारित्रको मुक्तिका साक्षात् कारण और तत्साधक व्यवहार
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को परम्परा कारण माना जाता है । तथापि आन्तरिक शुद्धिके अभावमें बाह्यक्रिया मोक्षका कारण नहीं।
प्रस्तुत ग्रन्थमें व्यवहारतः चारित्रका वर्णन है जो साधकके लिए अनिवार्य है।
समानारिमा अक्षर "विन क्रियो परमः चारित्रम्" कहा गया है बन्धके कारण पाँच प्रत्यय माने गये हैं। उनके नाम हैं—मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । भगवान केवलोके भो पूर्वके चार प्रत्ययों का अभाव होनेपर भो योगके सद्भाव में परमोत्कृष्ट चारित्र नहीं माना गया। उसके अभावमें हो रत्नत्रयको पूर्णता है तभी तोनोंको एकता होती है और बहो मोक्षका साक्षात् कारण बनता है ।
सम्यक्त्वके आधारपर चतुर्थ-गुणस्थान होता है। पंचममें मात्र देशचारित्र होता है। मुनि अवस्था षष्ठ गुणस्थानरो लेकर अन्तिम चौदहवें तकको है। इनमें १३वां, १४वाँ केवलो अवस्थाके हैं। इनमें छठेसे बाहरवं तक गुणस्थान छमस्थ मुनियोंके हैं। सप्तम ( सातिशय ) अप्रमत्तसे ११वें तक उपशम श्रेणो और वें से १२वं तक धपक श्रेणी ऐसो दो श्रेणी विभाजित है। क्षपक श्रेणी चढ़ने वाला हो मुक्तिको प्राप्त होता है पर उपशम श्रेणो बाला गिर कर नोचे आता है।
प्रस्तुत ग्रन्थमें इन सबका विशद विवेचन है। सामान्यतः दोक्षार्थी आचार्य के पास जाकर आत्म-कल्याण को भावना प्रकट करता है तथा उसका मार्ग उनसे प्राप्त करनेको इच्छा करता है। नियम यह है कि आचार्य कल्याण का पूर्ण महावत स्वरूप साधुत्तर्याका स्वरूप बताते हैं और उसे ग्रहण करनेको अनुज्ञा देते हैं। यदि दोक्षार्थी मुनिश्रतके पालनका साहस नहीं करता-अपनो कमजोरो प्रकट करता है तब आचार्य उसे देशचारित्र' ( श्वावक व्रत ) का उपदेश देते हैं। इसी प्राचीन आगम पद्धतिको ध्यानमें रखकर इस ग्रन्थके लेखकने सर्वप्रथम साधु-धर्मका हो वर्णन किया है। प्रथमाध्यायमें साधुके मूलगुणोंका वर्णन किया है। द्वितीय अध्यायोंसे नवम अध्याय तक मुनिके पाँच प्रकारके सयमा १४ गुणस्थानों, १४ मार्गणास्थानों तथा ५ महावतों, ५ समितियों का विशेष वर्णन करते हुए प्रसंगानुसार प्रतोंको ५.५ भावनाओं इन्द्रिय-विजय साधुको एषणा-वृत्ति घर-आवश्यक ध्यान, तप अनित्यादि भावनाओका विस्तृत वर्णन किया है। दश अध्यायमें
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आयिका क्षुल्कक-ऐलकका भो वर्णन है तथा ग्यारहवें में सल्लेखना तथा बारहवें अध्यायमें श्रावक-धर्मका वर्णन है जिसमें पंचाणुव्रत, तोन गुणवत, चार शिक्षात्रत, व्रतोंके अतोचार तथा ग्यारह प्रतिमाओंके ब्रतोंका विवेचन है। तेरहवें अध्यायमें व्रतों के धारण करने वालेके कर्मोके क्षयोपशमादि अन्तरंग कारणोंका वर्णन है। ___अन्त में एक परिशिष्ट है-शेष कथन जो रह गया है उसे इसमें निबद्ध किया गया है। इस प्रकार यह ग्रन्थ तेरह अध्यायोंमें परिशिष्टके साथ समाप्त होता है। ____ ग्रन्थ के वर्णनीय विषयोंका संक्षिप्त परिचय यहाँ कराया गया है, विशद वर्णन तो ग्रन्य में है हो, उसका विस्तार करना अनावश्यक है कुछ वणित विषय अधिक स्पष्टोकरण चाहते हैं। उनको कुछ चर्चा करना यहाँ अप्रासंगिक न होगा।
१. वृक्ष से तोड़े गए पत्र, पुष्प, फल सांचत्त हैं या आँचत्त इस पर लेखक ने वर्तमान गलत व्याख्याओं का निराकरण अध्याय ३, श्लोक २६ से ३५ में वनस्पतिकायिक जीवोंका वर्णन करते हए भावार्थ में किया है कि एक वृक्षमें वृक्षका जोव अलग है और उसके आधारपर उत्पन्न होने वाले पत्तों व फलोंमें उसका जीव अलग रहता है........." इस अपेक्षा वे सचित्त है......"आदि ! इसपर यहाँ कुछ विशेष विचार किया जाता है।
आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्डश्रावकाचारमें स्पष्ट लिखा है-- "मूल-फल-शाक-शाखा-करोर-कन्द-प्रसून-बोजानि ।
नामानियोऽत्ति सोऽयं सवित्तविरलोदयामूतिः ।।" इसमें वृक्ष को जड़, उसको शाखा, पत्र-फल-फूल-कन्द-बीज सबको पृथक-पृथक सचित्त माना है और इनको कच्चा अर्थात् चिना अग्निपक्य द्वारा अचित्त किए खाने का सचित्त त्याग प्रतिभा वालेको स्पष्ट निषेध किया है। इससे वृक्ष में ये सव स्वयं अलग-अलग जीव वनस्पतिकायिक मचित्त योनि में ही हैं। यह आगम सिद्ध है। जिन लोगों को मान्यता इस प्रकारको बनाई मई है कि मनुष्यके अंग-प्रत्यंगोंको तरह ये वृक्ष के अंग-प्रत्यंग है अत: जैसे नाना अंगों वालो मनुष्य देहमें मनुष्य का एक हो जीव है अंग प्रत्यमों का अलग नहीं है। यही नियम वृक्ष के अंग-प्रत्यंगोंपर लगाना चाहिये--यह कथन सर्वथा विपरोत है उसके हेतु निम्न भांति है
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( अ ) एकेन्द्रियके अंगोपांग नामकमका उदय नहीं होता इसे गो. कर्मकाण्डके एकेन्द्रिय जीवोंके उदय योग्य कर्मोंको सूची में पढ़िये । न केवल वनस्पतिमें किन्तु पृथिवी, जल, वायु, अग्नि इन सभी एफेन्द्रियोंमें अंगोपांग नामकर्मका उदय नहीं होता। इस स्थितिमें पत्र-फल आदिको वृक्ष, शरीरके अंग प्रत्यंग मानना सर्वथा आगम विरुद्ध है।
(ब) अंगोपांग मनुष्यादिके टूट जानेपर फिर उत्पन्न नहीं होते, पर वृक्षोंके पत्र, फल, पुष्प प्रतिवर्ष अपनी ऋतु पर नए-नए होते हैं । अतः इसकी समता भी नहीं मिलती, बल्कि मनुष्य के पुत्र, पुत्री आदिको तरह ये भी पृथक् आत्मा व पृथक् शरीर वाले हो सिद्ध होते हैं। सभी आगम ग्रन्थोंमें उनमें पृथक-पृथक् जोव ही माना गया है।
( स ) यदि इसका वर्तमान विज्ञानको दृष्टिसे भी परोक्षण किया जाय तो पत्र-पुष्पादि पृथक् जीव हो सिद्ध होते हैं। कलकत्तामें सर जगदीशचन्द्र बसुको प्रसिद्ध वानस्पतिक विज्ञानशालामें अनेक जैन विद्वानोंकी उपस्थितिमें परोक्षण कराया गया। यह प्रयत्न मेरे आग्रह पर स्व. बाबू छोटेलाल जी सरावगी ( बेलगछिया) ने कराया था, जिससे एक घासक टुकड़े को तोड़कर मशीन फिटकर सो शरीर संचरण-क्रिया द्वारा स्पष्ट हो गया था कि टूट जाने पर भी इसमें जीव है।
यद्यपि इसपर और भी प्रमाण व परीक्षण हैं तथापि यहाँ इतना ही स्पष्टीकरण पर्याप्त है।
जिनागम को मान्यतानुसार अतिथि संविभाग ब्रतके अतिचारको व्याख्या भी आचार्य पूज्यपादने सर्वार्थ-सिद्धिमें 'सचित्त कमल पत्रादौ' पाद द्वारा कमलपत्र तथा आदि पदसे अन्य वृक्षों के टूटे पत्तोंको सचित्त हो माना है। डॉ० पन्नालाल जोने इन प्रमाणोंका संक्षेपमें उल्लेख ग्रन्थ में किया हो है।
इस ग्रन्थ के तृतोय प्रकाशमें लेखकने वर्तमान शिथिलाचारसर भी प्रकाश डाला है । लिखा है कि
(अ ) आर्यिका वृद्ध भी हो तो भी अकेली साधुको समोप न जाय, दो तीन मिलकर जाये और सात हाथ दूर रहकर हो धर्म-चर्चा करें। इस आचार संहिता का पालन करना चाहिये-श्लोक ८२, ८३।
इस समय कई संघ साधुओंके ऐसे हैं, जिनमें इसका पालन नहीं होता। बल्कि उन संघोंका पूरा संचालन महिलाएं ही करती हैं।
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( ११ ॥
संघ संचालन के लिए बे धन-संग्रह करतो हैं और न केवल संघ-साधुओं पर, संघ के आचार्यपर भी अपना वर्चस्व रखतो देखो जाती हैं।
यह सर्वदा आगम विरुद्ध कार्य है । जन साधुओं की पुरानो परम्परामें ऐसा एक भो उदाहरण नहीं है कि महिलाएं संघ-संचालन करतो हों धन संग्रह करतो हों और संघस्थ साधुओंके आहार के लिए चौकेकी व्यवस्था करतो हों।
(ब) इसो तृतीय प्रकाशमें अपरिग्रह महावतका स्वरूप निर्देश करते हुए विद्वान लेखकने श्लोक संख्या ६३ से १०० तकके अर्थ में लिखा है कि
जो मनुष्य पहिले परिग्रहका त्यागकर निर्ग्रन्थताको स्वोकारकर पोछे किसो कार्य के व्याज ( बहाने ) से परिग्रहको स्वीकार करता है वह कूपसे निकलकर पुनः उसी कूपमें गिरनेके लिए उद्यत है...। दिगम्बर मुद्राको धारणकर जो परिग्रहको स्वीकार करते हैं उनका नरक-निगोदमें जाना सुनिश्चित है। ... "यदि निर्ग्रन्थ दोक्षा धारण करने को तुम्हारो सामथ्र्य नहीं है तो हे भव्योत्तम! तुम श्रद्धामात्र धारण कर संतुष्ट रहो।
इस प्रकरण में लेखकने वर्तमान जैन साधुओंमें शिथिलाचारको बढ़ती हुई प्रवृत्ति पर दुख प्रगट करते हुए उसके निषेध करने के लिए सम्बोधन किया है जो अति आवश्यक है।
स्व० ब्र० गोकुल प्रसाद जो मेरे पिता थे। स्व. पं० गोपालदासजी वरैयाके पास वे अध्ययनार्थ मोरेना गये थे। उनको एक नोटबुकमें गुरुजी द्वारा कथित कुछ गाथाएँ लिखो है । उनमें एक गाथा इस प्रकार
भरहे पंचम काले जिणमुद्दाधार होई सगंथो ।
तव यरणसोल णासोऽणायारो जाई सो णिरये ।। अर्थात्-इस भरत क्षेत्रमें पञ्चमकाल में जिनमुद्रा ( निर्ग्रन्थमुद्रा) धारणकर पुनः वह मुनि सग्रन्थ ( सपरिग्रह ) होगा वह अपने तपश्चरण और शोलका नाश करेगा तथा ऐसा अनगार ( निर्ग्रन्थ ) नरकको प्राप्त करेगा।
यह प्राचीन गाथा किसी प्राचीन ग्रन्थको है। ग्रन्थका नाम उसमें नहीं है 1 विद्वान् लेखकका कथन इस आगम-गाथाके अनुसार सर्वथा संगत है।
सारे शिथिलाचारकी जड़ परिग्रहको स्वीकारता है और उसके मूलमें महिलाओं द्वारा संघ-संचालन भो एक जबरदस्त कारण है। इस
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पतिसे परम्पराका नाश हो रहा है और अनर्थ बढ़ रहे हैं । इस पर अंकुश लगे बिना शिथिलाचार दूर न होगा।
श्वेताम्बर परम्पराके आचार-ग्रन्थों में भी ऐसा उल्लेख है कि आर्या ( साध्वी ) सौ वर्षको उम्रको हो, उसके समस्त अंग कुष्ठरोग द्वारा गलित हो चुके हों तो भी साधुको सरुले एकान्तमें बात भी न करना चाहिये। __ इस शिथिलाचारकी बढ़ती हुई प्रवृत्ति से अनेक साधु कूलरहोटर, पालको, वाहन आदिका भी उपयोग करने लगे हैं जो सर्वदा विपरीत है। इसका अन्त कहाँ होगा, यह चिन्तनीय हो गया है।
साधुओं व आयिकाओंको बिना पादत्राणके पैदल ही विहार करनेकी आज्ञा है ई-सिमितिका पालन करते हुए, परन्तु पालकोका उपयोग करने वालेकी ईर्यासमिति कैसे सधेगी? इसपर भो चतुर्थ अध्यायके श्लोक १४, १५ में प्रकाश डाला गया है। ___ ब्रह्मचारी प्रतिमाधारो श्रावक भो निर्जीव सवारोका उपयोग करते हए भी सजोव सवारीका त्याग करते हैं। वे घोड़ा बैलगाड़ी, तांगा, मनुष्यों द्वारा खींचे जाने वाले रिक्शा का त्याग करते हैं क्योंकि इनसे पशुओं और मनुष्योंको कष्ट उठाना पड़ता है तब पालकीको कैसे साधुके लिए. ग्राह्य माना जा सकता है, जो चाय हाथ भूमि निरखकर पांव बढ़ाते एवं ईर्या समिति पालते हैं ?
पञ्चम प्रकाशमें इन्द्रिय-विजय पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। जनन-इन्द्रिय और रसना-इन्द्रिय' ये दो इन्द्रियाँ हो मनुष्यको बलवान हैं। जननेन्द्रियपर विजय प्राप्तकर ब्रह्मचर्यको स्वीकार करने वाले महा. पुरुषोंको रसना-इन्द्रियपर भो अंकुश लगाना चाहिए, यह नितान्त आवश्यक है। ___षष्ठ प्रकाशमें षडावश्यकोंका वर्णन है। इसमें एक जिन-स्तुतिम भगवान महाबोरकी स्तुतिमें नौ पद्य तथा चतुविशति स्तुतिके चौबीस पद्य बहुत सुन्दर रचे गये हैं। साधुओंके साथ ही श्रावकोंको प्रतिदिन पढ़ने के लिए बहुत उपयोगी हैं।
इसो प्रकार प्रतिक्रमण आवश्यकका वर्णन करते हुए प्रतिक्रमण पाठकी भो नवीन रचना २५ पद्योंमें को है, जो बहुत उपयोगो है।
सप्तम प्रकाश में पञ्चाचारका विशद वर्णन है। बोर्याचारका वर्णन करते हुए विविक्त शय्यासनमें अभ्रावकाश, आतापन योग तथा वर्षा योग इन तीन तपस्याओंके स्वरूपका यथोचित निदर्शन किया गया है।
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अष्टम अध्याय में बारह भावनाओं का सुन्दर चित्रण है, जो विशद है और श्रावक एवं साधुओंके लिये उपयोगी पाठ है। नवम अध्यायमें ध्यानका वर्णन है। दसवें में आर्यिकाओंके लिए विधि-विधान हैं। ग्यारहवें में सल्लेखनाका विधिवत् वर्णन है। __ गृहस्थाचार (देशव्रत ) का वर्णन १२वें प्रकाशमें किया गया है, जो अति संक्षेप रूप है। गृहस्थाचारका विशेष वर्णन होना चाहिये था, क्योंकि गृहस्थोंके लिए प्रतिपादित सभी ग्रन्थों में प्रायः १२ व्रत, उनके अतिचार और ११ प्रतिमाओंका संक्षिप्त विवरण हो पाया जाता है। इसका कुछ विशद वर्णन सागार-धर्मामृत और धर्मसंग्रह श्रावकाचारमें अवश्य है।
आजको आवश्यकता है कि गृहस्थ के लिए गहस्थाचारका विशद वर्णन किया जाय । इससे गृहस्थोंका जो अज्ञान शिथिलाचार या अनाचार है, वह दूर होमा। दूसरे वर्तमानके बदले हुए जमाने में गृहस्थ अपना धर्म कैसे पालें, उसे मार्गदर्शन मिलेगा। डॉ. पन्नालालजोसे मेरा अनुरोध है कि वे गृहस्थाचारका विशद वर्णन करने वालो एक पुस्तक अलगसे लिख देखें।
तेरहवें प्रकाशमें संयमासंयम-लब्धिका संक्षिप्त वर्णन है । इस प्रकार यह ग्रन्थ १३ प्रकाशों ( अध्यायों) में समाप्त हुआ है।
अन्तमें परिशिष्ट जोड़ा गया है। इसमें वे विषय निबद्ध हैं, जो यथास्थान वर्णनमें छूट गए हैं या जिनका विशद वर्णन या स्पष्टीकरण आवश्यक समझा गया।
डॉ० श्री पं० पन्नालालजो साहित्याचार्यका यह प्रयत्न और परिश्रम सफल होगा और पाठक इसे पढ़कर लाभ उठायेंगे इस आशाके साथ विराम लेता हूँ।
अगन्मोहनलाल शास्त्री
श्री महावोय उदासीन आश्रम कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र पो० कुण्डलपूर ( दमोह ), म०प्र० ७-१०-१६८०
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लेखकीय वक्तव्य
सम्यग्दर्शन धर्मका मूल अवश्य है, पर मात्र सम्यग्दर्शनसे मोक्षरूप फलको प्राप्ति नहीं हो सकती । मोक्ष-प्राप्तिके लिए तो सम्यग्दर्शन
और सम्यग्ज्ञानसे समन्वित सम्यक् चारित्रको आवश्यकता है। जिस प्रकार मूलको उपयोगिता वृक्षको हरा-भरा रखने में है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनको उपयोगिता सम्यक्चारित्ररूपी वृक्षको हरा-भरा रखने में है, इसीलिये उमास्वामी महाराज ने 'सम्यग्दर्शन-शान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' सूत्र द्वारा सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयको पूर्णताको ही मोक्ष मार्ग कहा है। सम्यक्त्व-चिन्तामणिमें सम्यग्दर्शनका और सज्जान-चन्द्रिका ( अपर नाम सम्यग्ज्ञान-चिन्तामणि ) में सम्यग-ज्ञान का विस्तारसे वर्णन किया गया है। अब क्रमप्राप्त 'सम्यक चारित्र-चिन्तामणि' पारकों के हाथमें है। इसमें सकल-चारित्र और विकल-चारित्रका साङ्गोपाङ्ग वर्णन किया गया है।
समन्तभद्र स्वामोने हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिशहा इन पाँच पापोंके त्यागको चारित्र कहा है। उन पापोंका सकलदेश परित्याग करना सकल-चारित्र है और एकदेश त्याग करना विकल चारित्र है। सकल चारित्र मुनियोंके होता है और विकल चारित्र गृहस्थोंके ।
सकल चारित्रमें पांच महावत, पाँच समिति और तीन गुप्तियोंकी प्रधानता है, विकल-चारित्र में पांच अणब्रत, तीन गुणत्रत और चार शिक्षावतोंका वैभव है। सकल-चारित्रके सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात ये पांच भेद हैं। इनमें सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्र छठवेंसे लेकर नवम गुणस्थान तक होते हैं, परिहार-विशुद्धि संयम छठवें और सातवें गुणस्थान में होता है, सूक्ष्मसाम्यराय, एकदशम गुणस्थानमें हो होता है और यथास्यात संयम ग्यारहवें से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक होता है । चौदहवें गुणस्थानमें जब परम यथाख्यात चारित्र होता है तब तत्काल मोक्षको प्राप्ति हो जाती है। उसके विना देशोन कोटि वर्ष तक यह मानव संसार. में अवस्थित रहता है। विकल-चारित्र (देश-चारित्र) एक पञ्चम गुणस्थानमें ही होता है । प्रारम्भ के चार गुणस्थान असंयम रूप हैं।
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( १५ ) आगममें चारित्रकी बड़ी महिमा बतलायो गई है। उससे मोक्षकों प्राप्ति होती है । यदि उसमें न्यूनता रहे तो उससे वैमानिकदेवको आयु बंधती है। सकलनाभिको पात दूर रहो, देशचारिखको भो इतनो प्रभुता है कि उससे भी देवायुका हो बन्ध होता है। जिस जोवके देवायुको छोड़कर अन्य किसो आयुका बन्ध हो गया है उसके उस पर्याय में न अणुव्रत धारण करनेके भाव होते हैं और न महावत धारण : करने के।
नराकायुका बन्ध प्रथम गुणस्थान तक होता है; तिर्यञ्च आयुका बन्ध द्वितोय गुणस्थान तक होता है। तृतीय गुणस्थानमें किसो भी आयुका बन्ध नहीं होता। चतुर्थ गुणस्थानमें देव और नास्कोके नियमसे मनुष्यायुका और मनुष्य के चतुर्थ से लेकर सप्तम गुणस्थान तक देवायुका हो बन्ध होता है। तिर्यञ्चक चतुर्थं और पञ्चम गुणस्थानों में देवायुका बन्ध होता है। अष्टमादि गुणस्थानोंमें किसी भी आयुका बन्ध नहीं होता। आयुका बन्ध किये बिना जो मनुष्य उपशम श्रेणी मलिकर एकादश गुणस्थान तक पहुंच जाता है वह क्रमशः पतन करा जब सप्तम या उससे अधोवर्जी गुणस्थानोंमें आता है तभी आयुका बन्धकर तदनुसार उत्पन्न होता है। ___ अविरत सम्यग्दृष्टि जीवके गुणश्रेणो मिर्जरा सदा नहीं होतो जब स्वरूपको ओर उसका लक्ष्य जाता है तब होतो है । परन्तु सम्यक् दर्शन सहित एकदेश-चारित्रके धारक श्रावक और सकल-चारित्रके धारक मुनियोंके निरन्तर होतो रहती है। समन्तभद्रस्वामीने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रकी प्राप्तिका क्रम तथा उद्देश्य वर्णन करते हुए लिखा है
मोहतिमिरापहरणे दर्शन लाभादवाप्तसंज्ञानः ।
रागद्वेषनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ।। अर्थात् मोह ( मिथ्यात्व ) रूपो अन्धकारका नाश होनेपर सम्यग्दर्शनके लाभपूर्वक जिसे सम्पज्ञान प्राप्त हुआ है ऐसा भद्र परिणामी जीव रागद्वेषको दूर करने के लिए सम्यक चारित्र को प्राप्त करता है।
करणानुयोगके अनुसार जिस जीवके मिथ्यात्वके साथ अनन्तानुबन्धी चतुष्क अप्रत्याख्यानावरण चतुष्कका अनुदय है और प्रत्याख्यानावरण चतुष्क तथा सज्वलन चतुष्कका उदय है उसके देशचारित्र होता है और जिसके मिथ्यात्वके साथ अनन्तानुबन्धो चतुष्क अप्रत्या
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ख्यानावरण चतुष्क और प्रत्यास्यानावरण चतुष्कका अनुदय तथा सज्वलन चतुष्क एवं हास्यादिक नो नोकषायोका यथासम्भव उदय रहता है उसके सकलचारित्र होता है । सज्वलनचतुष्कको भो तीव्र, मन्द और मन्दतर अवस्थाएं होती हैं। षष्ट गुणस्थानसे लेकर दशम गुणस्थानतक इनका यथासम्भव उदय रहता है और उदयानुसार गुणस्थानोंको व्यवस्था बनती है।
कोई भवभ्रमणशील भव्य मानव जब निग्रंथचार्य के पास जाकर दिगम्बर दीक्षा को प्रार्थना करता है तो उसको भावनाका परीक्षणकर आचार्य दिगम्बर साधुके मुल मुणोंका वर्णन करते हैं-पांच महाव्रत, पांच समिति, पञ्चेन्द्रिय विजय, छह आवश्यक और आपलवय आदि शेष सात गुण. सब मिलकर उनके २८ मूलगुण होते हैं। इस ग्रन्थमें मूलाचार आदि ग्रन्थोंके आधारपर इन मूलगुणोंका विस्तृत वर्णन किया गया है । मुनिव्रतमें दृढ़ता प्राप्त करने के लिए अनित्यादि द्वादश अनुप्रेक्षाओंका भी कथन किया गया है। स्वाध्यायकी परिपक्वताके लिये मार्गणा और गुणस्थानोंकी भो किंचित् चर्चाको गई है । मोहनीय कर्मकी उपशमना और क्षपणाविधिका भी अल्प प्रतिपादन किया गया है। षडावश्यकोंका वर्णन करते समय समाज, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान और कायोत्सर्गको विस्तृत चर्चाकी गयी है। इसके पाठभी विविध छन्दोंमें रचे गये हैं, जिन्हें लयके साथ पढ़नेपर बड़ा आनन्द आता है।
इसी प्रकार आयिका-दीक्षाको प्रार्थना करनेपर आयिकाओंके कर्तव्यकी विधि प्रदर्शितको गयी है। अन्तमें श्रावकधर्मकी उत्पत्ति और प्रवृत्तिका वर्णन किया गया है । परिशिष्ट में अनेक उपयोगी विषयोंका संकलन है।
पाण्डुलिपि तैयार होनेपर अहारजीमें चातुर्मासके समय पूज्यवर आचार्य विद्यासागर जीके पास वह परीक्षणार्थ भेजी गई थी । प्रसन्नता की बात है कि उन्होंने व राकेश जोके साथ इसका आद्योपान्त वाचन कर जो संशोधन या परिवर्तन सुझाये थे, यथास्थान कर दिये गये । ___ इस सम्यक् चारित्र-चिन्तामणिको रचना खुरईक्रो वाचनाके बाद हुयी। अतः बाचनमें रखे गये कषायपाहुड, पुस्तक १३ की चर्चाओंसे यह मन्य प्रभावित है। कषाय-याहुडके कुछ स्थल शंका-समाधानके रूप में उद्धृत भी किये गए हैं।
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( १७ )
बौर- सेवा - मन्दिर ट्रस्टसे उसके मानद मंत्री श्री डॉ० दरबारीलाल जो कोठिया द्वारा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका निरूपण करने वाले सम्यक्त विशामणि और सम्यक्षा-चिन्ताको ग्रन्थ पहले प्रकाशित हो चुके हैं, जो विद्वज्जनोंके द्वारा समोक्षित और समादृत हुए हैं। अब उसी ट्रस्टसे उन्हीं डॉ० कोठियाजीके द्वारा इस सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिका भी प्रकाशन हो रहा है। इसको प्रसन्नता है ।
ग्रन्थका प्रतिपाद्य विषय जिन मुलाचार, मूलाराधना तथा कषायपाहुड आदि सिद्धान्त ग्रन्थोंसे लिया गया है, मैं उनके रचयिताओंका विनीत आभारी हूँ । पद्य रचना और तत्त्व निरूपण में हुई त्रुटियोंके लिये विद्वद्वर्गसे क्षमाप्रार्थी हूँ । इन्हें वे सौहार्दभावसे पढ़ें और सूचित करें कि इसमें आगम के विरुद्ध तो कहीं कुछ नहीं लिखा गया है। तीनों में लगभग साढ़े तीन हजार श्लोकोंकी रचना विविध छन्दोंमें हुई है । यह मेरे जोवन-निर्माता पूज्यवर गणेशप्रसादजी वर्णीके शुभाशीर्वादका हो फल है ।
ग्रन्थको भूमिका जैनागमके मर्मज्ञ पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्रीने लिखनेको कृपा की है । एतदर्थ उनका आभारी हूँ । ग्रन्थका प्रकाशन वीर- सेवा मन्दिर ट्रस्टके मानद मंत्री डॉ० दरबारीलालजी कोठियाके सौजन्य से सम्पन्न हुआ है, अतः उनके प्रति आभार प्रकट करता हूँ ।
श्री वर्णी दि० जैन गुरुकुल पिसनहारी की मढ़िया,
जबलपुर
वर्णी जयन्ति-आस्विन कृष्ण ४ वीरनि० २५१४
विनीत पन्नालाल जैन
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिमें प्रयुक्त छन्द
१. उपजाति २. वसन्ततिलका ३. स्रग्धरा ४. अनुष्टुप् ५. भुजङ्गप्रयात ६. भार्या ७. शालिनी
६. शस्थ १० द्रुतविलम्बित ११. मालिनो १२. स्वागता १३. हरिणी १४. शार्दूलविक्रीडित १५ प्रमाणिका
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________________
विषयानुक्रमणिका
श्लोक
पृष्ठ
r
or mo
४-५
oor.
५-६ ६ -७
॥
-
१० - 41
विषय प्रथम प्रकाश मङ्गलाचरण और ग्रन्थ-प्रतिज्ञा
१-८ चारित्रका लक्षण
६- १२ चारित्रको प्राप्त करनेवाला मनुष्य १३ - १७ मुनि-दीक्षा लेनेवाले मनुष्यको गबसे प्रार्थना १८ - २२ प्रार्थनाके उपरान्त गरुको स्वीकृति २२ - २५ पांच महाव्रतोंका संक्षिप्त वर्णन
२६ - पाँच समितियोंका संक्षिप्त स्वरूप ३२ - ३७ पाँच इन्द्रियविजयका निरूपण
३८ - ४५ छह आवश्यकोंका कथन
४६-५३ शेष सात मूलगुणोंका वर्णन
५४ - ६४ दीक्षार्थीका दिगम्बर दो बहण मारमा द्वितीय प्रकाश मङ्गलाचरण चारित्र प्राप्त करने का अधिकारी संयम लब्धिको प्राप्त करने वाले
पुरुषके करण तथा करणोंका कार्य, संयमके भेद
६ - १२ सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्रका स्वरूप
१३ - १५ परिहारविशुद्धि संयमका वर्णन
१६ - २० सूक्ष्मसाम्पराय संयमका वर्णन
२१ - २३ यथाख्यातचारित्रका वर्णन
२६ - २८ संयमसे पतित होकर पुनः संयम प्राप्त ___ करनेवाले मुनियोंके करणोंका वर्णन २६ - ३० प्रतिपात, प्रतिपद्यमान और तद्व्यति
रिक्त स्थानोंको परिभाषा ३१ - ३५ मोहनीयकर्मकी उपशमनाका वर्णन ३६ - ४०
-
Dy
१३ - १४
१५ - १६
१६
१६ - १७ १७ - १८
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विषयानुक्रमणिका
श्लोक
पृष्ठ
१-२
१-८ ६- १२ १३ - १७ १८ - २२
२२ - २५ २६ - ३१
३८ - ४५ ४६ - ५३ ५४ - ६४६ ६५ - ७१
५-६
-१०
विषय प्रथम प्रकाश मङ्गलाचरण और ग्रन्थ-प्रतिज्ञा चारित्रका लक्षण चारित्रको प्राप्त करनेवाला मनुष्य मुनि दीक्षा लेनेवाले मनुष्यकी गुस्से प्रार्थना प्रार्थनाके उपरान्त गुरुको स्वीकृति पांच महाव्रतोंका संक्षिप्त वर्णन पाँच समितियोंका संक्षिप्त स्वरूप पाँच इन्द्रियविजयका निरूपण छह आवश्यकोंका कथन शेष सात मूलगणोंका वर्णन दोक्षार्थीका दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण करना द्वितीय प्रकाश मङ्गलाचरण चारित्र प्राप्त करने का अधिकारी संघम लब्धिको प्राप्त करने वाले
पुरुषके करण तथा करणोंका
कार्य, संयमके भेद सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्रका
स्वरूप परिहारविशुद्धि संयमका वर्णन सूक्ष्मसाम्पराय संयमका वर्णन यथाख्यातचारित्रका वर्णन संयमसे पतित होकर पुनः संयम प्राप्त
करनेवाले मुनियोंके करणोंका वर्णन प्रतिपात, प्रतिपद्यमान और तव्यति
रिक्त स्थानोंको परिभाषा मोहनोयकर्मको उपशमनाका वर्णन
२-५
२
६- १२
१२ - १३
१३-१४
१३ - १५ १६ - २० २१-२६ २६ - २८
१५
२६ - ३०
१६-१७
३१ - ३५ ३६ - ४०
१७-१८
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________________
श्लोक
पृष्ठ
४१-४४ ४५ - ६२
१६-२२
६३ -७० ७१
-११
विषय अपूर्वकरण गुणस्थानमें होने वाले
कार्यका वर्णन अनिवृत्तिकरण गुणस्थानका कार्य मोहनीयकर्मको क्षपणाविधिके अन्तर्गत ___ क्षायिकसम्यग्दर्शन प्राप्त करनेका
कथन चारित्रमोहनोयको क्षपणाविधिका वर्णन प्रकरणका समारोप तृतीय प्रकाश मङ्गलाचररण महाव्रताधिकारके अन्तर्गत महाव्रतका
लक्षण और उनके नाम अहिंसामहानतका स्वरूप जीवकी जातियोंका वर्णन, तदन्तर्गत
नरकगतिका वर्णन तिर्यच्चगतिसम्बन्धो जोवोंका वर्णन पृथिवी, जल, अग्नि और वायुकायिक
जीवोंके विशेष प्रकार वनस्पतिकायिक जोवोंके प्रकार त्रसजोवोंका वर्णन सत्यमहानतका वर्णन, तदन्तर्गत असत्यके
चार भेद अज्ञानजन्य और कषायजन्यकी अपेक्षा
असत्यके दो भेदोंका वर्णन अचौर्यमहावतका वर्णन ब्रह्मचर्यमहाव्रतका निरूपण अपरिग्रहमहावतका वर्णन अपरिग्रहमहाव्रतमें दोष लगाने वाले
मुनियोंका वर्णन अहिंसामहारतको पाँच भावनाएं सत्यमहावतको पांच भावनाएं अचौयंमहावतको पाँच भावनाएं
१२ -
२२ -
- २५
- ३५
३० - ३२
३६ - ४४
४५ - ५१
३३ . ३४
३४ - ३६
- ६२ - ७१
।
1NU
।
।
६३ - १०० ४० १०१ - १०३
१०४ १०५ - १०७
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विषय
ब्रह्मचर्यमहाव्रतकी पाँच भावनाएं अपरिग्रहमहाव्रतको पाँच भावनाएं महाव्रताधिकारका समायरोप
चतुर्थ प्रकाश
मङ्गलाचरण समिति वर्णन यसमितिका वर्णन
भाषासमितिका वर्णन
एषणासमितिका स्वरूप माधुकरी वृत्तिका निरूपण
गोवरीवृत्तिका स्वरूप अग्निशमनी वृत्ति गर्तपूरण वृत्ति
अक्षम्रक्षण वृत्ति आदान निक्षेप समिति
( २१ )
व्युत्सर्गं समिति
समिति अधिकारका समारोप
पञ्चम प्रकाश
मङ्गलाचरण इन्द्रियविजयनामक मूलगुणाधिकार के अन्तर्गत स्पर्शनेन्द्रियविजयका वर्णन जिल्ला इन्द्रियविजयका वर्णन घ्राणेन्द्रियविजयका वर्णन
चक्षुरिन्द्रियविजयका वर्णन कर्णेन्द्रियविजयका वर्णन
इन्द्रियविजयाधिकारका समारोप
षष्ठ प्रकाश
मङ्गलाचरण
आवश्यकशब्दका निरुक्त अर्थ समता आवश्यकका वर्णन वन्दना आवश्यकका वर्णन
श्लोक
१०६ - ११३
११४ - ११५
११६ – ११७
१
२ - ३
४ - १५
१६ - २७
२८-३५
३६ - ३८
३६ - ४२
४३ - ४५
४६-४७
४८- ५१
५२ - ६५
६६ - ६८
७०
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१
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९- १७
१८
२५
२६ – ३०
३१ - ३७
३८
१
२ - ५
६ - १४
१५ - ३१
पृष्ठ
४२ - ४३
४४
४५
४४
४४
४५
४६
४६ - ४७
४८ - ४६
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४६ - ५०
५०
५०
-
५० - ५१
५१ - ५३
५३
५.३
३४
५४ - ५५
५५ - ५६
५६ - ५८
५७ - ५.६
५८- ५६
५.६
५८
६०
६२ - ६३
६३ – ६७
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________________
पृष्ठ
६७ - ७४
१५०
। २२ ) विषय स्तुति आवश्पकका वर्णन
३२ - ६३ प्रतिक्रमण आवश्यकका स्वरूप ६४ - ७२ प्रतिक्रमणका पाठ
७३ - १८ प्रत्याख्यान आवश्यकका वर्णन कायोत्सगं आवश्यकका वर्णन १०१-११७ कायोत्सर्गके चार भेद
११८ - ११६ कायोत्सर्ग सम्बन्धो ३२ दोष और अधिकारका समारोप
१२० - १२१ सप्तम प्रकाश मङ्गलाचरण पञ्चाचारके नाम तथा स्वरूपका वर्णन २ - ११ वर्शनाचारका वर्णन
१२-२२ सम्यग्ज्ञानाचारका वर्णन
२३ - ३६ विनयाचारका वर्णन
३७ - ४० माना । कान
17..४३ बहुमानाचारका वर्णन
४४ - ४६ अनि ह्नवाचारका वर्णन
५०-५२ व्यञ्जनाचारका वर्णन अर्थाचारका वर्णन उभयाचारका वर्णन
५५ - ५६ चारित्राचारका वर्णन तप आचारका वर्णन
६१ - ७२ आभ्यन्तरतपोंका वर्णन-तदन्तर्गत
प्रायश्चित्त तपका निरूपण विनय तपका वर्णन
८५ - १८ वैयावृत्य तपका वर्णन
६-६० स्वाध्याय तपका वर्णन
१व्युत्सर्ग तपका वर्णन
१०० - १०१ ध्यान तपके अन्तर्गत आतध्यानका वर्णन
१०२ - १०६ रौद्रध्यानका वर्णन
१०७-१०८
८७-८८ ५८-६० १०-६२ ६२ - ६३
५
NY
30
M
७३ - १४
१००
१०० १०१ - १०२
१०२
१०२ - १०३
१०३
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________________
विषय
श्लोक पृष्ठ धम्यध्यानका वर्णन
१०६ - ११० शुक्लध्यानका वर्णन
१११ - ११३ १०३ - १०४ तपाचारका समारोप
११५ - ११६ १०४ - १०५ वीर्याचारका वर्णन
११७ - १२४ १०५ - १०६ पञ्चाचारप्रकरणका समारोप
१२५ १०६ अष्टम प्रकाश मङ्गलाचरण
१०६ अनुप्रेक्षाधिकारके अन्तर्गत अनित्यानुप्रेक्षाका वर्णन
२-११ १०६ - १०७ अशरणानुप्रेक्षा
- २१ १०८-१०६ संसारानुप्रेक्षा
२२-३२ १०६ - ११० एकत्वानुप्रेक्षा
-- ४२ ११० - ११२ अन्यत्वानुप्रेक्षा
११२ - ११३ अशुचित्वानुप्रेक्षा
५३ - ६२ ११३ - ११४ आत्रवानुप्रेक्षा
६३ - ७२ ११४ - ११५ संवसानुप्रेक्षा
७३ - ८३ ११५ - ११६ निर्जरानुप्रेक्षा
८४ -६३ ११७ - ११८ लोकानुप्रेक्षा
१४ - १०३ ११८ - ११६ शेधिदुर्लभानुप्रेक्षा
- ११३ ११६ - १२० धर्मानुप्रेक्षा
११४ - १२३ १२० - १२१ अनुप्रेक्षाधिकारका समापन
१२२ मवम प्रकाश मङ्गलाचरण
१ १२२ चित्तको स्थिरताके लिये ध्यानको
सामनोके अन्तर्गत गतिमार्गणामें गुणस्थान
२-६ १२२ - १२३ इन्द्रिय और कायमार्गणाको अपेक्षा गुणस्थान का वर्णन
१० - १२ १२५ योगमार्गणामें गुणस्थान
१३ - १६ १२ - १२५ वेद, कषाय और योग मार्गणामें गुणस्थान २० -२३ १२५ - १२६ संयममाणामें गुणस्थान
२४ - २७ १२६ दर्शन, लेश्या और भव्यत्व मार्गणामें गुणस्थान २८ - ३१ १२५ - १२७
१०४
१२४
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________________
विषय
१२८
श्लोक
पृष्ठ सम्यक्त्व, संज्ञो और आहारक मार्गणामें गुणस्थान
___३२ - ३८
१२७ मार्गणाओंमें सम्यग्दर्शनका वर्णन करते हुए गतिमार्गणाकी चर्चा
३६-४८ इन्द्रिय, काय, योग, वेद और ज्ञानमार्गणाको अपेक्षा वर्णन
४-५६ १२६ - १३० संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्वा संशो और आहार मार्गणाकी अपेक्षा वर्णन ५७ -- ६४ १३० - १३१ दशम प्रकाश मङ्गलाचरण
१-२ आयिकाओंकी विधि
३ - ५
१३३ भव्यस्त्रियोंके द्वारा आयिकादीक्षाको प्रार्थना ६ - १४ १३३ - १३४ गरुने क्या कहा?
१५ - १७ १३३ – १३४ गुरुद्वारा आयिकाओंको विधिका वर्णन - २६ १३५ - १३६ क्षुल्लिकाओंके यतका वर्णन गरुका उपदेश पाकर भव्यस्त्रियोंके द्वारा आयिकादक्षिाग्रहणका वर्णन
३३ - ३७ १३६ - १३७ एकादश प्रकाश मङ्गलाचरण सहलेखनाकी उपयोगिता
२- ११ १२८ - १३६ सल्लेखना धारण करनेका काल और उसके भेद
१२ - २० १३६ - १४० सल्लेखनाके लिये निर्यापकाचार्यकी उपयोगिता २१ – २५ १४० - १४५ क्षपक द्वारा निर्यापकाचार्यसे प्रार्थना २५ ... ३.५ १४१ - १४२ निर्यापकाचायके द्वारा क्षपकको सम्बोधन ३२ – ४१ १४२ - १४३ सल्लेखना वर्णनका समारोप
१४३ द्वादश प्रकाश मङ्गलाचरण देशचारित्र वर्णनकी प्रतिज्ञा
--५ १४५ - १४५ पांच अणुव्रतोंका वर्णन
--- १४ १४५ तोन गुणवतोंका वर्णन
- २४ १४६ - १४७
३३ -
१३८
१३८
१४४
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________________
पलोक पृष्ठ २५ -३८ १५५ - १
।
। ।
।
।
।
।
।
।
२६ -- ४१ १४६ ५२ --- ४३१
१४६ - १५०
१५० १५० १५१ १५१ १५२ १५२ १५३ १५३ १५३
१५४ ७२ - ७३ १५४ - १५५ ७४ – ७६ १५४ - १५५ । – ७६ १५५
८७ १५५ - १५६ ६८-६३ १५६ - १५७ ६४ - १३० १५७ - १५८ १०१ - १०६ १५६ - १६० ११० - १२० १६० - १६१ १२१ – १२२ १६१
।
विषय - चार शिक्षाव्रतोंका वर्णन अतिचार वर्णनको प्रतिज्ञा तथा
सम्यग्दर्शनके अतिचार अहिंसाणुव्रतके अतिचार सत्याणुव्रतके अतिचार अचौर्याणवतके अतिचार ब्रह्मचर्याणुव्रत'के अतिचार परिग्रहपरिमाणवतके अतिचारदिग्वतके अतिचार देशवतके अतिचार अनर्थदण्डवतके अतिचार सामायिकवतके अतिचार प्रोषधोपवासके अलिचार भोगोपभोगपरिमाणके अतिचारा अतिथिसंविभागवतके अतिचार सल्लेखनाके अतिचार व्रत और शीलका विभाग जिनपूजा आदिका निर्देश जिनवाणोके प्रसारका निर्देश प्रतिमाओंका नामनिर्देश दर्शनिकधावकका लक्षण अतिक आदि प्रतिमाओंके लक्षण उद्दिष्ट-त्याग प्रतिमाका विशेष निर्देश श्रावकधर्म प्रकरणका समारोप त्रयोदश प्रकाश मङ्गलाचरण देशचारित्र धारण करनेके लिये अन्तरङ्ग
कारणभूत कर्मोको दशाका वर्णन उपशामनाका लक्षण और भेद स्थिति उपशामना, अनुभाग उपशामना
और प्रदेश उपशामनाका लक्षण
।
। ।
।
।
१६२
२-५ १६२ ६ - १२ १६३ - १६४
१३ - २३ १६५ - १६५
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श्लोक
पृष्ठ
२४ - २७ १६५ - १६६ २८ - ३३ ३४ - ३७ १६६ - १६७ ३८ - ३६ १६७ - १६८ ४० --- ४३ १६८ ४४ - ४४ १६८ - १६६ १-८ १७० - १७१
विषय देशचारित्र धारण करने में करणोंका विशेष
निर्देश अधःप्रवृत्त आदि करणोंका कार्य देशचारित्रके गुणस्थानका निर्देश देशचारित्र धारण करनेका फल देशव्रता तियंञ्चों तथा मनुष्योंका निवास प्रकरणका समारोप प्रशस्ति परिशिष्ट आहार सम्बन्धी ४६ दोषोंका वर्णन बत्तीस अन्तराय बन्दना सम्बन्धो कृतिकर्म के बत्तीस दोष कायोत्सर्ग के १८ दोष शीलके अठारह हजार भेद मनियोंके चौरासी लाख उत्तरगण निर्जरा सल्लेखना
१७२-१७८ १७८ - १८१ १८१ - १८४ १८४ - १८५
१८५
१८६ १८६ - १८७ १८७ - १८८
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सम्यकचारित्र-चिन्तामणिः
नया
सामान्यमूल गुणाधिकार अब 'सम्यक्त्व-चिन्तामणि'के द्वारा सम्यग्दर्शन और 'सज्ज्ञानचन्द्रिका के द्वारा सम्यग्ज्ञानका वर्णन करने के पश्चात् सम्यक चारित्रका वर्णन करनेके लिये 'सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि' ग्रन्थका प्रारम्भ करते हैं । निर्विघ्न नन्थ-समाप्तिके लिये प्रारम्भमें मङ्गलाचरण करते हैं । ध्यानानले येन हुताः समस्ता रागादिदोषा भवदुःखवास्ते । आत्मविश्वाजितमत्र वन्दे जिनं जितानन्तभयोप्रवाहम् ॥१॥ ___अर्थ-जिन्होंने सांसारिक दुःख देने वाले उन प्रसिद्ध रागादिक समस्त दोषोंको ध्यानरूपी अग्निमें होम दिया है, जो अष्ट प्रातिहार्यरूप आर्हन्त्य पदमे सुशोभित हैं तथा जिन्होंने अनन्त' भवसम्बन्धी तोत्र दाहको जीत लिया है-नष्ट कर दिया है, उन जिनेन्द्र भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ ॥१॥ निहत्य कर्माष्टकशत्रुसैन्यं लोकाग्रमध्ये निवसन्ति ये तान् । सिद्धान विशुद्धान जगति प्रसिद्धान् वन्दे सदाहं मिनभावशुदध्ये ॥ २ ॥
अर्थ-जो अष्टकम समूहरूप शत्रुको सेनाको नष्टकर' लोकके अग्रभागमें निवास करते हैं, जो विशुद्ध हैं तथा जगत्में प्रसिद्ध हैं उन सिद्ध परमेष्टियोंको मैं अपने भावोंको शुद्धिके लिये सदा नमस्कार करता हूँ ॥२॥ आचार्यवर्यान् गुणरत्नधुर्यान् बहुश्रुतान् विश्वहितप्रसतान् । साधुन् सवा श्रायससाधनोमान नमामि नित्यं वर भक्तिभावात् ।। ३ ।।
अर्थ-गुणरूपी रत्नोंसे श्रेष्ठ उत्तम आचार्योको, सब जीवोंके हितमें संलग्न उपाध्यायोंको और सदा आत्मकल्याणके सिद्ध करने में उत्कण्ठित साधुओंको मैं उत्कृष्ट भक्तिभावसे नित्य ही नमस्कार करता हूँ ॥३॥ सम्यव्यवस्था प्रविधाय यः प्राक सम्पालयामास प्रजासमूहम् । विरज्य पश्चाद भवतो जनालों प्रदर्शयामास शिवस्य वम ॥ ४॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः तमादिदेवं सुरजालसेवं मध्यौघबन्धं जनताभिनन्यम्। गुणर्लसन्तं महसा हसन्तं विश्वान्य देवान् कृप्तरागिसेवान् ।। ५ ॥ प्रणम्य भक्त्या भवभञ्जनाय चारित्रचिन्तामणिमत्र वक्ष्ये। ये सन्ति केचिन्मतिमान्धभाजतेषां कृतेऽयं मम सत्प्रयासः ॥ ६ ॥ अतो न विद्वज्जनमाननीय विधेयं मयि दौर्मनस्यम् । श्रुतस्य सेवा महनीय कार्यमित्येव हेतोरहमत्र लग्नः ॥ ७ ॥ यो वर्तते यस्थ लिसर्गजांतो न तस्य लोपः सहसा प्रसाध्यः। चारित्रचिन्तामणिरेव लोके चिस्याभिचाने सततं प्रसिद्धः ॥ ८॥
अर्थ-जिन्होंने पहले समीचीन व्यवस्थाकर प्रजा-समूहका पालन किया था और पश्चात् संसारसे विरक्त हो सब लोगोंको मोक्षका मार्ग दिखलाया था, देवोंने जिनको सेवाको थो, जो भव्यसमूहके द्वारा वन्दनीय थे, जनसमूहके अभिनन्दनीय थे, गुणोंसे शोभायमान थे तथा रागो मनुष्योंके द्वारा सेवित संसारके अन्य देवोंकी जो अपने तेजसे हँसी कर रहे थे उन आदिदेव-वृषभनाथ भगवान्को मैं संसार परिभ्रमणका नाश करने के लिये भक्तिसे प्रणाम कर यहां 'चारिम विन्दवाणि' या कहूंगः । इस संसार में कोई बुद्धिकी मन्दतासे युक्त हैं उनके लिये मेरा यह सत्प्रयास है। अत: विद्वज्जनोंके द्वारा माननीय ज्ञानोजन मेरे ऊपर दौर्मनस्य न करें-इसने यह ग्रन्थ क्यों रचा, ऐसा भाव न करें। श्रुतको सेवा करना एक अच्छा कार्य है, इसी हेतुसे मैं इस कार्य में संलग्न हुआ है। जिसका जो निसर्ग जात-स्वभाव होता है उसका लोप भो तो सहसा नहीं किया जा सकता। इस जगत में चारित्ररूपो चिन्तामणि हो अभिलषित पदार्थों के देने में निरन्तर प्रसिद्ध है, अतः उसका वर्णन करता हूं ।। ४.८ ।। आगे चारित्रका लक्षण कहते हैंसंसारकारणनिवृतिपरायणानां
__या कर्मबन्धननिवृत्तिरिय मुनीनाम् । सा कथ्यते विशवयोधपरमुनीन्द्र
प्रचारित्रमत्र शिवसाधनमुख्यहेतुः ॥ ९ ॥ अर्थ-संसारके कारण मिथ्यात्व तथा हिंसादि पापोंको निवृत्ति करने में तत्पर मुनियों की जो कर्म-बन्धनसे निवृति है --कर्मबन्धनके कारणोंको दूर करनेका प्रयास है वही निर्मल ज्ञानके धारक मुनिराजों
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प्रथम प्रकाश
के द्वारा चारित्र कहा जाता है। इस जगत्में चारित्र ही मोक्ष प्राप्तिका प्रमुख हेतु माना गया है ।।
अथवा मोहध्वान्तापहारे प्रकटितविशदज्ञानपुञ्जो जनो यो
रागादीनां निवृत्त्य परिहनि सनः पापताप दुरन्सम । चारित्रं तन्मुनीन्द्रः शिवसुखसवनं कोर्यंते कीर्तिपात्र
राचारात्मनिष्ठनिखिलगुणधरः स्वात्मसंवेदनादयः ॥१०॥ अर्थ-मोह-मिथ्यात्वरूपी अन्धकारके नष्ट हो जानेपर प्रकट होने वाले निर्मल ज्ञान समूहसे युक्त मनुष्य, रागादिक विभाव भावों को नष्ट करने के लिए जो सदा दुःखदायी पापरूपो सन्तापका त्याग करता है वहीं आत्मनिष्ठ--आत्मध्यानमें लोन, समस्त गगोंका धारक तथा स्वात्मानुभूतिसे युक्त यशस्वी, मुनिराज आचार्यों द्वारा चारित्र कहा जाता है । यह चारित्र मोक्ष सुखका सदन है अर्थात् चारित्रसे हो मोक्ष सुखकी प्राप्ति होती है ।। १० ।।
अथवा आत्मस्व मावे स्थिरता मुनीमा या वर्तते स्वास्मसुखप्रदात्री । सा कोत्यंते निर्मलबोधयद्भिश्चारित्र नामा परमार्थतश्च ॥ ११॥
अर्थ-निश्चयनयसे मुनियोंकी, स्वात्मसुखको देनेवालो जो आत्मस्वभावमें स्थिरता है वही निर्मल ज्ञानधारो मुनियोंके द्वारा चारित्र कहा जाता है॥ ११॥
अथवा हिंसाविपापाद् व्यवहारतो या भवेन्मुनीनां विनित्तिरेषा । चारित्रनाम्ना भुवि सा प्रसिद्धा कौघकक्षानल पुञ्जभूता ।। १२॥
अर्थ---व्यवहारनयसे-चरणानुयोगकी पद्धतिसे मुनियोंको जो हिंसादि पापोंसे निवृत्ति है वहो पृथिवीपर चारित्र नामसे प्रसिद्ध है। यह चारित्र कर्मसमूहरूप वनको भस्म करने के लिये अग्नि समूहके समान है ॥ १२ ॥ आगे चारित्रको कौन मनुष्य प्राप्त होता है, यह कहते हैं
मोहस्य प्रकृतीः सप्त हवा प्राप्तसुदर्शनः । कर्मभूमिसमुस्पन्नो नरो भव्यस्वभूषितः ॥ १३ ॥ तस्वज्ञानयुतो भीतो भवभ्रमणसन्सलेः। आजवं जवसिन्धोरच सोरं प्राप्य प्रसन्नधीः ॥ १४ ॥
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सम्यक् चारित्र चिन्तामणिः
शान्ति भूषितः ।
प्रत्याख्यानामृजतिब चारित्रं लमते कश्चिन् सति सज्वलनोनये ।। १५ ।। संयमलब्धिरित्येषाऽबद्धायुषकस्य सम्भवेत् । बद्धदेवायुषो वा स्यान्नान्यस्य जातुचिद् भवेत् ॥ बद्धदेवेतरामुकोऽणुव्रतं वा महाव्रतम् । सन्धर्तुं नैव शक्नोति नियोगाविह जन्मनि ॥
१६ ॥
१७ ॥
अर्थ - मोहनीयकी सात प्रकृतियों को नष्टकर उपशम, क्षय या क्षयोंपशमकर जिसने सम्यग्दर्शन प्राप्तकर लिया है, जो कर्मभूमिमें उत्पन्न है. भव्यस्वभावसे सहित है, तस्वज्ञान से युक्त है, संसार- भ्रमणकी सन्ततिसे भयभीत है तथा संसाररूपी समुद्रका तट प्राप्त होनेसे जिसको बुद्धि प्रसन्न है - संक्लेश से रहित है, प्रत्याख्यानावरण कषायका अनुदय होनेसे जो शान्तिसे विभूषित है ऐसा कोई मनुष्य संज्वलन तथा नोकषायों का यथासम्भव उदय रहते हुए चारित्रको प्राप्त होता है । यह संयमलब्धि - चारित्र की प्राप्ति उस मनुष्यको होती है जो अवद्धायुष्क है अर्थात् जिसने अभी तक परभव सम्बन्धो आयुका बन्ध नहीं किया है और यदि किया है तो देवायुका ही बन्ध किया है अन्य किसीको यह संयमलब्धि प्राप्त नहीं होती। क्योंकि ऐसा नियम है कि जिसने देवायुके सिवाय अन्य आयुका बन्ध कर लिया है ऐसा जीत्र इस जन्म में न तो अणुव्रत धारण करने में समर्थ होता है और न महाव्रत धारण करनेमें। तात्पर्य यह है कि संयमलब्धि और संयमासंयम लब्धि उपर्युक्त जोवको ही होती है ।। १३-१७ ॥
आगे मुनिदीक्षा लेनेवाला मनुष्य क्या करता है, यह कहते हैंबन्धुवर्गं समापृच्छय भङ्क्त्वा स्नेहस्य बन्धनम् । पञ्चाक्षोविजयं कृत्वा विरक्तो नेह पोषणात् ॥ १८ ॥ विपिने मुनिभिर्युक्तं
करुणाकरसन्निभम् । मोक्षमार्गनिरूपकम् ॥ १९ ॥
अषाविसर्ग वपुषा गुरु सम्प्राप्य तत्पाद-युगलं विनमम्मुदा । प्रार्थयते - दयासिन्धो ! माँ तारय भवार्णवात् ॥ २० ॥ न मे कश्चिद् भये नाहं वतें कोऽपि कस्यचित् । भवरपावह्वयं सुक्त्या शरणं नैव विद्यते ॥ २१ ॥ निर्ग्रन्यसत्वां तारयेह भवान्धितः । इत्थं सम्प्रार्थ्य तरपाबद्व खूबत्तविलोचनः ।। २२ ।।
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प्रथम प्रकाश
असिक्तमुखस्तिष्छंत् तस्य वागमृतोत्सुकः ।
अर्थ – मुनि दीक्षा धारण करनेके लिये उत्सुक भव्यमानव, बन्धुवर्ग से पूंछकर स्नेहरूपो बन्धनको तोड़कर तथा पच इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर शरीर पोषणसे विरक्त होता हुआ वनमें उन गुरुके पास जाता है जो अनेक मुनियोंसे सहित हैं, दयाके मानों सागर हैं और वचन बोले विना ही शरीर द्वारा - शरीरकी शान्तमुद्राके द्वारा ही मोक्षमार्गका निरूपण कर रहे हैं। गुरुके पास जाकर वह उनके चरण युगल को नमस्कर करता हुआ हर्षपूर्वक प्रार्थना करता है - है दयाके सागर ! मुझे संसाररूप सागर से तारो - पार करो । संसार में मेरा कोई नहीं है और मैं भी किसोका कुछ नहीं है, आपके चरण-युगलको छोड़कर अन्य कुछ शरण नहीं है, अतः आप निर्ग्रन्थ दीक्षा देकर इस संसार सागर से पार करो। इस प्रकार प्रार्थना कर वह गुरुके चरणयुगलवर दृष्टि लगाकर चुप बैठ जाता है । उस समय उसका मुख आँसुओं से भींग रहा होता है और वह गुरुके वचनामृतके लिये उत्सुक रहता है ॥ १८-२२ ।।
आगे गुरु क्या कहते हैं, यह बताते हैं
गुरुः प्राह महामय्य ! साधु संचिन्तितं त्वया ॥ २३ ॥ संसारोऽयं महादुः खकन्दोऽस्ति सन्ततम् । श्रय एतत्परित्यागे नावाने तस्य निश्चितम् ॥ २४ ॥ गृहाणु मुमिदीक्षां त्वमेषेव साधुमूलगुणान् वच्मि शृणु
भवतारिणी ।
ध्यानेन तानिह ॥ २५ ॥ तुमने ठोक
अर्थ- गुरु ने कहा- हे महाभव्य ! विचार किया है। यह संसार सदा महादुःखरूपी वृक्षका कन्द है । इसका त्याग करने में कल्याण निश्चित है, ग्रहण करने में नहीं । तुम मुनि दीक्षा ग्रहण करो, यही संसारसे तारनेवालो है। मैं मुनियोंके मूलगुण कहता है उन्हें तुम ध्यान से सुनो। २३-२५ ॥
आगे मूलगुणों के अन्तर्गत पाँच महाव्रतों का संक्षिप्त स्वरूप कहते हैंअहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यापरिग्रहौ । एतन पख कथ्यन्ते महाव्रतानि सूरिभिः ॥ २६ ॥ स्थावरजीवानां हिंसायाः वर्जनं नृभिः । अहिंसा नाम विशेयं महाब्रतमनुत्तमम् ॥ २७ ॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः सूक्ष्मस्थूलविभेदेन द्विविधं वर्ततेऽनृतम् । तस्य त्यागो नृणां शेयं सत्यं नाम महाव्रतम् ॥ २८॥ सर्वपा परवस्तूनां त्यागो हास्तेयमुच्यते । दाराः स्वपरभेदेन द्विविधाः परिकीर्तिताः ।। २९ ॥ मानुसार परिवार का सार महाशाम । बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्विविधोऽस्ति परिप्रहः ।। ३० ॥ तस्य त्यागी नुभिर्यस्तु सोऽपरिग्रह उच्यते ।
महायतस्वरूपं वे गवितं ते समासतः॥ ३१ ।। अर्थ-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये आचार्यों द्वारा पांच महावत कहे गये हैं। मनुष्य जो त्रस और स्थावर जीवोंको हिंसाका त्याग करते हैं वह अहिंसा महावत है। सूक्ष्म और स्थूलके भेदसे असत्य दो प्रकारका है । मनुष्योंके जो दोनों प्रकारके असत्यका त्याग है वह सत्य महावत है। बिना दो हुई परवस्तुओंका सर्वथा त्याग करना अचौर्य महानत है। स्व और परके भेदसे स्त्रियां दो प्रकारकी कही गई हैं, उनका मनुष्यों द्वारा जो त्याग होता है वह ब्रह्मचर्य नामका महाव्रत है। बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे परिग्रह दो प्रकारका है। मनुष्यों द्वारा उसका जो त्याग किया जाता है, वह अपरिग्रह महाव्रत कहलाता है । इस प्रकार मैंने तुम्हारे लिये संक्षेपसे पाँच महाव्रतोंका स्वरूप कहा है ॥ २६-३१ ।। आगे पाँच समितियोंका स्वरूप कहते हैं
ईर्याभाषेषणादानन्यासव्युत्सर्गसंज्ञिताः । महाव्रतस्य रक्षार्थं ज्ञेयं समितिपञ्चकम् ॥ ३२ ॥ विवादण्डमितं भूभीभार्ग वृष्ट्वा मुनीश्वरः। गम्यते यत् सुविज्ञेया होर्यासमितिरत्र सा ॥ ३३ ॥ हिता मिता प्रिया वाणी मुनिभिर्या समुच्यते। भाषासमितिरक्ता सा सत्यवागविजिनः ॥ ३४ ॥ एकवारं विधा मुडवते मुनियंत्पाणिपात्रयोः। एषणा समितिलेया साधुकल्याणकारिणी ।। ३५ ।। ज्ञानोपकरणादीनो समीक्ष्यादानसंस्थिती। आवामन्याससंज्ञा सा समितिबुधसम्मता ॥ ३६॥ मलमुत्रादिबाचाया मित्तिर्गसजन्तुके । घामति भियते या सा व्युत्सर्गसमितिमता ॥३७ ।।
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प्रथम प्रकाश
अर्थ - ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान-न्यास ( आदान-निक्षेप ) और व्युत्सगं ये पाँच समितियां महाव्रतोंकी रक्षा के लिये कहीं गई हैं । मुनिराज दिनमें जो चार हाथ जमीन देखकर चलते हैं वह ईर्ष्या समिति है। मुनि जो हित-मित प्रिय वाणीका बोलते हैं उसे सत्य वचनके स्वामी जिनेन्द्र भगवान्ने भाषा समिति कहा है। मुनि दिनमें एक बार जो यथाविधि पाणिपात्रमें भोजन करते हैं वह साधुओंका कल्याण करने वाली ऐषणा समिति जानने योग्य है । ज्ञानके उपकरण शास्त्र, शौचके उपकरण कमण्डलु और संयमके उपकरण पीछो आदिको देखकर उठाना रखना आदान न्यास ( आदान- निक्षेपण ) समिति ज्ञानो जनोंके द्वारा मानी गई है। जीवरहित स्थानमें मुनियों द्वारा जो मलमूत्र आदिको वाधासे निवृत्ति को जाती है वह व्युत्सर्ग या प्रतिष्ठापना समिति मानी गयी है ।। ३२-३७ ।।
आगे पञ्च इन्द्रिय-जयका वर्णन करते हैं
स्पर्शनं रसनं घ्राणं चक्षुः श्रवणमेव च । हृषीकाणि समुच्यन्ते सम्यग्ज्ञानघरैर्नरैः ॥ ३८ ॥ हृषकाणां जयः कार्यः साधुदीक्षासमुद्यतः । ये हि वासा हृषकाणां तेषां दीक्षा क्य राजते ॥ ३९ ॥ कामिनी कोमलाङ्गे च रूक्षं पाषाणखण्डके । रागद्वेषौ न यस्य स्तः स भवेत् स्पर्शनोज्जथी ।। ४० । इष्टानिष्टर से भोज्ये माध्यस्थ्यं यस्य विद्यते । रसनाक्षयस्तस्य शस्यते मुबि साधुभिः ॥ ४१ ॥ सौगन्ध्ये चापि दौर्गन्ध्ये माध्यस्थ्यं न जहाति यः । घ्राणाक्ष विजयो स स्यात् कर्मक्षपणतत्परः ॥ ४२ ॥ मनोज्ञे मनोज्ञे च रूपे यस्य न विद्यते । वंषम्यं विप्रपत्तिश्च स चक्षुविजयी भवेत् ।। ४३ ।। निन्दायां स्तवने यस्य माध्यस्थ्यं भंव होयते । श्रवणालजयी स स्यात् साधुवीलाधरो नरः ॥ ४४ ॥ यथा खलीनतो होना या कापयगामिनः ।
+
तथा संयमतो होना नराः कापथगामिनः ॥ ४५ ॥
७
अर्थ -- सम्यग्ज्ञानको धारण करनेवाले मनुष्योंके द्वारा स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और कर्ण ये पाँच इन्द्रियाँ कहो जाती हैं । मुनिदीक्षा के लिये उद्यत मनुष्यों को इन्द्रियोंको जय करना चाहिये। क्योंकि
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सम्यकचारित्न-चिन्तामणिः जो इन्द्रियोंके दास हैं उनकी दया कहाँ निगाजतो है अर्थात कहीं नहीं। स्त्रोके कोमल शरोरमें और रूक्ष पाषाण खण्ड में जिसके राग, द्वेष नहीं है वह स्पर्शनेन्द्रिय जयो कहलाता है। इष्ट और अनिष्ट रस वाले भोजनमें जिसको मध्यस्थता विद्यमान रहती है उसका रसनेन्द्रिय विजय पृथिवोपर साधुओंके द्वारा प्रशंसित होता है। सुगन्ध और दुर्गन्धमें जो मध्यस्थताको नहीं छोड़ता है वह कर्म-क्षयमें उद्यत घ्राणेन्द्रियजयी होता है। मनोज और अमनोज्ञ रूपमें जिसके विषमता और विरोध नहीं है वह चक्षुरिन्द्रिय विजयो होता है। निन्दा और स्तुतिमें जिसको मध्यस्थता नहीं छूटती वह मुनि-दोक्षामें तत्पर रहने घाला मनुष्य कर्णेन्द्रियजयी होता है। जिस प्रकार लगामसे रहित घोड़े कुमार्गगामी होते हैं उसी प्रकार संयमसे रहित मनुष्य कुमार्गगामो होते हैं ॥ ३८.४५ ॥ आगे छह आवश्यकोंका कथन करते हैं
साधुमातुक्निं कार्य षडावश्यकपालनम् । समता बन्दना चापि स्तुतिस्तीर्थकृतां सदा ।। ४६ ॥ प्रतिक्रमणं च प्रत्याख्यानं ध्युत्सर्ग एव च । इत्येते षड् सुधिज्ञेयाः प्रोक्ता आवश्यका जिनः ।। ४७ ।। इष्टानिष्टपवार्थेषु रागद्वेषविवर्जनम् । समता शस्यते सद्धिरात्मशुद्धिविधायिनी ॥ ४५ ॥ चतुविशतितीर्थेशामेकस्य स्तवनं मुदा । क्रियते साधुना यसद् यन्वना नाम कथ्यते ॥ ४९ ॥ सर्वतीर्थंकृतां भक्त्या स्तवनं यद विधीयते । स्तुतिरावश्यकं ज्ञेयं मुनीनां मोदवायनम् ॥ ५० ॥ भूतकालिकदोषाणां प्रायश्चित्त विधायिनी । क्रिया या साधुसङ्घस्य सा प्रतिक्रमणं मतम् ॥ ५१ ।। भाविकाले विधास्यामि जातुचिन्नव पातकम् । इत्येवं यत्प्रतिज्ञानं प्रत्याख्यानं तदुच्यते ।। ५२ ॥ अन्तर्बाह्योपधित्यागे कायमोहविवर्जनम् ।
ध्यायं ध्यायं महामन्त्रं व्युत्सर्गः सोऽभिधीयते ।। ५३ ॥ अर्थ–साधुको प्रतिदिन छह आवश्यकोंका पालन करना चाहिये समता, वन्दना, तोथंकरोंकी स्तुति, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और व्युत्सर्ग ये छह आवश्यक जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कहे गये हैं, अतः
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प्रथम प्रकाश
जानने योग्य है । इष्ट-अनिष्ट पदार्थोंमें राग-द्वेषका त्याग करना, सत्पुरुषोंके द्वारा समता कहो गई है। यह समता आत्म शुद्धिको देने वाली है। चौबीस तीर्थंकरों में से किसी एक तीर्थंकरका हर्षपूर्वक जो स्तवन किया जाता है वह बन्दना कहलाती है और सभी तीर्थंकरोंका भक्ति जो स्तवन किया जाता है वह स्तुति नामक आवश्यक कहलाता है । यह आवश्यक मुनियोंको आनन्द देनेवाला है । भूतकालीन दोषोंका प्रायश्चित दिलाने वाली साधु समूहको जो क्रिया है वह प्रति क्रमण मानी गई है। भावी कालमें कभी भी ऐसा पाप नहीं करूंगा इस प्रकारका जो नियम है वह प्रस्थानाता है। अन्तरङ्ग 'और बहिरङ्ग परिग्रहका त्यागकर महामन्त्रका ध्यान करते हुए जो शरीरसे मोह छोड़ा जाता है वह व्युत्सर्ग नामका आवश्यक कहलाता है ।। ४६-५३ ।।
आगे शेष सात गुणों का वर्णन करते हैं
लोचाचेलक्यमस्नानं भूशय्यादन्तधावनम् स्थितिभूषत्येकमुक्ती च सप्तैते शेष सद्गुणाः ॥ ५४ ॥ मासद्वयेन मासैस्तु त्रिभिर्मासचतुष्टयात् । शिरः स्थान् श्मश्रुकूचं स्थान कचान् सुचेत् प्रमोदतः ॥ ५५ ॥ लुञ्चस्य दिवसे कार्य उपवासो नियोगतः । एकान्ते लुञ्चनं श्रेष्ठ महंभाव निवारणात् ॥ ५६ ॥ ब्रह्मचर्यस्य शुद्ध्यर्थमाचेलक्यं मुदा वहेत् । नैन्थ्ये विद्यमानेऽपि नाभ्यं मूलगुणो मतः ॥ ५७ ॥ चेलखण्ड परित्यागात् ब्रह्मचर्यं परोक्ष्यते । वस्त्रान्त विकृतिर्ब्रष्टुं नंद शक्या शरीरिभिः ।। ५८ ।। जोवहिंसा निवत्यर्थं वैराग्यस्य वृद्धये । स्नानत्यागो विधातव्यः साधुभिः शिवसाधकः ।। ५९ ।। विष्टरादिपरित्यागे भूशय्या शरणं मतम् । कटः पलालपुज्जो वा कदाचिद् ग्राह्य उच्यते ॥ ६० ॥ रजन्याः पश्चिमे भागे श्रमस्य परिहाणये । शेरते मुनयः किञ्चिद् भूपृष्ठे जातु कर्कशे ॥ ६१ ॥ कुन्दपुष्पाभदम्साल वृष्ट्वा रागः प्रजायते । तद्रागस्य विनाशायादन्तधावनमुच्यते ॥ ६२ ॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः वासरे होकथाहं यो स्थित्वा पाणिपात्रयोः। भुङ्क्त साधुरनासक्त्या तत्स्थितिभोजनं मतम् ।। ६३ ।। एकस्मिन् दिवसे मुक्तिबेले विनिरूपिते ।
गृहिणां साधुसङ्घस्तु सम्मुक्ते टेकवारकम् ।। ६४ ॥ अर्थ-केशलोंच करना, नग्न रहना, स्नान नहीं करना, पृथिवोपर सोना, दातौन नहीं करना, खड़े-खड़े आहार करना और एक बार आहार लेना, ये मुनियोंके शेष सात गुण माने गये हैं। दो माह तोन माह अथवा चार माहमें शिर तथा डांढ़ी मूछके केशोंका हर्षपूर्वक लोंच करना चाहिये। लोंचके दिन नियमसे उपवास करना चाहिये । एकान्तमें केशलोंच करना श्रेष्ठ है क्योंकि उसमें अहंभाव-अहंकार नहीं होता। ब्रह्मचर्यको शुद्धिके लिये हर्षपूर्वक नान्यत्रत धारण करना चाहिये। निर्ग्रन्थ-निष्परिग्रह दशाके रहते हुए भी नागन्य व्रतको मूलमुण माना गया है। क्योंकि वस्त्रखण्डका परित्याग होनेसे ही ब्रह्मचर्यको परोक्षा होती है । वस्त्रके भीतर होनेवाला विकार प्राणियोंके द्वारा देखा नहीं जा सकता । जीव हिंसाको निवृत्ति तथा वैराग्यको वृद्धिके लिये मोक्षको साधना करनेवाले साधुओंको स्नानका त्याग करना चाहिये । बिस्तर आदिका त्याग हो जानेपर साधुओंकी भूशय्या ही शरण मानी गई है। कभो चटाई और पुआल आदि भो ग्राह्य-ग्रहण करने योग्य माने गये हैं। थकावटको दूर करनेके लिये मुनि रात्रिके पश्चिमा भागमें कर्कश पृथ्वी-पृष्ठपर कभी कुछ शयन करते हैं। कुन्दके फूल समान आभावाली दन्तपंक्तिको देख कर राग उत्पन्न होता है। उसका नाश करनेके लिये अदन्तधावन गुण कहा जाता है। मुनि दिन में एक बार खड़े होकर पाणिपात्र हाथ रूपी पात्रमें अनासक्त भावसे जो आहार करते हैं बह स्थिति-भोजन नामका गुण है। गृहस्थोंके लिये दिनमें भोजन करनेके लिये दो बेला कही गई है परन्तु साधु-समूह एक बार हो भोजन करते हैं उनका यह एक भुक्त-मूलगुण कहलाता है ।। ५४-६४ ।। इस प्रकार गुरुके मुखसे मूलगुणोंका वर्णन सुन दीक्षाके लिए उद्यत मनुष्य क्या करता है, यह कहते हैं
इत्थं मूलगुणान् श्रुत्वा गुरुवदनवारिजात् । ओमित्युक्त्वा मुदा जातो रोमाञ्चित कलेवरः ॥ ६५ ।।
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प्रथम प्रकाश
लुञ्चित्वा पाणियुग्मेन कचान् शिरसि संस्थितान् । मुक्त्वा वस्त्रावृति सद्यः सजातोऽसौ दिगम्बरः।। ६६ ।। गुरुणा कृत संस्कारी धृतपिच्छकमण्डलुः। शुशुभे क्षीणसंसार साधुसङ्घाभिनन्वितः 11 ६७ ॥ करणानां विशुद्धिर्या दशिता परमागमे । तां सम्प्राप्य परिप्राप्तोऽप्रमत्तविरतस्थितिम् ॥ ६८ ॥ अन्तर्मुहुर्तमध्येऽसौ प्रमत्तविरतोऽभवत् । कृस्वारोहावरोहौ स षष्ठसप्तमयोश्चिरम् ॥ ६९ ॥ धृत सामायिकच्छेयोपस्थापनसंयमः।
विजहार महीपृष्ठे गुरुसङ्घ-समन्वितः ॥ ७० ॥ अष्टाङ्गसम्यक्त्वविभूषितो यो, यो ज्ञानशाखोल्लसितः समन्तात् । चारित्रसौगन्ध्यसमन्वितो यः स मोक्षमार्गो मम मोक्षवः स्यात् ।। ७१ ।।
अर्थ--इस प्रकार गुरुदेवके मुख कमलसे मूलगुणोंको सुनकर जिसका शरीर रोमाञ्चित हो रहा था ऐसे उस भध्यने 'ओम्' स्वीकार है. ऐसा कह दोनों हाथोंसे सिरके केशोंका लोंच किया तथा वस्त्रका आवरण दूरकर वह शोन हो दिगम्बर हो गया। गुरुने जिसका संस्कार किया था जो पोछो और कमण्डलुको धारण कर रहा था, जिसका संसार अल्प रह गया था तथा उपस्थित साधु समूहने जिसका अभिनन्दन किया था ऐसा वह नवीन दोक्षित, अतिशय सुशोभित हो रहा था। परमागममें करणों-अधःप्रवृत्त तथा अपूर्वकरण आदि परिणामोंकी जो विशुद्धि दिखलाई गई है उसे प्राप्तकर वह अप्रमत्त विरत नामक सप्तम गुणस्थानको प्राप्त हो गया। पश्चात् अन्तमुहूर्तके भोतर प्रमत्तविरत हो गया। इस तरह वह छठवें और सातवें गुणस्थानमें आरोह-अवरोह-चढ़ना उतरना करता हुआ सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्रसे युक्त हो गया। पश्चात् गुरु-आचार्य तथा सङ्घ-सङ्घस्थ मुनियोंके साथ उसने पृथिवोपर विहार किया।
ग्रन्थकर्ता कहते हैं कि जो अष्टाङ्ग सम्यग्दर्शनसे सुशोभित है, ज्ञानको शाखाओंसे उल्लसित-अतिशय शोभायमान है और चारित्ररूपो सुगन्धिसे सहित है ऐसा मोक्षमार्ग मुझे मोक्षका देनेवाला हो ॥ ६५-७ १।। इस प्रकार सम्यक्चारित्रचिन्तामणि ग्रन्थमें सामान्य रूपसे मूलगुणोंका वर्णन करनेवाला
प्रथम प्रकाश पूर्ण हुआ।
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१३
सम्यचारित्न-चिन्तामणिः
द्वितीय प्रकाश चारित्रलब्धिअधिकार
__मङ्गालाधरण परिन्द्रियाणि विनि चित्तस्य वाचल्य मनीरितञ्च । तान् संयताम् स्यात्मविशुखियुक्तान्,
वन्दे सवाहं शिषसौख्यसिद्ध्ये ॥१॥ अर्थ-जिन्होंने इन्द्रियोंको अपने अधीन किया है तथा चित्तको चञ्चलताको रोका है, स्वात्मविशुद्धिसे युक्त उन संयतों-ऋषि, मुनि, यति और अनगार भेदसे युक्त चतुर्विध साधुओंको मैं मोक्षसुखकी प्राप्तिके लिये सदा नमस्कार करता हूँ॥१॥ आगे चारित्रको कौन व्यक्ति प्राप्त करता है, यह लिखते हैं
चारि लमते कोत्र वत्यः कीदक् च मानवः । कोवृक् तस्यास्मभावः स्याविति चिन्ता विधीयते ॥ २॥ मनुजः कर्मभूम्युस्थोऽकर्मभूमिज एव च । भानोपयोगसंयुक्तः सल्लेश्माभिः समस्थितः ॥ ३॥ पर्याप्ती जागृतो योग्याव्यक्षेत्रादिशुम्मितः । लभते चारित्रलब्धि कर्मक्षयविधायिनीम् ।। ४॥ प्रश्रमाद्वा चतुर्थाद्वा पञ्चमाद्वा गुणावयम् ।
प्राप्मोति संयमं शुद्धि वर्धमानां समाश्रितः ॥५॥ अर्थ-इस पृथिवीपर कहाँ उत्पन्न हुआ कैसा मनुष्य चारित्रको प्राप्त होता है और उसका आत्मभाव कैसा होता है ? इसका विचार किया जाता है। जो कर्मभूमि अथवो अकर्मभूमिमें उत्पन्न हुआ है, ज्ञानोपयोगसे संयुक्त है, शुभलेश्याओंसे सहित है, पर्याप्त है, जागृत है तथा योग्य द्रव्य क्षेत्र आदिसे सुशोभित है ऐसा मनुष्य कर्मक्षय करने वालो चारित्रलब्धिको प्राप्त होता है। बढ़ती हुई विशुद्धिको प्राप्त हुआ यह मनुष्य प्रथम, चतुर्थ अथवा पञ्चम गुणस्थानसे संयम-महाव्रत को प्राप्त होता है। अर्थात इन गुणस्थानोंस संयमको प्राप्त होने वाला मनुष्य पहले सप्तम गुणस्थानको प्राप्त होता है, पश्चात् षष्ठ मुणस्थानमें आता है ॥२५॥
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द्वितीय प्रकाश
आगे संयमलब्धिको प्राप्त करनेवाला कौन जीव कितने करण करता है और उन करणोंमें क्या कार्य करता है यह कहते हैं
आद्योपशमसम्यक्त्वाल्लभते यदि संयमम् । अधःप्रवत्तप्रभूति कुफ्ते करणत्रयम् ॥६॥ यदि वेक्कसम्यक्त्वी वेदकप्रायोग्यवान्या ! लभसे संयमस्थानमनिति विहाय तत् ॥७॥ विशुद्ध्या वर्धमानोऽयं कुरुते करणद्वयम् । पदि क्षायिकसम्यक्त्वो लमते संयम शुभम् ॥८॥ वर्धमानविशुध्यादयः कुरुते करणद्वयम् । स्थिसिकाण्डकघातोऽनुभागकाण्डकसंक्षतिः ॥९॥ बन्धापसरणावीनि गुणश्रेणी च संक्रमः । जायन्तेऽपूर्वकरणे नियमासाधु सन्ततः ॥ १० ॥ आर्यखण्डसमुत्पन्नः कर्मभूमिज उच्यते । म्लेच्छखण्डोभयो मोफर्मभूमिल ष्यते ॥११॥ आर्यखण्डे समायान्ति ये साधं चऋतिना।
तेषु केषि धरन्सीह मुनिवीक्षा सनातनीम् ।। १२ ॥ अर्थ-यदि प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि मनुष्य संयमको प्राप्त होता है तो वह अधःप्रवृत्त आदि तोनों करण करता है। यदि वेदक सम्यग्दृष्टि या बेदक प्रायोग्यवान्–वेदककालमें स्थित मिथ्यादृष्टि संयमस्थानको प्राप्त होता है तो वह विशुद्धिसे बढ़ता हुआ अनिवृत्तिकरण को छोड़कर शेष दो करण करता है। स्थितिकाण्डक घात, अनुभाग काण्डक घात, बन्धापसरणादिक, गुणश्रेणो निर्जरा तथा अशुभ कर्मोका शुभ कर्मरूप संक्रमण, ये सब कार्य मुनिसमूहके नियमसे अपूर्वकरण नामक करणमें होते हैं। आर्यखण्ड में उत्पन्न हुआ मनुष्य कमभूमिज कहा जाता है और म्लेच्छ खण्डोंमें उत्पन्न हुआ अकर्मभूमिज माना जाता है। दिग्विजय कालमें म्लेच्छ खण्डके जो मनुष्य चक्रवर्तीके साथ आर्य स्खण्डमें आते हैं उनमें से कोई मनुष्य यहां श्रेष्ठ मुनिदीक्षा धारण करते हैं ॥ ६-१२ ॥ आगे सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्रका स्वरूप कहते हैं
सर्वसावासंयोग त्यक्त्वा केचिन्मुमीश्वराः। भवन्ति समताधारा धृतसामायिका भुवि ॥ ९३ ।।
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सम्यक्रचारित्रचिन्तामणिः सामायिकाच्युतो सत्यां पुनस्तत्रव संस्थिताः। छेदोपस्थापनायुक्ता भवन्तीह मुनीश्वराः।। १४॥ एतौ सुसंयमौ ननमाषष्ठान्नयमावषिम् ।
भवतो मुनिराजानां जिनदेवनिरूपितौ ।। १५ ।। अर्थ- इस भूतलपर कितने ही मुनिराज सर्वसावध संयोग-समस्त पाप कार्योका त्यागकर समता-साम्यभावके आधार होते हुए सामायिक चारित्रके धारक होने हैं और जो सामायिक चारित्रसे च्युत होने पर पुनः उसोमें स्थित होते हैं वे छेदोपस्थापना चारित्रके धारक कहलाते हैं। जिनेन्द्र देवके का निरूपिनो सोनों उनगम मनाजों के छठवें गुणस्थानसे लेकर नौवें गुणस्थान तक होते हैं ।। १३-१५ ॥ आगे परिहारविशुद्धि संयमका वर्णन करते हैं
त्रिंशद्वर्षाणि यो धाम्नि सुखेन स्थितवान् सदा । पश्चाद विरज्य भोगेभ्यस्तीर्थकुत्पाबमूलयोः ।। १६॥ वीक्षित्वा ाष्टवर्षाणि प्रत्याख्यानाभिधानकम । अधीत्य पूर्व यः प्राप्तः परिहारद्धि दुर्लभाम् ॥ १७ ॥ गम्यूतिप्रमितं नित्यं बिहरन नियमेन च। जोवराशो गर्मि कुर्वन् न प लिम्पति पापतः ।। १८ ॥ परिहारविशुद्धचाख्यः संयमी स हि कथ्यते । षष्ठसप्तमयोर्धाम्नोरेव स्यात्परिशासितः ।। १९ ।। आद्योपशमसदाष्टिमन:पर्ययबोधवान् ।
आहारकाशिसंयुक्तो मतं संलभते क्वचित् ।। २० ।। अर्थ-जो तोस वर्ष तक सदा सुखसे घरमें रहा है, पश्चात् भोगोंसे विरक्त हो तीर्थकरके पादमूलमें दीक्षित हो आठ वर्ष तक प्रत्याख्यान पूर्वका अध्ययन कर दुर्लभ परिहार विशुद्धि ऋद्धिको प्राप्त हुआ है, जो नियम प्रतिदिन दो कोश विहार करता है तथा जीवराशिपर गमन करता हुआ भी पापसे लिप्त नहीं होता अर्थात् ऋद्धि के प्रभावसे जिसके द्वारा जोवोंका घात नहीं होता वह परिहार विशुद्धि संयमका धारक कहलाता है। यह परिहार विशुद्धि संयम छठवें और सातवें गुणस्थान में होता है। प्रथमोपराम सम्यग्दृष्टि, मनःपर्यय ज्ञानी और आहारकाऋद्धिसे युक्त मुनि कहीं भी इस संयमको प्राप्त नहीं होते हैं ॥ १६-२०॥
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द्वितीय प्रकाश
आगे सूक्ष्म साम्पराय संयमका वर्णन करते हैं
क्षपकणिमारूदः सपणाविधिमाश्रितः। क्रमशः रुपयन् वत्त-मोहं दशममाषपेत् ॥ २१ ।। आरुह्योपशमश्रेणी कश्चित्कर्ममहीपतिम् । शमयन् वृत्तमोहाख्यं वशमं गुणमाश्रयेत् ।। २२ ।। वशमं धामसम्प्राप्तः सूक्ष्मसंज्वलनो भवेत् । श्रेणीयुग्मं समारोढुं शक्तः क्षायिकाभवेत् ।। २३ ॥ अन्यस्तपशमश्रेणीमेवारोढुं समर्थकः। आद्योपशमयुक्तो वा बेदकेन पुतोऽपि वा ॥ २४ ॥ कामपि श्रेणिमारोढुं नैव शक्नोति जातुचित् ।
एतद्वत्तं नियोगेन केवले दशमे भवेत् ॥ २५ ॥ अर्थ-क्षपकनेणोपर आरूढ़ तथा क्षपणाविधिको प्राप्त हुए मुनि क्रमसे चारित्र मोहका क्षय करते हुए दशम गुणस्थानको प्राप्त होते हैं
और कोई मुनि उपशम श्रेणोपर आरूढ़ होकर चारित्रमोह नामक कर्मों के राजाका क्रमसे उपशम करते हुए दशम गुणस्थान को प्राप्त होते हैं । दशम गुणस्थानको प्राप्त हुए मुनि सूक्ष्मसंज्वलन-सूक्ष्मसाम्पराय संयमके धारक होते हैं। इस संबम वालेके मात्र संज्वलन लोभका सूक्ष्म उदय शेष रहता है। क्षायिक सम्यष्टि मनुष्य दोनों श्रेणियोंपर आरूढ़ होने में समर्थ रहता है परन्तु दूसरा-द्वितीयोपशम सम्यग्दष्टि मनुष्य केवल' उपशम श्रेणोपर ही चढ़ने में समर्थ होता है। प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि मनुष्य किसो भो श्रेणोपर चढ़ने में कभी समर्थ नहीं होता! यह सूक्ष्मसाम्पराय संयम नियमसे मात्र दशम गुणस्थान होता है ।। २१-२५ ।। आगे यथाख्यातचारित्रका वर्णन करते हैं
इतोऽग्ने स्याद् यथाल्यातं चारित्रं शिवसाधनम् । मोक्षे किमपि चारित्रं नास्तीति समये स्थितम् ॥ २६ ॥ आत्मनो वीतरागत्यं स्वरूपं यादशं मतम् । तावृशं यत्र जायेत तम् यथारपासमुच्यते ।। २७ ॥ क्षीणे वा युपशान्त वा मोहनीमात्यकर्मणि ।
चारित्रं च यथाख्यातं प्रकटीमवति ध्रुवम् ॥ २८ ॥ अर्थ –सूक्ष्मसाम्प राय संयमके आगे-दशम गुणस्थानके आगे मोक्षका साधन स्वरूप यथाख्यात चारित्र होता है। मोक्षमें कोई भी
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सम्यचारित्र-चिन्तामणिः
चारित्र नहीं होता है - ऐसा आगममें उल्लेख है । आत्माका बोतरागता रूप जैसा स्वरूप माना गया है वैसा जिसमें प्रकट हो जाता है वह यथाख्यात चारित्र कहलाता है। मोहनीय कर्मका क्षय अथवा उपशम हो जानेपर नियमसे यथाख्यात चारित्र प्रकट होता है ।
भावार्थ - औपशमिक और क्षायिकके भेदसे यथाख्यात चारित्र दो प्रकारका है। उनमें से औपशमिक यथाख्यात संयम उपशान्त मोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में होता है और क्षायिक यथाख्यात क्षीणमोह बारहवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक होता है ।। २६-२८ ।। आगे संयम से पतित होकर पुनः संयमको प्राप्त होनेवाले मुनियोंके करणों का वर्णन करते हैं
संयमात्पतितो मत्यस्तीवसंक्लेशसो बिना । पुनश्चेत्संयमं गच्छेत् नाऽपूर्वकरणं श्रयेत् ॥ २९ ॥ यश्च संक्लेश बाहुल्यात्पतित्वाऽसंयमं गतः । भूयश्चेत्संयमं प्राप्तः स कुर्यात् करणद्वयम् ॥ ३० ॥
अर्थ - जो मनुष्य तीव्र संक्लेशके बिना संयम से पतित हो पुनः संयमको प्राप्त होता है वह अपूर्वकरण नामक करणको नहीं करता है और जो संत्रलेशकी बहुलतासे पतित हो असंयमको प्राप्त हुआ है वह यदि पुनः संयमको प्राप्त होता है तो करणद्वय- अधःप्रवृत्त और अपूर्वकरण नामक दो करणों को प्राप्त होता है ।
भावार्थ - संयमको प्राप्त हुआ मनुष्य बहुत संक्लेशको प्राप्त हुए बिना परिणामवश कर्मोंको स्थिति में वृद्धि किये बिना यदि असंयमपने को प्राप्त होकर पुन संयमको प्राप्त होता है तो न उसके अपूर्वकरण परिणाम हो होते हैं और न स्थितिकाण्डक बात तथा अनुभाग काण्डक घात । किन्तु जो संक्लेशकी अधिकता के कारण मिध्यात्वको प्राप्त होनेके साथ असंयमको प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त बाद या दीर्घकाल बाद संयमको प्राप्त होता है तो उसके अधःप्रवृत्त और अपूर्वकरण नामक दोनों करण होते हैं तथा यथाख्यात स्थितिकाण्डक घात और अनुभागकाण्डक घात भी होते हैं ।। २६-३० ।।
आगे संयमको प्राप्त हुए मनुष्योंकी प्रतिपात, प्रतिपद्यमान और अप्रतिपात अप्रतिपद्यमान के भेदसे तीन स्थानोंका वर्णन करते हैं-
प्राप्तसंयममर्त्यानां
प्रतिपालादिभवतः । त्रिप्रकाराणि धामानि वर्णितानि जिनागमे ॥ ३१ ॥
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द्वितीय प्रकाश
संक्लेशस्य हि बाहुल्यात् पतन्तो मानवा यदि । अधःस्थाने समायारित होपमान विशुद्धितः ॥ ३२ ॥ पञ्चमं वा तुरीयं वा प्रथमं वा समागताः । प्रतिपाताभिधानेन कथ्यते तन्महर्षिभिः ॥ ३३ ॥ संयमं प्रतिपद्यन्ते यत्र धामनि संस्थिताः । प्रतिपद्यमानं प्रोक्तं तद् घामपरमागमे ॥ ३४ ॥ एतव्यातिरिक्तानि वृशस्यानानि यान्यपि । लब्धिस्थानाभिधानानि कथ्यन्ते तानि सूरिभिः ॥ ३५ ॥
अर्थ --- संयम प्राप्त करने वाले मनुष्योंके प्रतिपात आदि प्रतिपात प्रतिपद्यमान और अप्रतिपात अप्रतिपद्यमानकी अपेक्षा जिनागममें तीन प्रकार के स्थान कहे गये हैं । संक्लेश की बहुलतासे घटती हुई विशुद्धिसे नीचे पड़ते हुए मनुष्य यदि नीचे आते हैं तो पञ्चम चतुर्थ अथवा प्रथम गुणस्थान में आते हैं। उनके ये स्थान के छाट प्रतिपातस्थान कहे जाते हैं और जिस गुणस्थानसे मनुष्य संयमको प्राप्त होते हैं वे प्रतिपद्यमान कहलाते हैं तथा इन दोनोंसे अतिरिक्त जो संयम के स्थान हैं वे आचार्यों द्वारा लब्धिस्थान कहे जाते हैं ।
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भावार्थ- संयमको प्राप्त हुए जोवोंके संयमस्थान तीन प्रकार के हैं - १. प्रतिपात स्थान, २ प्रतिपद्यमान स्थान और ३. अप्रतिपातअप्रतिपद्यमान स्थान । संयममें स्थित जीब संक्लेशको बहुलतासे गिरकर जिन संयमासंयम, अविरतसम्यग्दृष्टि अथवा मिध्यादृष्टि अवस्थाको प्राप्त होते हैं वे प्रतिपातस्थान कहलाते हैं और जिनमें स्थितजोब विशुद्धता की वृद्धि से संयमको प्राप्त होता है उन्हें प्रतिपद्यमानस्थान कहते है । तात्पर्य यह है कि विशुद्धताकी हानिसे जहां गिरकर आता है वे प्रतिपात स्थान हैं और विशुद्धताकी वृद्धिसे जीव जिस स्थानसे संयमको प्राप्त होता है वे प्रतिपद्यमान स्थान हैं । प्रतिपात स्थान संयमसे गिरते समय होता है और प्रतिपद्यमान स्थान संयम प्राप्त होने के प्रथम समयमें होता है । इन दोनों के अतिरिक्त अन्य जितने चारित्रके स्थान है वे सब लब्धिस्थान कहलाते हैं ।। ३१-३५ ।।
आगे मोहनीय कर्मकी उपशमनाका वर्णन करते हैं
अधोपशमनाकार्य मोहनीयस्य यथागमं प्रवक्ष्यामि संक्षेपेण
कर्मणः । पथामति ॥ ३६ ॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः
वेदक दृष्टिसंयुक्तः कश्चित् भव्यतम्रो मरः । अनन्तानुबन्धिक्रोधमानादीनां चतुष्टयम् ॥ ३७ ॥ मिथ्यात्वावित्रिकं चेति प्रकृतीनां हि सप्तकम् । तुर्यादिसप्तमान्तेषु गुणस्थानेषु कुत्रचित् ॥ ३८ ॥ शमयित्वा मवेज्जातू पशमधे णिसम्मुखः । प्रागधःकरणं कुर्वन् भवेत् सातिशयो मुनिः ॥ ३९ ॥ एतस्मिन् हि गुणस्याने विशुद्धि परमां दधत् । अपूर्वकरण प्राम Geit सुद्धिसंयुक्तः ।। ४० ।।
अर्थ - अब मोहनीय कर्मको उपशमनाका कार्य आगम और अपनो बुद्धिके अनुसार संक्षेपमें कहता हूं । क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन से सहित कोई भव्य पुरुष अनन्तानुबन्धो क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार तथा मिथ्यात्व सम्यङ् मिध्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति इन तीन, इस प्रकार सात प्रकृतियोंका चतुर्थसे लेकर सप्तम गुणस्थान तक किसी भी गुणस्थान में उपशम (विसंयोजना- अन्य प्रकृतिरूप परिणमन ) कर द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि होकर कभी उपशमश्रेणी के सम्मुख हो अधःकरणरूप परिणामको करते हुए सातिशय अप्रमत्तविरत होते हैं । इस गुणस्थानमें परम विशुद्धिको धारण करते हुए अपूर्वकरण गुणस्थानको प्राप्त होते हैं तथा वहां पूर्वको अपेक्षा सातिशय शुद्धिसे युक्त होते हैं।
भावार्थ- पहले बताया गया है कि प्रथमोपणम् सम्यग्दृष्टि और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव श्रेणी मांडनेकी योग्यता नहीं रखते । जब कोई क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि मुनि उपशमश्रेणी मांडनेके सम्मुख होते हैं तब वे अमन्तानुबन्धी चतुष्क और मिथ्यात्वादि त्रिकका उपशम करते हैं। यहां अनन्तानुबन्धीके उपशमका अर्थ है अपने स्वरूपको छोड़कर अन्य प्रकृतिरूप रहना । इसे अन्यत्र विसंयोजन कहा है और उदय में नहीं आना यह दर्शन- मोहनीय त्रिक- मिथ्यात्वादिक त्रिकके उपशमका अर्थ है। द्वितीयोपशम सम्यक्त्वको उत्पत्ति लब्धिसारादि अन्य ग्रन्थोंमें अप्रमत्तविरत नामक सप्तम गुणस्थान में बतलाई है परन्तु धवला पु० १ ( पृष्ठ २१० ) में असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तविरत नामक सप्तम गुणस्थान तक चार गुणस्थानों में रहनेवाला कोई भी जोव कर सकता है, यह बताया है। लब्धिसारादि ग्रन्थोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कके उपशमको विसंयोजन नामसे कहा है
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द्वितीय प्रकाश
और यहाँ उपशम नामसे कहा है । यह शब्द भेद हो समझना चाहिये । उपशमशेणोके सम्मुख हुए मुनि सप्तम गुणस्थानका दूसरा भेद जो सातिशय अप्रमत्तविरत है उसे प्राप्त होते हैं तथा अधःकरणरूप परिणाम करते हैं। इस गुणस्थानमें जो विशुद्धि होती है उससे स्थितिकाण्डक घात' आदि कार्य नहीं होते। पश्चात् विशुद्धिको बढ़ाते हुए अपूर्वकरण ---अष्टम गुणस्थानको प्रास होत हैं। इस गुगस्तानको विशुद्धिसे स्थितिकाण्डक घात, अनुभागकाण्डक घात, गुणश्रेणो निर्जरा और अप्रशस्त प्रकृतियोंका शुभ प्रकृतिरूप संक्रमण होता है ।।३६-४० ॥ आगे अपूर्वकरण गुणस्थानमें होनेवाले कार्यका वर्णन करते हैं
एतस्मिस्तु गुणस्थाने विशुद्धया अर्धलेतराम् । एकान्तमुहूतं च संख्यातत्य सहस्त्रकम् ।। ४१ ।। फरते स्थितिकाण्डानां संघातं तावदेव च । धन्धापसरणं कुरते भावानां हि विशुद्धितः ॥ ४२ ॥ एफैकस्मिन् स्थितर्घाते संख्यातस्य सहस्रकम् । घसेऽनुभागसंघातं गुणसंक्रमणं तथा ॥ ४३ ।। समये समयेऽसंख्यगुणितां निर्जरामपि ।
कुर्वन्नन्तर्मुहूर्तान्तेऽनिवृत्तिकरणं यजेत् ।। ४४ ॥ अर्थ--इस अपूर्वकरण गुणस्थानमें मुनि विशुद्धिके द्वारा अत्यन्त वृद्धिको प्राप्त होते हैं अर्थात् इनकी विशुद्धि उत्तरोत्तर बढ़ती रहतो है। इस विशुद्धिसे मुनि संख्यातहजार स्थितिकाण्डकोंका घात करता है और भाबोंकी विशुद्धिसे उतने ही संख्यातहजार बन्धारसरण करता है। एक-एक स्थितिकाण्डकके घातमें संख्यातहजार अनुभागकाण्डक धात करता है, गुणसंक्रमण करता है और समय-सययमें असंख्यात गुणित निर्जराको करता हुआ अन्तर्मुहुर्तके अन्तमें अनिवृत्तिकरण नामक नवम गुणस्थानको प्राप्त होता है ।
भावार्थ-यद्यपि अपूर्वकरण गुणस्थानका काल अन्तमुहूत है तथापि उसके अन्दरा असंख्यात लघु अन्तमुहर्त होते हैं। तात्पर्य यह है कि अन्तर्मुहुर्तसे असंख्यात भेद होते हैं ।। ४१-४४ ॥
तिष्ठेवन्तहितेन कुर्वाणः पूर्ववत् क्रियाम् । पश्चावन्तर्मुहर्तन कुर्यादन्तरक्रियाम् ॥ ४५ ॥
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सम्यकचारित्न-चिन्तामणिः ततश्च क्लीववेदस्य कर्यादुपशमं तथा । अत्तोतेऽन्तर्मुहूर्ते च स्त्रीवेदं शमयत्यसो ॥ ४६॥ ततश्च मर्यवेवस्य मुक्त्वा नवकबन्धनम् । सत्तास्थं निखिलद्रव्यं साधं पटनोकवायका॥४७॥
वेवस्य नद्रव्य वध्यमानं स्वदोषतः। पश्चात् समये समये गुणश्रेणीविधानतः ।। ४८ ॥ संज्वलनस्य धस्य न विसुता । सत्तास्थं संचितद्रव्यं शमयत्येव भावतः ॥ ४९ ॥ पश्चावन्तमहतेन क्रोध मध्यमवाययोः। शमयति ततः पश्चात् सोज्वलनं नवबन्धनम् ॥ ५० ॥ ततोऽसंख्यगुणश्रेण्या वर्धमानविशुद्धितः। सांज्वलनस्य मानस्य मुक्त्या नवकबन्धनम् ॥ ५१ । सत्तास्थं सकलद्रव्यं साधु मध्यकषाययो।। मानस्य निखिलं ब्रव्यं सत्सास्थं शमयत्परम् ॥ ५२ ।। ततोऽसंख्यगुणझण्या वर्धमानो विशुद्धिमिः। अन्तर्मुहूर्तमात्रेण मार्या मध्यकषाययोः ।। ५३ ।। शमयिस्वाल्पकालेन मानस्य मवमन्धनम् । पश्चात् समये समयेऽसंख्यातगुणश्रेणितः ॥ ५४ ।। मायाया नवकं मुक्त्वा सत्तास्थं शमयेरपुनः । अग्रेसरस्ततोभूत्वा मायां मध्यकषाययोः ।। ५५ ॥ शमयेन्नवर्फ जव्यं मायायाश्च समावजन् । पश्चात् समये समये गुणश्रेणोविमागतः॥ ५६ ॥ कुर्वन्नुपशमं नित्यं वर्धमानविशुद्धितः । विवधत सक्षम कृष्टि छ भारहीन इवाभवत् ।। ५७ ।। सज्विलनस्य लोमस्य मुक्त्वा नवकमन्धनम् । सत्तास्थं सकलं द्रव्यं शमयस्येव पौरुषात् ॥ ५८ ।। पश्चाबन्समुहूर्तेन लोभं मध्यकषाययोः । शमयेद् विशुद्ध्या स्वस्या निवृत्तिकरणे स्थितः ॥ ५९ ।। इत्थं मुक्त्वा नवद्रव्यमुरिछाटावलिकं तथा। शेषस्य मोहनीयस्य सर्वयोपशमो भवेत् ।। ६ ॥ सूधमकृष्टिगतं लोभं वेश्यन् दशमस्थितः । तस्याप्युपरामं कृत्वा शासमोहस्थितो भवेत् ।। ६१ ॥
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सर्वपा
अधःस्थ१
द्वितीय प्रकाश
शान्तमोहोऽयमेकादशगुणस्थितः । भवेत् ।। ६२ ।।
२१
संयुक्तशरत्कासारवद्
अर्थ - यह मुनि अन्तर्मुहूर्त तक पूर्ववत् स्थितिकाण्डकघात आदि क्रियाओं को करते हुए नवम गुणस्थानमें स्थित रहते हैं । पश्चात एक अन्तर्मुहूर्त के द्वारा अन्तरकरण करते हैं अर्थात् अप्रत्याख्यानादि बारह कषाय और नौ नोकषाय के नीच और ऊपरके निषेकोको छोड़कर बीके कितने ही निषेकोंके द्रव्यको निक्षेपण कर बोचके निषेकोंमें से मोहनीय कर्मका अभाव करते हैं। पश्चात् नपुंसक वेदका उपशम करते हैं, फिर अन्तर्मुहूर्त व्यतीत होनेपर स्त्रोवेदका उपशम करते हैं। तदनन्तर पुरुषवेदके नवबन्धको छोड़कर सत्ता में स्थित उसके समस्त द्रव्यका छह नोकषायोंके साथ उपशम करते हैं । पश्चात् बढ़ती हुई विशुद्धिके द्वारा अल्पकालमें स्वदोष -- रागांशके कारण बँधते हुए पुरुषवेदके नवकबन्धका उपशम करते हैं। पश्चात् समय-समय अर्थात् प्रत्येक समय में गुणश्रेणी विधानसे संज्वलन क्रोधके नवक द्रव्यको छोड़कर सत्ता में स्थित संचित द्रव्यका भावोंकी विशुद्धतासे उपराम करते हैं। पश्चात् अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा मध्यम कषायअप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यातावरण सम्बन्धी क्रोधका उपशम करते हैं । पुनः संज्वलन क्रोध के नवकबन्धका उपशम करते हैं। तदनन्तर प्रति समय असंख्यात गुणश्रेणीरूपसे बढ़ती हुई विशुद्धिके द्वारा संज्वलन सम्बन्धी मानके नवकवन्धको छोड़कर सत्ता स्थित सकल द्रव्यका उपशम करते हैं साथ हो मध्यम कषाय सम्बन्धी मानके सत्तामें स्थित सकल द्रव्यका शोघ्र ही उपराम करते हैं। पश्चात् असख्यात गुणश्रेणी द्वारा विशुद्धिसे बढ़ते हुए मुनिराज अन्तर्मुहूर्त में मात्र कालके द्वारा मध्यम कषाय सम्बन्धी मायाका उपराम कर संज्वलन मानके नवबन्धका उपशम करते हैं। पश्चात् प्रत्येक समय असंख्यात गुणश्रेणीसे संज्वलन मायाके नवबन्धको छोड़कर सत्ता में स्थित समस्त द्रव्यका उपशम करते हैं। पुनः आगे चलकर मध्यम कषाय सम्बन्धी माया और संज्वलन मायाका उपशम करते है । पुनः प्रत्येक समग्र असंख्यात गुणश्रेणीरूपसे बढ़ती हुई विशुद्धिसे उपशम करते हुए सूक्ष्मकृष्टि करते हैं और भारहोन जैसे हो जाते हैं। पश्चात् संज्वलन लोभके नवबन्धको छोड़कर सत्ता में स्थित समस्त द्रव्य का अपने पौरुषसे उपशम करते हैं। तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त में मध्यम कषाय
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः सम्बन्धी लोभका विशद्धि द्वारा उपशम करते हुए नवम गुणस्थान में ही रहते हैं अर्थात् यह सब कार्य नवम गुणस्थान में ही होते हैं। इस प्रकार नवक द्रव्य और उच्छिष्टावलीको छोड़कर शेष मोहनीयका सर्वथा उपशम हो जाता है। पश्चात् सूक्ष्मकृष्टिगत लोभका वेदन करते हुए राम कम समय लागले साले हैं और वहां उसका संज्वलन सम्बन्धी सूक्ष्म लोभका भी उपशम कर सब प्रकारसे उपशान्त होफर ग्यारहवें गुणस्थानमें पहुंचते हैं। इस गुणस्थानवर्ती मुनि, नीचे बैटो हुई कोचड़से युक्त शरद् ऋतुके सरोवरके समान होते हैं ।
भावार्थ-इस गुणस्थानमें मोहनीयकर्मका उदय नहीं रहता, किन्तु सत्ता रहती है। उदय न रहनेसे परिणामोंमें निर्मलता रहती है परन्तु लघु अन्तर्मुहूर्तमें सत्ता स्थित संज्वलन लोभका उदय आनेसे मुनि रिकर नोचे गुणस्थान में आ जाते हैं। यदि मृत्युकाल नहीं है तो वे क्रमसे नोचे आते हैं और मृत्यु हो जानेपर विग्रहगतिमें एक साथ चतुर्थ गुणस्थानमें आ जाते हैं। क्रमशः छठवें गुणस्थान तक आनेके बाद कोई पुनः उपशमश्रेणोपर आरूढ़ हो जाते हैं। एक पर्याय में दो बार उपशमश्रेणी मांडी जा सकती है और कोई मुनि छठवें सातवें गुणस्थानमें क्षायिकसम्यक्त्व प्राप्त कर क्षपक श्रेणी मांड कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं पर ऐसे जीव अबद्धायुष्क होते हैं अर्थात् उन्होंने अभी तक परभवकी आयुका बन्ध नहीं किया था। दीर्घ संसार वाले कितने हो मुनि ग्यारहवें गुणस्थानसे पतन कर क्रमशः मिथ्यादुष्टि गुणस्थानमें भी आ जाते हैं और वहाँ एकेन्द्रिय आदिकी आयु बांधकर किश्चिदूनअर्धपुद्गलपरावर्तनके लिये भटक जाते हैं। उपशमन श्रेणी, एक भवमें अधिकसे अधिक दो बार और अनेक भवोंको अपेक्षा चार बारसे अधिक नहीं मांडी जाती। क्षपकश्श्रेणी एक वार ही प्राप्त होती है और वह भी अवद्धायुष्क मुनिके लिए ॥ ४५-६२ ।। अब आगे मोहनीय कर्मकी क्षपणाविधि कहते हुए पहले क्षायिक सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका कथन करते हैं
इतोऽने सम्प्रवक्ष्यामि मोहस्य क्षपणाविधिम् । यथाविधियथास्त्रं संक्षेपेण यथामति ।। ६३ ॥ धेदकशा समायुक्तः कश्चिदासन्नभव्यकः। तुर्थादिसप्तमान्तेषु गुणस्थानेषु केचित् ॥ ६४॥
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द्वितीय प्रकारी केबलिद्विपादानां सन्निधाने समागसे। त्रिकं दर्शनमोहस्य वृत्तमोहचतुष्टयम् ॥ ६५ ।। एतत्सप्तप्रकृतीनां सपणायां समुद्यतः। प्रथमं कुरुते याबरकरणानां त्रिकं पुनः ॥ ६६ ।। तत्रानिवृसिकालान्ते समं ह्यानचतुष्टयम् । क्षपयित्वा पुनश्चापं कुरुते करणत्रयम् ॥ ६७ ।। आयद्विकं समुल्लद्धयानिवृत्तिकरणस्य च । गते संख्यातभागे वै मिथ्यात्वं क्षपयत्यसो ॥ ६८ ॥ पश्चावन्तमुहूर्तेन मिथं क्षपयति ध्रुवम् । ततोऽन्तमुहर्लेन सम्यक्त्वप्रकृतिक्षयम् ।। ६९ ॥ कृत्वा क्षायिकसदृष्टिहन्तुं चारित्रमोहकम् ।।
क्षपकणिमारोढ मुधमं विधाति ।। ७० ।। अर्थ-अब इसके आगे विधिपूर्वक शास्त्र और अपनी बुद्धिके अनुसार मोहनीय कर्मको क्षपणा विधि कहूंगा। क्षायोपशामिक सम्यग्दर्शनसे युक्त कोई निकद भव्यजीव चतुर्थसे लेकर सप्तम तक किसी गुणस्थानमें केवलीद्विक, केवली और श्रुतकेवलोकी निकटता प्राप्त होनेपर दर्शनमोहकी तीन-मिथ्यात्वादिक और चरित्रमोहकी चारअनन्तानुबन्धोचतुष्क, इन सात प्रकृतियोंका क्षय करनेके लिये उद्यत होता है । प्रथम ही वह तीन करण करता है। उनमें अनिवृत्तिकरणके अन्त कालमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कका एक साथ क्षय अर्थात् विसंयोजन करता है-उसे अप्रत्याख्यानावरणादिरूप परिणमा देता है। पश्चात् पुनः तीन करण करता है । आदिके दो करण व्यतीत कर तृतीय करणका संख्यातवां भाग व्यतीत होनेपर वह मिथ्यात्व प्रकृतिका क्षय करता हे अर्थात् उसे सम्यग्मिथ्यात्वरूप परिणत करता है। पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में सम्यग्मिथ्यात्वको सम्यक्त्व प्रकृतिरूप कर उसका क्षय करता है। इस तरह क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर चारिनमोहका क्षय करनेके लिये वह क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ होनेका प्रयल करता है ।।६३-७०॥ आगे चारित्रमोहको क्षपणाको विधि कहते हैं
सोऽयमन्तर्मुहूर्तेन व्यतीत्याधः प्रवृत्त ।
अपूर्वकरणं गत्वा विशुद्धया वर्धतेतरा ॥ ७१ ।। १. जिसके अधिकसे अधिक चार भव बाकी हैं वही जीव क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है, अधिक भव वाला नहीं ।
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः एतस्मिन् हि गुणस्थाने समये समये पुनः । असंख्यगुणितक्षेणि-निर्जरो कुरते सदा ॥७२ ।। एककान्तर्मुहर्तन होककस्थितिकापडकम् । हत्या स्वकीयकालानाः संख्यातस्य सहस्रकम् ।। ७३ ।। प्रघातं स्थिति काण्यानां कुश्तेऽयं महामुनिः । सन्धापसरणं चापि कुरुते तायवेव हि ।। ७४ ।। ततोऽनु मागकाण्डानामसंख्यगुणितात्मनाम् । घातं करोति पश्चाच्च प्रविशस्यनिवृत्तिकम् ॥ ७५ ॥ तस्यापि संख्यभागेषु विधाय पूर्षयत् क्रियाम् । शिष्टेषु संख्यभागेषु स्त्यान गयादिसंज्ञिनाम् ।। ७६ ।। षोडशकर्मभेवानां सपणां विवधात्यसौ। 'पश्चावन्तर्मुहुर्तेन मध्यमाष्टकषामकम् ॥७७ ।। युगपत् क्षपयेत् साधुः शुक्लध्यानप्रभावतः। यहा मध्यमाष्टकषायाणां क्षपणानन्तरं भवेत् ॥ ७८॥ षोडशप्रकृतीनां तु क्षपणया अयं विधिः । एकान्तमहर्तेन क्लीवस्त्रीनरदेवकान् ॥ ७९ ॥ संज्वलनस्य क्रोधादोन क्रमशः क्षय्येन्मुनिः । ततः संज्वलनं लोमं गृहीत्वा दशमं व्रजेत् ।। ८० ।। तत्र तस्यान्तिमभागे तमपि क्षपयेद् यतिः। क्षणेन क्षीणमोहास्यं गुणस्थानं व्रजत्यसो ।। ८१ ।। कणोऽपि विद्यते मावन्मोहनीयस्य फर्मणः । तावद् भ्रमति ओयोऽयमाजवंजव कानने ॥ ८२ ।। सतो मुमुक्षभिर्मोहः क्षपणीयः प्रयत्नतः ।
मोहक्षये भवेन्मल्यों क्षणात् कैवल्यसंयुतः।। ८३ ॥ अर्थ--क्षपकवेणिपर आरूढ़ होनेवाले वे मुनिराज अन्तर्मुहूतं द्वारा अधःप्रवृत्तकरण गुणस्थानको व्यतीत कर अपूर्वकरण गुणस्थानको प्राप्त १. स्त्यानमृद्धि, निद्रा-निद्रा, चला-प्रचला, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गति, तिर्यगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, वीन्द्रिपजाति,
चतुरिन्द्रियजाति, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण इति नाम्नायु । २. सत्कर्मप्रामृतापेक्षया। ३. कषायप्राभृतको अपेक्षा ।
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द्वितीय प्रकाश होते हैं और वहाँ विशुद्धिसे अत्यन्त बढ़ते रहते हैं। वे मुनि इस गुणस्थानमें प्रति समय असंख्यात गुणश्रेणि निर्जरा करते हैं। एक एक अन्तर्मुहूर्तमें एक-एक स्थितिकाण्डकका घात कर अपने कालके भीतर संख्यात हजार स्थितिकाण्डक घात करते हैं तथा उतने ही बन्धापसरण नगरे हैं। मसात् प्रसंसा गत अगाण्डकोंका घात करते हैं। इस सबके पश्चात् वे महामुनि अनिवृत्तिकरण नामक नवम गुणस्थानमें प्रवेश करते हैं। उसके भो संख्यातभागों में पूर्ववत्-अपूर्वकरणके समान क्रिया करते हैं। पश्चात् शेष संख्यात भागोंमें स्त्यानगृद्धि आदि सोलह कर्मप्रकृतियोंका क्षय करते हैं पश्चात् अन्तर्मुहूर्तमें शुक्लध्यान--पृथक्त्ववितर्कविचार नामक प्रथम शुक्लध्यानके आठ मध्यम कषायोंका युगपत् क्षय करते हैं। यह क्रम सत्कर्मप्राभृतके अनुसार है।
कषायप्राभूतके अनुसार क्रम यह है कि आठ मध्यम कषायोंकी क्षपणाके पश्चात् स्थानगृद्धि आदि सोलह प्रकृतियोंका क्षय होता है। एक-एक अन्तर्मुहूर्तमें नपुंसकवेद, स्त्रोवेद, पुंवेद तथा संज्वलन, क्रोध, मान और मायाका क्रमसे क्षय करते हैं। तदनन्तर संज्वलन लोभको लेकर दशमगुणस्थानको प्राप्त होते हैं और वहां उसके अन्तमें उस संज्वलन लोभका भी क्षय करते हैं। इस प्रकार के मुनि क्षणभरमें क्षोणमोह नामक बारहवें मुणस्थानको प्राप्त होते हैं। ग्रन्थकार कहते हैं कि जबतक मोहनीयकमकी एक कणिका भो विद्यमान रहती है तबतक यह जोव संसाररूपी वनमें भ्रमण करता रहता है। इसलिये मुमुक्षजनोंको प्रयत्नपूर्वक मोहनीयकर्मका क्षय करना चाहिये। मोहका भय होनेसे यह मनुष्य क्षणभरमें अन्तर्मुहूर्त के भीतर केवलज्ञानसे सहित हो जाता है ।। ७१-८३ ॥ आगे प्रकरणका समारोप करते हैंध्यायं ध्यायं जिनपतिपदं शुद्धसम्यक्त्वयुक्तः
श्रावं श्रावं जिनवरवचः प्राप्तवज्ज्ञानपुजः। श्रायं श्रायं सुगुरुचरणं लब्धचारित्रशुद्धिः ।
सद्यो मुक्तभंज भज सुखं भव्य ! कि बलाम्यसि स्वम् ॥ १४ ॥ अर्थ-हे भव्य ! त् जिनेन्द्रदेवके चरणोंका बार-बार ध्यान कर शुद्ध सम्यक्त्वसे युक्त हो-सम्यग्दृष्टि बन, पश्चात् जिनेन्द्रदेवके वचनोंको बार-बार श्रवण कय सम्यग्ज्ञानका समूह प्राप्त कर पश्चात् सुगुरुओं
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः
के चरणोंका बार-बार आश्रय ले – उनकी सेवा कर तूं शीघ्र हो मुक्तिका सुख प्राप्त कर, दुःखो क्यों हो रहा है ?
भावार्थ – संसार के दुःखोंसे छूटने का उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र है । सम्यग्दर्शन की प्राप्ति जिनेन्द्रदेवकी उपासनासे होती है, सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति जिनवाणीके श्रवणसे होती है और सम्यक् चारित्रको प्राप्ति निर्ग्रन्थ गुरुओं की सेवासे होती है । अतः इस विधिसे तोनोंको प्राप्तकर तूं मोक्षको प्राप्तकर कायर हो व्यर्थ ही क्यों दुःखो हो रहा है ॥ ८४ ॥
इस प्रकार सम्यक् चारित्र-चिन्तामणिमें चारित्रलब्धिका संक्षिप्त वर्णन करनेवाला चारित्रलब्धि नामका द्वितीय प्रकाश पूर्ण हुआ ।
तृतीय प्रकाश महाव्रताधिकार
मङ्गलाचरण
राग्यसमानममेयमाना
भारुह्य मुक्ता भवभोग भूमिः ।
आज्ञा च भूमिः शिवसौख्यलक्ष्म्या
येन स्वयं तं विनमामि नेमिम् ॥ १ ॥
अर्थ -- जिन्होंने वैराग्यकी अपरिमित उत्कृष्ट सीमापर आरूढ़ होकर संसार सम्बन्धो भोगोंको भूमिका परित्याग किया और मोक्ष सुखरूप लक्ष्मोको स्वयं प्राप्त किया उन नेमिनाथ भगवानको मैं नमस्कार करता हूँ || १॥
आगे महाव्रतोंके निरूपणकी प्रतिज्ञा महात्रतका लक्षण तथा नाम कहते हैं
अथ प्रवक्ष्यामि महाव्रतानि भूतानि सद्भिः शिवसौख्यकार्मः । विना न येर जनाः कदाचित् रोधुं समर्था भवबन्धनानि ॥ २ ॥ यानि स्वयं सन्ति महान्ति लोके महद्भिशंविधूतानि यानि । महत्फलं यानि विशन्ति नाम महाव्रतानीह मतानि तानि ॥ ३ ॥
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तृतीय प्रकाश
हिंसाविपापाद विरतेर्भवन्ति मनस्विनां पञ्चविधानि तानि । सेषां स्वरूपं श्रमशो बदाम्य हिंसा मुखानां हि महावतानाम् ॥ ४ ॥
अर्थ- अब मोक्ष सुखके इच्छुक सत्पुरुषोंके द्वारा धारण किये जानेवाले उन महावतोंको कहूंगा जिनके बिना मनुष्य संसारके बन्धन रोकने में कभी भी समर्थ नहीं हो सकते। जो लोकमें स्वयं महान हैं को महान पुरुषोंके द्वारा धारमा किये गए तथा जो महान् फल प्रदान करते हैं वे महावत माने गये हैं। हिंसादि पांच पापोंसे निवृत्ति होने के कारण वे पाँच प्रकारके होते हैं तथा मनस्वी-साहसी-उपसर्ग विजयी मनुष्योंके होते हैं । यहाँ क्रमसे उन अहिंसा आदि महानतोंका स्वरूप कहता हूँ।
भावार्थ-हिंसा, असत्या, चौर्य, कुशील और परिग्रह इन पांच पापोंका सर्वधा त्याग करनेसे अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच महाव्रत होते हैं। इन्हें उपसर्ग तथा परिषहोंपर विजय प्राप्त करनेवाले पुरुष हो धारण कर सकते हैं । आगे इन्हों पांच महाव्रतोंका विस्तारसे वर्णन किया जायगा ।। २-४ ॥ अब सर्वप्रथम अहिंसा महाव्रतका कथन करते हैं
प्रागहिसावतं वक्ष्ये समस्तब्रतभूषणम् । विमतेन न शोभन्ते साधूनां व्रतसञ्चयाः ॥ ५ ॥ प्रमत्तयोगाजीशनां प्राणान व्यपरोपणम् । हिसानाम महापापं नरकद्वारसन्निभम् ॥ ६ ॥ एतस्या विरतिर्या हि मनोवाक्कायकर्मभिः।
आचे महाव्रतं ज्ञेयहिसानाम संहितम् ॥ ७॥ अर्थ-समस्त व्रतोंके आभूषण अहिंसा महावतको कहूंगा। क्योंकि इसके बिना साधुओंके समस्त ब्रतोंके समुह सुशोभित नहीं होते। प्रमत्तयोगसे जोवोंके प्राणोंका विधान करना हिंसा नामका महापाप है। यह पाप नरक द्वारके समान है। इस हिंसासे जो मन, वचन, कायपूर्वक विरति होतो है अर्थाद तीनों योगोंसे उसका त्याग होता है वही अहिंसा नामका पहला महानत है ।। ५-७ ।। आगे जोव-जातियों के ज्ञान विना हिंसाका त्याग नहीं हो सकता, इसलिये संक्षेपसे जीव-जातियों का वर्णन करते हैं
जीवजातिपरिज्ञानमन्तरेण न साध्यते । हिसायापपरित्यागस्तमः किञ्चित् प्रवभिन साम् ॥ ८॥
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सम्यक्चारित्न-चिन्तामणिः गतिभेदेन जीवानां बताः सन्ति जातयः । श्वानतिर्थन देवानां भवतो भववासिनाम् ॥ ९॥ रत्नप्रभादिभेदेन श्वानाः सप्तविधा मताः । रहन्ते ते महादुःखं सुचिरं पापयोगतः ॥१०॥ एते पञ्चेन्द्रियाः सन्ति नियमेन च संजिनः ।
अकालमरण नास्ति नारकाणां कदाचन ॥ ११ ॥ अर्थ-- जीव-जालियोंके ज्ञान बिना हिंसा पापका त्याग नहीं हो सकता, इसलिये जीव-जातियोंका कुछ कथन करता हूँ। नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवोंके भेदसे गति अपेश्ना संसारी जोवोंमो चार जातियाँ हैं। उनमें रत्नप्रभा आदिके भेदसे नारको सात प्रकारके माने गये हैं। वे नारकी पापके योगसे चिर-कालतक महान् दुःख भोगते हैं । ये नारको नियमसे पञ्चेन्द्रिय और संज्ञो होते हैं। इनका कभी अकालमरण नहीं होता ।। ८-११॥ आगे तियंञ्चगति सम्बन्धी जीवोंका वर्णन करते हैं
एकेन्द्रियाविभेवेन तिर्यवः पञ्चधा मताः । एकामा स्थायरा: सन्ति यक्षाचास्तु असा मताः ॥ १२ ॥ पृथिव्यप्लेजसा भेदा तरुवाटकोश्च भेवतः । स्थावराः पञ्चधाः सन्ति नानादुःखसमन्विताः ।। १३ ।। पृथिवी पृथिवीकायः पृथिवीकायिक एव च । पृयिवोजीव इत्येतत् पृथ्वीकायचतुष्टयम् ॥ १४ ॥ जलं हि जलकायश्व जलकायिक एव च । अलजोव इति ज्ञेयं जलकायचतुष्टयम् ।। १५ ।। अनलोऽनलकायश्चानलकायिक एव च। अनलजीव इत्येतेऽनलकार्याश्चतुविधाः ॥१६॥ वायुर्हि वायुकायाच वायुकायिक एव च । वायुकायो हि विज्ञेया वायुकायाश्चतुविधाः ॥ १७ ।। तहि तरफायन सरुकाधिक एव छ । तरफाय इति नेयाश्चतुर्धास्तरकायिकाः ।। १८॥ पृथिवीकायिकजीवेन त्यक्ती यः कलेवरः । पृथ्वीकायः स विज्ञेयः पृथ्वी सामान्यतो मता ॥ १९॥ पृथ्वीदेहस्थितो जीवः पृथ्वोकायिक उच्यते । पृथिव्यां जग्म संधतु जीवो यश्च समुद्यतः ॥ २० ॥
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तृतीय प्रकाश पृथ्वीजीवः स विशेयः साम्प्रतं विग्रहस्थितः।
एवं जलाविभेदानां विजेया लक्षणायली ।। २१॥ अर्थ-- एकेन्द्रिय आदिके भेदसे तिर्यंच पाँच प्रकारके माने गये हैं। उनमें एकेन्द्रिय स्थावर हैं द्वीन्द्रिय आदि त्रस माने गये हैं। पृथियो, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिके भेदसे स्थावर पाँच प्रकारके हैं। ये स्थावर नाना प्रकारके दुःखोंसे सहित हैं । पृथिवी, पृथिवीकाय, पृथिवोकायिक और पृथिवी जोबके भेदसे पृथिवीकायके चार भेद हैं। जल, जलकाय', जलकायिक और जल जोवके भेद से जलकायके चार भेद हैं । अग्नि, अग्निकाय, अग्निकायिक और अग्निजीव, ये अग्निकायके चार प्रकार हैं। वायु, वायुकाय, वायुकायिक और वायुजीव ये वायुकायके चार भेद हैं। वनस्पति, वनस्पतिकाय, वनस्पतिकायिक और वनस्पति जोव ये वनस्पतिकायके चार प्रकार हैं। पृथिवो सामान्य है, पृथिवो कायिक जोके द्वारा छोड़ा हुआ कलेबर पृथिवीकाय है, पृथिवी शरोरमें स्थित जीव पृथिवीकायिक है और पूथिनोमें जन्म लेनेके लिये उद्यत तथा सम्प्रति विग्रह गतिमें स्थित जोव पृथिवीजीव जानना चाहिये। इसी प्रकार जल, जलकाय आदि भेदोंके लक्षण जानना चाहिये। ___ भावार्थ-पृथिवीकायिक जीवके द्वारा छोड़ा हुआ कलेवर जब तक अपने उसो आकारमें रहता है तब तक पृथिवीकाय कहलाता है और जब उसका आकार परिवर्तित हो जाता है तब पृथियो सामान्य हो जाता है । ऐसा जल आदि सभी भेदोंमें समझना चाहिये । पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इन चारको आगममें धातु संज्ञा है, आयु पूर्ण होने पर इनका जोव निकल जाता है और उसो शरोरमें उसो कायके दूसरे जीव उत्पन्न हो जाते हैं ।। १२-२१ ।। आगे पृथिवी, जल, अग्नि और वायुक जीवोंके कुछ विशेष प्रकार कहते हैं
मृदुकर्कशमेवेन सा पृथ्वी विविधा मता। गरिकाविस्वरूपा या मृबरे सा पृथिवी स्मृता ॥ २२ ॥ रजतस्वर्णलोहारफूटताम्राविभेवतः । कर्कशपृथिवीमेवा बहवः सन्ति भूतले ॥ २३ ॥ जलस्यमेवा विद्यन्ते हिमवर्षापलाययः । अधिश्वालावलीविद्यारिवज्योतिरावयः ।। २४ ।।
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः अग्निकायिकजीवानां विद्यन्त बहुला भिवाः ।
समाप्रभजनश्चक्रवाता यायुभेदाः स्मृताः ॥ २५ ॥ अर्थ-कोमल और कठोरके भेदसे पृथिवो दो प्रकारकी मानी गई है। गेरु आदि मिट्टी रूप पृथिवी कोमल पृथिवी है और चाँदी, स्वर्ण, लोहा, पोतल तथा तांबा आदि कठोर पृथिवोके बहुत भेद पृथिवीपर विद्यमान हैं। बर्फ, ओला आदि जलके भेद है। लौं, ज्वालाओं का समूह, बिजली और गाज आदि अग्निकायिक जीवोंके भेद हैं तथा झम्झा ( वर्षाके साथ चलने वाली वायु ), प्रभञ्जन ( तोड़-फोड़ करने वाली आँधी) और चक्रवात ( गोल रूप में नीचेसे ऊपरको ओर जाने वाली वायु), ये सब वायुकायके भेद माने गये हैं ।। २२-२५॥ आगे बनस्पतिकायिक जीवोंके प्रकार बताते हैं
साधारणच प्रत्येको विविधस्तरकायिकः । श्वासाहारावयो येषामेके सन्ति महीतले ॥२६॥ येषां चकशरीरे स्युरनन्तादेहधारिणः। साधारणामतास्तेहि निगोवापरसंशिताः ।। २७ ॥ निस्येतरविभेवेन निगोवा द्विविधा मताः। निगोवावन्यपर्यायो यर्न लब्धः कदाचन ॥ २८॥ कर्मचिभ्ययोगेन लप्स्यते नापि जातचित् । निगोदास्ते मता नित्य-निगोवा दुःखभागिनः ॥ २९॥ अस्मिन् केचन जीवाः स्युरोदशोऽपि जिनोदिताः। येनं लब्धोऽन्यपर्यायो लप्स्यते किन्तु जातुचित् ॥ ३० ॥ निगोदाव ये विनिर्गत्य भ्रमन्त्यन्यान्य देहिए । पुनस्तत्रैव यान्तस्ते सन्तीतर निगोवाः ॥ ३१ ॥ येषु त्येक शरीरस्य स्वामी स्यावक एव हि। प्रत्येकवेहिनस्ते स्युजिनदेवस्वीरिताः ॥ ३२॥ येषामाश्रयमासाद्य वसन्त्यन्ये असेतराः। मिनागमे समुक्तास्ते प्रत्येकाः सप्रतिष्ठिताः ।। ३३ ।। येषां हे न सन्त्यन्ये जीवा स्थावरसंजिताः । अप्रतिष्ठित प्रत्येका माकन्दाथा जिनोदिताः ॥ ३४ ॥ साधारणाश्च ये सन्ति ये च वा सप्रतिष्ठिताः । असोषितशरीराश्च न ते भक्ष्या क्यालुभिः ॥ ३५ ॥
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तृतीय प्रकाया अर्थ-साधारण और प्रत्येक भेदसे वनस्पतिकायिक जोव दो प्रकारके हैं। पृथिवी तलपर जिनके श्वास तथा आहार आदि एक हैं अर्थात् एकके श्वास लेनेपर सबको श्वास ली जाती है योर एकके आहार करनेपर सबका आहारहो जाता है एवं जिनके एक शरीरमें अनन्त जीव रहते हैं वे साधा ते गए हैं हाहगा दर नि"द है। नित्य निगोद और इतर निगोदके भेदसे निगोद दो प्रकारके माने गये हैं। जिन जोवोंने कभी निगोदसे अन्य पर्याय नहीं प्राप्त की है और कर्मोको विचिप्रतासे कभी प्राप्तभो नहीं करेंगे वे दुःख उठाने वाले नित्यनिगोद हैं। इस नित्यनिगोदमें कितनेही जीव जिनेन्द्र भगवान्ने ऐसे बतलाये हैं कि जिन्होंने आज तक दूसरी पर्याय प्राप्त तो नहींको है परन्तु प्राप्त करेंगे। निगोदसे निकलकरजो अन्य जोवोंमें भ्रमण करते हैं और पुनः उसीमें जा पहुँचते हैं वे इतरनिगोद हैं इन्हींको चातुर्गतिक निगोद भी कहते हैं। जिनमें एक शरीरका एक जीवही स्वामो होता है उन्हें जिनेन्द्रदेवने प्रत्येक कहा है। जिनका आश्चय पाकर अन्य स्थावर जीव रहते हैं जिनागममें उन्हें सप्रतिष्ठित प्रत्येक कहा है। जिनके शरीरमें अन्य स्थावर जोव नहीं रहते वे आम आदि अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहे गये हैं। जो साधारण हैं, सप्रतिष्ठित हैं और जिनके शरीर में असजीव रह रहे हैं वे वनस्पतियाँ दयालु पुरुषों द्वारा खाने योग्य नहीं हैं। ___ मावार्थ-जो मूल शेज हैं जैसे आलू, घुईया, सकरकन्द, अदरक, मूलो आदि तथा तोड़नेपर जिनका समभङ्ग होता हो जैसे धनंतर आदि के पत्ते आदि साधारण हैं। साधारण जोवोंमें एक शरीरके अनेक जीव स्वामो होते हैं परन्तु सप्रतिष्ठित प्रत्येको एकके आश्रय रहनेवाले जोव अपना-अपना स्वतन्त्र शरीर लेकर रहते हैं। प्रत्येकमें एक शरोरका एक हो स्वामो होता है-जैसे आम, अमरूद आदि । परन्तु जब तक इनका पूर्ण विकास नहीं हुआ है तब तक वे सप्रतिष्ठित प्रत्येक हैं अर्थात् अनेक जोबोंके आधार हैं। गोभी तथा अमर कटूमय आदिमें त्रस जोवभी रहते हैं अतः दयावन्त जीवोंके द्वारा भक्ष्य नहीं हैं-खाने योग्य नहीं हैं।
यहाँ एक बात यह भी ध्यातव्य है कि आजकल कुछ लोगोंमें जो यह धारणा चल पड़ी है कि वृक्षसे तोड़ लेनेपर फल निर्जीव हो जाता है उसे अचित्त करनेको आवश्कता नहीं है, यह धारणा आगम सम्मत नहीं है क्योंकि एक वृक्षमें वृनका जीव अलग रहता है और उसके आधारपर उत्पन्न होनेवाले फलों तथा पत्तोंमें उनका जीव अलग रहता है अतः
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः वृक्षसे तोड़नेपर वृक्षका जीव तो फलों और पत्तोंमें नहीं रहता परन्तु फल और पत्तोंका जोव रहता है उसकी अपेक्षा वे सचित्त माने जाते हैं। सचित्तका त्यागी इन्हें अचित्त कर हो खा सकता है। यदि वृक्षसे तोड़ लेने पर पत्र आदि अचित्त हो जाते हैं तो भोगोपभोग परिमाण व्रतके अतिचारोंमें जो सचित्त, सचित्तसबन्ध और सचित्त सन्मित्र अतिचार वतलाये गए हैं उनकी संगति नहीं बैठती। इसी प्रकार अतिथिसंवि. भागके अतिचारों में जो सचित्त निक्षेप और सचित्त विधान अतिचार बतलाये गए हैं वे भी संगत नहीं होते ॥ २६-३५ ।। आगे त्रस जीवोंका वर्णन करते हैं
वपक्षप्रमतयो जीवा गवितास्त्रससंहिताः। रासयुक्तिकपर्वाया द्वीन्द्रियाः सन्ति जन्तवः ।। ३६ ॥ कोरिया गांवता लोक मरकुणाचकावयः। चतुरक्षा मता जीवा मशकामक्षिकादयः ।। ३७ ।। पञ्चाक्षाः सन्ति लोकेऽस्मिन् नगवाश्वसुरादयः । सूक्ष्मवावरभेदेन स्थावरा द्विविधा मताः ॥ ३८ ॥ प्रत्येकास्त्रसजीवास्तु बावरा एव सम्मताः। पञ्चेन्द्रियास्तिर्यष्चश्व संधपसंशिप्रभेवतः॥ ३९ ॥ द्विविधा गविता लोके संझिनो नसुरादयः । तिर्यकपञ्चेन्द्रिया लोके त्रिविधाः कथिता जिनः॥ ४० ॥ जलस्थलाचारित्वानऋगोपतगावयः। आर्यम्लेच्छाख्यभेदेन द्विविधाः सन्ति मानवाः॥४१॥ चणिकायभेवत्त्वाच्चतुर्धाः सन्ति निर्जराः । एतासो जीवजातीनां रक्षणं प्रथमं व्रतम् ॥ ४२ ॥ षटकायजीवजातीनां रक्षणान् बहिरङ्गतः । रागादीनां विभावानां वारणादन्तरङ्गतः ॥ ४३ ॥ महावतं भवेत्साबोरहिता संहितं ध्रुवम् ।
अथाने कथयिष्यामि सत्यं नाम महाव्रतम् ॥ ४४ ।। अर्थ-द्वीन्द्रिय आदि जीव घस कहलाते हैं । शंख. सोप तथा कौड़ी आदि दोन्द्रिय जीव है। खटमल तथा विच्छ आदि जोव लोकमें त्रोन्द्रिय कहे गये हैं। मशक तथा मक्खो आदि चतुरिन्द्रिय जीव माने गये हैं और मनुष्य, गाय, घोड़ा तथा देव आदि इस संसार में पञ्चेन्द्रिय हैं। सूक्ष्म और बादरके भेदसे स्थावर जोष दो प्रकारके माने गये हैं परन्तु प्रत्येक
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तृतीय प्रकाशा
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वनस्पति और त्रस वादर ही कहे गये हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च संज्ञी और असंज्ञके भेदसे दो प्रकार के कहे गये हैं परन्तु मनुष्य, देव और नारको संज्ञी ही माने गये हैं । तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रियोंके जिनेन्द्र भगवान्ने जलचर, स्थलचर और नभचरके भेद से तीन भेद कहे हैं। नक्र-मगर आदि जलचर हैं, गाय आदि स्थलचर हैं और पक्षी नभचर हैं। आर्य और म्लेच्छके भेदसे मनुष्य दो प्रकार के हैं तथा चार निकाय ( भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकके ) भेदसे देव चार प्रकार के है । इन सब जीव जातियोंकी रक्षा करना प्रथम अहिंसा महाव्रत है । बहिरङ्गसे छह काय ( पाँच स्थावर और त्रस ) के जोवकी रक्षा करनेसे और अन्तरङ्ग से रागादि विभाव भावोंका निवारण करनेसे निश्चितही अहिंसा महाव्रत होता है। अब आगे सत्य महाव्रतका कथन करेंगे ॥ ३६-४४ ॥
क
वजः।
प्रमाज्जीवं तवसत्यं परिज्ञेयं तच्चतुविध्यमश्नुते ॥ ४५ ॥ निषेधो यत्र जायेत सद्भूतस्थापि वस्तुनः । असत्यं प्रथमं ज्ञेयं तत् सद्भूतापलापकम् ।। ४६ ।। यथा सतोऽपि देवस्य नास्तीति कथनं गृहे । यत्रासतः पदार्थस्य सद्भायो हि विधीयते ।। ४७ ।। असत्यमेतद् विज्ञेयमसद्धावनं परम् ।
असत्यपि देवदत्ते सोऽस्तीति कथनं यथा ॥ ४८ ॥ मूलतोऽविद्यमानेऽर्थे तत्सबुशो निरूपणम् ।
अश्वाभावे बरस्थाश्व कथनं क्रियते यथा ।। ४९ ।। एतवन्याभिधानं च तृतीया सत्यमुच्यते । गहिताप्रियक्षादिवचनं
एतच्चतुविधासस्य विपरीतं
गर्हितादिवाक ।। ५० ॥ यदुच्यते । तत्सत्यं वचनं प्रोक्तं सर्वदुःख निवारकम् ॥ ५१ ॥
अर्थ --- प्रमत्तयोगसे जीवोंद्वारा जो अनृत - मिथ्याकथन किया जाता है उसे असत्य जानना चाहिये। यह असत्य चार प्रकारका है । जिसमें विद्यमान वस्तुका भो निषेध किया जाता है उसे सद्भूतापलापक पहला असत्य जानना चाहिये । जैसे देवदत्तके रहते हुए भी कहना कि घरमें नहीं हैं। जिसमें अविद्यमान पदार्थका सद्भाव किया जाता है वह असदुद्भावन नामका दूसरा असत्य है । जैसे देवदत्तके न रहते हुए भी कहना कि देवदत्त है। मूल वस्तुके न रहनेपर उसके सदृश वस्तुका कथन करना । जैसे अपबके न रहने पर गृहस्थको भार ढोने की अपेक्षा अश्व कहना । यह
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सम्पचारित्र-चिन्तामणिः अन्यरूपाभिधान नामका तीसरा असत्य है । गहित, अप्रिय तथा कर्कश आदि वचन गर्हितादि वचन कहलाते हैं। जैसे कानाको कनवा और पंगु को लंगड़ा आदि शब्दसे संबोधित करना । यह सत्य होनेपर भी गहित तथा कर्कश होने से असत्यकी कोटि में लिया जाता है। इन चार प्रकारके असत्यसे विपरीत जो वचन कहा जाता है वह सत्य कहलाता है। यह सत्य वचन सब दुःखोंका निवारण करने वाला है।
भावार्थ-तत्त्वार्थसूत्रमें असत्यका लक्षण लिखते हुए उमास्वामो महाराजने 'असभिवानमनतम्' यह सूत्र कहा है। इसको निम्न प्रकार व्याख्या करनेसे असत्यके चार भेद प्रतिफलित होते हैं-'सतो विद्यमानस्य अभिधानं कयनं सदभिधानं न सदभिधानम् असदभिधानम्' अर्थात् विद्यमान वस्तुका कहना तो सदभिधान है और उसका नहीं होना यह असदभिधान है। जैसे देवदत्तके रहते हुए भी कहना, नहीं है, यह सदपलाप-विद्यमानला नहीं कहना. पहला असाय है ! 'न मन असत अविद्यमानं तस्य अभिधानम् असवभिधानम्' अर्थात् अविद्यमान वस्तुका कथन करना यह असदुद्भावन नामका एक दूसरा असत्य है । 'ईषत् सत् असत् तत्सदृशमित्यर्थः तस्य अभिधानम्, असदभिधानम् 'अर्थात् मूलरूपसे वस्तुका अभाव है परन्तु कुछ अंशमें कार्य निकलने की दृष्टि से अन्यको अन्यरूप कहना यह अन्यरूपाभिधान नामका तोसरा असत्य है। जैसे अश्वके अभावमें भार ढोनेकी अपेक्षा गधेको अश्व कहना । 'सत् प्रशस्तं म भवतीति असत् अप्रियादि वचनं तस्य अभिधानं असदभिधानम् अर्थात् अप्रिय, कठोर, निन्द्य वचन बोलना । इन चारों प्रकारके असत्यका जिसमें मन, वचन, कायसे त्याग किया जाता है वह सत्य महावत कह' लाता है ।। ४५-५१ ॥ आगे अज्ञानजन्य और कषायजन्यकी अपेक्षा असत्यके दो भेद कहते हैं
अज्ञानाहा कषायावा ब्रूतेऽसत्यं वचो जनः। तयोः कषायजासत्यं दुर्गतर्बन्धकारणम् ॥ ५२ ।। अजानजनितासत्यं क्षीणमोहाधिस्मृतम् । कषायजं तु दीक्षाया ग्रहणे परिमुच्यते ॥ ५३॥ वसुराजस्य यवाक्यं कषायजनितं तु तत् । दुर्ग: कारणं नातं निम्बायाश्च निमित्तकम् ॥ ५४॥ असत्यवचनणागात् सत्यं नाम महावतम् । प्रशस्यते सा सद्भिः स्वात्मसन्तोषकारणम् ॥ ५५ ॥
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तृतीय प्रकाश
सिरप दिसतां यःणी समालोचकीयकाम् । दृष्ट्वा वाणीफलं स्वस्थ सफलां कुरु सत्वरम् ॥ ५६ ॥ तथा प्रयासः कर्तव्यो येन त्या विशदं वचः। अर्य-प्राप्यते सद्भिः ऋतं नाम तदुच्यते ।। ५७ ॥ मृगतृष्णां जलं ज्ञात्वा जलं प्राप्तुं समुत्सुकः । म लभ्यते जलं क्वापि धावमानरपि द्रुतम् ॥ ५८।। यद् वस्तु यथा चास्ति तस्य च वचनं तथा । सध्यं नाम भवेत्सत्यं विसंवादविनाशकम् ॥ ५९॥ सते हितं भवेत्सत्यं भवबाधाविनाशकम् । हितं मितं प्रियं ब्रूयादित्याधाय स्थचेतसि ॥६० ।। सद् वचः सततं ब्यावसत्यं मा वदो वचः । मौनं हि परमो धर्मस्तवभावे च सत्यवाक् ।। ६१ ॥ वक्तव्या सततं पुम्भिः सर्वसन्तोषकारिणी।
इतोऽग्रे सम्प्रवक्ष्याम्यस्तेयं नाम महायतम् ॥ ६२ ।। अर्थ- मनुष्य अज्ञान अथवा कषायसे असत्य वचन बोलता है । इसलिये असत्यके दो भेद हैं- अज्ञानजन्य और कषायजन्य । इन दोनों असत्य वचनोंमें कषायजन्य असत्य दुर्गतिके बन्धका कारण है । अज्ञानजन्य असत्य वचन क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान तक होता है और कषायजन्य असत्य दोक्षा-ग्रहण के समय छूट जाता है। राजा वसुका असत्य वचन कषायजन्य था इसलिये वह दुर्गतिका कारण तथा निन्दाका निमित्त हो गया। असत्य वचनका त्याग करने से सत्य महाव्रत होता है। यह सत्य महावत अपने आपमें संतोषका कारण है तथा सत्पुरुषोंके द्वारा प्रशंसनीय है। तिर्यञ्चों को विकल-अस्पष्ट और अपनो सकल-स्पष्ट वाणोको देखकर वाणीके फलका विचार कर अपने वाणोको शीघ्र हो सफल करो । भाव यह है कि जिन जीवोंने पूर्वभवमें असत्य बोलकर वाणोका-वचन बलका दुरुपयोग किया उनको वाणी तियंञ्च पर्याय में विकल-अस्पष्ट हुई और जिन्होंने पूर्व पर्याय में सत्य बोलकर वाणोका सदुपयोग किया उनको वाणी मनुष्य भव में साल
स्पष्ट हुई। ऐसा विचारकर अपनी वाणोको शीघ्र हो सफल करना चाहिये। मनुष्यको ऐसा प्रयास करना चाहिये जिससे उसके वचन विशद-स्पष्ट हों। जो सत्पुरुषोंके द्वारा प्राप्त क्रिया जाय उसे ऋत कहते हैं। ऋत नाम सत्यका है, सत्य-यथार्थ वस्तु ही किसोके द्वारा प्राप्तको जा सकती है। मृगतृष्णाको जल जानकर उसे प्राप्त करने के
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सत्यचारित्र-चिन्सामा लिये उत्सुक मनुष्य शीघ्र दौड़ भो लगावें तो भो उसे कहीं प्राप्त नहीं कर सकते। जो वस्तु जैसी है उसको वैसा कहना तथ्य है । सत्यका एक नाम तथ्य है यह तथ्य विसंवादको नष्ट करने वाला है। सत्पुरुषोंके लिये जो वचन हितकारी हो वह सत्य कहलाता है, यह सत्य भवबाधा -संसारके जन्म, मरण सम्बन्धो दुःखौंको नष्ट करने वाला है। 'हित, मित और प्रिय बोलना चाहिये' इस नोतिको हृदयमें रख सदा सत्य वचन बोलो, असत्य वचन कभी मत बोलो। मौन ही परम धर्म हैं । यदि उसकी प्राप्ति सम्भव न हो तो पुरुषोंको सदा सत्य वचन हो बोलना चाहिये । यह सत्य वचन सवको सन्तुष्ट करने वाला है।
भावार्थ-ऊपर अज्ञानजन्य असत्यको क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान तक बतलाया है । उसका कारण है केवल ज्ञान होने के पूर्व तक मनुष्यके अज्ञानभाव रहता है। अज्ञान, असत्य वचन का एक कारण है। अतः कारणके सद्भावमें कार्यका अस्तित्व बताया गया है। वैसे सातिशय सप्तम गुणस्थानसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक सब गुणस्थान ध्यानके गुणस्थान हैं। इनमें बाह्य जल्पका अभाव रहता है । 'अजयंष्टश्यम्' बाक्यमें अजका अर्थ पुरानी धान्य होनेपर भो पर्वतको मांके आग्रहसे पर्वतके पक्ष में राजा वसुने निर्णय दिया था । इसलिये कषायजन्य होने से वह उसके पतनका कारण हुआ ॥ ५२-६२ ।। आगे अचौर्य महावतका वर्णन करते हैं
प्रमादाद् यददत्तस्थावानं तत्स्तेयमुच्यते । तस्य त्यागो भवेत् स्तयत्यागो नाम महावतम्।। ६३ ।। अर्थो हि विद्यते पुंसां प्राणतुल्यो महीतले । तन्नाशे च ततो दुःखं जायते मृत्युसन्निभम् ॥ ६४ ।। स्वकीयपुण्यपापाभ्यां महताल्पतर धनम् । लभ्यते पुरुषेयंच चेतनाचेतनात्मकम् ।। ६५ ।। सन्तोषस्तत्र कर्तव्यो न्यायतो वा सदर्जयेत् । द्रध्यं तथा परित्याज्यं परकीयं विवेकिना ॥६६॥ तथा क्षेत्रमपि त्याज्यं परकीयं महीतले । साधारणजनानां तु चर्चा बूरेऽत्र वर्तताम् ॥ ६७ ॥ विपुलसियुताभूषा अपि मिर्बलभूभजाम् । राष्ट्रमपहतु लग्ना नित्यमेव बरातले ।। ६८ ॥
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तृतीय प्रकाश कलिविजयते कालो यस्मिन् नीतिधरा अपि। त्यक्त्वा न्यायपथं जाताः कष्टं कापथगामिनः ।। ६९ ॥ रामराज्यं प्रशंसन्तो वाचा मधुरया चराः। कुर्वन्ति रावणं कार्य मायाचारपरायणा: ।। ७० ।। जनानां क्षुद्रमाचार बुष्ट्या केचिद् विवेकिनः ।
भवारण्यपथनान्ता गलन्त्येतन्महाव्रतम् ॥ ७१।। अर्थ-प्रमादसे जो अदत्तवस्तुका ग्रहण है वह स्तेय-चोरी कहलातो है, उसका त्याग करना अचौर्य महावत है ! पृथिवी तलपर धन, पुरुषोंके प्राणतुल्य है इसलिये उसका नाश होनेपर उन्हें मरणतुल्य दुःख होता है । अपने पुण्य पापसे पुरुषोंको जो बहुत या कम चेतना चेतनात्मक धन प्राप्त होता है उसमें सन्तोष करना चाहिये अथवा न्यायसे उसे अजित करना चाहिये । पृथिवोतलपर विवेकी मनुष्यको जिस प्रकार दूसरोंका द्रव्य त्याज्य है उसी प्रकार दूसरोंका क्षेत्र भो त्याज्य है । साधारण जनोंकी चर्चा तो दूर रहे विशाल सम्पत्तिसे युक्त राजा भी पृथिवीतल पर निबंल राजाओंका राज्य अपहरण करने में संलग्न हैं। यह कलिकाल अपना प्रभाव बढ़ा रहा है जिसमें कि नोतिधारक मनुष्य भी न्यायमार्ग छोड़कर कुमार्गगामी हो गये हैं। आजके मायाचारी मनुष्य मधुर वाणोसे रामराज्यको प्रशंसा करते हैं परन्तु रावणका कार्य करते हैं । संसाररूपो अटवोमें मार्ग भूले हुए कोई विवेको जन, लोगोंका क्षुद् आचरण देख इस अचौर्य महावतको ग्रहण करते हैं ।। ६३-७१॥ आगे ब्रह्मचर्य महावतका वर्णन करते हैं
अयाने सम्प्रवक्ष्यामि ब्रह्मचर्य महानतम् । आत्मशुद्धः परं हेतुं सर्वोषद्रवनाशनम् ।। ७२ ॥ स्वपरस्त्रोपरित्यागो ब्रह्मचर्य समुच्यते । व्यवहारा निश्चयात्तु स्वरूपे चरणं मतम् ।। ७३ ।। ब्रह्मचर्यपरिचण्टा लोके सर्वत्र मानवाः । प्राप्नुवन्ति तिरस्कारं सुचिरं रावणा इव ।। ७४ ।। विधिना परिणीता या सा स्वस्य स्त्री निगद्यते । शेषाः परस्त्रियः प्रोक्ता दासीवेश्यादयो भुवि ।। ७ ।। नरीसुरोतिरश्ची च चेतना ललना मताः । काष्ठपाषाणनिर्माणाश्चित्रस्थाश्चेतनेतराः ॥७६ ।। एताश्चतुविधानार्यस्त्याज्याः स्वहितवाछिभिः । मलयोनो मलोत्पन्ने देहे दोर्गन्ध्यधारिणी ॥ ७ ॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः का माम स्पृहा पुंसां रामाणां च परस्परम् । ब्रह्मपर्ययुता मा गच्छेयुर्यत्र कुत्रचित् ॥ ७८ ॥ महान्तमादरं सत्र लभन्ते जगतीतले । ब्रह्मचर्यस्य सिद्धयर्थ कर्तव्या ह्यार्यसंगतिः ॥ ७९ ॥ भोजने परिधाने च श्रेया सात्विकता परा। कुशोलजनसंसर्ग निवसेन्नव धामनि ।। ८० ॥ यथानलस्य संसर्गात्सपिहि जयति ब्रुतम् । तथैव वनितासालाचतं द्रवति ब्रुतम् ॥ ८१ ॥ बद्धाप्येकाकिनी चार्या न गच्छेत् साधुसंनिधिम् । द्वित्रा आर्या मिलित्वं विदध्युर्धर्मचर्चणम् ।। ८२ ।। सप्तहस्तान्तरं स्थित्वा शृणुयुः श्रुतवाचनाम्।
आधार-संहिला ह्येषा पालनीया मुनीश्वरैः ।। ८३ ।। अर्थ-अब आगे आत्मशुद्धिके उत्कृष्ट हेतु तथा समस्त उपद्रवोंका नाश करने वाले ब्रह्मचर्य महानतको कहूँगा। व्यवहारसे स्वकीय और परकीय स्त्रीका त्याग करना ब्रह्मचर्य कहलाता है और निश्चयसे आत्मस्वरूपमें चरण-रमण करनेको ब्रह्मचर्य माना गया है। ब्रह्मचर्य से च्युत हुए मनुष्य रावणके समान लोकमें सर्वत्र चिरकाल तक तिरस्कार प्राप्त करते रहते हैं। विधिपूर्वक विवाही गई स्त्रो स्वस्त्री कहलाती है और शेष दासो तथा वेश्या आदिक परस्त्री मानो गई है। मानुषी, देवो और और तिरश्ची घे तोन चेतन स्त्रियां मानी गई हैं और काष्ट तथा पाषाणसे निर्मित एवं चित्र में स्थित अचेतन स्त्रियां कही गई हैं। अपना हित चाहने वाले मनुष्योंके द्वारा ये चारों प्रकारको स्त्रिया त्याज्य कही गई हैं। स्त्री और पुरुष दोनोंका शरीर मलको उत्पन्न करने वाला है, मल से उत्पन्न हुआ है और दुर्गन्धको धारण करने वाला है फिर दोनोंकी परस्पर प्रोति करना क्या है ? ब्रह्मचर्यसे युक्त मनुष्य पृथिवीतलपर जहां कहीं भी जाते हैं वहां महान् आदरको प्राप्त होते हैं। ब्रह्मचर्यको सिद्धि के लिये आर्य मनुष्यों को संगति करना चाहिये तथा भोजन और वस्त्र के विषयमें अत्यधिक सात्विकताका आश्रय लेना चाहिये । जहाँ कुशोल मनुष्योंका संसर्ग हो ऐसे स्थानमें नहीं रहना चाहिये। जिस प्रकार अग्निके संसर्गसे धो पिघल जाता है उसी प्रकार स्त्रीके संगसे पुरुषका चित्त पिघल जाता है - कामातुर हो जाता है। वृद्धा आर्यिका भो अकेली साधुके पास न जावे । दो तोन मिलकर ही साधुके पास धर्म
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तृतीय प्रकाश
चर्चा करें तथा सात हाथ दूर बैठकर शास्त्रको वाचनाको सूनें। यह आचार संहिता मुनियोंको नियमसे पालन करने योग्य है ।। ७२-८३ ।। अब आगे अपरिग्रह महावतका वर्णन करते हैं
अथाने सम्प्रवक्ष्याम्यपरिग्रहमहावतम् । मूर्छापरिग्रहः प्रोक्तो धनधान्याविवस्तुषु ।। ८४ ॥ तां त्यक्त्वा मुनयो यान्ति नैर्गन्धों परमा बशाम् । परिग्रहपिशाचोऽयं यस्य मधंनि वर्तते ॥ ८५ ।। भ्रान्तचित्तः स सम्भूय कुरुते विविधाः क्रियाः । मिथ्यात्वं वेवरागाश्च क्रोधाचीनां चतुष्टयम् ॥ ८६ ।। हास्यादयश्च षट् चते झम्त रङ्गाः परिग्रहाः । सचिसाचित्तमिश्राणां भेदाद् बाह्यपरिग्रहाः ॥ ८७ ॥ प्रिविधा विविता लोके मोहोत्पावनहेतवः । दासीवासगवाश्याद्याः सचित्ता रखतावयः ॥ ८८ ॥ अचित्तास्तु गहारामा मिश्रा ज्ञेयाः परिग्रहाः। मनोवाक्कायचेष्टाभिरेषां स्यागोऽपरिग्रहः ॥ ८९ ॥ उभयग्रन्थसन्स्यागी कैवल्यं लभतेऽचिरात् । परिग्रहातुरो जोबो वम्भ्रमीति भवे भवे ।। ९० ॥ शिरास्थं भारमुत्तार्य भवेन्मयों यथा सुखो। तथा पारिग्रहं भारमुत्तार्य स्यात्सुखो मुनिः॥ ११॥ पष्ठबद्धमहाभारो जनो मज्जति सागरे।
यथा तथात्त ग्रन्थोऽयं मम्मत्येव भवार्णवे ।। ९२ ॥ अर्थ – अत्र आगे अपरिग्रह-परिग्रह त्याग महावतका कथन करंगे 1 धन-धान्य आदि वस्तुओंमें जो मूच्छी-ममत्व परिणाम हे वह परिग्रह कहा गया है । इस मूर्छाका त्याग कर मुनि उत्कृष्ट निग्रंन्य दशाको प्राप्त होत हैं । यह परिग्रह रूपो पिशाव जिसके शिरपर रहता है वह भ्रान्त चित्त होकर नाना प्रकारको क्रिया करता है। मिथ्यात्व एक, वेद सम्बन्धी राग तोन, कोबादि चार और हास्यादि : नो कषाय छह ये चौदह अन्तरङ्ग परिग्रह हैं। बाह्य परिग्रह लोकमें सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तोन प्रकारके माने गये हैं। ये तोनों प्रकारके परिग्रह मोहोतिके कारण हैं । दासो, दास, गाय और घोड़ा आदि सचित्त परिग्रह हैं. चांदो आदि अचित्त परिग्रह हैं और स्त्रो पुरुषोंसे सहित घर तथा हरो भरो वनस्पतियोंसे सहित बाग वगोचे मिश्र परिग्रह जानने
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सम्पचा नवसामणिः योग्य हैं। इन सब परिग्रहोंका मन, वचन, काय-त्रियोगसे त्याग करना अपरिग्रह महावत है। अन्तरङ्ग, बहिरङ्ग-दोनों प्रकारके परिग्रहका त्याग करने वाला मनुष्य' शीघ्र ही केवलज्ञानको प्राप्त होता है। परिग्रहसे दुःखी जीव भवभवमें-अनेक भवोंमें भ्रमण करता है। जिस प्रकार मनुष्य शिरपर स्थित भारको उतार कर सुखी हो जाता है उसी प्रकार मुनि परिग्रहका भार उतारकर सुखी हो जाता है । पोठपर बहुत भारी भारको बांधने वाला मनुष्य जिस प्रकार समुद्र में डूबता है उसी प्रकार परिग्रहको ग्रहण करने वाला मनुष्य संसार सागरमें नियमसे डूबता है ।। ८४-६२॥ आगे अपरिग्रह महाव्रतमें दोष लगानेवाले मुनियोंका वर्णन करते हैं
पूर्व परिग्रहं त्यक्त्वा नग्रंण्यं प्रतिपद्यते । पश्चात् परिग्रहं व्याजात स्वीकरोति तु यो नरः॥१३॥ स निपानाद विनिर्गत्य तत्रैव पतनोग्रतः। संघ सञ्चालयिष्यामि निर्मास्यामि ध मन्दिरम् ॥ १४ ॥ इति व्याजो न कर्तव्यो धृत्वा निर्ग्रन्थमुद्रिकाम् । ये हि निग्रंन्यता प्राप्य स्वीकुर्वन्ति परिप्रहम् ॥ १५ ॥ नरकेषु निगोवेषु तेषां पातः सुनिश्चितः। पदि कर्तृत्ववाञ्छा ते न गताः गृहतिनी ।। ९६ ॥ केनोरुस्तवं मुनिभूर्या गृहत्यागं विधेहि च । यथा हि निर्मले चन्द्र कलङ्को दृश्यते द्रुतम् ॥ ९७ ।। तथाहि निर्मले साधी दोषः क्षोऽपि दृश्यते । मुनिना नव तस्कार्य दोषास्पदमिह क्वचित् ॥ ९८ ।। घेन निम्रन्थमुनाया अपवावो भवेदिह । कठिना साधुचर्यास्ति खङ्गाधारागतिर्यथा ॥ ९९ ॥ निग्रन्थतां तु सन्धर्तु सामर्थ नास्ति चेत्तव ।
श्रद्धामात्रेण सन्तुष्टो भव हे भव्यशिरोमणे ।। १०० ॥ अर्थ-जो मनुष्य पहले परिग्रहका त्यागकर निग्रंथ दोक्षाको प्राप्त होता है और पोछे किसो कार्यके व्याज-बहानेसे परिग्रहको स्वोकृत करता है वह कूपसे निकल कर पुनः उसी क्रूपमें गिरनेके लिये उद्यत है। मैं संगृहीत परिग्रहके माध्यमसे संघका संचालन करूँगा और मन्दिर बनवाऊँगा इस प्रकारका व्याज निर्ग्रन्थ मुद्रा धारण कर नहीं करना चाहिये । जो निग्रन्थता-दिगम्बर मुद्राको प्राप्त कर परिग्रहको
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तृतीय प्रकाश स्वीकृत करते हैं उनका नरक और निगोदमें पड़ना सुनिश्चित है । यदि तुम्हारी गृहस्थोंमें पाई जानेवाली कर्तृत्वको इच्छा नहीं गई थी तो तुमसे किसने कहा था कि तुम मुनि हो जाओ और गृह त्याग कर दो। जिस प्रकार निर्मल चन्द्रमामें कलंक शोन हो दिखायी देता है उसी प्रकार निर्मल साधुमें छोटा भो दोष दिखायी देता है। इस जगत् में कहीं भी मुनिको कोई सदोष कार्य नहीं करना चाहिये जिससे निग्रंथ मुद्राका अपवाद हो। साधु की चर्या तलवारको धारपर चलनेके समान कठिन है। यदि निग्रन्थ दोमा धारण करनेको तुम्हारो सामर्थ्य नहीं है तो हे भव्योत्तम ! तुम श्रद्धामात्रसे संतुष्ट होओ।। ६३-१०० ॥ अब आगे महबतोंको स्थिरताके लिये पच्चीस भावनाओंका वर्णन करते हुए-प्रथम अहिंसा महारतकी पांच भावनाएं कहते हैं
अथाने सम्प्रवक्ष्यामि पञ्चविंशतिभावनाः । महावतानां स्थैर्वार्थ मुनयो भावयन्ति याः॥१०१।। वाचागुप्तिमनोगुप्तिरीयर्यासमितिपालनम् आदानन्यासनाम्न्यां च समित्यां सावधानता ॥ १०२ ।। पानभोजमवृत्तिश्च पञ्चैता भावना मताः।
अहिंसावतरक्षार्थ मुनयो भावयन्ति यः॥ १०३ ॥ अर्थ-अब आगे, महाव्रतोंको रक्षाके लिये मुनि जिन भावनाओंका चिन्तवन करते हैं उन पच्चीस भावनाओंको कहेंगे। वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्या समिति, आदान निक्षेपण नामक समितिमें सावधानता और आलोकितपान-भोजनवृत्ति ये पाँच भावनाएँ हैं जिन्हें मुनि अहिंसानत की रक्षाके लिये भाते हैं।
भावार्थ-जिन-जिन कार्योंसे हिंसा होतो है उन सबमें सावधानी रखनेके लिये पाँच भावनाएं निश्चित को गई हैं। वास्तवमें मनुष्य उपर्युक्त पांच हो कार्य करता है, शेष कार्य इन्हीं पाँच कार्योंमें गभित होते हैं ।। १०१-१२३॥ आगे सत्य महातको पांच भावनाएं कहते हैं
कोषलोभभयत्यागा हास्यसत्याग एव च । शास्त्रानुकलभाषा च पञ्चैता भावना मताः ॥ १० ॥
सत्यव्रतसुरक्षार्थ साधनो भावयन्ति याः । अर्थ-क्रोध-त्याग, लोभ-त्याग, भय त्याग, हास्य-दाग और शास्त्रानुकूलभाषा ( अनुवोचि भाषण ) ये वे पाँच भावनाएं हैं, सत्य. अतको रक्षाके लिये मुनि जिनका ध्यान करते हैं ।। १०४॥
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सम्यचारिन्न-चिन्तामणिः आगे अचौर्य महानतको दृढ़ताके लिये पांच भावनाओंका वर्णन करतेहैं
शून्यागारेषु वत्स्यामि मोचिता बासकेषु च ।। १०५ ।। भक्ष्यशुद्धि विधास्थामि न कुर्यामन्य रोधनम् । सटिसंवादं न करिगापि नाचित् ।। Ran अस्लेयवतरक्षार्थ पञ्चता भावना मताः ।
मुनयो भावना झेता भावयन्ति पुनः पुनः ॥ १०७ ॥ अर्थ-मैं पर्वतको गुफा आदि शून्यगृहोंमें निवास करूँगा, विमोचित दूसरोंके द्वारा छोड़े हुए स्वामिस्वहीन गृहोंमें रहूँगा, भिक्षा सम्बन्धो शुद्धि रक्खूगा, अपने स्थानपर ठहरनेवाले दूसरे साधुओंको रुकावट नहीं करूंगा तथा सहधर्मीजनोंसे विसंवाद विरोध नहीं करूंगा अचौर्यव्रतको रक्षाके लिये ये पाँच भावनाएं हैं। मुनि इनका बार-बार चिन्तन करते हैं ॥ १०५-१०७ ।।* अब ब्रह्मचर्यव्रतको रक्षाके लिये पाँच भावनाएं कहते हैं
यनितारागधिन्यः कथा या विश्रता अधि ।
ता अहं नैव श्रोष्यामि रागिनसमागमे ।। १०८॥ * मूलपार में तृतीय महाव्रतकी भावनाएं निम्न प्रकारसे कही है
जायण समपुण्यमणा अणण्णभावो वि चत्तपडिसेवी ।
साधम्मिनोवकरणस्सणुवीचीसेवणं चावि ।। ३३६ ।। याचना; समनुज्ञापना, अपनत्वका अभाव, त्यक्त्त प्रतिसेवना और सार्मिकोंके उपकरणका उनके अनुकूल सेवन करना ।
१. याचना-अपेक्षित वस्तुको गुरु या उसके स्वामी सहधर्मी मुनिसे विनयपूर्वक माँगना।
२. समनुज्ञापना-किसीकी बस्तुको यदि बिना अनुमतिके ली हो तो उसकी सूचना देना और कहना कि शीघ्रताके कारण मैं आपसे पहले आज्ञा नहीं ले सका।
३. अन्यकी वस्तुमें अपनस्य भाव नहीं करना--यह दुसरेकी है, उसकी आकासे मैं इसका उपयोग कर रहा हूँ।
४. त्यक्स' प्रतिसेबो-जिसका अन्य साधुने त्याग कर दिया है, अपना स्वामित्य छोड़ दिया है ऐसे उपकरण-शास्त्र आदिका उपयोग करना ।
५. सामियोपकरण-अनुवीचि सेवन-साधर्मी मुनियोंके उपकरणोंका उनकी आज्ञासे आगमानुसार सेवन करना ।
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तृतीयं प्रकाश कामिनीकृषकक्षादिसुन्दराङ्गविलोकनम् । रागान्वेष करिष्यामि कामाकुलितचेतसा ।। १०९ ।। गार्हस्थ्यावसरे भोगा भुक्ता ये हि मनोहराः। नैव तेषां करिष्यामि स्मरणं जातुचिन्मुवा ।। ११० ।। कामबद्धो सहाया ये रसमानावयो मताः । तेषां संसेवनं नैव करिष्यामि कदाचन ॥ १११ ।। स्वशरीरस्य संस्कारं स्खमलमोचनादिकम् । करिष्यामि प्रमोदान्नो वेहसौन्दर्य हेतवे ।। ११२ ॥ ब्रह्मचर्यस्य रक्षार्थ पञ्चता भावना मताः।
भाव्यन्ते मुनिभिनित्य कर्मणां क्षपणोद्यतः ॥ ११३ ॥ अर्थ-स्त्रियोंमें राग बढ़ानेवाली जो कथाएँ पृथिवीपर प्रसिद्ध हैं रागोजनोंके समागम-गोष्ठीमें मैं उन्हें नहीं सुनंगा । कामसे आकुलित चित्त होकर स्त्रियोंके स्तन तथा कक्ष आदि सुन्दर अङ्गका रामसे अवलोकन नहीं करूंगा। गृहस्थ अवस्थामें जो मनोहर भोग भोगे थे उनका कभी हपूर्वक स्मरण नहीं करूँगा। काम-वृद्धि में सहायक जो रस मात्रा आदिक हैं उनका सेवन कभी नहीं करूंगा और शरीरको सुन्दरताके लिये त्वचाका मल छुड़ाना आदि कामोंसे शरीरका संस्कारसजावट नहीं करूंगा। ब्रह्मचर्यको रक्षाके लिये ये पांच भावनाएं हैं। कर्मोंका क्षय करने में उद्यत मुनिराज इनकी निरन्तर भावना करते हैं।। १०८-११३ ॥ अब अपरिग्रह व्रतकी पांच भावनाएं कहते हैं
इष्टानिष्टेषु पञ्चामामक्षणां विषयेषु च। रागद्वेषपरित्यागः पञ्चैता भावना मताः ॥ ११४ ।। नम्रन्थ्य प्रतरक्षार्थ मुनयो भावयन्ति याः।
वत्तसंरक्षणायोक्ताः पञ्चविंशति भावनाः ।। ११५।। अर्थ-पञ्च इन्द्रियोंके इष्ट-अनिष्ट विषयोंमें राग-द्वेषका त्याम करना, ये वे पांच भावनाएं हैं, जिनका कि अपरिग्रह वतको रक्षा लिये मुनि चिन्तन करते हैं । इस प्रकार पांच महावतोंको रक्षा के लिये पच्चोस भावनाएं कहीं ।। ११४-११५ ॥ आगे मुनिव्रतको प्रधानता बतलाते हुए महानताधिकारका समारोप करते हैं--
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सम्पचारित्र-चिन्तामणिः अनादिकालान् भ्रमता भवेऽस्मिन् जीयेन या दुःखतति प्रभुक्ता । तस्या विनाशे यतिवृत्तमेव समर्थमत्रास्ति न किचिदन्यात् ।। ११६ ॥ सदेव शक्त्या सुविधारणीयं तदेव भक्त्या मनसा प्रचिन्त्यम् ।। तवेव बाचा वधनीयमत्र सदेव कामात करणीयमस्ति || ११७ ।। ____ अर्थ---अनादि कालसे इस संसारमें भ्रमण करनेवाले जीवने जो दुःखोंका समूह भोगा है उसका नाश करने में मुनित्रत-सकल चारित्र ही समर्थ है अन्य कुछ नहीं। इसलिये पृथिवीपर अपनी शक्तिके अनुसार वहीं मुनिन्नत धारण करने के योग्य है, भक्तिपूर्वक पह। मुगिजरा मनसे चिन्तनीय हैं वहो मुनिव्रत वचनसे कहने योग्य हैं और वही मुनिव्रत शरीरसे-कायसे करने योग्य हैं ।। ११६-११७ ।। इस प्रकार सम्यक-चारित्र-चिन्तामणि ग्रन्थमें महाव्रतोंका
वर्णन करनेवाला तृतीय प्रकाश पूर्ण हुआ।
चतुर्थ प्रकाश पञ्चसमित्यधिकार
मल्ललाचरण येनासिना ध्यानमयेन भिन्ना कर्मारिसेना महती विवोर्णा । स वीरनाथो गुणिभिः सनायो मोक्षस्य लाभाय सदा ममास्तु ॥ १॥
अर्थ-जिन्होंने ध्यान रूप कृपाणके द्वारा बहुत बड़ो कर्म शत्रुओंको सेनाको छिन्न-भिन्न तथा विदोर्ण कर दिया एवं जो अनेक गुणोजनों गणधरादिसे सहित थे वे भगवान महावीर मेरे मोक्ष-प्राप्तिके लिये हो ॥ १॥ आगे महाव्रतोंको रक्षाके लिये समितियोंका वर्णन करते हैं
यथा कृषीवला: क्षेत्र रक्षार्थ परितो बृतीः । कुर्वन्ति तरक्षार्थ समितीश्च तथर्षयः ॥२॥ ईर्याभाषादिभेदेन समितिः पञ्चधा मता।
अथासां लक्षणं किंचिद् दर्शयामि यथागमम् ।। ३ ।। अर्थ-जिस प्रकार किसान खेतको रक्षाके लिये चारों ओरसे
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चतुर्थ प्रकाश
३५ वृति-काँटे आदिको बाड़ लगाते हैं उसी प्रकार मुनि व्रतोंको रक्षाके लिये समितियोंको धारण करते हैं। ईर्या भाषा आदिके भेदसे समिति पाँच प्रकारकी मानी गई हैं अर्थात समितिके ईर्या, भाषा, एषण, आदान निक्षेपण और व्युत्सर्ग ( प्रतिष्ठापना ) ये पांच भेद हैं। अब आगमके अनुसार इनका कुछ लक्षण दिखाता हूँ॥ २-३ ॥ अव सर्वप्रथम ई समितिका वर्णन करते हैं
प्रमादरहिता अत्तिः समितिः सन्निरूप्यते । चर्यार्थ तोर्थयात्रार्थ गुरूणां वन्दनाय च ॥ ४ ॥ जिनधर्मप्रसाराय मुनीनां गमनं भवेत् । तडागारामशैलाविवर्शनाय न साधयः ।। ५॥ विहरन्ति कदाचिव व लौकिकानन्दहेतवे । रजन्यां तमशानभागीयां न बजन्ति ते ॥ ६ ॥ सति सूर्योदये मार्गे दृष्टतत्रस्थवस्तुके । नृगवाश्वखराचीनां यातायातबिमदिते ।। ७ ।। हरिघासाघसंकीणे साधवो विहरन्ति हि । दण्डप्रमितभूभागं पश्यन्तः संव्रजन्ति ते ॥ ८॥ न मन्दं नातिशीघ्नं च विहरन्ति मुनीश्वराः। शौचबाधानिवृश्यर्थ रात्री चेटु गमनं भवेत् ॥९॥ विवाविलोकिते स्थाने पिच्छेन परिमार्जिते । वाधांनिवर्तयेत्साधुः करपृष्ठपरीक्षिते ॥ १० ॥ क्षबजन्तुकरक्षार्थ निरुपमा व्रजन्ति ते। सभ्यम् विलोकिते क्षेत्र साधूनां बिहतिभवेत् ॥ ११॥ पादनिक्षेपवेलायां कश्चन क्षुद्रजन्तुका । आगत्य चेन्मति यायान्त साधोस्तस्तिमित्तकः ॥ १२ ॥ सूक्ष्मोपि वशितो बन्ध आचार्य हि जिनागमे । प्रमाद एव बन्धस्य यतो हेतुः प्रदशितः ॥ १३ ॥ पघामेव साधूनां विहारो जिनसम्मतः । अतो यात्रादिकव्याजाद गल्लानः शियिकाश्रयम् ।। १४ ॥ बण्डयत्येव स्वस्येसमिति नात्र संशयः ।
भवेनिःश्रेयसप्राप्तिनिर्दोषाचरणेन हि ॥ १५ ।। अर्थ-प्रमादसे रहित वृत्ति समिति कहलाती है । चर्या, तीर्थयात्रा, गुरु-वन्दना और जिनधर्मके प्रसारके लिये मुनियोंका गमन होता है । तालाब, बाग तथा पर्वत आदिको देखने के लिये तथा लौकिक आनन्दके
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सम्यचारित्र-चिन्तामणिः निमित्त निश्चय से मुनि कभी विहार नहीं करते हैं। अन्धकारसे जहाँ मार्ग आच्छन्न-व्याप्त रहता है ऐसो रात्रिमें साधु विहार नहीं करते । सूर्योदय होनेपर, जिसमें स्थित वस्तुएँ दिख गई हैं, मनुष्य, गाय, घोड़ा तथा गधा आदिके यातायातसे जो क्षुण्ण-विमदित हो गया है एवं जो हरी घास आदिसे व्याप्त नहीं है ऐसे मार्ग में साधु विहार करते हैं। वे मुनिराज दगड-चार हाथ प्रमित भप्रदेशको देखते हा चलते हैं, न अत्यन्त धीरे-धीरे चलते हैं और न अत्यन्त मीघ्र । शौचादिक बाधाकी निवृत्तिके लिये यदि रातमें जाना होता है तो दिन में देखे हुए, पीछीसे परिमाजित और हाथके पृष्ठ भागसे परोक्षित स्थानमें बाधाको निवृत्ति करते हैं। वे क्षुद्रजीवोंको रक्षाके लिये प्रमाद रहित होकर चलते हैं। साधुओंका विहार अच्छी तरह देखे हुए स्थानमें होता है । पर रखते समय यदि कोई क्षुद्रजीब आकर मर जाय तो साधुको उसके निमित्त से होनेवाला थोड़ा भी वन्ध आचार्योंने जिनागममें नहीं बताया है क्योकि बन्धका हेतु प्रमाद ही बताया गया है। साधुओंका पैदल विहार हो जिन्नसम्मत है । अतः यात्रादिकके व्याजसे पालकोका माश्रय करनेवाला साधु अपनो इर्या समितिको नियमसे खण्डित करता है, इसमें संदेह नहीं है। परमार्थसे मोक्षकी प्राप्ति निर्दोष आचरणसे हो होतो है ॥४-१५ ॥ अब भाषा समितिका स्वरूप कहते हैं
अपात्र क्रियते चर्चा भाषासमितिलक्षणः। योऽसस्य वापरित्यागो जातः सत्यमहायते ॥ १६ ॥ रक्षार्थ तस्य भाषायाः समितिः सम्प्रयुज्यते । भाषासमितिसंधारो मुनिराजो निरन्तरम् ॥ १७ ॥ हितां ब्रूते मितां व्रते प्रियां ब्रूते च भारतीम् । तस्य पवनचन्द्राद्यो निासतो वचनोच्चयः ॥ १८॥ पीयूषनिसर इव श्रोत्रानन्दं दवाति सः। वागवान महीलोकेऽन्योन्यप्रीतिविधायिनी ॥ १६ ॥ काकप्रियरवं श्रुत्वा पिकस्य मधुरा कुहम् । उभयोरन्तरं वेति भाषाविज्ञानशोभितः ॥ २०॥ सधर्मभिः कृतालापो भाषासमितिधारकः ।
धर्मपदं दृढ़ीकर्तु बहूपि वक्ति जातचित् ।। २१॥ * विशेष—सल्लेखनाके लिये निर्मापकाचार्य के पास पहुँचने के लिये अशक्ति वण शिविकाका आश्रय लिया जा सकता है।
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चतुर्थ प्रकाश भाषा
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विमानते। निरर्थक भवेत्तस्य भाषायाः सौष्ठवं महत् ॥ २२ ।। एकस्य वचनं शुत्वा लोके युद्धः प्रजायते । एकस्य वचनं श्रुत्वा युद्धशान्तिः प्रजायते ॥ २३ ॥ एकस्य वचनं श्रोतं समायान्ति सहस्रशः । मा, एकस्य संश्रोतुं वित्रास्तिष्ठन्ति मानवाः ।। २४ ॥ व्यर्थं वचनविस्तारं विदधाति च यो नरः। अल्पायोऽधिक वानीव विषावं लभते स वै ॥२५ ।। दोलेव भारती यस्य भवतीह बलाचला। प्रत्यवं तस्य मर्त्यस्य को नु कुर्याद् धरातले ॥ २६ ॥ स्वप्रतिष्ठा स्थिरीकर्तु भूमिल के महस्विनाम् ।
भाषासमितिबन्नान्यत् साधमं वर्तते क्वचित् ॥ २७ ॥ अर्थ--अब यहाँ भाषा समितिके लक्षणकी चर्चाको जाती है । सत्यमहानतमें जो असत्यवचनका परित्याग हुआ था उसको रक्षाके लिये भाषा समितिका सुप्रयोग किया जाता है। भाषा समितिके धारक मुनिराज सदा हित, मित और प्रिय वाणो बोलते हैं। उनके मखचन्द्रसे जो वचन समूह निकलता है वह अमृतके झिरने के समान श्रोताओंको आनन्द देता है। इस पृथिबो लोकमें वाणी ही परस्पर प्रोति करानेवालो है । कौएका अप्रिय शब्द और कोयलको मीठो कुहू सुनकर भाषा विज्ञानसे शोभित मनुष्य दोनोंका अन्तर जान लेता है । सधर्मीजनोंके साथ वार्तालाप करनेवाला भाषासमितिका धारक मुनि धर्मका पक्ष दढ़ करनेके लिये कभी बहुत भी बोलता है। भाषाके सौष्ठव स्पष्टताको प्राप्तकर जो स्वच्छन्द रूपसे बोलता है उसको भाषाका बहुत भारी सौष्ठव निरर्थक होता है। एकका वचन सुनकर लोकमें युद्ध भड़क उठता है और एकका वचन सुनकर युद्ध शान्त हो जाता है। एकका वचन सुननेके लिये हजारों मनुष्य आते हैं और एकका वचन सुननेके लिये दो तोन हो मनुष्य बैठते हैं। जो मनुष्य व्यर्थका वचन विस्तार करता है वह अल्प आयवाला होकर अधिक दान करनेवालेके समान विषादको प्राप्त होता है। इस जगत्में जिसकी वाणो दोलाके समान अत्यन्त चञ्चल है उस मनुष्य का विश्वास भूतलपर कौन करेगा? अथात् कोई नहीं। महस्वो तेजस्वो मनुष्यों को पृथिवोपर अपनो
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सम्यकुवारित्र-चिन्तामणिः
प्रतिष्ठा स्थिर रखनेके लिये भाषासमिति के समान कहीं दूसरा साधन
नहीं है ॥ १६-२७ ॥
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आगे एषणा समितिको चर्चा करते हैं
अर्थषणा समित्याश्च कापि चर्चा विधीयते । एषणामुक्तिरित्यर्थस्तस्यां या सावधानता ।। २८॥ एषणासमितिः प्रोक्ता सा विज्ञात-जिनागमः । औदारिकमिदं वष्मं विना भुक्ति न तिष्ठति ॥ २९ ॥ अतस्तस्य सुरक्षार्थमाहारः प्रविधीयते । दिवसे ह्येकवारं यः स्थितः सन् पाणिपात्रके ॥ ३० ॥ यथाविधि यथाप्राप्तमाहारं विदधाति सः । एषणासमितिः संषा मुनिभिविनिरूपिता ॥ ३१ ॥ ईदृशो हि ममाहारो दीयेत श्रावकैर्जनैः । एव वाच्छा न तेषां स्याज्जैनाचारतपस्विनाम् ।। ३२ ।। अन्तराये समायाते विषीदन्ति न साधवः । स्वारमध्यानपराः सन्तः कुर्वसे कर्मनिर्जराम् ॥ ३३ ॥ साधवः सुकुलीनानां जैनाचारस्य धारिणाम् । गृहेषु नवधा भक्या प्रगृहीताः प्रभुञ्जते ॥ ३४ ॥ कथिता एषणादोषाश्चत्वारिंशत् षडुत्तराः । वर्जनीयाः सवा होते द्वात्रिंशच्चान्तरायकाः ॥ ३५ ॥
अर्थ - अब एषणा समितिकी कुछ चर्चाको जाती है । एषणाका अर्थ भोजन है, उसमें जो सावधानता है वह जिनागमके ज्ञाता पुरुषों द्वारा एषणा समिति कही गई है। यह औदारिक शरीर आहारके बिना नहीं ठहरता इसलिये उसको सुरक्षाके लिये आहार किया जाता है । जो दिन में एकबार खड़े होकर पाणिपात्र में विधिपूर्वक प्राप्त हुए आहारको ग्रहण करता है उसकी यह विधि मुनियों द्वारा एषणा समिति कही गई है । सरस, नोरस, कडुआ अथवा मीठा जैसा आहार प्राप्त होता है साधु उसीमें सन्तुष्ट रहते हैं । श्रावक लोग मुझे ऐसा आहार देते तो ठीक होता, ऐसी इच्छा जैनाचारके तपस्वियोंके नहीं होती । अन्तराय आनेपर साधु विषाद नहीं करते हैं किन्तु स्वात्म ध्यान में तत्पर रहते हुए कर्मोंको निर्जरा करते हैं। साधु उत्तम कुलीन तथा जैनाचारके धारक श्रावकों के घरमें नवधाभक्तिसे पडगाहे जानेपर आहार करते हैं। एषणा सम्बन्धी छियालीस दोष और बत्तीस अन्तराय
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चतुर्य प्रकाश कहे गये हैं। ये सब छोड़ने योग्य हैं अर्थात् इन्हें टालकर आहार करना चाहिये ॥ २८-३५ ॥ आगे माधुकरी आदि पाँच वृत्तियोंका वर्णन करते हुए पहले माधुकरी वृत्तिका कथन करते हैं
माधुकर्यादिवृत्तीनां घारका मुनिपुङ्गवाः। विरक्ताः स्वशरीरेभ्यो विचरन्ति महीतले ।। ३६ ॥ यथा मधुकरः पुष्पाद रसं गृह्णन् तद्भवम् । बाधां न कुरते पुष्पं तथा साधुगृहस्थतः ।। ३७ ।। आहारं स्वेप्सितं गृह्णन् न त पीडयति क्वचित् । एषा माधुकरीवृत्तिर्गविता चरणागमे ।। ३८॥
एथंव भ्रामरोवृतिः कथ्यतेऽपरनामतः । अर्थ-माधुकरी आदि वृत्तियोंको धारण करनेवाले मुनिराज अपने शरीरसे विरक्त हो पृथिवीतलपर बिहार करते हैं। जिस प्रकार मधुकर--भ्रमर फूलसे उसके रसको ग्रहण करता हुआ फलको बाधा नहीं करता उसी प्रकार साधु गृहस्थ से अपने योग्य शुद्ध आहार लेते हुए गृहस्थको पीडित नहीं करते । यह चरणानुयोगके शास्त्रोंमें माधुकरो वृत्ति कही गई है, यही वृत्ति दुसरे नामसे भ्रामरीवृत्ति भी कही जातो है ॥ ३६-३८ ॥ अब गोचरीवृत्तिका स्वरूप कहते हैं
यथा गौर्घाससम्पूलं दवतं नैव पश्यति ।। ३९ ॥ पश्यति घाससम्पूलं तथायं हि मुनीश्वरः। प्रासं पश्यति पाणिस्थं ददतं नव पश्यति ॥ ४० ।। गृहिणां गृहमध्ये या रागवधंक भूतयः। ताः प्रत्यस्य न दृष्टिः स्यात् स्वास्मन्येव हि सा भवेत् ।। ४१॥ एषा गोचरीवृत्तिः कथ्यते सुरिसत्तमः ।
अहो वैराग्यमाहात्म्यं गचितुं केन शक्यते ॥ ४२ ॥ अर्थ-जिस प्रकार गाय घासका पूला देनेवालेको नहीं देखतो किन्तु • घासके पूलको देखतो है उसी प्रकार वे मुनिराज पाणिपात्र में स्थित ग्रासको देखते हैं, ग्रास देनेवालेको नहीं | गृहस्थोंके घरमें जो रागवर्द्धक सम्पदा है उसकी ओर इनको दृष्टि नहीं रहतो, निश्चयसे उनको दृष्टि १. छयालीस दोष और बत्तीस अन्तरायोंका वर्णन परिशिष्टमें देखें।
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सभ्यश्चारित्र-चिन्तामणिः अपने स्वरूप में ही रहती है। श्रेष्ठ आचार्योंके द्वारा यह गोचरोवृत्ति कहो जाती है। अहो ! वैराग्यको महिमा कनेके लिये कौन समर्थ है ? ॥ ३६-४२॥ आगे अग्निप्रशमनोवृत्ति कहते हैं
कस्यचिद् भवने वह्निालासन्ततिरुत्थिता। तस्थाः प्रशमने हेतुर्जलधारंव मृग्यते ॥४३॥ तज्जलं मधुरं वा स्यारक्षारं वा च भवेत् क्वचित् । एवं हयुदरमध्येऽपि सुधाग्निवर्धते विरात् ॥ ४४ ।। तस्य प्रशमने हेतुः पाणिस्था ग्राससन्ततिः । सरसा नीरसा सा स्यादिति चिन्ता न विद्यते ।। ४५॥
अग्निशमनी नाम वृत्तिरेषा निगद्यते। अर्थ-यदि किसोंके मकानमें अग्नि-ज्वालाओंका समूह उठा है तो उसे शान्त' करनेके लिये जलधारा ही खोजी जाती है, कहीं वह जल मीठा होता है और कहीं खारा भी हो सकता है। इसी प्रकार उदरके भीतर क्षुधारूपी अग्नि चिरकालसे बढ़ रहो है। उसे शान्त करनेके लिये हाथ में स्थित प्रासोका समूह हो कारण है। वह ग्रास समूह सरस हो या नीरस, इसका विचार नहीं रहता । यह अग्नि प्रशमनीवृत्ति कहो जातो है ॥ ४३-४५ ॥ अब गर्तपूरण वृत्तिको कहते हैं--
गृहाङ्गणगतो गर्तो यथा केनापि पूर्यते ॥ ४६॥ तयायमौदरो गर्तः सरसनारसैरपि । ग्रासः पूरयितुं शक्यो विरक्तस्य महामुनेः ।। ४७ ।।
गतपूरणनाम्नीयं प्रास्ता वृत्तिरिष्यते। अर्थ-जिस प्रकार धरके आंगनका गर्त किसी साधारण मिट्टो आदिके द्वारा भरा दिया जाता है उसी प्रकार विरक्त महामुनिके उदरका गर्त सरस अथवा नीरस ग्रासोंके द्वारा भर दिया जाता है अर्थात् मुनिराज सरस और नीरस आहारमें रागद्वेष नहीं करते। यह गर्तपूरण . नामको उत्तम वृत्ति मानी जाती है ॥ ४६-४७ ।। आगे अक्षम्रक्षण वृत्तिका निरूपण करते हैं
अक्षस्य म्रक्षणे जाते गन्त्री लक्ष्य प्रगच्छति ॥४८॥
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चतुर्थ प्रकाश
यथा तषिवेहोऽयं शकटामा प्रगति । मोक्षामापस गामाहामी रमतोमः ॥४९॥ एवासाम्रक्षणीयत्तिः प्रास्या चरणागमे । इत्थं दीक्षापनित्यं सुरक्ष्याः पञ्चवृत्तयः ॥ ५० ॥ स्वस्याहारनिमित्तं यः साधं गृह्णाति साधनम् ।
एषणासमितिस्तस्य चिन्तनीयास्ति भूतले ॥५१॥ अर्थ-जिस प्रकार अक्षपर ( चाकके छिद्र में स्थित भौरापर) म्रक्षण-ओंगन लगा देनेसे गाड़ी अपने लक्ष्य स्थान तक चली जाती है उसी प्रकार गालोके समान मुनिका यह शरीर मोक्षरूपी नगरको मोर जा रहा है, आहार इसके लिये ओंगनके समान है। चरणानुयोगमें यह अक्षम्रक्षण-वृत्ति प्रशंसनीय मानो गई है। इस प्रकार दीक्षाके धारक मुनियोंको इन पांच वृत्तियोंका अच्छी तरह पालन करना चाहिये । जो मुनि अपने आहारके निमित्त साधन-सामग्री चौका आदि साथ लेकर चलते हैं उनकी ऐषणा समिति पृथिवीतलपर चिन्तनीय है ।। ४८-५१॥ अब आदान-निक्षेपण समितिकी चर्चा करते हैं
शोधोपकरणं कुण्ठी पिच्छे संयवसाधनम् । ज्ञानोपकरणं शास्त्रमिति साधुपरिग्रहः ।। ५२ ॥ आबाने क्षेपणे चेषां या साधो सावधानता। सैषाह्यादाननिक्षेपसमितिः परिकण्यते ।। ५३ ॥ बलाहकावली वृष्ट्वा गगने श्यामलप्रभाम् । मध्येमध्ये च गर्जन्ती विद्युत्स्फतिधमत्कृताम् ।। ५४ ॥ पिच्छपक्ति समास्फाल्य नत्यन्तः केफिनो बने। स्वयमुज्झन्ति पिच्छानि तान्यादाय बनेचराः ।। ५५ ॥ वितरन्ति मनुष्येभ्यस्ते चादाय तपस्विनाम् । पिपिछकानिमितेहेतोः सङ्ग्रेषुप्रेषयन्ति च ॥ ६ ॥ तेभ्यः पिच्छस्य निर्माणं स्वयं कुर्वन्ति साधवः । पिच्छिकामां मृदुस्पर्शी जीवानां व पोडकः ।। ५७ ॥ अतो विगम्बरः साधुः स्वीकुरुते तमेव हि । गृप्राणां च बकानां च पक्षा: पिच्छतया क्वचित् ॥ ५८॥ गृहीत: केन चिज्जातु न सत्यक्षः सनातनः । नारिकेलेन काष्ठेन कुण्डी या हि विधीयते ॥ ५९॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः संवात्र साधुभि ह्या नैव धातुविनिर्मिता। अल्पमूल्या गृहस्थानां या या नवोपकारिणी ।। ६०॥ तस्थाहरणसम्मोतिन स्याज्जातु तपस्विनाम् । एकद्वित्रीणि शास्त्राणि साधूनां हि तपस्विनाम् ॥ ६॥ ज्ञानोपकरणस्वेन न निषिद्धानि सूरिभिः । चातुर्मासस्य बेलायां बहुशास्त्रायलोडनम् ॥ ३२॥ न निषिद्धं मुनीन्द्राणां तत्स्वामित्वविवर्णनात् । ग्रन्थनिर्माणवेलायो सत्सह्योगकारिणाम् ।। ६३ ।। पठनं बहुशास्त्राणां विधेयं मनु वर्तते । ज्ञानस्य वर्धनं शास्त्र ज्ञानोपकरणं मतम् ।। ६४॥ एषामावानवेलायां निक्षेपावसरे तथा ।
जीवबाधा न कर्तव्याः स्वास्मकल्याणवाञ्छिभिः ।। ६५ ।। अर्थ-शौचका उपकरण कमण्डलु, संयमका साधन पिच्छी और ज्ञानका उपकरण शास्त्र, यही साधुका परिग्रह है। इनके उठाने और रखने में साधुको जो सावधानता है वही आदान-निक्षेपण समिति कहलाती है । आकाशमें कालो कालो, बीच बीच में गरजतो और बिजलोकी कौंधसे चमकती धनघटाको देखकर मयूर बनमें अपनी पिच्छावलोको फैलाकर नृत्य करते हुए पंखोंको स्वयं छोड़ते हैं। बनेचर-भील आदि उन्हें लेकर मनुष्योंको देते हैं, वे उन्हें लेकर पिच्छिकाएँ बनानेके लिये साधुओंके संघमें भेजते हैं। उन पंखोंसे साधु स्वयं हो पिच्छिकाएं बनाते हैं। पिच्छिकाओंका कोमल स्पर्श जोवोंको पोड़ा देनवाला नहीं है, अतः दिगम्बर साधु उसो मयूर पिच्छको ग्रहण करते हैं। कहींपर किन्होंने परिस्थितिवश गोध और बगलोंके पांख भो पिछी रूपसे स्वीकृत किये हैं पर वह पक्ष समीचीन नहीं है ।
नारियल या काठसे जो कमण्डलु बनाया जाता है वहीं साधुओं द्वारा ग्रहण करने योग्य है, धातुओंसे निर्मित नहीं। जो अल्पमूल्य हो
और गृहस्थोंके काम आने वाला न हो ऐसा कमण्डलु ही ग्राह्य है क्योंकि ऐसे कमण्डलुके चुराये जानेका भय साधुओंको नहीं होता। __ तपस्वी साधु एक, दो या तीन शास्त्र साथमें रक्खें तो ज्ञानका उपकरण होनेसे आचार्योंने उनका निषेध नहीं किया है। चातुर्मासके समय बहुत शास्त्रोंका आलोडन-देखना-संभालना मुनियोंके लिये निषिद्ध नहीं, क्योंकि उनके वे स्वामी नहीं होते। किसी मन्दिर या
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५३
चतुर्थ प्रकाश
सरस्वतीभवनमें संगृहीत शास्त्रोंकी अपेक्षा यह कथन है । ग्रन्थनिर्माणके समय उसके सहकारी बहुत शास्त्रोंका पठन भी विधेय है- करने योग्य है । शास्त्र ज्ञानको बढ़ाते हैं इसलिये ज्ञानोपकरण कहलाते हैं । आत्म-कल्याणके इच्छुक साधुओंको इन सब उपकरणों के उठाते और रखते समय जीवबाधा नहीं करना चाहिये ॥ ५२-६५ ।। अब आगे व्युत्सर्ग समितिको चर्चा करते हैं
इतोऽग्रे संविधास्यामि व्युत्सर्गसमितेः कथाम् । मलमूत्रादिबाधाया निवृत्तिजन्तुर्जिते ॥ ६६ ॥ हरिदासाद्यसंकीर्ण ह्यनिरुद्धे सिरोहितं ।
निष्यामि ने विजने वा ॥ ६७ ॥ मले मलस्य पातो तो विधातव्यः कदाचन । शौचालयेषु शौचस्य करणं नोचितं क्वचित् ॥ ६८ ॥ एवा शरीरवृत्तिहि करणोया शरीरिभिः । जीवहिंसापरीहारे ध्यानं धेयं त्ववश्यतः ।। ६९ ।।
अर्थ - इसके आगे व्युत्सर्गे समितिकी कथा करूँगा जो जीवजन्तुओंसे रहित हो, हरी घास आदिसे व्याप्त न हो, रुकावट से रहित हो तथा तिरोहित-परदा सहित हो। ऐसे स्थानपर जंगल अथवा निर्जन स्थलपर मलमूत्रादि बाधाकी निवृत्ति करना चाहिये । मलके ऊपर मल कभी नहीं पटकना चाहिये तथा शोचालयोंमें शौच कहीं नहीं करना चाहिये | मलमूत्र त्याग, यह शरीरको वृत्ति है अतः अवश्य करनी पड़ती है परन्तु जीवहिंसा के बचाव पर अवस्य ध्यान देना चाहिये ॥ ६६-६६ ॥
आगे समिति अधिकारका समारोप करते हैंगृहीतव्रतेषु प्रदोषप्रसारो, भवश्यत्र लोके प्रभावप्रभावात् । अतो दोषहान्युद्यते भव्यलोकः प्रमादे प्रहारो विधेयो व्रताः ॥ ७० ॥
अर्थ - इस लोक में गृहोतत्रतोंके मध्य प्रमादके प्रभावसे दोषोंका प्रसार होता है अर्थात् अनेक दोष लगते हैं अतः दोषोंको नष्ट करनेके लिये उद्यत व्रती भव्य जीवोंको प्रमादपर प्रहार करना चाहिये ।
भावार्थ---प्रमाद के परित्यागते हो समितियोंका पालन होता है और समितियोंसे महाव्रतको रक्षा होती है। अतः चलने, बोलने, आहार करने, रखने, उठाने और मलमूत्र छोड़ने में प्रसादका त्याग करना चाहिये ॥ ७० ॥
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वेष्टकुध नियमावि
आरमयवर्धनेन प्रभावमन्तर्गतं विहातुं ये । उद्यमशीला भवने त एव भव्याः प्रमादरहिताः स्युः ॥ ७१ ॥ अर्थ — आत्मबलकी वृद्धि द्वारा जो भीतरी प्रमादको छोड़नेके लिये प्रयत्नशील हैं, वे भव्य ही प्रमादरहित हो सकते हैं ॥ ७१ ॥
इस प्रकार सम्यक चारित्र-चिन्तामणिमें पञ्चसमितियोंका वर्णन करनेवाला समित्यधिकार नामका चतुर्थ प्रकाश पूर्ण हुआ ।
पश्चिम प्रकाश
इन्द्रियविजयाधिकारः
मङ्गलाचरणम्
एते
हृषीकहरय ।
संयमकविका परप्रयोगेण ।
वान्ता हि समन्तात्ते मुनिराजाः सदा प्रणम्या मे ॥ १ ॥
अर्थ- जिन्होंने संयम रूपी लगामके उत्कृष्ट प्रयोगसे इन इन्द्रियरूपो अश्वोंका सब ओरसे दमन कर लिया है वे मुनिराज मेरे सदा प्रणाम करनेके योग्य हैं। तात्पर्य यह है कि मैं इन्द्रियविजयी साधुओं को सदा प्रणाम करता हूँ ॥ १ ॥
आगे इन्द्रियविजय नामक मूलगुणों का वर्णन करता हूँ
लम्पटा नराः ।
अथेन्द्रियजयं लक्ष्यं कृत्वा किञ्चिद् वदाम्यहम् । अकृत्याक्षजयं लोके स्याद् दीक्षाया विडम्बना ॥ २ ॥ हृषीकविषयाधोना लोका भ्राम्यन्ति सर्वतः । क्षितिमूले नभोमार्गे शंले सिन्धुतले तथा ॥ ३ ॥ कामिनी कोमल स्पर्शलालसा इहैव सहन्ते नारका यथा करेणुकुट्टिन्याः धावमाना गजा गर्ते पतन्तः परतन्त्रताम् । प्राप्नुवन्ति महादुःखं चिरं सोदम्ति च क्षितों ॥ ६ ॥
विविधापायानसूत्र भूत्वा
श्वावेवनाः ॥ ४ ॥
रावणवन्निरन्तरम् ।
कायाकुलितचेतसः ॥ ५ ॥
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पश्चम प्रकाश
तथा कामेन्द्रियाधीना मनुजा अत्र भूतले । विविधण्याधिमासाद्य ममन्ति भवसागरे ॥ ७॥ के के न पतिता लोके नारीसङ्गमुपाश्रिताः। पावसरमा दिसते भवसागरे ॥८॥ अर्थ-अब मैं इन्द्रियजयको लक्ष्यकर कुछ कहता हूँ क्योंकि इन्द्रियजय किये बिना लोकमें मुनि दीक्षाकी विडम्बना हो होती है। इन्द्रियविषयोंके अधीन मनुष्य लोकमें पृथिवीमूल-खान, आकाश-मार्ग, पर्वत
और समुद्रके तलमें सब ओर भ्रमण करते हैं। स्त्रियोंके कोमल स्पर्शको लालसा रखनेवाले कामी पुरुष इसी लोकमें नाना प्रकारके कष्ट सहते हैं और परभवमें नारकी बन रावणके समान निरन्तर दुःख भोगते हैं। जिस प्रकार कृत्रिम हस्तिनोके शरीरको स्पर्श के लिये आकुलित चित्त वाले हाथो दौड़कर गड्ढे में पड़ परतन्त्रता रूप महादुःखको प्राप्त होते हैं तथा पृथिवीपर चिरकाल तक दुःखी रहते हैं उसी प्रकार कामेन्द्रियके अधीन मनुष्य इस भूतलपर नाना प्रकारको व्याधियोंको पाकर संसाय सागरमें मग्न होते हैं। लोकमें स्त्रियोंका संग पाकर अपार दुःखके समूहसे युक्त विस्तृत भवसागरमें कौन-कौन पलित नहीं हुए हैं ? अर्थात् सभी हुए हैं ॥ २-८ ॥ आगे जिह्वा-इन्द्रिय विजयका कथन करते हैं
जिह्वेन्द्रियरसाधीनाः पाठोनाः पुष्टदेहिनः । यथा बन्धनमायान्ति प्राणहीना भवन्ति च ॥ १॥ तथा जिह्वेन्द्रियाधीना मा मृत्युमुपागताः । दृश्यन्ते दूषिताहार-पीड़िता जगतीतले ॥१०॥ के चित्तिक्तप्रिया लोके केधिच्च मधुरप्रियाः। के चित्क्षारप्रियाः सन्ति केधिवक्षारमोजिनः ॥ ११॥ विरजाहारपाने च लग्धे युद्भूतकोपनाः । कुर्वन्तः कलहं नित्यं खिन्नचित्ता भवन्ति हा ॥ १२॥ धन्यास्ते मुनयो लोके नीरसाहारकारिणः । आजोयं त्यक्त मिष्टान्ना आजीवं क्षारमोचिनः ।। १३ ।। आजीवमुष्णपानीयं विरसं संपिबन्ति छ। आजीवं त्यक्तदुग्धा ये ह्यानीवं घृतमोधिनः।। १४ ॥ तेषां पुरो गृहस्थानां गार्हस्थ्यं संकटाततम् । मेसर्षपयोर्मध्ये पावन्तरमस्ति हि ॥ १५ ॥
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सम्यचारित्र-चिन्तामणिः ताववन्तरमस्त्यत्र मुनीर्ना गृहिणां पुरः। चतुरङ्गुलमानयं रसना प्रेरणी तथा ॥ १६ ।। क्वाति यादशं दुखिं न ततोऽग्यत तादृशमः ।
हहो भव्यानयो रागं त्यक्त्वा त्वं हि सुखी भव ।। २७॥ अर्थ-जिह्वा इन्द्रियके अधीन हुए पुष्ट शरोर वाले मच्छ जिस प्रकार बन्धनको प्राप्त हो मारे जाते हैं उसी प्रकार जिह्वा इरिद्रयके अधोन मनुष्य दुषित आहारसे पोड़ित हो पृथिवोतलपर मृत्युको प्राप्त होते देखे जाते हैं। जगत्में कोई तिक्त प्रिय है-चिरपरा भोजन रुचिसे करते हैं, कोई मधुर भोजनको पसन्द करते हैं, कोई खारा भोजन अच्छा मानते हैं और कोई बिना नमकका भोजन करते हैं । कुछ लोग विरुद्ध आहार पानीके मिलने पर कुद्ध हो कलह करते हुए निरन्तर खिन्न चित्त रहते हैं। लोकमें वे मुनि धन्य हैं जो नीरस आहार करते हैं । किन्होंके जीवन पर्यन्तके लिये मिष्ठान्न का त्याग है, किन्हींके नमकका त्याग है, कोई नीरस गर्म पानी पोते हैं, कोई जोवन-पर्यन्तके लिये दूधका त्याग किये हैं और यावज्जीवन घो छोड़े हुए हैं। उन मुनिराजोंके सामने गृहस्थोंका गार्हस्थ्य जोवन संकटोंसे भरा हुआ है । मेक पर्वत और सरसोंमें जितना अन्तर है उतना अन्तर मुनि और गृहस्थोंके सामने है । चार अंगुल प्रमाण रसना इन्द्रिय तथा कामेन्द्रिय जैसा दुःस्व देती है वैसा दुःख उनसे भिन्न अन्य इन्द्रियां नहीं देती। आचार्य कहते है--हे भव्य ! इन दोनों इन्द्रियों का राग छोड़, तूं सुखो हो जा ॥६-१७॥ आगे नाणेन्द्रिय जयका वर्णन करते हैं
रक्तपीतारविन्दानां संचयेन समाधिते। विकसत्पुण्डरीकाणां मण्डलेन च मण्डिते ।। १८ ।। कजकिअल्फपीताभसलिले सलिलाशये । सौगन्ध्यमापिनन् गन्धलोलुपो चमरोभ्रमन् ॥ १९॥ सायं निमीलिते पये ह्यासक्त्या संस्थितोऽभवत् । प्रातः सूर्योदये जाते पद्म विकसिते सति ।। २० ॥ क्षणायोस्पतिष्यामि स्वेष्टधासेति चिन्तयन् । रजन्याः प्रथमे मागे सलिलं पातुभागतः ।। २१ ॥ गज एको जलं पीत्वा पद्मिनी तां चचर्व सः । भ्रमरः स्वविचारेण सह मृत्युमुपागतः ॥ २२ ॥ सौगन्ध्यलोभतो मृत्यु यथा भ्रमर आगतः । तथायं मनुजो लोभा विविधः कष्टमश्नुते ॥ २३ ॥
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पञ्चम प्रकाश
इस्थं विचार्य निग्रंन्यो गन्धलोभं विमुञ्चति । स्वात्मन्येष रतो योगी परगन्धं न काङ्क्षति ॥ २४ ॥ दुर्गन्धे वा सुगन्धे या नाणेन्द्रियजयो मुनिः ।
माध्यस्थ्यं याति वस्तूनां स्वरूपं चिन्तयन् सदा ॥ २५॥ अर्थ-लाल पीले कमलोंके समूहसे व्याप्त खिलते हुए सफेद कमलोंके समूहसे मणि और कमलोंको केशरसे पीतवर्ण जलसे युक्त जलाशयमें सुगन्धिाका पान करता हुआ गधका लोभा भ्रमर संध्याके समय निमोलित – संकुचित कमलमें यह विचार करता हुआ स्थित हो गया कि प्रातःकाल सूर्योदय होनेपर जब कमल खिलेगा तब मैं शीघ्र ही अपने इष्ट स्थानपर उड़ जाऊँगा। उधर रात्रिके प्रथम भागमें पानी पीने के लिये एक हाथी आया और पानी पोकर उस कमलिनीको चबा गया । नमर अपने विचारोंके साथ मृत्युको प्राप्त हो गया। जिस प्रकार भ्रमर सुगन्धके लोभसे मृत्युको प्राप्त हुआ उसो प्रकार यह मनुष्य सुगन्धके लोभसे अनेक कष्टोंको प्राप्त होता है। ऐसा विचारकर निग्रंन्य मुनि गन्धका लोभ छोड़ते हैं। अपने आत्मस्वरूपमें रमण करने वाले योगो अन्य गन्धकी इच्छा नहीं करते। घ्राणेन्द्रिय-जयो मुनि वस्तुओंके स्वरूपका विचार करते हुए दुर्गन्ध या सुगन्ध में माध्यस्थ्य भावको प्राप्त होते हैं ॥ १८-२५॥ आगे चक्षु-इन्द्रिय विजयका वर्णन करते हैं
उज्ज्वलज्ज्योतिराकाङ्क्षी च विषयसंगतः। शलभो मृत्युमायाति यथायं मानवस्तथा ॥ २६ ॥ अयं गौरो ह्ययं श्यामो रक्तोऽयं पीत एव सः। एवं विकल्पनालेन गृहस्थाः सन्ति पीडिताः ॥ २७ ॥ गौराङ्गी रोचते मां श्यामाजी नैव रोचते । इत्थं विकल्पजालान्तः पतिता भविनो जनाः ॥ २८ ॥ रोषं तोषं च विभ्राणा: कुर्वते कर्मबन्धनम् । मुनयो वीतरागाचा रागद्वेषवहिर्गताः ॥ २९ ॥ चिन्तयत्यात्मरूपं तु रूपगन्धादिवजितम्।
आत्मध्यानरतानां कि रूपं कश्च वा रतः॥३०॥ अर्थ-उज्ज्वल ज्योतिको चाहने वाला, चक्षु विषयका लोभी पतंगा जिस प्रकार मृत्युको प्राप्त होता है उसी प्रकार यह मनुष्य भो चक्षु इन्द्रियके विषयका लोभी बन मृत्युको प्राप्त होता है। यह गौर वर्ण है
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सम्यकुवारि चिन्तामणिः
यह श्याम वर्ण है, यह लाल है और यह पीला है इस प्रकार के विकल्प, जालसे गृहस्थ पीड़ित है । मुझे गौर वर्णं स्त्रो अच्छी लगती है और श्याम वर्णं स्त्री अच्छी नहीं लगती, इस प्रकार के विकल्प समूहके बीचमें पड़े संसारी जील रागकोणते हुए करते हैं परन्तु रामद्वेषसे रहित वीतराग मुनि, रूप तथा गन्ध आदिसे रहित आत्मस्वरूपका ध्यान करते हैं । आत्मध्यान में लोन साधुओंके लिये रूप क्या है और गन्ध क्या है ? अर्थात् कुछ नहीं ॥ २६-३० ॥
आगे कर्णेन्द्रिय-जय मूलगुणकी चर्चा करते हैं
वीणावेणुस्वरादोनां रागो येषां न
द्वेषो येषां न
विद्यते । जायते ॥ ३१ ॥
खरोष्ट्रका दिशध्येषु प्रशंसाशब्दमाक हर्षो येषां न जायते । निन्दाशब्दावलीं श्रुत्वा द्वेषो येषां न वर्तते ।। ३२ ।। त एव मुनयो घोराः श्रोत्राजयिनो मताः ।
३४ ॥
यथा वीणारवं श्रुत्वा निश्चलतां गता मृगाः ।। ३३ ।। afrent शरैमिना म्रियन्ते काननेऽचिरात् । तथा गीतप्रिया मर्त्या आसक्ता रम्यगोतिषु ॥ अन्योऽन्यं कलहायन्ते त्रियन्ते च यदा कक्षा । एकैकाक्षवशा जीवाः प्राणान्तमुपयान्ति चेत् ।। ३५ ।। तवा सर्वेन्द्रियाधीना लभन्ते तं कथं न हि इत्थं विचार्य निर्ग्रन्या अक्षाणां जयिनोऽभवन् ॥ ३६ ॥ इष्टानिष्टप्रसङ्गेषु रागद्वेषौ न याति या तमक्षजयिनं साधुं प्रणमामि पुनः पुनः ॥ ३७ ॥
अर्थ- जिन्हें वीणा और बांसुरीके स्वर आदिका राग नहीं है और गर्दभ तथा ऊँट आदिके शब्दोंमें जिन्हें द्वेष नहीं होता । प्रशंसाका शब्द सुनकर जिन्हें हर्ष नहीं होता और निन्दाके शब्द सुनकर जिन्हें द्वेष नहीं होता वे धोर बीर मुनि ही कर्णेन्द्रिय-जयो माने गये हैं। जिस प्रकार बोणाका शब्द सुन स्थिरताको प्राप्त हुए हरिण बधिकोंके वाणोंसे विदीर्ण हो बनमें शीघ्र मारे जाते हैं उसी प्रकार संगोतके प्रेमो तथा मनोहर गोतोंमें आसक्त मनुष्य परस्पर कलह करते और जब कभा मरते रहते हैं। एक-एक इन्द्रियके अधीन जोव जब मृत्युको प्राप्त होते हैं तब सभी इन्द्रियोंक अघोन रहने वाले मनुष्य मृत्युको प्राप्त क्यों नहीं होंगे? ऐसा विचार कर निर्मम्य मुनि इन्द्रिय विजयो होते
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पंचम प्रकाश हैं। जिनके इष्ट अनिष्ट प्रसंगोंमें रागद्वेष नहीं है उन इन्द्रिय विजयो साधुओंको मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ ।। ३१-३७ ।। आगे इन्द्रिय-विजय प्रकरणका समारोप करते हैंरागद्वेषौ यस्य नाशं प्रयातो
नोत्पद्येते तोषरोषौ च यस्य । सोऽयं सा! प्रत निर्गन्धवसं
शुक्लध्यानारकर्मनाशं करोति ॥ ३८॥ अर्थ-जिसके रागद्वेष नाशको प्राप्त हो चुके हैं तथा जिसके तोष और रोष उत्पन्न नहीं होते वह साधु हो निर्मन्य चारित्र-दिगम्बर मुनि मुद्राको प्राप्तकर शुक्ल ध्यानसे कर्मोका क्षय करता है ।। ३८ ॥ इस प्रकार सम्यक चारित्र-चिन्तामणिमें पञ्चेन्द्रियोंके विजयका वर्णन करनेवाला इन्द्रियजयाधिकार नामका
पञ्चम प्रकाश पूर्ण हुआ।
षष्ठ प्रकाश षडावश्यकाधिकारः
मङ्गलाचरण सम्यक्त्वबोधामलवृत्तमूलो
मोक्षस्य मार्गों गदितो जिनेन्द्र । तं प्राप्य ये मोक्षपुरं प्रयाता
स्तान मुक्तिकान्लान् प्रणमामि नित्यम् ॥ १॥ अर्थ-जिनेन्द्र भगवान्ने सम्यग्दर्शन, सम्यक् ज्ञान और निर्मल सम्यक-चारित्ररूप मूलसे युक्त मोक्ष मार्ग कहा है। इसे प्राप्तकर जो मोक्ष नगरको प्राप्त हुए हैं उन मुक्तिकान्त सिद्ध परमेष्ठियोंको मैं निरन्तर प्रणाम करता हूँ ॥ १ ॥ आगे आवश्यक शब्दका निरुक्त अर्थ तथा उसके नाम कहते हैं---
अथावश्यककार्याणि साधूनां कथयाम्यहम् । रागावोनी यशो यो न सोऽयशा कल्पते जिनः ॥ २॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः
अवशस्य मुनेः कार्यमावश्यं हि समुच्यते । 'क' प्रत्ययविधानेन तवेवावश्यकं भवेत् ॥ ३॥ यद्वावश्यं च यत् कृत्यं सदावश्यकमिष्यते । समता बन्दना स्तोत्रं प्रतिक्रमणमेव च ॥ ४ ॥ प्रत्याख्यानं तनुत्सर्ग इत्येतानि च तानि षट् ।
मुनयः श्रद्धया तानि कुर्वन्तीह दिने दिने ॥ ५॥ अर्थ-अब साधुओंके आवश्यक कार्योंका कथन करता हूँ। जो रागादिकके वश नहीं है वह जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा अवश कहा जाता है । अवश मुनिका जो कार्य है वह आवश्य कहलाता है तथा स्वार्थ में 'क' प्रत्यय करनेसे आवश्यक पाब्द होता है ( न वशः अवशः, अवशस्मेवम् आवश्यम्. आवश्यमेव आवश्यकम् ) अथवा जो कार्य अवश्य हो करने योग्य है वह आवश्यक कहलाता है। समता, वन्दना स्तोत्र-स्तुति प्रतिक्रमण, पल्लाममान और कायोलागं ये वे टह आवश्यक कार्य हैं जिन्हें मुनि प्रतिदिन श्रद्धासे करते हैं ॥ २-५ ।। आगे समता आवश्यकका वर्णन करते हैं
इष्टानिष्टप्रसङ्गोषु माध्यस्थ्यं यत् तपस्विनाम् । साम्यं तत् साधुमिर्जेयं कर्मारातिविनाशनम् ॥ ६ ॥ सास्यभावस्य सिद्धयर्थं साधुरेवं विचिन्तयेत् ।
पुनः पुनश्चिन्तनेन विचारः सुस्थिरो भवेत् ॥ ७ ॥ अर्थ-इष्ट-अनिष्ट-अनुकूल प्रतिकूल प्रसङ्गोंमें साधुओंका जो मध्यस्थ भाव है उसे साधुओंको साम्यभाव-समता जानना चाहिये । यह साम्य भाव कर्मरूप शत्रुओंका नाश करने वाला है। साम्यभावकी सिद्धिके लिये साधुको ऐसा चिन्तन करना चाहिये क्योंकि बार-बार चिन्तन करनेसे विचार अत्यन्त स्थिर-दृढ़ हो जाता है ॥ ६-७ ॥ जीवे जीये सन्ति मे साम्यभावाः
सर्वे जोवाः सन्तु ये साम्ययुक्ताः। आतरीदें ध्यानयुग्मं विहाय
कुर्वे सम्यग्भावनां साम्यरूपाम् ॥ ८॥ पृथ्वीलोये यह्विधायू च वृक्षो
युग्माक्षाद्याः सन्ति ये जीवभेदाः।
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षष्ठ प्रकाश
ते मे सबै क्षान्तियुक्ता भवन्तु
क्षान्त्या तुल्यं नास्ति रत्नं यवन ॥ ९॥ दुःखे सौखये बन्धुवर्गे रिपो या
स्वर्णे ताणे वा गहे प्रेतगेहे। मृत्यूत्पस्योर्वा समन्ता जिनेन्दो
मध्यस्थं में मानसं साम्प्रतं स्यात् ।। १० ।। माता तातः पुत्रमित्राणि बन्धु
भार्याश्याला स्वामिनः सेवकाधा। सर्वे भिन्नाश्चिच्चमत्कारमात्रा
वस्मनुपाच्चिचमत्कार शन्याः॥११॥ मोहध्यान्तेनावतोसोधचक्षुः
स्वारमाकारं न स्म पश्यामि मासु। अघोजिन्नज्योतिरश्मिप्रजासः
स्वात्माकारं तेन पश्यामि सम्यक ॥ १२ ॥ रागद्वेषो निराकृत्य चित्तं कृत्वा च सुस्थिरम् ।
सामायिकं प्रकर्तव्यं कृतिकर्मपुरस्सरम् ।। १३ ॥ अर्थ-जीव-जोबपर - प्रत्येक जोपर मेरा साम्यभाव है, सब जीव भी मुझपर साम्यभावसे युक्त होंवे | आत्तं और रोद्र इन दोनों ध्यानोंको छोड़कर मैं साम्यभावरूप सम्यम्भावना करता हूँ। पृथिवो, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा दोन्द्रियादिक जो जीवोंके भेद हैं वे सब मुझपर क्षमाभावसे युक्त हों क्योंकि इस जगत्में क्षमःके तुल्य दूसरा रत्न नहीं है। दुःख में, मुखमें, बन्धु वर्गमें, शत्रुमें, सुवर्णमें, तृण, समूहमें, महलमें, श्मशानमें, मृत्यु में और जन्ममें हे जिनचन्द्र ! आपके प्रसादसे मेरा मन इस समय मध्यस्थ भावसे युक्त हो । माता, पिता, पुत्र, मित्र, बन्धु, भार्या, साले, स्वामी और सेवक आदि चैतन्य चमत्कारसे शून्य हैं तथा चैतन्य' चमत्कार रूप मेरे स्वरूपसे भिन्न हैं । मेरा ज्ञानरूपी चक्ष मोहरूपी अन्धकारसे आच्छादित था इसलिये मैं आत्मस्वरूपको नहीं देख सका। आज मेरी ज्ञान ज्योति उद्धिन-प्रकट हुई है, इसलिये मैं अपने आत्माके स्वरूपको अच्छी तरह देख रहा हूं।
रागद्वेषको दूर कर तथा चित्तको स्थिर कर कृतिकर्म-आवर्त तथा नति पूर्वक यया समय सामायिक करना चाहिये ।। .१३ ।। आगे वन्दना नामक आवश्यकका वर्णन करते हैं
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सम्यक्पारिन्न-चिन्तामणिः चतुविशतितीर्थेशामकस्य स्तवनं यदा ।
क्रियते साधुसन्तत्या तवा सा वदना स्मृता ॥ १४ ॥ अर्थ-साध समूह द्वारा जब चौबीस तीर्थङ्ककरों से किसी एक तीर्थङ्करकी स्तुतिकी जाती है तब वह वन्दना नामक स्तवन माना गया है ।। १४ ॥
विशेष—इस संदर्भ में कषायपाहुडं, प्रथम भाग, पृष्ठ १०२-१०३ पर दिया गया शंका समाधान विशिष्ट रुचिकर है..
'एयस्य तिस्थयरस्स ममंसणं वंदणा णाम। एक्काजिजिणालय बंदणाण कम्मक्खयं कुणड, सेसजिण जिणालयच्चा सण दुवारेणप्पण्णकम्मबंधहेत्तादो। ण तस्स मोक्खो जइणत्तं वा; पखवायसियस्स णाणचरणणिबंधणसम्मत्ताभावादो तदो एगस्स णमंसणमणुव• वणं त्ति'। ___ शंका--एक जिन और एक जिनालयकी वन्दना काँका क्षय नहीं कर सकती क्योंकि इससे शेष जिन और जिनालयोंको आसादनाअपमान होता है । इस आसादनासे अशुभ कर्मोका बन्ध होता है । इसके सिवाय एकको वंदना करने वालेको मोक्ष और जैनत्वकी प्राप्ति नहीं हो सकती। पक्षपातसे दूषित मनुष्य के ज्ञान और चारित्रके कारणभूत सम्यग्दर्शनका अभाव है, अतः एक जिन या जिनालयको नमस्काररूप वन्दना नहीं करनी चाहिये।
एत्य परिहारो बुचके--- ताव पक्खवाओ अत्यि, एक्कं चेव जिणं जिणालयं वा वदामि त्ति णियमाभावादो। ण च सेस जिणजिणालयाणं बंदणा " कया चेव, अणंतणाणदंसणविरियसुहादिदुवारेण एपत्तमावणेसु अणतेसु जिणेसु एयवंदणाय सम्बेसि पि बंदणवत्तोदो। एवं संते ण च' चउबीसस्थयम्मि वंदणाए अंतब्भायो होदि, दम्वद्विय पज्जवठियणयाणमेयत्तविरोहादो। ण च सब्बो पक्खवाओ अमुह कम्मबंध हेऊ चेवेत्ति णियमो अस्थि, खीणमोह जिणविस यपक्व वायम्मि तदणु वलेभादो। एग जिणवंदणाफलेण समाणफलत्तादो ण सेसजिण वंदणा फलवंता, तदो सेसजिणबंदणासु अहियफलाणवलं भादो एक्कस्स चेव वंदणा कायव्वा, अणंतेसु जिणेसु अक्कमेण छदुमत्थुवयोग पउत्तीए विसेसपरूवणाए असंभवादो वा एक्कस्सेव जिणस्स बंदणा कायन्वा ति ण एसो वि एयंग्ग्रहो कायब्बो, एयंताबहारणस्स सव्वहा दुग्णयत्तप्पसंगादो। तम्हा एवं बिह विप्पडिवस्तिणिरायर ण
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षष्ठ प्रकाश
मुहेण एय जिणवंदणाए गिरवज्जभावजाणाषण दुवारेण वंदणा विहाणं तप्फलाणं च परूवणं कुणइ ति वंदणाए क्लव्वं ससमओ।
समाधान-उपर्युक्त शंकाका परिहार करते हैं-एक जिन या जिनालयकी वन्दना करनेसे पक्षपात नहीं होगा क्योंकि वन्दना करनेवालेके ऐसी प्रतिज्ञारूप नियम नहीं पाया जाता कि मैं एक जिण या जिनालयकी वन्दना करूंगा तथा ऐसा करनेसे शेष जिन और जिनालयोंको वन्दना नहीं को, ऐसा नहीं है। क्योंकि अनन्तज्ञान दर्शनबोर्य, सुख आदिके द्वारा सब एकत्वको प्राप्त हैं अतः एकको वन्दना करनेसे सबकी वन्दना हो जाती है । यद्यपि ऐसा है तो भी चतुर्विशति स्तबमें बन्दनाका अन्तर्भाव नहीं होता क्योंकि द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक नयका एकत्व-अभेद मानने में विरोध आता है। फिर सभी पक्षपात अशुभकर्म बन्धका हेतु भी नहीं है क्योंकि मोहरहित जिनेन्द्र के पक्षपातमें अशुभ कर्मोका बन्ध नहीं होता। एकजिन और सभो जिनोंकी वन्दनाका समान फल है। अतः समस्त जिनोंको वन्दनाका करना फल सहित नहीं है इसलिये एकको वन्दना करनी चाहिये। दूसरी बात यह भी है कि छद्मस्थका उपयोग एक साथ सबकी स्तुति में लग भी नहीं सकता। अतः एकको हो बन्दना करनी चाहिये, ऐसा एकान्त आग्रह नहीं करना चाहिये क्योंकि एकान्तका आग्रह दुर्णय-मिथ्यानय है। इसलिये उपर्युक्त बाधाओंके निराकरणपूर्वक एक जिनकी वन्दना निरवद्य है यह बतलानेके लिये वन्दनाका प्रकार और उसके फलका प्ररूपण किया जाता है । एक तीर्थकरके स्तवनरूप वादनामें महाबीर तीर्थङ्करका स्तवन इस प्रकार हैअगाधेभवाब्धी पतन्तं जनं यः
समुद्दिश्य सत्वं सुखादयं चकार । वयाधिः सुखान्धिः सदासौख्यरूपः
स वीरःप्रवीरः प्रमोद प्रदद्यात् ।। १५॥ अर्थ-जिन्होंने अगाध-गहरे संसार सागरमें पड़ते हुए जीवोंको तत्वका उपदेश देकर सुखो किया था, जो दयाके सागर थे, सुखके समुद्र थे तथा सदा सुख स्वरूप थे वे अतिशय शूरवीर महावीर भगवान श्रेष्ठ आनन्दको प्रदान करें ॥ १५॥
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सम्पचारित-चिन्तामणिः विवग्धोऽपिलोका कृतो येन मुग्धः
स कामःप्रकामं रतं वात्मतत्त्वे । न शक्तो बभूव प्रजेतुं मनाग यं
स वीरः प्रवोरः प्रमोदं प्रपद्यात् ॥१६॥ अर्थ-जिसके द्वारा चतुरा मनुष्य भी मुग्ध-मूद कपि गये थे वह काम आत्मतत्त्वमें लीन रहने वाले जिन्हें जीतने के लिये कुछ भी समर्थ नहीं हो सका था वे अतिशय शूरवीर महावीर भगवान श्रेष्ठ आनन्दको प्रदान करें॥ १६॥ जगज्जीयधातीनि घातीनि कृल्या
हतान्येव लेने परं ज्ञानसत्वम् । अलोकं च लोकं ददर्शात्मना यः
स वीरःप्रवोरा प्रमोवं प्रवद्यात् ॥ १७ ॥ अथं-जगत्के जीवोंका घात करने वाले घातियाकोको नष्ट करके हो जिन्होंने उत्कृष्ट ज्ञानतत्त्व-केवलज्ञानको प्राप्त किया था और अपने आपके द्वारा जिन्होंने लोक अलोकको देखा था वे अतिशय शूरथोर महावीर भगवान् श्रेष्ठ आनन्द प्रदान करें ।। १७ ॥ सशिष्यः स विप्रो गुरुगों तमोपं
समासोनमारान् विलोक्येवनूनम् । मदं भूरिमानं मुमोच स्वकीय
प्स धीरः प्रवीस प्रमोवं प्रदद्यात् ।। १८ ॥ अर्थ-शिष्यों सहित गुरु गौतम ब्राह्मणने समवसरणमें विराजमान जिन्हें दूरसे ही देखकर निश्चित है अपना बहुत भारो अहंकार छोड़ दिया था वे अत्यन्त शूरवीर महावीर भगवान् श्रेष्ठ आनन्द प्रदान करें ॥ १८॥ सुरेन्द्रानुगेनालकानामकेनाss
कृतास्थानभूमि समास्थाय विव्यः। वघोभिर्य ईशो दिवेशार्थसार्थ
सवीरःप्रवीरःप्रमोदं प्रदद्यात् ॥ १९ ॥ अर्थ-इन्द्र के अनुगामी आज्ञाकारी कुबेरके द्वारा निर्मित समवसरणमें विराजमान होकर जिन्होंने दिव्यध्वनिके द्वारा पदार्थ समूहका उपदेश दिया था वे अतिशय शूरवोस महावीर भगवान् श्रेष्ठ आनन्द प्रदान करें ॥ १६॥
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षष्ठ प्रकां
बिहृत्यार्थखण्डे सुधर्मामृतस्य
प्रवृष्ट्या समन्ताज्जगज्जीवसस्थान् ।
प्रवृद्धान् चकाराभ्ररूपोऽधिपो या
स वीरः प्रवीरः प्रमोदं प्रदद्यात् ॥ २० ॥
अर्थ -- जिन्होंने आर्य खण्ड में बिहारकर सद्धर्मरूप अमृतकी वर्षा - से सर्वत्र जगत् के प्राणोरूप धान्यों को बढ़ाया था, इस तरह जो मेघस्वरूप थे वे अतिशय शूर-वीर महावीर भगवान् श्रेष्ठ आनन्द प्रदान करें ॥ २० ॥
अनेकान्तदण्डः प्रचण्ड र खण्ड:
समुद्दण्डवादिप्रवेतण्डगण्डान् ।
विभेवाशु यस्य प्रकृष्टः प्रभावः
स वीरः प्रवीरः प्रमोदं प्रदद्यात् ॥ २१ ॥
अर्थ - जिनके प्रकृष्ट प्रभावने शक्तिशाली एवं अखण्डित अनेकान्तरूपी दण्डोंके द्वारा बड़े-बड़े वादीरूपों हस्तियोंके गण्डस्थलोंको शीघ्र हो विदोणं किया था वे अतिशय शूर-वीर महावीर भगवान् श्रेष्ठ आनन्द प्रदान करें ॥ २१ ॥
ततो ध्यानरूपं निशातं विसातं
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कृपाणं स्वपार्णो य आवाय सद्यः ।
अघातीनि हत्वा बभूव प्रमुक्तः
स दौरः प्रयोरः प्रमोदं प्रवद्यात् ॥ २२ ॥ अर्थ -- तदनन्तर ध्यानरूपी तीक्ष्ण अत्यन्त शुक्ल कृपाण को हाथमें लेकर अघातिया कर्मोंका नाशकर जो मुक्त हुए थे वे अत्यन्त शूर-वीर महावीर भगवान् श्रेष्ठ आनन्द प्रदान करें ॥ २२ ॥
अयासन्दमानन्दमा द्यग्सहीनं
निजात्मप्रजातं ह्यनक्षं समम् ।
विरं यश्च भेजे निजे नजरूपं
स वीरः प्रवीरः प्रमोदं प्रदद्यात् ॥ २३ ॥
अर्थ - मुक्त होनेके बाद जो अनादि, अनन्त, निजात्मासे उत्पन्न, अतीन्द्रिय, आत्मरूप एवं प्रत्यक्ष बहुत भारी आनन्दको प्राप्त हुए थे वे अत्यन्त शूरवीर महावीर भगवान् श्रेष्ठ आनन्दको प्रदान करें ।। २३ ॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः वन्दना आवश्यकमें एक जिनके सिवाय अन्य गुरुजनोंको वन्दनाकी जातो है, यह कहते हैं
सूरीणां या गुरुणां वा प्रतिमानां च मस्तितः । धन्वना मुनिभिः कार्या यथाविधियथागमम् ॥ २४ ॥ पञ्चषट्सप्तहस्तेश्च दूरस्थाचाधिका कमात् ।
सूरि बहुश्रुतं साधूनन्यान् वन्देत भक्तितः ॥ २५ ।। अर्थ-आचार्यों, गुरुओं तथा प्रतिमाओंको भी बन्दना मुनियोंको आगमके अनुसार यथाविधि भक्तिपूर्वक करना चाहिये । आर्यिका पांच हाथ दूर बैठकर आचार्यकी, छह हाथ दुर बंकर उपाध्याय और सात हाथ दूर बैठकर अन्य साधुओंको भक्तिपूर्वक वन्दना करे ।। २४-२५॥ आगे गुरु वन्दनाके अवसर और विधिका वर्णन करते हैं
व्याक्षिप्तं वा परावसं निद्रादिनिरतं तथा। आहारं वाथ नीहारं कुर्वन्तं संयत अनम् ।। २६ ॥ न बन्देत मुनिः क्यापि वन्दनायो समुधतः । प्रतीक्ष्यः समवस्तेन वाहमायां समर्थितः ॥ २७ ॥ आसनस्थोगुरुवन्यः सम्मुखस्थश्च शान्त हृद। सस्यानुझां समादाय वन्दनां विवधीस सः ॥ २८ ॥ आलोचना विधानेषु प्रश्नानां चापि प्रच्छने । स्वेतापराधे समाते पूजास्वाध्याययोस्तथा ॥२९॥ वन्दना मुनिभिः कार्या कृतिकर्मपुरस्सरम् । प्रतिक्रमे च चत्वारि स्वाध्याये त्रीणि साधुना ॥ ३० ।। कृतिकर्माणि कार्याणि पूर्वाल्हे चापरालके ।
मथाधिध्येवकार्याणि प्रभवन्ति फलाय हि ॥ ३१॥ अर्थ-जिस समय संयत जन व्याक्षिप्त-अन्यमनस्क हों विपरोत मुख कर बैठे हों, निद्रामें निरत हों, आहार या नीहार कर रहे हों; उस समय बन्दनामें तत्पर साधु कहाँ भी उनको बन्दना न करे किन्तु वन्दनाके योग्य अवसरको प्रतीक्षा करे। जब गुरु आसनपर बैठे हों, सम्मुख हों और शान्त हृदय हों तब उनको आज्ञा लेकर वन्दना करनी चाहिये। अपने द्वारा अपराध हो जानेपर अथवा पूजा और स्वाध्याय के समय मुनियोंको कृतिकर्मके साथ वन्दना करनी चाहिये । प्रतिः
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षष्ठं प्रकाश
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क्रमण में चार और स्वाध्यायमें तोन कृतिकर्म करना चाहिये। ये कृतिफर्म पूर्वाह्न और अपराह्न -- दोनों समय होते हैं तथा दोनोंके मिल कर चौदह होते हैं। विधिपूर्वक ही किये गये कार्य फल देने में समर्थ होते हैं। कृतिकर्मका विशेष स्पष्टीकरण प्रतिक्रमण आवश्यक के वर्णन में किया जायगा ।। २६-३१ ।।
आगे स्तुति आवश्यकका कथन करते हैं
चतुविशति स्तुतिर्या
धर्मचप्रतिनाम् ।
तीर्थेशां विविधेवतंस्तत्स्तुत्यावश्यकं मतम् ॥ ३२ ॥
अर्थ - धर्मचक्र के प्रवर्तक चौबीस तीर्थं रोकी नाना छन्दों द्वारा स्तुतिकी जाती है, वह स्तुति नामक आवश्यक है ।। ३२ ।।
विशेष -- इस सन्दर्भ में कषायपाहुड प्रथम भाग ( पृ० ६१-६२-६३ ) का शंका समाधान विशिष्ट रुचिकर है-
'चउवोस वि तित्ययरा सावज्जा, छज्जीवविराहणहेउसा वयधम्मोवएस कारितादों । तं जहा - दाणं पूजा सील मुबवासो चेदि चउविहो सावयधम्मो । एसो चउब्बिहो वि छज्जीव विराहओ, पण पायरिंग संधुक्षण – जालण- सुदि- सुदाणादि वावारेहि जीवबिरा हणाए विणा दाणाणववत्तदो । तरुवदिण-छिदाश्रणिट्ठपादणपादावण-तण दहावणादि वावारेण छज्जीव विराहण हेउणा विणा जिणभवणकरण करावणणहाणुववत्तदो । हवणोवलेवण-संमज्जणछुहावण- फुल्लारोवण-ध्रुवदहणादि बावारेहि जीववहाविणाभावो हि विणा पूज करणाणुववत्तोदो च । कथं सोलरक्खणं सावज्जं ? ण, सदारपोडाए बिना सोलपरिपालणाणुववत्तोदो । कथं उववासो सावज्जो ?
. सपोदृत्य पाणिपीडाए विणा उववासाणुववत्तीदो। थावरजीवे मोत्तूण तसजीवे चैव मा मारेहु ति साबियाण मुबदेसदाणदो वाण जिणा गिरवज्जा । अणसणोमोदरियत्ति परिसंखा रसपरिच्चाय- विवित्त-सयणासण-रुक्ख मूलादावणभोवासुक्कुडासण-पलियंकद्ध पलियंक-ठाण-गोणवो रासण-विनय वेज्जावच्च सज्झाय झाणादिकिलेसेसु जोवे पयिसारिय खलियारणादो वाण जिणा णिरवज्जा तम्हा तेण वंदणिज्जा त्ति ?
एत्थ परिहारो उच्चदे ---तं जहा जइ वि एवमुवदिसंति तित्ययरा तो वि ण तेसि कम्मबंधी अस्थि, तत्थ मिच्छत्ता संजमकसायपचचयाभावेण वेयणोयवज्जा सेस कम्माणं बंधाभावादो। वेयणोयस्स विर्णाद्विदि अणुभागबंधा अस्थि, तत्थ कसाय पच्त्रया भावादो | जोगो अस्थि ति
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सम्यवारिन-चिन्तामणिः ण तत्य पयडिपदेस बंधाणमस्थित्तं वोत्तं सकिज्जदे । दिदिबंधेण विणा उदयसरूवेण आगच्छमाणाणं पदेसाणमुक्यारेण इंधववएसुवदेसादो। ण च जिणेसु देस-सयलघम्मोव देसेण अज्जिय कम्मसंचओ वि अस्थि, उदयसरूव कम्मागमादो असंखेज्जगुणाए सेढोए पुषसंचिय कम्म णिज्जरं पडिसमयं करेंतेसु कम्मसंचयाणुववत्तीदो। ण च तित्थयरमण वयण-कायबत्तीओ इच्छा पुब्बियामो जेण तेसिं बंधो होज्जा किंतु दिणयर-कप्परुक्खा णं पत्तिओ व्य वयि ससियाओ।
शङ्का-चौबीसों तीर्थङ्कर सावद्य-सदोष हैं क्योंकि वे षट्कायिक जीवोंको विराधनामें कारणभूत श्रावक धर्मका उपदेश करते हैं । जैसेदान, पूजा, शील और उपवास—यह चार प्रकारका धावकधर्म है। यह चारों प्रकारका श्रावक धर्म षट्कायिक जीवोंका विराधक है। भोजन का स्वयं पकाना, दूसरोंसे पकवाना, अग्निका धोंकना, जलाना, खूतना तथा खुतवाना आदि कार्योसे जीवविराधनाके बिना दान नहीं बनता। इसी प्रकार वृक्षोंका काटना, कटवाना, ईंटोंका गिराना, गिरवाना तथा उनको पकाना पकवाना आदि षट्कायिक जीवोंके विराधनाके कारणभूत व्यापारके बिना जिन भवनका स्वयं बनाना तथा दूसरोंसे बनवाना नहीं हो सकता। अभिषेक, उपलेपन, सम्मान, चन्दन लगाना, फूल चढ़ाना तथा धूप जलाना आदि जीववधके अविनाभावी कार्योंके बिना पूजाका करना नहीं बनता। अच्छा, शीलरक्षा सदोष क्यों है ? ऐसी बात नहीं है क्योंकि स्वस्त्रीको पोड़ा पहुंचाये बिना शीलकी रक्षा नहीं हो सकती। उपवासका करना सदोष क्यों है ? अपने पेटमें स्थित जीवोंको पोड़ा पहुँचाए बिना उपवास नहीं हो सकता। अथवा स्थावर जीवोंको छोड़कर अस जोवोंको मत मारो ऐसा श्राविकाओंके लिये उपदेश देनेसे तीर्थङ्कर सावद्य-सदोष है । अथवा अनशन, ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान, रस. परित्याग, विविक्तशय्यासन, वृक्षमूल, आतापन, अभ्रावकाशयोग, उत्कुटासन, पर्यङ्कासन, अर्धपर्यशासन, स्वङ्गासन, गवासन, वीरासन, विनय, वयावृत्य, स्वाध्याय तथा ध्यान आदिसे होनेवाले क्लेशोंमें जीवोंको डालकर उन्हें ठगनेसे जिन निरवद्य नहीं हैं अतः वन्दनोय-स्तुति करने योग्य नहीं हैं।
समाधान-यहां पूर्वोक्त शङ्काका परिहार करते हैं-यद्यपि तीर्थकर ऐसा उपदेश देते हैं तो भो उनके कर्मबन्ध नहीं होता । क्योंकि वहाँ मिथ्यात्व, असंयम और कषायरूप प्रत्यय कारणका अभाव होनेसे वेद
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षष्ट प्रकाश
नोयको छोड़ समस्त कमों के बन्धका अभाव है। वेदनीयके भो स्थिति और अनुभागबन्ध नहीं हैं क्योंकि कषायरूप' प्रत्ययका अभाव है। योग है, इसलिये प्रकृति प्रदेश बन्धका अस्तित्व है यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि स्थितिबन्धके बिना उदयरूपसे आनेवाले प्रदेशों में उपचारसे हो बन्धका उपदेश है। यह भी कहना ठोक नहीं है कि उनके देश चारित्र और सकल चारित्रका उपदेश देनेसे अर्जित कर्मोंका संचय है, क्योंकि प्रत्येक समय उदयरूपसे जितने कर्म आते हैं उनसे असंख्यातगुणो कर्म निर्जरा प्रत्येक समय बे करते हैं। इसके सिवाय तीर्थंकरोंके मन-वचनकायको प्रवृत्तियाँ भी इच्छापूर्वक नहीं होती किन्तु सूर्य और कल्पवृक्षकी प्रवृत्तियों के समान वैनसिक-स्वाभाविक है । आगे विविध छन्दोंमें वृषभादि तीर्थंकरोंकी स्तुति करते हैंयेन क्षितावसिमधीप्रभृतीः सुवृत्तीः
संदिश्य कापि विहितोपकृतिर्जनानाम् । कल्पाधिमाशमरणोन्मुखजीविताना.
___मानीश्वरोऽवतु सतां सुखदां श्रियं सः ।। ३३ ॥ अर्थ-जिन्होंने पृथिवीपर कल्पवृक्षोंके नष्ट होनेसे मरणोन्मुख जीवोंके लिये असि, मषो आदि वृत्तियोंका उपदेश देकर उनका बहुत भारी उपकार किया था, वे आदीश्वर – भगवान् वृषभदेव सत्पुरुषोंको सुखदायक लक्ष्मोकी रक्षा करें ॥ ३३ ॥
यो नो जितः कर्मकलापकेन जितत्रिलोकोगतजन्तुकेन । जैतारमोशं रियुजालकस्याजितं मुदा तं प्रणमामि नित्यम् ॥ ३४ ॥
अर्थ-तीन लोकके समस्त जीवोंको जीतनेवाले कर्मसमूहके द्वारा जो नहीं जोते जा सके उन शत्रुसमूहके विजेता अजितनाथ भगवान्को मैं हर्षपूर्वक नित्य ही प्रणाम करता हूं ।। ३४ ॥ संसारतापविनिपातपयोवरूपं
जन्माधिमग्नजनसंतरणं सुरूपम् । मिथ्यान्धमोहहननाय सहलरश्मि
तं शंभवं ह्यमितसंविभवं नमामि ।। ३५ ॥ अर्थ-जो संसार--पञ्च-परावर्तनरूप संतापको नष्ट करनेके लिये मेघरूप हैं, संसारमें निमग्न जोवोंको तारने वाले हैं, सुरूप-अतिशय सुन्दर हैं, मिथ्यात्वरूपी गाड़ अन्धकारका नाश करनेके लिये सूर्य हैं
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः तथा अपरिमित समीचीन वैभवके स्वामी हैं उन शंभवनाथ भगवान्को मैं नमस्कार करता हूं ॥ ३५॥ कारिदुःखीकृतमानसन्योऽभिनन्दयामास शिवप्रवानात् । भक्त्याभृतोऽहं जगदेकबन्धं नमामि नित्यं ह्याभनन्दनं तम् ॥ ३६॥
अर्थ-जिन्होंने मुक्ति प्रदानकर कमरूप' शत्रुओंसे दुःखित जीवोंको अभिनन्दित किया था तथा जो जगत्के एक अद्वितीय बन्धु थे उन अभिनन्दन भगवान्को मैं भक्तिपूर्ण हो नित्य ही नमस्कार करता
मोगाभुजङ्गा न विवेकवद्धिनिषेवणीया विषमा यतस्ते । एसत् समावेशि हि येन तत्त्वं जिनं सवा तं सुमति समोडे ॥ ३७॥ ___ अर्थ-विवेकी मनुष्यों द्वारा भोगरूपी भुजङ्ग-नाग सेवनोय नहीं है क्योंकि वे विषम हैं, यह तत्व-सारगर्भित बात जिन्होंने कही थी उन सुमति जिनेन्द्रको मैं सदा स्तुति करता हूँ ॥ ३७॥ वेहनभान्यवकृतपनपत्रं पप्रेशबन्धं कमलालयादयम् । तं भव्यपनाकरपग्रबन्धं परप्रभ सम्प्रणमामि नित्यम् ॥ ३८ ॥ ___ अर्थ-जिन्होंने शरीरको प्रभासे लाल कमलदलको तिरस्कृत कर दिया था, जो लक्ष्मीपति नारायणके द्वारा बन्दनीय थे, स्वयं लक्ष्मीसे सहित थे तथा भव्यजीवरूप कमलवनको विकसित करनेके लिये जो सूर्य थे उन पद्यप्रभ भगवानको मैं नित्य हो प्रणाम करता हूँ॥ ३८ ॥ कृपाणं स्वपाणी समाधिस्वरूपं गृहीत्या समूलं हता येन वल्ली। मराजन्ममृत्युस्वरूपा विरूपा सुपाय तमीशं भजे भक्तिभावात् ।। ३९ ॥ ___ अर्थ-जिन्होंने शुक्लध्यानरूपी कृपाणको अपने हाथमें लेकर जन्म जरामृत्युरूपो कुरूप लताको जड़ सहित काट डाला था उन सुपार्श्वनाथ भगवान्की मैं भक्तिपूर्वक आराधना करता हूं ॥ ३६॥ यस्यास्यकान्त्या जितचन्नमा स दिने विने क्षोणतरीभवन् । मन्ये ममज्जाधिजले सलजश्चन्द्रप्रमं तं प्रणमामि नित्यम् ।। ४० ।। ___अर्थ-जिनके मुखको कान्तिसे पराजित हुआ वह चन्द्रमा प्रतिदिन क्षोण होता हुआ मानों लज्जित होकर ही समुद्रमें मग्न हो गया था, उन चन्द्रप्रभ भगवान्को मैं नित्य ही प्रणाम करता हूँ ॥ ४ ॥ अयि कथं सुविधे वरबोधभाक्
विरलवाक् स्तवनं विदधामि ते ।
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षष्ठ प्रकाश
सुगुणरत्नगिरेऽमिवाक्पते
भवतु मां धिगिमां च सुरक्षियम् ॥ ४१ ॥
इति मयं विजहाँ सुरशालनो गुरुयुतोऽपि यदीयगुणस्तुतौ । निर्वाध शुभ गुणशेवधि हतविधि सुविधि विनमामि तम् ।। ४२ ।। ( युग्मम् )
अर्थ - हे सुगुणरूप रत्नोंके गिरि ! हे अपरिमित वचनोंके स्वामी ! हे सुविधिनाथ भगवान् ! अल्पज्ञानो तथा अल्पशब्दोंसे सहित मैं आपको स्तुति कैसे कर सकता हूँ ? इस प्रकार वृहस्पतिसे सहित होने पर भी इन्द्रने जिनकी स्तुतिमें मद-गर्व छोड़ दिया था उन मसीम, कल्याणके धारक, गुणों के निधि तथा कर्मोंको नष्ट करनेवाले सुविधिनाथ भगवान्को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ४१-४२ ॥
इष्टानिष्ट वियोगप्रयोगसन्तापतप्त जनशानाम् ।
मेघातिं हि येन प्रवन्दनीयः स शीतलः सततम् ।। ४३ ।।
તુ
अर्थ - इष्टवियोग और अनिष्ट संयोगरूप संतापसे संतप्त जनसमूहके लिये जिन्होंने मेचके समान आचरण किया था, वे शीतलनाथ भगवान् सदा वन्दनीय हैं ॥ ४३ ॥
येन स्वयं बोधमयेन लोके प्रकाशितः श्रेष्ठ शिवस्य पन्थाः । श्रेयः पदप्रापणहेतुभूतं जिनं तमेकादशमानमामि ॥ ४४ ॥
अर्थ - स्वयं ज्ञानमय रहनेवाले जिन्होंने जगत् में मोक्षका मार्ग प्रकाशित किया था तथा जो कल्याणकारी पद - मोक्ष की प्राप्तिमें कारणभूत हैं उन ग्यारहवें भगवान् श्रेयोनाथकी में नमस्कार करता हूँ ॥ ४४ ॥
जयति जनसुवन्द्य श्चिच्च मकारनन्द्यः
शमसुखभरकन्दोऽपास्तकर्मारिन्दः ।
निखिलगुणगरिष्ठः कीर्तिसत्ताबरिष्ठः
सकल सुरपपूज्यो वासुपूज्यो जिनेन्द्रः ॥ ४५ ॥
अर्थ - जो मनुष्यों के द्वारा वन्दनीय हैं, चैतन्य चमत्कारसे नन्दनीय हैं, शान्ति सुख-समूह के कम्द हैं. कर्मरूप शत्रुओंके समूहको नष्ट करनेवाले हैं, समस्त गुणोंसे श्रेष्ठ हैं, कीर्ति सद्भावसे महान् हैं और समस्त इन्द्रोंसे पूज्य हैं वे वासुपूज्य जिनेन्द्र जयवन्त प्रवर्तते हैं ।। ४५ ।। बरबोध विरागशरेण हि यः सकलं शकलीकृतवान हितम् । निजकर्मम तमहो सततं ह्यमलं विमलं बिनमामि सुनिम् ॥ ४६ ॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः ___अर्थ-जिन्होंने अपने कर्ममलरूपो समस्त शत्रुको उत्कृष्ट ज्ञान
और वैराग्यरूपी बाणके द्वारा खण्ड-खण्ड कर दिया था उन निमलविमलनाथ मुनोन्द्रको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ४६ ॥ प्राप्तो न पारो विचुषां समूहैर्यदोयसज्ज्ञानसरस्वती । नौम्यनीयं तीनति समनशात
विहानला ॥ अर्थ-विद्वानोंके समूहोंने जिनके सम्यग्ज्ञानरूपी सागरका पार प्राप्त नहीं कर पाया उन पूजनीय, जगत्के स्वामी तथा ( द्रव्यार्थिक नयसे ) अनाद्यनन्त अनन्तनाथ जिनेन्द्रको मैं स्तुति करता हूँ ।। ४७ ॥ संसारसिन्धोविनिमग्न जन्तूनुवधत्य यो मुक्तिपवे वधार । तं धमसंज्ञः सहितं क्षमायनों यात्मनीनं मुनिधर्मनाथम् ॥ ४८ ॥ ____ अर्थ--जिन्होंने संसार-सागरसे डूबे हुए जोवोंको निकालकर मोक्षस्थानमें पहुँचाया था तथा जो क्षमा आदि धर्मोसे सहित थे उन आत्महितकारो धर्मनाथ जिनेन्द्रकी में स्तुति करता हूँ॥४८॥ पस्य पुरस्ताद्रिपुवरनाथा नो स्थिरतां समरे समवापुः । चक्रकरं सुखशान्तिकरं तं शान्तिजिनं सततं प्रणतोऽस्मि ।। ४९।। ___ अर्थ-जिनके आगे युद्ध में बड़े-बड़े शत्रु राजा स्थिरताको प्राप्त नहीं हो सके थे, जिनके हाथमें चक्ररत्न था तथा जो सुख और शान्तिके करनेवाले थे उन शान्ति जिनेन्द्र के प्रति में नित्य हो प्रणत-नम्रीभूत हूँ॥ ४६॥ ररक्ष कुन्थुप्रमुखान् सुजीवान् दयाप्रतानेन दयालयो यः। स कुन्थुनायो दयया सनाथः करोतु मां शीघ्रमहो! सनाथम् ॥ ५० ॥
अर्थ-दयाके आधारस्वरूप जिन्होंने दयाके प्रसारसे कुन्धु आदि जीवोंकी रक्षाको थो तथा जो दयासे सनाथ–सहित थे वे कुन्थुनाथ भगवान् मुझे सनाथ-अपने स्वामित्वसे सहित करें ॥ ५० ॥ प्रहतं रिपुचक्रमरं सुवढं वरयोगधरेण हि येन ततम् । तमरं भगवन्तमहं सततं विरतं जगतः प्रणमामि हितम् ॥५१॥ ___ अर्थ-उत्कृष्टयोग-ध्यानको धारण करनेवाले जिन्होंने सुदृढ़शक्तिशालो शत्रु समूहको शीघ्र हो नष्ट कर दिया था उन जगत्से विरक्त हितकारो अर जिनेन्द्रको मैं नित्य हो प्रणाम करता हूँ।। ५१॥
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पष्ठ प्रकाश
मोहमल्लमदभेदनधीरं कीर्तिमानमुखरीकृतवीरम् । धर्यखड्गविनिपातितमारं तं नमामि वर मल्लिजिनेन्द्रम् ॥ ५२ ॥ ___ अर्थ-जो मोहरूपी मल्लका गर्व खण्डित करनेमें धोर थे, जिन्होंने अपने कीर्तिगानसे वीरोंको मुखर किया था अर्थात् बड़े-बड़े वीर जिनका कीतिगान किया करते थे और जिन्होंने धैर्यरूपी खड्गके द्वारा कामको मार गिराया था उन मल्लि जिनेन्द्रको मैं नमस्कार करता हूँ ॥५२॥ मन्सा यो वै वेवतस्थार्थबोधावहिंसादीनां ध्वंसतः सुव्रतश्च । तं तीर्थेशं भग्नक रिशीर्ष भक्त्या नम्रः सुवतं संनमामि ।। ५३ ।। ____ अर्थ-जो आगम प्रतिपादित तत्त्वार्थके जानकार होनेसे मन्तामुनि हैं तथा हिंसादि पापोंका नाश करने से सुब्रत हैं एवं जिन्होंने कर्मरूपी शत्रुओंके शिरको भग्न कर दिया है उन मुनि सुव्रत तीर्थङ्करको मैं भक्तिसे नम्र हो नमस्कार करता हूँ ॥ ५३ ॥ सकलबोधधरं गुणिनां पर हितकरं बमता शमसाकारम् । स्थिरतया जितमेचमहोघरं नमिजिनं जिनमामि निरन्तरम् ॥ ५४ ॥ ___ अर्थ-जो पूर्ण ज्ञानके धारक थे. गुणी जनोंमें श्रेष्ठ थे, जगत्का हित करनेवाले थे, शान्तिके आकर थे और जिन्होंने स्थिरताके द्वारा मेरु पर्वतको जीत लिया था उन नमिनाथ जिनेन्द्रको में निरन्तर नमस्कार करता है ॥ ५४॥ विज्ञानलोकत्रितयं समन्तादनन्तबोधेन बुधाधिनाथम् । तं माननीयं मुनिनाथनेमि नमाम्यहं धर्मरथस्य नेमिम् ॥ ५५ ।।
अर्थ-जिन्होंने अनन्तज्ञान केवलज्ञानके द्वारा तोनों लोकोंको सब ओरसे जान लिया था, जो ज्ञानोजनोंके स्वामो थे तथा धर्मरूपी रथके नेमि-प्रवर्तक थे उन माननीय नेमिनाथ भगवान्को में नमस्कार करता हूँ ॥ ५५॥ येनातिमानः कमठस्य मानो प्रस्तोऽसमस्थैर्यगुणाणुनैव । देहप्रभादोपित पार्श्वदेशं तं पार्श्वनाथं सततं नमामः ॥ ५६ ॥
अर्थ-जिन्होंने अपने धैर्य गुणके अंशमात्रसे कमठके बहुत भारी मानको नष्टकर दिया था, शरीरको प्रभासे निकटवर्ती प्रदेशको देदोप्यमान करनेवाले उन पाश्वनाथ भगवान्को हम नमस्कार करते हैं ॥५६॥ यं जन्मकल्याणमहोत्सवेषु सुराः समागत्य सुरेशलोकात् । क्षौराधिनीरैरधिमेरुशृङ्गं समभ्यतिम्चन वर मक्तिमायात् ॥ ५७ ।।
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः तं वर्धमानं भुवि वर्धमान श्रेयःनिया ध्वस्तसमस्तमामम् । भक्त्याभृतः सम्मुक्तिश्च नित्यं नमाम्यहं तीर्थङ्करं समय॑म् ॥५८ ॥
(युग्मम् ) अर्थ-जन्म कल्याणक सम्बन्धी महोत्सवोंमें देवोंने स्वर्गसे आकर मेरु पर्वतकी शिखरपर क्षीर सागरके जलसे जिनका बहत भारी भक्तिभावसे अभिषेक किया था, जो पृथिवोमें कल्याणकारी लक्ष्मोसे बढ़ रहे थे और जिन्होंने सबके अभिमानको नष्ट कर दिया था उन पूज्य वर्धमान तीर्थङ्करको में भक्तिसे परिपूर्ण तथा हर्षसे युक्त होता हुआ नमस्कार करता हूं ॥ ५७-५८ ।। इति हि विहितां भक्त्या तीर्थकृतां सुखदायिनी
अमरपतिभिः प्राथ्या स्तोत्रज पतोह यः । मुक्तिमनसा नित्यं धीमान् स भव्यशिखामणिः
व्रजति सहसा स्वात्मानन्द ह्यमन्बतर सुधीः ।। ५९ ॥ अर्थ-इस प्रकार भक्तिसे निर्मित, सुखदायक और इन्द्रोंके द्वारा प्रार्थनीय तीर्थङ्करोंको स्तोत्र मालाको जो बुद्धिमान् प्रसन्न चित्तसे निरन्तर पढ़ता है यह उत्तम बुद्धिका धारक, श्रेष्ठ भव्य शीघ्न हो बहुत भारी स्वात्म सुखको प्राप्त होता है ॥ ५६ ।। आगे जिन स्तुतिकी महिमा बतलाते हैं---
रागद्वेषव्यतीतेषु सिद्धाहत्परमेष्टिषु । सूर्युपाध्याय सङ्घषु श्रमणेषु महत्सु च ।। ६० ।। क्षमाप्रमृतिधर्मषु द्वादशाङ्गभूतेषु च। यः सम्यम्शो रागः स प्रशस्तः समुच्यते ॥ ६१॥ तेषामभिमुखत्वेन सिद्धधन्यत्र मनोरथा।। एष रामः सरागाणां सुदृशां शिवसाधकः ॥ ६२ ।। अभावान्मोक्षकाअक्षाया लिदानं नव मन्यते ।
काङ्क्षणं भाविभागानां निवानं मुनिभिर्मसम् ।। ६३ ।। अर्थ-राग-द्वेषसे रहित सिद्ध तथा अरहन्त परमेष्ठियोंमें, आचार्य उपाध्यायके सङ्घोंमें, महामुनियोंमें, क्षमा आदि धर्मोमें तथा द्वादशाङ्ग श्रुतोंमें सम्यग्दृष्टि जोबका जो राग है वह प्रशस्त राग है। इन सबको अभिमुखता-भक्ति से इस जगत्में मनोरथ सिद्ध होते हैं । सराग सम्यग्. दृष्टियोंका यह राग परम्परासे मोक्षका साधक है। भोगाकांक्षाका
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षष्ठे प्रकाश
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अभाव होनेसे यह निदान नहीं माना जाता क्योंकि मुनियोंने आगामी भोगाकांक्षाको निदान माना है ।। ६०-६३ ।।
आगे प्रतिक्रमण आवश्यकका वर्णन करते हैं—
ज्ञातावृष्टस्वभावोऽयमात्मा मोहोदयाद्यदा । स्वभावाद्विच्युतो भूत्वा प्रमाशापतितो भवेत् ॥ ६४ ॥ तदा स्वभावमास्पृश्य प्रमादाज् ज्ञो निवर्तते । तपस्विनः प्रयासोऽसौ प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ ६५ ॥ देवसिकादिमेवेन सप्तधा जायते तु तत् । दिवसस्यापराधेषु कृतं देवसिकं मतम् ।। ६६ ।। निशाया अपराधेषु कृतं तने शिकं स्मृतम् । पक्षोयापराधेषु विहितं पाक्षिकं भवेत् ॥ ६७ ॥ चतुर्मासापराधेषु चातुर्मासिक मुध्यते । संवत्सरापराधेषु साम्यस्परिकमिध्यते ॥ ६८ ।।
ईर्ष्याया अपराधेषु स्यावोर्यापथिकं तु तत् । संन्यासे संस्तरारोहात्पूर्वं गुरुपुरः स्थितः ।। ६९ यावज्जीवापराधानां क्रियते यनिवेदनम् । औत्तमायेंतिनाम्ना तत् प्रसिद्धं भूषि वर्तते ॥ ७० ॥ सौकर्याह साधूनामेकः पाठः प्रदीयते । वस पाठमात्रेण न भवेच्छुद्धिरात्मनः ॥ ७१ ॥ मनः शुद्धि विधायैव तत्पाठः कार्यकृद् भवेत् । फर्मावनिरोधाय मनसशुद्धिरिष्यते ॥ ७२ ॥
अर्थ --- ज्ञाताद्रष्टा स्वभाववाला यह आत्मा जब मोहके उदयसे स्वभावसे च्युत हो प्रमादमें आ पड़ता है तब ज्ञानो पुरुष स्वभावसे सम्बन्ध स्थापित कर प्रमादसे दूर हटता है । तपस्वी का यह प्रयास ही प्रतिक्रमण कहलाता है । वसिक आदिके भेदसे यह प्रतिक्रमण सात प्रकारका होता है । दिवस सम्बन्धी अपराधों में जो किया जाता है वह देवसिक प्रतिक्रमण माना गया है। रात्रि सम्बन्धी अपराधोंके विषय में जो किया जाता है वह नैशिक प्रतिक्रमण माना गया है। पक्षके भीतर होनेवाले अपराधों के विषय में जो किया जाता है वह पाक्षिक प्रतिक्रमण है । चार मास सम्बन्धी अपराधों के विषय में किया गया चातुर्मासिक प्रतिक्रमण है। एक वर्षके अपराधों के विषयमें किया गया साम्बरसरिक प्रतिक्रमण माना जाता है । ईयगमन सम्बन्धो अपराधोंके विषय में
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः किया गया ईर्यापथिक प्रतिक्रमण है और संन्यासके समय संस्तरपर आरूढ़ होनेके पूर्व गुरु निर्मापकाचार्य के सम्मुख बैठकर जीवन भरके अपराधोंका जो निवेदन किया जाता है वह भोतमार्थ प्रतिक्रमण, इस नामसे पृथिवीपर प्रसिद्ध है।
साधुओंकी सरलताके लिये एक पाठ डिगा जाना है सो वचनों के पाठ मात्रसे आत्माको शुद्धि नहीं होती। मनको शुद्धिके साथ दोषको शुद्धिके लिये उस पाठका पढ़ना कार्यकारी होता है। परमार्थ यह है कि मनको शुद्धि ही कर्मास्रवके रोकने में समर्थ मानो गई है ॥६४-७२ ॥ कालावनन्ताद धमता समन्ताद
दुःखासिभार भरता भवेऽस्मिन् । सौभाग्यभागोदयतो मर्यषा
निर्गस्थमुद्रा सुखदा सुलब्धा ।। ७३ ॥ अर्थ-अनन्तकालसे सब ओर-चारों गतियों में परिभ्रमण करते तथा दुःख के बहुत भार उठाते हुए मैंने इस भवमें सौभाग्यके कुछ उदयसे यह सुखदायक निम्रन्थ मुद्रा प्राप्त की है ॥ ७३ ॥ सर्वज्ञ ! सर्वत्रविरोधशून्य !
चञ्चदयासागर ! हे जिनेन्द्र !। कायेन वाचा मनसा मया यत्
पापं कृतं दत्तजनातितापम् ॥ ७४ ।। भूत्वा पुरस्ताद् भवतो विनीतः
___ सर्व तवेतन्निगवामि नाथ !। कारुण्यबुद्धया सुमृतो भवांश्च
मिथ्यातदेहो विवधातु धातः ।। ७५ ।। अर्थ-हे सर्वज्ञ ! हे सर्वत्र विरोध रहित ! हे दयाके सागर ! हे जिनेन्द्र ! मैंने मन, वचन, कायसे मनुष्योंको अत्यन्त संताप देने वाला जो पाप किया है उस सव'को आपके सामने नम्र होकर कहता हूँ। हे नाथ ! आप करुणा बुद्धिसे परिपूर्ण हैं, अतः हे विधाता ! मेरा वह पाप मिथ्या हो ॥ ७४-७५ ।। क्रोधेन मानेन मदेन माया
भावेन लोभेन मनोभवेन । मोहेन मात्सर्यकलापकेना
शर्मप्रदं कर्म कृतं सदा हा॥ ७६।।
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षष्ठ प्रभाषा
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अर्थ-दुःख है कि मन क्रोधसे, मानसे, मदस, माथाभावसे, लोमसे, कामसे, मोहसे और मात्सर्य समूहसे सदा दुःखदायक कर्म किया है ।। ७६ ॥ प्रमावमाझन्मनसा मयते
दयेकेन्द्रियाद्या भविनो भ्रमन्तः । निपीडिता हन्त विरोधिताश्च
संरोधिताः क्वापि निमीलिताश्च ॥ ७७ ॥ अर्थ-प्रमादसे उन्मत्त हृदय होकर मैंने भ्रमण करते हुए द्वो-इन्द्रिय तथा एकेन्द्रिय आदि जीवोंको विरोधित किया है, कहीं रोका है और निमोलित भो किया है अर्थात्तु उनके अंगों-उपाङ्गोंको जोर देकर दबाया है।। ७७॥ बाल्ये मया बोधसमुझितेन
कुज्ञानचेष्टानिरतेन नूनम् । अभक्ष्यसम्भक्षणादिक हा
पापं विचित्र रचितं न कि किम् ॥ ७ ॥ अर्थ-बाल्यावस्थामें ज्ञानरहित तथा कुज्ञानको चेष्टाओंमें लोन रहनेवाले मैंने अभक्ष्य भक्षण आदि क्या-क्या विचित्र पाप नहीं किया है ।। ७८ ॥ तारुण्यभावे कमनीयकान्ता
कण्ठाग्रहाश्लेषसमुद्भवेन । स्तोमेन मोवेन विलोभिलेन
कृतानि पापानि बहूनि हन्त ।। ७९ ॥ अर्थ-यौवन अवस्थामें सुन्दर स्त्रियोंके कण्ठालिङ्गनसे उत्पन्न अल्पसुखमें लुभाये हुए मैंने बहुत पाप किये हैं ।। ७६ ।। बाला युवानो विधवाश्च भार्या
जरमछरीरा। सरलाः पुमान्सः । स्वार्थस्य सिद्धौ निरतेन नित्यं ।
प्रतारिता हन्त मया प्रमोदात् ।। ८०॥ अर्थ स्वार्थसिद्धिमें लगे हुए मैंने बालक, युवा, विधवा स्त्रियों, वृक्ष तथा सोधे पुरुषोंको, खेद है कि बड़े हर्षसे सदा ठगा है ॥ ८ ॥
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सम्यचारित्र-चिन्तामणिः कृष्याविकार्येषु सक्षभिरक्त
आरम्भ वाणिज्य समूहसक्तः। विवेकवातानिधयेन मुक्त
श्चकार पार्न किमहं न चित्रम् ॥२१॥ अर्थ-खेती आदिके कार्यों में सदा संलग्न, आरम्भ और व्यापारोके समूहमें आसक्त तथा विवेक वार्तासे रहित मैंने क्या विचित्र पाप नहीं किया है अर्थात् सभी पाप किया है ॥ ८१ ।। न्यायालये हन्त विनिणयार्थ
गतेन हा हन्त मया प्रभोदात् । चित्रोक्तिधातुर्यचितम चार
सस्यस्य कण्ठो मृतिः सर्वव ।। ८२॥ अथं- यदि मैं निर्णय लेनेके लिये न्यायालयमें गया तो वहाँ मैंने अपने वचनोंकी चतुराईसे सदा सत्यका ही गला घोंटा है ।। ८२॥ पापाद्यलोकान् रहसि प्रसुप्साम्
लोभाभिभूतो दयया व्यतीतः । जोवस्य जीवोपवित्तजातं ।
जहार हा हारिसुहारमुख्यम् ।। ८३ ॥ अर्थ-लोभसे आक्रान्त तथा दयासे शून्य होकर मैंने एकान्त स्थानमें सोये हुए मनुष्योंको मारकर जीवोंके प्राणतुल्य सुन्दर हार आदि धन समूहका अपहरण किया है ॥ ८३॥ लावण्यलीलाविजितेन्द्र भार्या
भार्याः परेष्यां सहसा विलोक्य । बसन्सहेमन्तमुखर्तुमध्ये
कन्दर्पचेष्टाकुलिलो बमूव ॥ ८४ ॥ अर्थ-अपनी सुन्दरतासे इन्द्राणियोंको पराजित करनेवाली परस्त्रियोंको देखकर मैं बसन्त, हेमन्त आदि ऋतुओंमें कामसम्बन्धो चेष्टाओंसे आकुल हुआ हूँ।' ८४ ।। लोभानिलोत्कोलितधर्यकोल:
कार्पण्यपण्यायनिकेतनाभः । सङ्गाभिषङ्गे प्रविसक्तचित्त
श्चकार चित्राणि न चेष्टितानि ॥ ८५ ॥
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पष्ठ प्रकाश अर्थ--लोभरूपो वायुसे जिसको धैर्यरूपी कील उखाड़ दी गयो है तथा जो दीनताको दुकान जैसा बन रहा है ऐसे मैंने परिग्रहमें आसक्तहो कौन-कौन विचित्र चेष्टाएं नहीं को हैं ? ॥ २५ ॥ पापेन पापं वचनीयरूपं
मया कृतं यज्जनता प्रभो ! तत् । वाचा न बार्य मयका कथंचित् ।
समस्तवेवो तु भवान् विवेद ।। ८६ ॥ अर्थ-हे जनजनके नाथ ! मुझ पापाने जो निन्दनीय कार्य किया है उसे मैं वचनोंसे नहीं कह सकता। आप सर्वज्ञ हैं अतः सब जानते हैं ॥८६॥ स्वयाजनाया विहिता अपापाः
संप्रापिताः सौख्यसुधासमूहम् । ममापि तत्पापचयः समस्तो
ध्वस्त : सदा स्याद् भवतः प्रसावात् ।। ८७ ।। अर्थ-आपने अंजन चोर आदि पापियोंको पापरहित कर सुखामृतके समूहको प्राप्त कराया है। अतः आपके प्रसादसे मेरे भी समस्त पापोंका समूह नष्ट हो ॥ ७ ॥ ममास्ति दोषस्य कृतिः स्वभाव
भवत्स्वभावस्तु तदीयनाशः। यद् यस्य कायं स करोतु तत् तत्
न वार्यते फस्यचन स्वभावः ।। ८८॥ अर्थ-मेरा पाप करना स्वभाव है और आपका उस पापको नष्ट करनेका स्वभाव है। अतः जिसका जो कार्य है वह उसे करे क्योंकि किसोका स्वभाव मिटाया नहीं जा सकता॥८॥
विशेषार्थ-यहाँ मूलाचार और आचार्यवृत्तिके आधारपर "कृतिकम' पर कुछ स्पष्टोकरण किया जाता है।
सामायिक स्तवपूर्वक कायोत्सर्ग करके चतुविशति तीर्थकर स्तव पर्यन्त जो क्रिया है उसे 'कृतिकर्म' कहते हैं। प्रतिक्रमणमें चार और १. यही उत्तमार्थ प्रतिक्रमणको दृष्टिमें रखकर जीवनके समस्त कार्योको प्रकट
किया गया है । वैसे साधु अवस्या में यह सब अपराध सम्भव नहीं है।
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सम्यकुचारित्र-चिन्वामणिः
स्वाध्याय में तोन इस प्रकार पूर्वाह्न सम्बन्धी सात और अपराह सम्बन्धी भी सात इस तरह १४ कृतिकर्म होते हैं । प्रतिक्रमणके चार कृतिकर्म इस प्रकार हैं- मालोचना भक्ति ( सिद्धभक्ति) करनेमें कायोत्सर्ग होता है, एक कृतिकर्म' यह हुआ । प्रतिक्रमण भक्तिमें एक कायोत्सर्ग होता है, यह दूसरा कृतिकर्म है । वोरभक्तिके करने में जो कायोत्सर्ग है वह तीसरा कृतिकर्म है तथा चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति करने में यह चौथा कति है |
लिये
६०
स्वाध्याय सम्बन्धी तीन कृतिकर्म इस प्रकार हैं- स्वाध्यायके प्रारम्भ में श्रुतभक्तिका जो कायोत्सर्ग होता है वह एक कृतिकर्म है । आचार्य भक्तिकी क्रिया करनेमें जो कायोत्सर्ग होता है वह दूसरा कृतिकर्म है और स्वाध्यायको समाप्ति होनेपर श्रुतभक्तिके अनन्तर जो कायोत्सर्ग होता है वह तीसरा कृतिकर्म है । यहाँ पूर्वानुसे दिवस सम्बन्धी और अपराह्न से रात्रि सम्बन्धो १४ प्रतिक्रमणों को लेकर साधुके अहोरात्र सम्बन्धी २८ कृतिकर्म कहे गये हैं। विशेष विवरण के लिये मूलाचार पृ० ४४१-४४२ ( भा० ज्ञा० पी० संस्करण ) द्रष्टव्य है । आगे प्रत्यास्थान आवश्यकका वर्णन करते हैं
प्रत्याख्यानमथों वच्मि कर्मक्षणकारणम् । श्यागरूपः परीणामो निग्रंथस्य तपस्विनः ।। ५१ ।। प्रत्याख्यानं व तज्ज्ञेयं परमावश्यकं बुधः । योऽपराधो मया जातो नैवमग्रे भविष्यति ।। ९० ।। एवं विचारसम्पन्नो मुनिर्भावविशुद्धये । कुर्वन् मुक्त्या दिसंत्यागं प्रत्याख्यानपरो भवेत् ॥ ९१ ॥ अनागतादि भेदेन दशधा तच्छु ते मतम् । विनयादिप्रभेदेन चतुर्धापि समिष्यते
९२ ॥
अर्थ - अब आगे कर्मक्षयमें कारणभूत प्रत्याख्यान आवश्यकको कहता हूँ । निर्ग्रन्थ तपस्वीका जो त्यागरूप परिणाम है उसे ज्ञानोजनोंके प्रत्याख्यान नामका परमावश्यक जानना चाहिये। जो अपराध मुझसे हुआ है वह आगे नहीं होगा, इस प्रकारके विचारसे सहित साधु भाव - शुद्धिके लिये भुक्ति आहार आदिका त्याग करता हुआ प्रत्याख्यानमें तत्पर होता है | आगम में वह भूक्तिका त्यागरूप प्रत्याख्यान दश प्रकार १. मूलाचार गाया ५६६ और उनकी आचारवृत्ति |
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षष्ठ प्रकाश
का माना गया है और विनय आदि प्रभेदोस चार प्रकारका भी स्वीकृत किया गया है ।। ८६-३२ ।।
विशेषार्थ-'मूलावारके आधारपर दश भेद निम्न प्रकार है१. अनागत, २. अतिक्रान्त, ३. कोटि सहित, ४. निखण्डित, ५, साकार, ६. अनाकार, ७. परिणामगत, 4. अपरिशेष, ६. अध्वानगत और १०. सहेतुक । आचारवृत्तिके अनुसार इनके संक्षिप्त लक्षण इस प्रकार हैं
१. अनागत प्रत्याख्यान-भविष्यत् कालमें किये जाने वाले उपवास आदिको पहले कर लेना, जसे चतुर्दशीका उपवास त्रयोदशोको कार गंगा, यह बनायत प्रत्याशी है।
२. अतिक्रान्त प्रत्यारघान-अतीत कालमें किये जानेवाले उपवास आदिको आगे करना, जैसे चतुर्दशीका उपवास अमावस्या या पूर्णिमा आदिमें करना, यह अतिकान्त प्रत्याख्यान है।
३. कोटिसहित प्रत्याख्यान-कोटि सहित उपवासको कोटि सहित प्रत्याख्यान कहते हैं, जैसे-प्रातःकाल यदि शक्ति रहेगी तो उपवास करूंगा अन्यथा नहीं।
४. निखण्डित प्रत्याख्यान–पाक्षिक आदिमें अवश्य करने योग्य उपवासका करना निखण्डित प्रत्याख्यान है।
५. साकार प्रत्याख्यान-भेदसहित उपवास करनेको साकार प्रत्याख्यान कहते हैं, जैसे--सर्वतोभद्र तथा कनकावली आदि नतोंकी विधि सम्पन्न करते हुए उपवास करना ।
६. अनाकार प्रत्याख्यान-तिथि आदिकी अपेक्षाके बिना स्वेच्छा. से कभी भी उपवास करना अनाकार प्रत्याख्यान है।
७. परिमाणगत प्रत्याख्यान-वेला तेला आदि प्रमाणको लिये हए उपवास करना परिमाणगत प्रत्याख्यान है।
८. अपरिशेष प्रत्याख्यान-जीवनपर्यन्त के लिये चतुर्विध आहारका त्याग करना अपरिशेष प्रत्याख्यान है।
९. अध्वानगत प्रत्याख्यान-मार्ग विषयक प्रत्याख्यानको अध्वानगत प्रत्याख्यान कहते हैं, जैसे-इस जङ्गल और नदी आदिसे बाहर निकलने तक उपवास करना ।
१०. सहेतुक प्रत्याख्यान-किसी हेतुसे उपवास करना सहेतुक १. गाथा, ६४० ।
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः प्रत्याख्यान है, जैसे- इस उपसर्गसे बचेंगे तो आहार लेंगे, अन्यथा त्याग है। विनयशुद्ध आदि प्रत्याख्यानके चार भेद निम्न प्रकार हैं
१. विनयशुद्ध, २. अनुभाषाशुद्ध, ३. अनुपालनाशुद्ध और ४. परिपपामशुद्ध ।
१. विनयशुद्ध प्रत्याख्यान-विनय सम्बन्धी शुखिके साथ उपवास करना विनयशुद्ध प्रत्याख्यान है ।
२. अनुभाषाशुद्ध प्रत्याख्यान- गुरुवचनके अनुरूप वचन बोलना, अक्षर पद आदिका शुद्ध उच्चारण करना अनुभाषाशुद्ध प्रत्याख्यान है ।
३. अनुपालनाशुद्ध प्रत्याख्यान आकस्मिक व्याधि अथवा उपसर्ग आदिके समय किया गया प्रत्याख्यान अनुपालना शुद्ध प्रत्याख्यान है।
४. परिणामशुद्ध प्रत्याख्यान-राग-द्वेषसे अषित परिणामोंसे जो प्रत्याख्यान किया जाता है वह परिणामशुद्ध प्रत्याख्यान है ।
प्रतिक्रमणमें और प्रत्याख्यानमें क्या विशेषता है, इसको चर्चा आचार वृत्तिमें इस प्रकार की है
"प्रतिक्रमणप्रत्याख्यानयोः को विशेष इतिचेन्नष दोषोऽतीत विषयासीचारशोधन प्रतिक्रमणमतीतभविष्यद्वर्तमानकालाविषयातिधारनिहरणं प्रत्याख्यानमथय। बताधतीचारशोधनं प्रतिक्रमणपतीचारकारणसचित्ताचित्तमिवतव्यविनिवृत्तिस्तपोनिमित्तं प्रासुक वयस्य च नित्तिः प्रत्याख्यानं यस्मादिति ।"
अर्थात् भूतकाल सम्बन्धी अतिचारोंका शोधन करना प्रतिक्रमण है और भूत, भविष्यत् तथा वर्तमानकाल सम्बन्धी अतिचारोंका निराकरण करना प्रत्याख्यान है अथवा व्रतादिके अतिचारोंका शोधन करना प्रतिक्रमण है और अतिचारोंके लिये कारणभूत सचित्त, अचित्त तथा मिश्र द्रव्योंका त्याग करना एवं तपके लिये प्रासुक द्रव्यका भी त्याग करना प्रत्याख्यान है।
भूतकालिकदोषाणां परिहारे पाठ उच्यते ।
मनसा गद्गदीभूय पठितव्यो मनीषिभिः ।। ९३॥ अर्थ-भूतकालिक दोषोंका परिहार करनेके लिये पार कहा जाता है । ज्ञानोजनोंको मनसे गद्गद होकर वह पाठ पढ़ना चाहिये ।। ६३ ॥ १. मूलाचार, गाया ६४१-६४५ ।
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बष्ठ प्रकाश
प्रमादतो ये बहवोऽवराधा हिंसाभिमुख्या विहिता मयेते । ते त्वत्प्रसादाद्विफला मयन्तु भवन्तु, दुःखस्य यतो विनाशाः ।। ९४ ।। पापाभिलिप्तेन हियोजितेन वयान्यतोसेन महाशठेन ।
1
होनेन युद्धचा विहितानि यानि कृत्यानि हा हन्त मया प्रमादात् ।। ९५ ।। संवेगवातज्वलितेन तापानलेन ताम्या निहन्तुमीहे निन्दामि निश्यं मनसा विरुद्धमात्मस्वभावं बहुशो विभो ! हे ।। ९६ ॥ सुदुर्लभं मत्र्यभवं पवित्रं गोत्रं व घमं च महापवित्रम् । लब्ध्यापि हा मूढतमेन मान्य जोधा बराका निहता मयते ।। ९७ ।। मूत्वेन्द्रिया लम्पटमान सेनाशेनैव नूनं निहता समन्तात् । एकेन्द्रियाचा भवतः प्रसादात् सान्तोभवेवद्य स मेऽपराधः ।। ९८ ।। आलोचनायां कुटिलाश्च दोषाः कृता मया ये विपुलाश्च भीमाः । भवन्तु ते नाम मवस्कृपाभिर्मृषा वृषाराधित
पादपद्म ।। ९९ ।।
८३
अर्थ - हे भगवन् ! प्रमादसे मेरे द्वारा जो ये अपराध हुए हैं वे आपके प्रसादसे निष्फल हों जिससे मेरे दुःखोंका नाश हो सके। पाप लिप्त, निर्लज्ज, निर्दय, अत्यन्त शठ और बुद्धिहीन होकर प्रमादसे मेरे द्वारा जो कार्य किये गये हैं आज संवेगरूपी वायुसे प्रज्वलित पश्चात्ताप रूपी अग्निसे उन्हें नष्ट करना चाहता हूँ । हे विभो ! मैंने अनेक बार जो आत्म-स्वभावकी विराधनाको है उसको मैं नित्य हो मनसे निन्दा करता हूँ । अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य पर्याय, पवित्र गोत्र और महापवित्र धर्मको पाकर भी मुझ महामुखने इन बेचारे जोवोंको मारा है । इन्द्रियासक्त मनसे युक्त हो मैंने अज्ञानोके समान सब ओरसे जो एकेन्द्रिय आदि जीवोंका घात किया है वह मेरा अपराध आपके प्रसादसे मिथ्या निष्फल हो । हे इन्द्र के द्वारा पूजित चरण कमलों वाले जिनेन्द्र ! मैंने आलोचनामें जो कुटिल, बहुत और भयंकर दोष किये हैं, आपको कृपासे वे मिथ्या हों ॥। ६४-६६ ॥
एवमाधुनिक दोषा भविष्यत्काल संभवाः ।
प्रत्याख्यानाञ्च संशोध्याः मुनिभिहितवाञ्छ्या ॥ १०० ॥ अर्थ - आत्महित के इच्छुक मुनियोंको भूतकाल सम्वन्धी दोषोंके समान वर्तमान और भविष्यत् काल सम्बन्धी दोष भी प्रत्याख्यान नामक आवश्यकसे दूर करने योग्य हैं ॥ १० ॥ आगे कायोत्सर्ग आवश्यकका वर्णन करते हैं
कायोत्सर्गमथो वच्मि कर्मक्षपणकारणम् । मोक्षमार्गोपदेष्टारं घातिकर्मविनाशकम् ।। १०१ ।।
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सम्पचारित्र-चिन्तामणिः शरीरे रागहन्तारं सारं च कृतिकर्मणाम् ।
हरिं सर्वदोषाणां धरि गुणसम्पदाम् ॥ १०२ ॥ अर्थ-अब में लस कायोत्सर्ग अवश्यकको कहता हूँ जो कर्मक्षयका कारण है, मोक्षमार्मका उपदेशक है, घातिया कर्मों का नाश करनेवाला है, शरीरविषयक रामका घातक है, कृतिकर्मों में सारभूत है, सब दोषोंका हरण करनेवाला है और गुणरूपो सम्पदाओंको धारण करनेवाला है ॥ १०१-१०२ ॥ आगे कायोत्सर्ग करनेवाला कैसा होता है, यह कहते हैं
पाक्ष्योरन्तरं वस्वा चतुरङ्गुलसमितम् । सुस्थितो लम्बबाहुश्च निश्चलसर्वदेहकः ।। १०३ ।। विशुद्धभावना युक्तः सूत्रोऽर्थ च विशारदः। मोक्षार्थी जितनिद्रश्च बलवीर्यसमन्धितः ॥ १०४ ॥ चतुविधोपसणां जेता नष्टनियानकः ।
दोषाणां विनिवृत्यर्थ कायोत्सर्ग समाचरेत् ।। १०५ ॥ अर्थ-दोनों पैरोंके बीच चार अङ्गुलका अन्तर देकर जो खड़ा हुआ है, जिसको भुजाएं नोचेकी ओर लटक रही हैं, जिसका सर्वशरोर निश्चल है, जो विशुद्धभावनासे युक्त है, द्रव्यश्रुत और भावश्रुतमें निपुण है, मोक्षका इच्छुक है, निद्राको जीतनेवाला है, बल, वीर्य, शारीरिक और आत्मिक शक्तिसे सहित है, चतुर्विध उपसर्गको जोतने वाला है और निदान-भोगाकाक्षासे रहित है, ऐसा मुनि दोषोंका निराकरण करनेके लिये कार्योत्सर्ग करता है ॥ १०३-१०५ ॥ अब कायोत्सर्गका जघन्य और उत्कृष्ट काल तथा प्रतिक्रमण सम्बन्धो विभिन्न कायोत्सर्गों में श्वासोच्छ्वासोंका परिमाण बतलाते हैं
एकवर्षावधि: कायोत्सर्ग उस्कृष्ट उच्यते । अन्तर्मुहर्त पर्यन्तो जघन्यश्च निगद्यते ।। १०६॥ अष्टोत्तरशतोच्छ्वासा विवसीयप्रतिक्रमे । चतुः पञ्चाशदुच्छ्वासा ज्ञेया राश्रिप्रतिक्रमे ॥ १०७ ।। शसत्रयसमुच्छ्वासाः पाक्षिके च प्रतिक्रमे । चतुः शती समुच्छ्वासाश्चतुर्मास प्रतिक्रमे ॥ १८ ॥ पञ्चशतीसमुच्छ्वासाः संवत्सरप्रतिको । हिंसासत्यादिवोषेषु भवत्सु जातुचिन्मुनेः ॥ १०९॥
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षष्ठ प्रकाश
अष्टोत्तरशतोच्छवासाः कायोत्सर्गः प्रकीर्तितः । भोजनपानवेलायां सामान्तरगतो तथा ॥ ११ ॥ भर्हस्कल्याणकस्थाननिषचावन्दनेऽपि च । मलमूत्रनिवृत्तौ च युग्छ्वासाः पञ्चविंशतिः ।। १११॥ इष्ट ग्रन्थस्य प्रारम्भे समाप्त्ययसरे तथा । स्वाध्यायस्य समारम्भे समाप्तौ च यथाविधि ।। ११२ ।। बनाया मायेषु सरपसशु च जातुचित् । सप्सविंशतिच्छवासाः कायोत्सर्गः समिष्यते ॥ ११३ ॥ एतत्समयपर्यन्तं शरीरे रागवर्णनात् ।। आवश्यकः समाख्यातः कायोत्सर्गाभिधानकः ॥ ११४ ।। एककृत्वो नमस्कारमन्त्रस्योच्चारणे त्रयः। समुच्छ्वासा भवन्त्यत्र साधूनां हि यथाविधि ॥ ११५॥ केचिद् वीर्यवशिष्ट्य सहिताः साधुपुङ्गवाः। व्यन्तरादिकृतान् घोरानुपसर्गान् सुदुःसहान ।। ११६ ॥ सहन्ते धर्यसंयुक्ता भोषणे शवशायने ।
कुर्वन्ति निर्जरा दुष्टकर्मणां दुःखदायिनाम् ।। ११७ ।। अर्थ-एक वर्षको अवधि वाला उत्कृष्ट तथा अन्तर्मुहूर्तकी अवधिवाला जघन्य कायोत्सर्ग कहलाता है। देवसिक प्रतिक्रमणमें एकसौ आठ उच्छ्वास, रात्रि प्रतिक्रमणमें चौवन उच्छवास और पाक्षिक प्रतिक्रमणमें तोनसी उच्छ्वास जानना चाहिये । चातुर्मासिक प्रतिक्रमणमें चारसौ और साम्वत्सरिक प्रतिक्रमणमें पाँचसो उच्छवास प्रमाण कायोत्सर्ग करना चाहिये। यदि कदाचित् मुनिके हिंसा असत्यादि दोष हो जावे तो उस समय एकसौ आठ उच्छ्वासका कायोत्सर्ग करना चाहिये। भोजन, पान, आहारके समय, अन्य नामके जानेपर, जिनेन्द्र देवके कल्याणकोंके स्थानपर आसन लगाने एवं वन्दना करने में और मलमूत्रादि की निवृत्ति करने पर पच्चोस उच्छवास, इष्ट ग्रन्थके प्रारम्भ करने में, समाप्तिके अवसरमें, स्वाध्यायके प्रारम्भमें, समाप्तिमें, वन्दनामें तथा खोटे भावों के होनेपर सत्ताईस उच्छवासोका कायोत्सर्ग माना जाता है । अर्थात् इतने समय तक शरीर सम्बन्धो राग छोड़कर कायोत्सर्ग नामका आवश्यक करना चाहिये। विधिपूर्वक एक बार नमस्कार मन्त्र. का उच्चारण करने में साधुओंके तीन उच्छ्वास होते हैं ।। १०६-११७॥
भावार्थ- प्रथम उच्छ्वासमें णमो अरहताणं णमो सिद्धाणं द्वितीय
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सम्यक् चारित-चिन्तामणिः उच्छ्वासमें णमो आयरियाणं णमो उवमायाणं और तृतीय उच्छ्वास में णमो लोए सब साहूणं बोलना चाहिये ।
विशिष्ट वोर्य, मात्मवलसे सहित कितने ही धैर्यशालो मुनिराज, भयंकर श्मशानमें व्यन्तरादिकके द्वारा किये गये बहुत भारी उपसर्गों को सहन करते हैं तथा दु.खदायक दुष्टकोको निर्जरा करते हैं । आगे कायोत्सर्गके चार भेद कहते हैं--
उत्रितगमोचित पूर्व स्पिनरोगनिष्टकः। उपविष्टोस्थितो ज्ञेय उपविष्टोपविष्टकः ।। ११८ ॥ इति ज्ञेयाश्चतुर्मेवाः कायोत्सर्गस्य सूरिभिः।
प्ररूपिता निबोध्याः कर्मनिर्जरणक्षमाः ।। ११९ ॥ अर्थ--उत्थितोत्थित, उस्थितोपविष्ट, उपविष्टोस्थित और उपविविष्टोपविष्ट, इस प्रकार आचार्यों के द्वारा निरूपित कायोत्सर्गके चार भेद जानना चाहिये । इनका स्वरूप इस प्रकार है
१. उस्थितोत्थित-जिसमें कायोत्सर्ग करनेवाला खड़ा होकर धर्म्य और शुक्लध्यानका चिन्तन करता है वह उत्थितोस्थित कहलाता है।
२. अस्थितोपविष्ट-जिस में खड़े होकर आतंरोद्रध्यान किया जाता है वह उत्थितोपविष्ट काहलाता है।
३. उपविष्टोस्थित—जिसमें बैठकर धम्य और शुक्लध्यान किया जाता है वह उपविष्टोस्थित कहलाता है।
४. उपविष्टोपविष्ट--जिसमें बैठकर आर्तरोद्रध्यान किया जाता है वह उपवियोपविण्ट कायोत्सर्ग कहलाता है ।। ११८-११६ ॥ आगे कायोत्सर्ग सम्बन्धी ३२ दोषोंके परिहारका निर्देश करते हैं
कायोत्सर्गस्य बोधव्या दोषा घोटकादयः।
द्वात्रिंशत्प्रमितास्त्याज्याः कर्मनिर्जरणोधतः ।। १२०॥ अर्थ -कर्मोको निर्जरा करनेमें उद्यत साधुओंको कायोत्सर्गके वत्तोस दोष जानकर छोड़ना चाहिये !' अव षडावश्यक अधिकारका समारोप करते हैंस्वत्या प्रमादं वपुषि स्थितं पे कुर्वन्ति कार्याणि निम्लपितानि । तेषां न मिथ्या विकथासु पातो भवेत् क्वचित्कर्मनिबन्धहेतुः॥१२॥ १. इन दोषोंका स्वरूप परिशिष्टमें देखें ।
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सप्तम प्रकाश
अर्थ - जो मुनि शरीरमें स्थित प्रमादको छोड़कर उपर्युक्त कार्योंको करते हैं उनका कहीं कर्मबन्धमें कारणभूत, मिध्या विक्रयाओंमें कभी पतन नहीं होता' ।। १२१ ।।
इस प्रकार सम्यक् चारित्र-चिन्तामणि में षडावश्यक का वर्णन करनेवाला छठवां प्रकाश पूर्ण हुआ ।
सप्तम प्रकाश पश्वाचाराधिकार
मङ्गलाचरण
पञ्चाचारपरायणान् मुनिवरानाचार्य संज्ञायुतान् वीक्षावान समुद्यतान् बुधनुतान् संज्ञानसंभूषितान् ।
माता
नाचार्यान् परमेष्ठिनः प्रतिदिनं संगौमि शान्त्या युतान् ॥ १ ॥ अर्थ — जो पश्चाचारके पालन करनेमें तसर हैं, मुनियोंमें श्रेष्ठ हैं, आचार्य नामसे सहित हैं, दीक्षा देनेमें समुद्यत हैं सम्यग्ज्ञान से सुभूषित हैं, वादीरूपी गजोंको जोतने के लिये अत्यन्त तत्पर हैं, शास्त्ररूपा सागरके पारगामी हैं और शान्तिसे सहित हैं, उन आचार्य परमेष्ठियोंका में प्रतिदिन नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥
आगे पञ्चाचारके नाम तथा स्वरूपका निरूपण करते हैंपश्चाचारमयो वक्ष्ये सारात् मुनिवृषस्य हि ।
८७
वर्शनं च तथा ज्ञानं चारित्रं तप एव च ॥ २ ॥ वोर्यं च पञ्चधा सम्ति ह्याचारा जिनभाषिताः । आचार्याः पालयन्त्येतान् पालयन्ति परस्नपि ॥ ३ ॥ एषां स्वरूपमत्राहं वक्ष्यामि क्रमशः पुरः । देवशास्त्रगुरूर्णा घ मोक्षमार्गसहायिनाम् ॥ ४ ॥ श्रद्धानं दर्शनं प्रोक्तं मूढत्रयविवजितम् । ज्ञानाद्यष्टमातीत सोपानं शिवसद्मनः ॥ ५ ॥ आयं जीवादिसत्त्वानां याथार्थ्यांन विशुम्भताम् । श्रद्धानं दर्शनं ज्ञेयं संशयादिविधतम् ।। ६ ।।
१. कायोत्सर्ग सम्बन्धी दोषोंका वर्णन परिशिष्ट में देखें |
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि: परद्रव्यात्र विभिग्नस्य चेतनालश्मशालिनः। आत्मनः स्वानुभूतिर्वा सम्यग्दर्शनमुच्यते ॥ ७ ॥ मोहाविसप्तभेवानां प्रकृतीनाममावतः । सम्यक्त्वगुणपर्यायो योऽत्र प्रकटितो भवेत् ॥ ८ ॥ प्रशस्तं दर्शनं तत्स्यावात्मशुद्धिविधायकम् । सुलभ भव्यजीवस्य मलं मोक्षस्य वमनः।। ९ ॥ अस्योत्पत्तिक्रमः प्रोक्तः पूर्व सभ्यस्ववर्णने । तस्य स्वरूपनिवेशो देवादीनां च लक्षणम् ।। १० ।। सर्व चिन्तामणो प्रोक्तं विस्तारेण यथागमम् ।
क्षायिकाद्या मता अस्या त्रयोमेवा जिनागमे ॥ ११ ॥ अर्थ--अब यहां आगे मुनिधर्मके सारभूत पञ्चाचारोंका कथन करूंगा। दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार, ये जिनेन्द्र देवके द्वारा कहे हुए पांच आचार हैं । आचार्य इनका स्वयं पालन करते हैं और दूसरोंको पालन कराते हैं। आगे यहाँ क्रमसे इनका स्वरूप कहूँगा | मोक्षमार्गमें सहायभूत देवशास्त्र गुरुका तोनमूढ़ताओं तथा ज्ञानादि आठमदोंसे रहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यह सम्यग्दर्शन मोक्षमहल की पहली सीढ़ी है। यह चरणानुयोग की पद्धतिसे सम्यग्दर्शन है। यथार्थतासे सुशोभित जोवादि पदार्थाका संशयादिसे रहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यह द्रव्यानुयोगकी पद्धतिसे सम्यग्दर्शनका लक्षण है अथवा परद्रव्यसे भिन्न चेतना लक्षणसे सुशोभित आत्माको जो अनुभूति है वह सम्यग्दर्शन है। यह अध्यात्मको पद्धतिसे सम्यग्दर्शनका लक्षण है अथवा मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों के अभाव उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमसे सम्यक्त्व गुणको जो पर्याय प्रकार होतो है वह सम्यग्दर्शन है। यह सम्यग्दर्शन आत्मशुद्धि को करने वाला है, भव्यजीवोंको सुलभ है और मोक्षमार्गका मूल है। इसको उत्पत्तिका' कम पहले सम्यक्त्वके वर्णनमें कहा गया है । सम्यग्दर्शनके स्वरूपका निर्देश तथा देव आदिके लक्षण सम्यक्त्व चिन्तामणिमें विस्तारसे आगमानुसार कहे गये हैं। इस सम्यग्दर्शनके क्षायिक आदि तीन भेद जिनागममें कहे गये हैं ॥ २-११।। आगे सम्यग्दर्शनके आठ अङ्गोंका स्वरूप बताते हुए दर्शनावारका वर्णन करते हैं
निःशङ्कास्वादिकं प्रोक्तमङ्गाष्टकममुष्य हि । सूक्ष्मान्तरितार्थाः पदार्था जिनभाषिताः ॥ १२ ।।
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सप्तम प्रकार
यथार्थाः सन्ति नास्त्यत्र संदेहावसरो मनाक । इत्थं श्रद्धानवाढ यत् निःशङ्कटवं तदुच्यते ॥ १३ ॥ भोगोपभोगकाक्षाया अमावो गतकाक्षता। मुनोचा मलिनामादौ मा स्यात् ग्लानेरभावता ॥ १४ ॥ सा सिद्धान्तविशेषजर्मता निविचिकित्सता। वैये च देवता भासे धर्मे धर्मेतरे सया ॥ १५ ॥ यत्र दृष्टिर्न मूढा स्यात् सा मता मूठदृष्टिता। प्रमावाद्देशथिल्यात रोगाद् वार्धक्यतोऽपि वा ।। १६ ॥ जातान् धर्मात्मनां दोषान् वृष्ट्या तदुपगृहनम् । उपगृहननामाढ्यं दुगङ्ग पञ्चमं मतम् ।। १७ ।। सुधर्माध्यक्तोमान यस्मात्तस्माच्च कारणात् । स्थितीकालमातोश्यं गरबेश रणम् ॥ ri सधर्मभिः सह स्नेहो गोवत्स इव शाश्वतः। वात्सल्यं तत्त विज्ञेयं धर्मस्थर्यविधायकम् ।। १९ ॥ लोके प्रसरवज्ञानं धर्मस्य विषये महत् । दूरीकृस्य प्रभावस्य स्थापनं स्यात्प्रभावना ॥ २०॥ एतरङ्गः सुपूर्ण स्यात् सम्पकत्वं सुशां सवा । भवेदेषु प्रत्तिर्या सुरीणां हितकारिणाम् ॥ २१॥ स बोध्यो वर्शनाचारो यतिधर्मप्रभावकः ।
जानाचारमथो वधिम सम्यग्ज्ञानस्य कारणम् ॥ २२ ॥ अर्थ-इस सम्यग्दर्शनके निःशङ्कत्व आदि आठ अङ्ग हैं। जिनेन्द्र भगवानके द्वारा कहे हए सुक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ वास्तविक हैं। इनमें संदेह का थोड़ा भी अवसर नहीं है। श्रद्धानमें इस प्रकारको जो दृढ़ता है वह निःशङ्कात्य अङ्ग कहलाता है। भोगोपभोगको आकाङ्क्षाका अभाव होना निकाशित अङ्ग है। मुनियोंके मलिन शरीर आदिमें जो ग्लानिका अभाव है बह जैन सिद्धान्तके विशेषज्ञविद्वानोंके द्वारा निर्विचिकित्सा अङ्ग माना गया है। जहाँ देव और देवाभासमें धर्म तथा अधर्ममें दृष्टि मूढ़ नहीं होतो है वह अमूढष्टि अङ्ग है । प्रमादसे, शरीरको शिथिलतासे, रोगसे, अथवा वृद्धावस्थासे उत्पन्न हुए धर्मात्माओंके दोषोंको देखकर उनका जो गोपन किया जाता है, वह सम्यग्दर्शनका उपगहन नामका पञ्चम अङ्ग है । जिस किसी कारणसे धर्मसे डिगते हुए मनुष्योंको फिरसे उसोमें स्थिर कर देवा स्थितीकरण अङ्ग है। सहधर्मी जनों के साथ गोवत्स के समान जो
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सम्पचारित्न-चिन्तामणिः स्थायी स्नेह है उसे वात्सल्य अङ्ग जानना चाहिये। यह अङ्ग धर्ममें स्थिरता करने वाला है । लोकमें फैलते हुए धर्म विषयक बहुत भारो अज्ञानको दूरकर धर्मका प्रभाव स्थापित करना प्रभावना अङ्ग है। सम्यग्दृष्टि जीबोंका सम्यग्दर्शन इन आठ अङ्गोंसे हो पूर्ण होता है। हितकारी आचार्योकी इन आठ अङ्गों में जो प्रवृत्ति है, उसे दर्शनाचार जानना चाहिये । यह दर्शनाचार मुनिधर्मको प्रभावना बढ़ाने वाला है। अब आगे सम्यग्ज्ञानके कारणभूत ज्ञानाचारका कथन करते हैं ।। १२-२२॥
सम्यक्त्वसहितं ज्ञानं सम्यग्ज्ञानं समुच्यते । सम्यग्ज्ञानेन जायन्ते जीवा: कर्मक्षयोग्रताः ।। २३ ॥ स्यपरभेषविज्ञानं मोक्षस्य मुख्यकारणम् ।
सम्यग्जामिन संताध्य सज् साधुभिा सदा । २७ । अर्थ-सम्यग्दर्शन सहित जो ज्ञान होता है वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है। सम्यग्ज्ञानसे जीव कर्मक्षय करने में उद्यत होते हैं । स्वपरभेद विज्ञान मोक्षका मुख्य कारण है, अतः साधुओंको सम्परज्ञानके द्वारा उसे अजित करना चाहिये ।। २३-२४ ॥ आगे सम्यग्ज्ञानके आठ अङगों का वर्णन करते हैं
कालाचाराविभेदेन जिनवाणोविशारदैः । सम्यग्ज्ञानस्य सूक्तानि ह्यष्टाङ्गानि जिनागमे ॥ २५ ॥ कालशुधिविधातव्या स्वाध्यायाभिमुखंजनः । पुरा स एव कालाख्य आचारः परिगीयते ।। २६॥ पूर्वाले ह्यपराले च प्रदोषेऽपरराधिके । एषु चतुर्ष कालेषु स्वाध्यायः प्रविधीयते ॥ २७ ॥ एषु यः सन्धिकालोऽस्ति स्वाध्यायस्तत्रजितः। भकम्पे भविवारे वा सूर्येन्दुग्रहणे तथा ॥ २८ ।। उल्कापाते प्रदोषे च दिग्दाहे देशविप्लवे। अन्यस्मिन् क्षोभकाले च प्रधानमरणे तथा ॥ २१ ॥ स्वाध्यायो नैव कर्तव्यः परमागमसंहतेः। स्तोत्रादीनां सुपाठस्तु नो निषिद्धा सुधीवरैः !! ३०॥ सूत्रं गणधरौ प्रोक्तं श्रुतकेबलिमिस्तथा। प्रत्येकबुद्धिभिः प्रोक्तमभिनयशपूर्वकः ॥३१॥
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सप्तम प्रकाया
अकाले सूत्रपाठो हि निषिद्धः परमागमे ।
कथाप्रस्थावि पाठस्तु नो निषिद्धः कदाचन ।। ३२ ।। अर्थ-जिनवाणीके ज्ञाता विद्वानोंने जिनागममें कालाचार आदिके भेदसं सम्यग्ज्ञानके आठ अङग कहे हैं। स्वाध्यायके लिये उद्यत पुरुषोंको सबसे पहले काल शुद्धि करना चाहिये । कालशुद्धि हो कालाचार कहलाता है। पूर्वाल्ल, अपरा, प्रदोष काल और अपररात्रिक इन चार कालोंमें स्वाध्याय किया जाता है। ___ भावार्थ-सूर्योदय के दो घड़ी बादसे लेकर मध्याह्नसे दो घड़ी पूर्व तकका काल पूर्वाज कहलाता है। मध्याह्नके दो घड़ो बादसे लेकर सूर्यास्तके दो घड़ो पूर्वतकका काल अपराह्न कहलाता है। सूर्यास्तके दो घड़ो बादसे लेकर मध्यरात्रिके दो घड़ो पूर्वतकका काल प्रदोष कहलाता है और मध्यरात्रि के दो घड़ो पूर्वस लेकर सूर्योदयके दो घड़ो पूर्व तकका काल विरात्रि कहलाता है। इन चारों कालोंमें स्वाध्याय करना चाहिये । इनके बोचका जो चार-चार घडोका सन्धिकाल है वह स्वाध्यायके लिये वर्जित है।
इसके सिवाय भूकम्प, भूविदारण--पृथ्वोका फा ना, सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, उल्कापात, प्रदोष-सूर्योदय और मुयोरूपका समय, दिशादाह-दिशाओं में लालप्रकाश फैलना, देश विप्लव, क्षेमका अन्य काल और राजा आदिक प्रधान पुरुषका मरण होना, इन गमयोंमें परमागम समूहका स्वाध्याय नहीं करना चाहिये । किन्तु बरजनोंने स्तोत्र आदिके पाठका निषेध नहीं किया है। गए रों, श्रुतकेवलियों, प्रत्येक बुद्धिधारियों तथा अभिन्न दशपूर्वके प. आचार्योंके द्वारा कथित शास्त्र सूत्र कहलाता है। अकालमें सूत्र पाठका निषेध परमागममें बताया गया है परन्तु कथा ग्रन्थ आदिक पाठका निषेध नहीं है। तात्पर्य यह है कि क्षोभके समय स्वाध्याय करने वाले एवं स्वाध्याय सुनने वाले पुरुषोंका चित्त स्थिर नहीं रहता। अतः महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंका भाव अन्यथा ग्रहण किये जाने की सम्भावनास स्वाध्यायका निषेध किया गया है। उपर्युक्त स्वाध्यायके चार कालोंके बीच जो चार-चार घड़ीका अन्तराल है वह सामायिक तथा ध्यानका काल है अतः उस समय स्वाध्यायका निषेध किया गया है ॥ २५-३२ ।। १. सुत्तं गणहर कहियं तदेव पत्तेपबुद्धिकहियं च ।
सुदकेदलिगा कहिये अभिगदलब्ध कहिद ॥ मूलाचार, २७७
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२
सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः काल शुद्धिके समान द्रव्य क्षेत्र और भाव शुद्धि भी करना चाहिये, यह कहते हैं
स्वाध्यायावसरे पुभिः स्वाध्यायसमुद्यतः । मुक्त्वालस्यं मुदा कार्या द्रध्यक्षेत्रादिशुद्धयः ।। ३३ ।। शारीरे धिरत्राशयमांसाद्य निर्गमः । स्वाध्यायोद्यतसाधोश्च द्रव्यशुद्धिः प्रकथ्यते ॥ ३४ ॥ शसहस्तमिते क्षेत्रे रुधिरापूर्याचदर्शनम् । क्षेत्रशुद्धिः प्रगीतास्ति परमागमपारगः॥ ३५ ॥ क्रोधमानाविभावानामभायो भावशुद्धये ।
विधासम्यः सदा विज्ञः स्वाध्यायाय समुशतैः ।। ३६ ॥ अर्थ-स्वाध्यायके लिये उद्यत साधुओंको स्वाध्यायके समय आलस्य छोड़कर द्रव्य और क्षेत्र आदिको शुद्धियां करनी चाहिये । स्वाध्यायके लिये तत्पर साधुके शरीरसे रुधिर, पोप तथा मांस आदि नहीं निकल रहा हो, यह द्रव्य शुद्धि कहो जाती है। सौ हाथ प्रमाण और मधिर श पी आदि नहीं दियः रहा हो, यह क्षेत्र शुद्धि है। परमागमफे ज्ञाता पुरुषों द्वारा कही गई है। भाव शुद्धिके अर्थ स्वाध्याय के लिये उद्यत ज्ञानी पुरुषोंको अपने आपमें क्रोध तथा मानादि विकालो भावोंका अभाव करना चाहिये। यही भावशुद्धि है ।। ३३-३६ ॥ आगे विनयाचारन : वर्णन करते हैं
हस्तौ । नौ च प्रक्षाल्य पर्यासनसुस्थितः । शास्त्रस्य गर्जनं कृत्वा कायोत्सर्ग विधाय च ॥ ३७॥ चलं मनो वशीकृश्य विनयावनतो भवन । ऋषिप्रणीतः त्रस्य स्वाध्यायं प्रारभेत सः॥ ३८ ॥ प्रवृत्तिरेषा १ “धूनो विनयाचार उच्यते । विनयाधीतशास्त्र' ना द्रुतं विद्वद्वरो भवेत् ॥ ३६॥ स्वाध्यायं विदधत् धुर्हस्ताभ्यां न पदं स्पृशेत् ।
में स्पृशेन वाञ्छणं कक्षं नदेहं न खर्जयेत् ॥ ४० ॥ अर्थ-स्वाध्याय करने वाला' साधु हाथ पैर धोकर, पर्यशासनसे बैटकर, शास्त्रका परिमार्जन कर, पायोत्सर्ग कर और चञ्चल मनको वशमें कर विनयसे नम्रोभूत होता हुआ ऋषिप्रणोत शास्त्रोंका स्वा
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सप्तम प्रकाश
だき
ध्याय प्रारम्भ करे । साधुओं को यह सब प्रवृत्ति विनयाचार कहलाती है । विनयसे शास्त्र पढ़ने वाला पुरुष शीघ्र हो श्रेष्ठ विद्वान् हो जाता है । स्वाध्याय करने वाले साधुको स्वाध्यायके समय हाथोंसे पैर, अञ्छण-रेंगे तथा कक्ष - बगलका स्पर्श नहीं करना चाहिये और न नखोंसे शरीरको खुजलाना चाहिये || ३७-४० ॥ आगे उपधानाचारका वर्णन करते हैं-
स्वाध्याय गतशास्त्रस्य
यावत्पूति जायते । तानिविकृति भुङ्क्ष्ये नंब भुङ्क्ष्ये फलादिक्रम् ॥ ४१ ॥ एवं साधोः प्रतिज्ञा या ह्युपधानं तदुच्यते । यद्वा चित्तं स्थिरीकृत्य निराकृत्याक्षविप्लवम् ।। ४२ ।। स्वाध्यायः क्रियते पुम्भिरुपधानं तदुच्यते । एष उपधानाचारो विज्ञालथ्यो मनोषिभिः ॥ ४३ ॥ अर्थ- स्वाध्याय में स्थापित शास्त्रकी जबतक समाप्ति नहीं हो जाती हैं तबतक में निविकृति - रसहीन भोजन करूंगा अथवा फलादिक नहीं खाऊंगा, साधुकी यह जो प्रतिज्ञा है वह उपधानाचार कहलाती है अथवा चित्तको स्थिरकर और इन्द्रियोंको स्वच्छन्द प्रवृत्तिको रोककर पुरुषों द्वारा जो स्वाध्याय किया जाता है उसे विद्वज्जनोंको उपधानाचार जानना चाहिये ॥ ४१-४३ ॥
अब बहुमानाचारका कथन करते हैं
४६ ॥
स्वाध्यायं विदधत् साधुरितरेषां तपस्विनाम् । अनादरं न कुर्वीत न गविष्ठः स्वयं भवेत् ॥ ४४ ॥ जिनवाक्यमिदं श्रोतुं जातः पुण्योदयो मम । धोतरामस्य वाणीयं भवान्धौ पततो मम ॥ ४५ ॥ सत्यं सुबुद्धनौकास्ति जन्मव्याधियुतस्य मे । परमौषधरूपा हि लक्ष्धा काठिन्यतो मया ॥ श्रोतव्यं बहु मानेनाध्येतव्यं च प्रमोदतः । सर्वथा दुर्लभं ज्ञेयं जिनवाक्यरसामृतम् ॥ ४७ ॥ इश्येवं बहुमानेन स्वाध्यायं विदधाति यः । कृत्तकर्मकलापोऽसौ साक्षाद् भवति केवलो ॥ ४८ ॥ एवं विवतः शास्त्र स्वाध्यायं हि तपस्विनः । प्रयासो बहुमानाद्य आचार: परित्यंते ।। ४९ । अर्थ - स्वाध्याय करने वाला साधु अन्य तपस्वियोंका अनादर नहीं
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः
करे और न स्वयं गर्वयुक्त हो। इस जिनवाक्य जिनशास्त्रको सुनने के लिये मेरा बहुत पुण्योदय हुआ है। वीतरागकी यह वाणी संसार सागरमें पढ़ते हुए तथा जन्मको पोड़ा सहित मेरे लिये सचमुच हो सुदृढ नौका है । परम औषधरूप यह वाणी मैंने बड़ी कठिनाईसे प्राप्तकी है। अतः बहुत सम्मान से इसे सुनना चाहिये तथा हर्षपूर्वक पढना चाहिए। यह जिन दाणोरूपी रसामृत सर्वथा दुर्लभ है। ऐसा जानकर जो बहुमानआदरसे स्वाध्याय करता है; वह कर्मसमूहको नष्टकर साक्षात् केवली होता है । इस प्रकार स्वाध्याय करनेवाले साधुका जो प्रयास है वह बहुमानाचार कहलाता है ॥ ४४-४६ ॥
अव अह्निवाचारका वर्णन करते हैं
शास्त्रज्ञानादिना जाते महत्वे स्वस्य सूयसि । स्वयहीन कुलस्वावि-गोपनं विदधीत नो ॥ ५० ॥
न हि शास्त्रस्य विज्ञस्य स्वस्मात्स्वल्पतरस्य हि । नामस्मरणसं त्यागी विधेयः स्वाभिमानतः ॥ ५१ ॥
गवितः परमागमे ।
एषत्व निवाचारो मिलये सति जानादिगुणलोपो भवेदितः ।। ५२ ।। अर्थ - शास्त्रज्ञान आदिके द्वारा बहुत महत्व बढ़ जानेपर अपने होन कुल आदिका गोपन नहीं करना चाहिये । शास्त्रका अथवा अपनेसे लघु अन्य विद्वानका स्वाभिमानसे नाम स्मरणका त्याग नहीं करना चाहिये । भाव यह है कि प्रारम्भ में किसी लघु शास्त्रसे ज्ञान प्राप्त किया हो अथवा लघु-छोटे विद्वान् से अध्ययन किया हो पश्चात् स्वयंके बहुत ज्ञानी हो जानेपर उस लघुशास्त्र अथवा लघु विद्वान्का अभिमानवश नाम नहीं छिपाना चाहिये। यह परमागममें अनिवाचार कहा है । निह्नवके होनेपर ज्ञानादि गुणोंका लोप होता है अर्थात् निह्नव करनेसे ज्ञानावरण कर्मका बन्ध होता है और उसका उदय आनेपर ज्ञानादि गुणोंका ह्रास होता है ।। ५०-५२ ॥
आगे व्यञ्जनाचार कहते हैं
शब्दस्योच्चारणं शुद्धं व्यञ्जनाचार उच्यते । अशुद्धोच्चारणान्नूनं वक्तुर्भवति होनता ॥ ५३ ॥
अर्थ - शब्दका शुद्ध उच्चारण करना व्यञ्जनाचार कहलाता क्योंकि अशुद्ध उच्चारणसे वक्ता की होनता सिद्ध होतो है ॥ ५३ ॥
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सप्तम प्रकाश
भावार्थ - श स और व ब के उच्चारण में अधिकांश अशुद्धता होती है और उच्चारणकी अशुद्धतासे अर्थ में भी विपरीतता आ जाती है । जैसे - सकृत् का अर्थ एकबार है और यकृतका अर्थ विष्टा है । सकलका अर्थ सम्पूर्ण है और शकलका अर्थ एक खण्ड है । बाल का अर्थ केश है और बाल का अर्थ वालक या अज्ञानी है । श का उच्चारण तालसे होता है और स का उच्चारण दाँतोंसे होता है, अतः उच्चारण करते समय जिल्लाका स्पर्शवत् तत् स्थानोंपर करना चाहिये ।
अव अर्थाचारका स्वरूप कहते हैं
यद् व्यज्जनस्य यो ह्यर्थः संगतो विद्यते भुवि । तस्यैवाधारणा कार्या ह्यर्थाचारः स उच्यते ।। ५४ ।। अर्थ – जिस शब्दका जो अर्थ लोकमें संगत होता है उसीकी अवधारणा करना अर्थाचार कहलाता है ॥ ५४ ॥
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भावार्थ - कहोंपर विपरीत लक्षणका प्रयोग होनेसे विधिरूप कथनका निषेधपरक अर्थ किया जाता है। जैसे किसीके अपकारसे खिन्न होकर कोई कहता है कि आपने बड़ा उपकार किया, आपने अपनी सज्जनताको विस्तृत किया, आप ऐसा करते हुए सैकड़ों वर्षों तक जीवित रहें । यहाँ विपरीत लक्षणाका प्रयोग होनेसे विधिपरक अर्थं न लेकर निषेधपरक अर्थ लिया गया है अथवा 'नरक जाना है तो पाप करो' यहां पाप करो इस विधि वाक्यका अर्थ निषेधपरक है । पाप करोगे तो नरक जाना पड़ेगा इसलिये पाप मत करो ।
आगे उभ्याचारको चर्चा करते हैं
वाकशुद्धेरथं शुद्धेश्च युगपद् धारणा तु या । उभयोः शुद्धिराख्याता सा शास्त्रज्ञधुरंधरे ॥ ५५ ॥ ज्ञानाचारस्य सम्भेदा अष्टौ प्रोक्ताः समासतः । इतोऽग्रे वर्ण्य आचारश्चारित्राचारसंज्ञितः ।। ५६ ।।
अर्थ - वाक् शुद्धि व्यञ्जनशुद्धि और अर्थ शुद्धि दोनों को एक साथ धारणा करना उभयशुद्धि कहीं गई है अर्थात् शब्दका शुद्ध उच्चारण और शुद्ध अर्थके एक साथ अवधारण करने को शास्त्रके श्रेष्ठ ज्ञाता उभयशुद्धि
1. उपकृतं बहु तत्र किमुच्यते सुजनता प्रथिता भवता परा । विदधदशमेव सदा सने सुखितमास्स्व ततः प्राशं शतम् ॥
साहित्यदर्पण
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सम्यकचारित्र-चिन्तामणिः कहते है। इस तरह ज्ञानाचारके आठ भेद संक्षेपसे कहे। अब आगे चारित्राचार वर्णन करनेके योग्य है ॥ ५५-५६ ।। अब चारित्राचारका कथन करते हैं
अहिंसासत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यापरिग्रहो। महाव्रतानि पञ्चव कथितानि जिनागमे ।। ५७ ॥ ईर्याभाषषणादाननिक्षेपणत्युत्सर्गकाः । प्रसिद्धं व्रतरक्षार्थ समितीना हि पञ्चकम् ।। ५८॥ कायगुप्तिर्वचोगुप्तिमनोगुप्तिश्च भावतः। एतद् पृप्तित्रयं प्रोक्तं चरणागमविश्रुतम् ॥ ५९॥ एषामाचरणं ज्ञेयं चारित्राचारसंज्ञितम् ।
एतत्स्वरूपसंख्यानं पूर्व विस्तरतः कृतम् ॥ ६॥ अर्थ-अहिसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, जिनागममें ये पांच हो महाव्रत कहे गये हैं। ईर्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेपण और व्युत्सर्ग ये व्रतोंकी रक्षा करने वाली पांच समितियां प्रसिद्ध है। कायगुप्ति, वचनगुप्ति और भावपूर्वक को गई मनोगुप्ति में तीनगुप्तियाँ चरणानुयोगमें प्रसिद्ध हैं। पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीनगुति इन तेरहका आचरण करना चारित्राचार है। इन सबका स्वरूप पहले विस्तारसे कहा जा चुका है ।। ५७-६० ॥ अब आगे तप आचारका वर्णन करते हुए बाह्य तपोंका वर्णन करते हैं
इतोऽग्रे वर्णयिष्यामि तपमाचारसंजितम् । आचारं मुनिनाथानां घोरारण्य निवासिनाम् ॥ ६१ ।। इच्छाया विनिरोधोऽस्ति तपः सामान्यलक्षणम् । बाह्याभ्यन्तरभेदेन तत्तपो द्विविधं स्मृतम् ॥ १२ ॥ उपकासोनमौवयं वृत्तोपरिसंख्यानकम् । परित्यागो रसानां च विविक्तशयनासनम् ॥ ६३ ॥ कायक्लेशश्च संप्रोक्ता बाह्यानां तपसा भिवाः । अन्नं पानं तथा खाद्यं लेां वेति चतुर्विधः ।। ६४ ॥ आहारो विद्यते पुंसां प्राणस्थिति विधायकः । एतच्चतुर्विधाहारत्यागो ह्यपवासो मतः।। ६५॥ तुर्यषष्ठादमावीनां भेवेन बहुभववान् । एकवित्रादि ग्रासानां क्रमशो हानितो मतः ।। ६६ ॥
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सप्तम प्रकाश
भवमोपर्यनामा स तपोमेवः समुच्यते । एकं गृहं गमिष्यामि विश्रान वा पक्तिशः स्थितान् ॥ ६७ ।। आयतं वर्तलाकार बमति नियमो मतः । वृत्तिसंख्यातनामा च सपतां भेद उध्यते ॥ ६८॥ घृतदुग्धगुडाबीना रसानां परिवर्जनात । रसत्यागाभिधानोऽयं तपोभेवः प्रगोयते ॥ ६९।। विषिश्ते पत्र जायेते शमनासनके मुनेः । तपोमेवः स विशेषो विविक्तशयनासनम् ॥ ७० ॥ अनावकाश आतापो वर्षायोगश्च पावधिः । कायक्लेशस्तपः प्रोक्तं कर्मनिर्जरणक्षमम् ॥ ७१॥ एषां विधिर्म हिश्यो बायश्चापि विधीयते ।
अतो बाह्याः समुच्यन्ते ता एतास्सपसो भिदाः ।। ७२ ।। अर्थ-- यहाँ से आगे भयंकर वनोंमें निवास करनेवाले मुनिराजों के तप-आचारका वर्णन करूँगा ! इच्छाका निरोध करना तपका सामान्य लक्षण है। बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे वह तप दो प्रकारका स्मरण किया गया है। उपवास, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त-शय्यासन और कायक्लेश, ये छह बाह्य तपके भेद कहे गये हैं। अन्न, पान, खाद्य और लेह्य यह चार प्रकारका आहार पुरुषोंको शरोरस्थितिका कारण है। इन चारों प्रकारके आहारोंका त्याग करना उपवास नामका तप माना गया है। यह तुर्य-एक, षष्ठ-वेला और अष्टम-तेला आदिके भेदसे अनेक भेदों वाला है। क्रमसे एक, दो, तोन आदि मासोंके घटानेसे अवमोदर्य नामका तप कहा जाता है। आज आहारके लिये एक घर तक जाऊँगा अथवा एक पंक्तिमें स्थित दोतोन घर तक जाऊँगा, लम्बे रास्तों में जाऊंगा या गोल मार्ग में जाऊँगा । इस प्रकारका नियम लेकर तदनुरूप प्रवृत्ति करना वृत्तिपरिसंख्यान तपका भेद है। घो, दुध तथा गुड़ आदि रसोंका त्याग करना रसपरित्याग नामक तप है । मुनिका जो एकान्त निर्जन स्थानमें शयनासन होता है वह विविक्त-शयनासन तप है। अभ्रावकाश छाया रहित स्थानमें रहना, आतापन योग तथा वर्षायोग धारण करना कायक्लेश
१. शुक्लपक्ष में एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए और कृष्णपक्षमें एक-एक ग्रास घटाते
हुए आहार करना कवल चन्द्रायण ब्रत होता है। यह अत अवमोदयं तपके अन्तर्गत होता है।
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सम्यक चारित-पितामणिः तप है। यह तप समयको अवधि लेकर किया जाता है तथा कर्मक्षय करने में समर्थ है। इनकी विधि बाह्म में दिखाई देती है तथा कहीं पर बाह्य अन्य लोगोंके द्वारा भी किये जाते हैं। इसलिये ये उपवासादि, बाह्य तप कहे जाते हैं ॥ ६१-७२॥ आगे आभ्यन्तर तपोंका वर्णन करते हुए प्रायश्चित्त तपका कथन करते हैं
अतोऽन्तस्तपसा वा वय॑न्ते यथागमम् । प्रायश्चित्ताविमेवेन अपि पांडा मिपिताः ॥ ७३ ।। कृतापराधशुसवर्थ यसपः प्रविधीयते। गुरोराज्ञां पुरोधास प्रायश्चित्तं हि तन्मतम् ॥ ७४ ।। आलोचमाविभेदेन नवधा सवापि भिद्यते । गुरोरने विनीतेन साधुना निश्छलतया ॥७५ ।। प्रोता मालोचना प्राज्ञः स्वकीयागो निवेदनम् । स्वत! स्वस्यापराधाना गमिष्याकरणक्रिया।। ७६ ॥ प्रतिक्रमः स विशेयर स्थितिबन्धापसारकः। एतदद्वयं विधीयेत यस्मिस्तदुभयं मतम् ॥ ७७ ॥ कृत्वावधि मुनेः सङ्घात या पृथक्करणक्रिया । विवेको नाम तज्जेयं प्रायश्चित्तं मनीषिभिः ॥ ७८ ॥ कृत्वा कालावधि साधोर्या कायोत्सर्जनक्रिया । व्युत्सर्गः स च विज्ञयो निशायां निर्जनस्यले ॥ ७९ ॥ अङ्गीकृत्य गुरोराज्ञामुपवासो विधीयते। प्रायश्चित्तधिया यस्मिस्तत्तपः परिगोयते ।। ८०।। अपराधस्य वैषम्यं दृष्ट्वा पत्र विधीयते । सागसः साधुवर्गस्य दीक्षाछेवो हि सूरिणा ।। ८१ ।। छेवाभिधानं तशेयं प्रायश्चित्तं तपस्विभिः । सापराधो मुनियंत्र सङ्कान निःसार्यते क्वचित् ।। ८२ ॥ परिहाराभिधानं तत् प्रायश्चितं मिगद्यते । घोरापराध संवृश्य पुन:क्षा विधीयते ।। ८३ ॥ सागसः सूरिवर्येण यस्मिस्तदुपस्थापनम् ।
प्रायश्चित्तमिवं ज्ञात्वा भेतव्यमपराधतः ।। ८४ ।। अर्थ- अब इसके आगे आगमके अनुसार आभ्यन्तर तपोंके भेद .हे जाते हैं। वे आभ्यन्तर तप प्रायश्चित्त आदिके भेदसे छह प्रकार
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के कहे गये हैं । कृत अपराधको शुद्धिके लिये गुरुकी आज्ञानुसार जो तप किया जाता है वह प्रायश्चित तप माना गया है। यह प्रायश्चित भी आलोचना आदिके भेदसे नौ प्रकारका होता है । अपराधी साधु निश्छल भावसे गुरुके आगे जो अपने अपराधका निवेदन करता है उसे विद्वज्जनोंने आलोचना कहा है। स्वयं ही अपने अपराधोंका जो मिथ्याकरण करना है उसे प्रतिक्रमण जानना चाहिये। यह प्रतिक्रमण पूर्व बद्ध कमोंको स्थितिकां कम कर देने वाला है। तात्पर्य यह है कि आलोचना गुरुके सम्मुख होती है और प्रतिक्रमण गुरुके बिना ही कृत अपराधों के प्रति पश्चात्ताप करते हुए परोक्ष प्रार्थनाके रूपमें 'मेरा अपराध मिथ्या हो' ऐसा कथन करने रूप है । जिसमें आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों किये जाते हैं वह तदुभय नामका प्रायश्चित्त है । भाव यह है कि कुछ अपराधोंको शुद्धि प्रतिक्रमण मात्रसे हो जाती है, कुछ अपराधों की शुद्धि आलोचनासे होती है और कुछ अपराधोंको शुद्धिके लिये दोनों करने पड़ते हैं । अवधि - समयकी सीमा निश्चित कर अपराधी साधुको जो सबसे पृथक किया जाता है अर्थात् अलग बैठा जाता है, चर्या आदि भी पृथक करायो जाती है वह विवेक नामका प्रायश्चित्त है । समयको अवधिकर रात्रि में निर्जन स्थान में अपराधी साधुको जो कायोत्सर्ग करना होता है वह व्युत्सर्गं नामका प्रायश्चित है । जैसे - रक्षाबन्धन कथामें मन्त्रियोंसे शास्त्रार्थं करनेवाले श्रुत सागरमुनिको शास्त्रार्थ के स्थलपर रात्रिमें कायोत्सर्ग करनेका आदेश दिया गया था और उन्होंने उसका पालन किया था। जिसमें प्रायश्चित्त की बुद्धि गुरुको आज्ञाको स्वोकृतकर उपवास आदि किया जाता है वह तप नामका प्रायश्चित्त कहा जाता है। जिसमें अपrant विषमता देख गुरु द्वारा अपराधो साधुको दीक्षा कम कर दो जाती है वह छेव नामका प्रायश्चित्त जानने योग्य है । जिसमें अपराधो साधुको सङ्घसे अलग कर दिया जाता है वह परिहार नामका प्राथश्चित है और जिसमें घोर भारी अपराधको देखकर आचार्य द्वारा अपराधी साधुको पुनः दीक्षा दी जाती है वह उपस्थापन नामका प्रायचित्त है । पुनः दीक्षित साधु नवदीक्षित माना जाता है। इसे संघके
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१. मुनियोंको आचार संहिता से नवीन दीक्षित साधु पूर्व दीक्षित साधुको
नमस्कार करते हैं। यदि किसी अपराधी साधुकी दीक्षाके दिन कम कर दिये जाते हैं तो उसे उन साधुओं को नमस्कार करना पड़ता है जो पहले इसे नमस्कार करते थे ।
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सम्पचारित-चिन्तामणिः सब साधुओंको नमोऽस्तु करना पड़ता है। इस प्रायश्चित्तको जानकर अपराधसे भयभीत रहना चाहिये ।।७३-८४ ।। आगे विनयतपका वर्णन करते हैं
गुरुक्रमाब्जयोरग्रे स्वस्य या नमन किया। साधोनिगा मानिस्वं स एष बिनयो मतः ॥ ८५॥ शामदर्शनचारित्रोपचारणं प्रभवतः । विनयस्यापि चत्वारो मेवाः शास्त्र प्ररूपिताः ॥ ८६ ॥ क्वचिच्च तपसा साध पञ्चभेदाः प्ररूपिताः। विनयो मोक्षसोधस्य प्रवेशद्वारमुच्यते ॥ ८७ ॥ विनयातीर्थकृत्वस्य प्राप्तिभवति योगिनः ।
विनयेन प्रहो म ऊ शिरा मिनि ॥ अर्थ-अपने मानको रोककर गुरुके चरण कमलोंके आगे साधुका जो नम्रोभत होना है वह विनय है । ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचारके भेदसे विनय तपके भी चार भेद शास्त्र में बताये गये हैं। कहीं मूलाचार आदिमें तपके साथ पाँच भेद भी कहे हैं अर्थात् दर्शन-विनय, शान-विनय, चारिश्र-विनय, तपो-विनय और उपचार-विनय । विनय, मोक्ष-महलका प्रवेशद्वार कहा जाता है । विनयसे तीर्थङ्कर पदकी प्राप्ति होती है ! विनयसे रहित व्यक्तिकी सब शिक्षा निरर्थक है ॥८५-८८ ॥ अब वैयावृत्य तपका लक्षण कहते हैं
आयाते संकटे साधौ भवत्या तन्निवारणम् । शुश्रूषाप्रियवाक्पूर्व वयाश्यं निगद्यते ॥ ८९ ।। आचार्मादिप्रभेन वयावत्यं तपः पुनः ।
भिद्यते दशधालोके . चारिप्रस्थैर्य कारणम् ॥१०॥ अर्थ-साधुपर संकट आनेपर भक्तिपूर्वक संकटका निवारण करना और प्रियवचन बोलते हुए उनकी सेवा करना वैयावृत्य कहलाता है। वैयावृत्य तप आचार्य आदि पात्रों के भेदसे लोकमें दश प्रकारका होता है । यह वैयावृत्य चारित्रकी स्थिरताका कारण है 11 ८६.६० ॥
मावार्थ-आचार्य, उपाध्याय, तपस्वो, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, सङ्घ और साधुके भेदसे साधुओंके दश भेद होते हैं । इनको सेवा करने से वैयावृत्य दश प्रकारका होता है ।
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सप्तम प्रकाश
आगे स्वाध्याय तपका वर्णन करते हैं
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स्वस्वभावस्य सिद्ध्यर्थं स्वाध्यायः साधुभिः सदा । कर्तव्यश्च स्थिरं कृत्वा चलं वित्तं प्रमोदतः ॥ ९१ ॥ यत्र शास्त्राsप्रथनेन स्वस्यंवाध्ययनं भवेत् । स्वाध्यायः स च विज्ञेयः स्वाध्यायः परमं तपः ॥ ९२ ॥ वाचनाप्रच्छना चाप्यनुप्रेक्षास्नापको तथा । धर्मोपदेशश्चेत्येताः स्वाध्यायस्य भिवा मताः ॥ ९३ ॥ निरवद्यार्थयुक्तस्य पाठो भवति वाचना । संशयस्य निराकृत्ये ज्ञातस्य वृढताकृते ॥ ९४ ॥ विनयात्प्रच्छतं श्रोतुः प्रच्छना किल कथ्यते । सिद्धान्तततत्वस्य भूयोभूयोऽभिचिन्तनम् ॥ ९५ ॥ स्वाध्यायों नाम विज्ञेयोऽनुप्रेक्षाभिधानकः । ग्रन्थस्योच्चारणं सम्यगान्तायः कथितो जिनेः ॥ ९६ ॥ शुद्ध मनोहरं षविय t श्रोतृकल्याणवाञ्छया । धर्मस्य वंशना था हि सरलीकृतचेतसा ॥ ९७ ॥ धर्मोपदेशनामा स स्वाध्यायः कथितो जिनंः । स्वाध्यायाच्चपलं चेतः क्षणादेव स्थिरं भवेत् ॥ ९८ ॥ रागद्वेषप्रवाहश्च निरुद्धो भवति क्षणात् । ततश्च निर्जरा दुष्टकर्मणां जायतेऽचिरात् ।। ९९ ।।
अर्थ - स्व-स्वभावकी सिद्धिके लिये साधुनों को सदा चित्त स्थिरकर हर्षसे स्वाध्याय करना चाहिये । जहाँ शास्त्राध्ययन से स्व-ज्ञाता द्रष्टा स्वभाव वाले आत्म-तत्त्वका अध्ययन होता है, उसे स्वाध्याय जानना चाहिये | ऐसा स्वाध्याय परम तप माना गया है। वाचना, प्रच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश, ये स्वाध्याय के पाँच भेद माने गये हैं । निर्दोष अर्थसे युक्त शास्त्रका पढ़ना वाचना है। संवाय का निराकरण करने और ज्ञात तत्त्वको दृढ करनेके लिये विनयसे श्रोताका जो पूछना है वह प्रच्छना कहलाती है । आगम में सुने गये तस्वका बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा नामका स्वाध्याय जानने योग्य है । ग्रन्थका ठोक-टोक उच्चारण करना - आवृत्ति करना आम्नाय नामका स्वाध्याय जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। सरल चित वाले वक्ताके द्वारा श्रोताओं के कल्याणको इच्छासे शुद्ध एवं मनोहर वचनों द्वारा जो धर्म को देशना दी जाती है उसे जिनेन्द्रदेवने धर्मोपदेश नामका स्वाध्याय कहा है । स्वाध्यायसे चन्चल चित्त क्षणभर में स्थिर हो जाता है, राग
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सम्भकारिन चिन्तामा द्वेषका प्रवाह क्षणभरमें रुक जाता है और उससे दुष्ट कर्मोको निजरा शीघ्र होने लगती है ॥ ६१-६६ ॥ आगे व्युत्सर्ग तपका कथन करते हैं
बाहीकाभ्यन्तरोपध्योस्त्यागं कृत्वा प्रमोदतः । कायोत्सर्गीयमुद्राभिः स्थित्वात्मानं विचिन्तयम् ।। १०० ।। विधिले यःस्पितः साधुस्तपस्येत तस्य याक्रिया।
सुपुत्सर्गः सा हि विशेयं तपो ध्यानस्य साधनम् ।। १०१॥ अर्थ-बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहका त्यागकर कायोत्सर्गको मुद्रामें स्थित हो आत्माका चिन्तन करता हुआ साधु एकान्तमें जो तपश्चरण करता है उसको यह क्रिया व्युत्सर्ग नामका तप है। यह तप ध्यानका साधन है ।। १००-१०१॥ अब ध्यान नामक तपका वर्णन करते हुए आतंध्यानका वर्णन करते हैं
श्रेष्ठसंहननोपेतश्चितकाच येण संयुता। कुरसे यत्पदार्थेषु चिन्ताया विनिरोधनम् ॥१०२ ॥ तवृध्यान कथ्यते लोकजनागमविशारदः। आर्तरोबारिभेवेन ध्यानं स्यातम्चतुविधम् ।। १०३ ॥ आतोदु:खे भासवार्य ध्यानं तदुस्पते। भेवा अस्यापि चत्वारः प्रगीताः परमागमे ॥ १०४॥ इष्टस्त्रीसुतवित्ताविवियोगप्रभवं ततः। अनिष्टाहिमृगेन्द्राविसंयोगाजनितं पुनः॥ १०५॥ एबासकासादिरोगाणामाक्रमाजनितं ततः।
ईप्सितभोगकाक्षायाः प्रभावाजनितं पुनः ॥ १०६ ।। अर्थ- उत्तम-आदिके तीन संहननोंसे सहित तथा चित्तको एकाग्रतासे युक्त पुरुष जो पदार्योंमें चिन्ताका निरोध करता है जैनागममें प्रवीण पुरुषो द्वारा वह ध्यान कहा जाता है। आतं, रौद्र, धर्म्य और शुक्लके भेदसे वह ध्यान चार प्रकारका है। आति अर्थात् दुःख के समय जा होता है वह आतंध्यान कहलाता है। इसके भी परमागममें चार भेद कह गये हैं । इष्ट, स्त्रो, पुत्र तथा धन आदिके वियोगसे होने वाला इष्टवियोगान नामका पहला आर्तध्यान है । अनिष्ट सर्प तथा सिह आदिके संयोगसे होने वाला अनिष्टसंयोगज नामका दसरा आतध्यान है। स्वास तथा खांसी आदि रागोंके आक्रमणसे होने वाला वेदनाजन्य
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संतम प्रकाश
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नामका तौसरा आर्तध्यान है और ईप्सित भोगोंको आकाङ्कासे होने वाला निदान नामका चौथा आर्तध्यान है ।। १०२०१०६ ।।
अब रौद्रध्यानका वर्णन करते हैं-
चद्रस्य क्रूरमावस्य जातं रोषं प्रचक्ष्यते । मेदा अस्यापि चत्वारो जिनदेथे निरूपिता ।। १०७ ।। हिंसानन्दो मृपानन्दश्चर्यानन्वश्च दुःखदः । विषयामन्यइत्येते चत्वारः सम्प्रकीर्तिताः ॥ १०८ ॥
अर्थ - रुद्र अर्थात् क्रूर परिणाम वालेके जो होता है वह रौद्रध्यान कहलाता है । जिनेन्द्रदेवने इसके भी हिंसानन्द, मृषानन्द, दुःखदायकचौर्यानन्द और विषयानन्द- परिग्रहानन्द ये चार भेद कहे हैं। हिंसा के कार्यों में तल्लीन होकर आनन्द मानना हिसानन्द है । मृषा -असत्य भाषण में आनन्द मानना मृषानन्त्र है। चोरोमें आनन्द मानना चौर्यानन्द है और पचेन्द्रियोंके विषयभूत परिग्रहको रक्षामें व्यस्त रहते हुए आनन्द मानना विषयानन्द-परिग्रहानन्द है । १०७०१०८ ।।
आगे घध्यानका वर्णन करते हैं
स्वाद् धर्मादनपेतं यत् तत् धर्म्यं च निगद्यते । मेवा अस्यापि चत्वारः सूत्रमध्ये प्ररूपिताः ॥ १०६ ॥ स्यावाज्ञा विश्वयः पूर्वी ह्यपायविचयस्ततः । विपाकविचयः पश्चात् संस्थानविचयस्ततः ॥ ११० ॥ अर्थ - धर्म से सहित ध्यान धर्म्यध्यान कहलाता है । आगम में इसके भो चार भेद कहे गये हैं- पहला आज्ञा-विचय, दूसरा अपाय-विचय, तीसरा विपाक-विचय और चोया संस्थान-विचय | सूक्ष्म, अन्तरित तथा दूरवर्ती पदार्थोंका आज्ञा मात्र से चिन्तन करना आज्ञादिचय है । चतुर्गतिके दुःख तथा उससे बचने के उपायका चिन्तन करना अपायविचय है । कर्म प्रकृतियोंके फल, उदय, उदोरणा तथा संक्रमण आदिका विचार करना विपाक विषय है और लोकके संस्थान आकार आदिका विचार करना संस्थान विषय कहलाता है ।। १०६ - ११० ॥ आगे शुक्लध्यानका कथन करते हैं
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शुक्लस्य रामकालिकता रहितस्य भवेत्तु यत् ।
शुक्लध्यानं परं प्रोक्तं प्रधानं मोक्षकारणम् ॥ १११ ॥ एतस्यापि चतुर्भेदा: शास्त्रमध्ये कर्मनिर्जरणोपाया मुनीनामेव सन्ति
प्ररूपिताः ।
ते ॥ ११२ ॥
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सम्यधारित-चिन्तामणिः पृथग् विसर्फवीचार एकत्वाचवितर्फ का।
सूक्ष्मत्रियोकं नाम तुर्य ध्युपरसक्रियम् ॥ ११३ ॥ अर्थ-रागको कालिमासे रहित शुक्ल-वोतराग परिणाम वाले मनुष्य के जो ध्यान होता है वह शुक्लध्यान कहा गया है । यह शुक्लध्यान घोक्षका प्रधान कारण है। शक्लध्यानके भो चार भेद शास्त्रों में कहे गये हैं। ये सभी ध्यान कर्म निर्जराके उपाय है तथा मुनियोंके ही होते हैं। पहला शुक्लध्यान पृथक्त्व वितर्कवोचार, दूसरा एकत्व वितकं, तोसरा सूक्ष्म क्रियापत्ति और चौथा व्युपरतक्रिया निवति है ॥ १११.११३ ।।
भावार्थ-जिसमें द्रव्य, पर्याय, शब्द, अर्थ और योगमें परिवर्तन हो वह पृथकश्व वितर्कयोचार नामका पहला शुक्ल ध्यान है। यह तीनों योगोंके आलम्बनसे होता है। जिसमें द्रव्य, पर्याय आदिका परिवर्तन नहीं होता है वह एकत्व वितकं नामका दूसरा शुक्लध्यान है। यह तीनमेंसे किसो एक योगके आलम्बनसे होता है । तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम अन्तर्मुहर्त में जब मात्र काययोगका सूक्ष्म स्पन्दन रह जाता है तब सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति नामका तीसरा शुक्लध्यान होता है और जब सूक्ष्म काययोगका भी स्पन्दन बंद हो जाता है पूर्वरूपसे योग रहित अवस्था हो जाती है तब चौदहवें गुणस्थानमें व्युपरत-क्रिया-निति नामका चौथा शुक्लध्यान होता है। प्रथम शुक्लध्यानसे मोहनीय कर्मका उपशम अथवा क्षय होता है । द्वितीय शुक्लध्यानसे शेष तोन धातिया कर्मोका क्षय होता है । तृतीय शुक्ल ध्यानसे कर्मोको अत्यधिक निर्जरा होतो है और चतुर्थ शुक्लध्यानके द्वारा अघातिया कर्मोको पचासो प्रकृतियोंका क्षय होता है। आगे तप आचारका समारोप करते हैं
एषोऽस्ति तप आचारः साधूनां प्रमुखा किया। एतेनेय विलीयन्ते फर्माणि निखिलान्यपि ॥ ११४ ॥ अव तप आचारे मुनयः कर्मनिर्जराम् । चिकोर्षद स्तपस्पन्ति धृत्वा नानावतान्यपि ॥ ११५ ॥ सिंहनिष्क्रीडितादोनि कठिनानि महान्यपि ।
एषां विधिविधानानि ज्ञेपानि हरिवंशतः ।। ११६ ।। १. इनका स्वरूप सधा गुणस्यान आदिका वर्णन पहले सम्यक्त्व-चिन्तामणि
और सज्जात चन्द्रिकामें किया गया है, अतः विस्तार भयसे यहाँ भेदमात्र कहे गये हैं।
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सप्तम प्रकाश
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अर्थ - यह तप आचार साधुओंकी प्रमुख क्रिया है । इसोके द्वारा सभी कर्म विलय - विनाशको प्राप्त होते हैं । इस तप आचारमें कर्मनिर्जराके इच्छुक मुनि सिनिष्कोडित आदि बड़े-बड़े कठिन व्रत धारण कर तपस्या करते हैं। इन व्रतका विधि-विधान हरिवंश पुराण (३४ वां सर्गसे ) जानना चाहिये ।। ११४-११६ ॥ आगे वीर्याचारका वर्णन करते हैं
वीर्याचारमाश्रित्य ब्रवीमि किश्वित्र भोः । यथाजातः स्वतो बालः स्वशक्त वर्धयन् क्रमात् ।। ११७ उत्तुङ्गगिरिशृङ्गेषु चटितुं जायते क्षमः । तथा सुवीक्षितः साधुः स्ववीर्यं वर्धयत् क्रमात् ॥ ११८ ॥ आतापनावियोगेषु दक्षो दक्षतरो भवेत् । वीर्य स्यादात्मवः शक्तिर्बलं शारीरिकं मतम् ॥ ११९ ॥ पुरस्तादात्मवीर्यस्य बलं तुच्छं हि दृश्यते । कृतमासोपवासो यः सोऽपि शलशिलातले ।। १२० ।। करोत्यातापनं योगं चित्रं वीर्यं तपस्विताम् अभ्रावकाशं शीतत हिमाच्छादितकानने ।। १२१ ॥ प्रावृट्कालेऽपि वर्षाभिः सागरीकृत भूतले । वर्षायोगं च संधुत्य पादपानामधस्तले ॥ १२२ ॥ ग्रोष्मत तप्तभूखण्डे शैले तप्त शिलोच्चये । आतापनं महायोगं धृत्वा तिष्ठन्ति योगिनः ॥ १२३ ॥ वीर्याचारस्य मध्ये तु मुनयो ध्यानतत्पराः । नानासनानि संधुत्य तिष्ठन्ति गहने वने ॥
१२४ ॥ अर्थ - अब कोर्याचारका आश्रयकर यहाँ कुछ कहता हूँ। जिस प्रकार उत्पन्न हुआ बालक स्वयं हा क्रम क्रमसे अपनी शक्तिको बढ़ाता हुआ उन्नत पर्वत की चोटियोंपर चढ़ने में समर्थ होता है उसी प्रकार दीक्षित मुनि क्रमसे अपनी शक्तिको बढ़ाते हुए भातापनादि योगों में अत्यन्त समर्थ हो जाते हैं। आत्माको शक्तिको वोयें और शारीरिक शक्तिको बल कहते हैं । आत्मशक्तिके सामने शारीरिक वल तुच्छ दिखाई देता है । मासोपवासो मुनि भो पर्वत शिलातलपर आतापन योग धारण करते हैं । सचमुच हो तपस्वियों का वोर्य आश्चर्यकारक होता है । जब बन बर्फ से आच्छादित रहता हूँ ऐसो शीत ऋतु में मुनि अनावकाश - खुले मैदान में तप करते हैं। वर्षा से जब स्थल समुद्रका रूप धारण कर
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सम्यक् चारित्र-चिन्तामणि:
लेता है ऐसी वर्षा ऋतु में वृक्षोंके नीचे वर्षायोग धारणकर तप करते हैं और जब समस्त पृथिवीतल तप्त हो जाता है ऐसी ग्रीष्म ऋतु में संतप्त पर्वतपर आतापन नामक महायोग धारणकर योगी स्थित होते हैं। ध्यान में तत्पर रहने वाले मुनि, बोर्याचारके मध्य नाना आसन धारणकर सघन वनमें विद्यमान रहते हैं ।। ११७-१२४ ।। आगे पश्चाचार प्रकरणका समारोप करते हैं
पञ्चाधारमयं तपोऽत्र विधिना धूत्वा तपस्यन्ति ये ते क्षिप्रं निविडं स्वकर्मनिगई भित्वा शिवं यान्ति कँ । भोमय्यास्तपसां प्रभावमतुलं वृष्ट्वा तपेयुश्चिरात् मोतं ते भवबन्धनाद्यवि मनः कस्य प्रतीक्षा तव ।। १२५ ॥ अर्थ - जो मुनि इस जगत् में विधिपूर्वक पश्चाचार रूप तपको धारण कर तपस्या करते हैं वे निश्चयसे शीघ्र हो कर्मरूपी सुदढ़ बेटीको काटकर मोक्षको प्राप्त होते हैं । ग्रन्थकार कहते हैं- हे भव्यजन हो ! यांदे तुम्हारा मन संसारके बन्धन से भयभीत हुआ है तो तपका अनुपम प्रभाव देखकर दीर्घकाल तक तप करो। तुम्हें किसकी प्रतीक्षा है ? ।। १२५ ।।
इस प्रकार सम्यक् चारित्र-चिन्तामणिमें पश्चाचारका वर्णन करनेवाला सप्तम प्रकाश पूर्ण हुआ ।
अष्टम प्रकाश
अनुप्रेक्षाधिकार
मङ्गलाचरणम्
विपद्यमानं भुवनं विलोक्य
ये वीतरागा भवतो विभीताः ।
धरन्ति दीक्षां भुविमाननीयां
तांस्तानहं भक्तिभरण नौमि ॥ १ ॥
अर्थ - संसारको नष्ट होता देख रागरहित जो पुरुष संसारसे भयभीत हो पृथिवोपर माननीय दोक्षाको धारण करते हैं उन प्रसिद्ध मुनियोंको में भक्तिभारसे नमस्कार करता हूँ ।। १ ।
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अष्टम प्रकाश
१०७ अब वैराग्य वृद्धिके अर्थ अनुप्रेक्षाओंका वर्णन करते हुए प्रथम अनित्यानुप्रेक्षाका वर्णन करते हैं
वराग्यस्य प्रकर्षाय मुनिभिः काननस्थितः। चिस्यन्ते भावना नूनमनित्यत्वादि संहिताः॥ २ ॥ नित्यं न मिनिश्चिद पालोकोपनिन । भानुरवेति यः प्रातः सायमस्तमुपंति सः ॥ ३ ॥ सुषांशुभिर्जगरसर्व सिञ्चग्मिन्दुरपि स्वयम् । प्रातर्भवति निऊप्तिः शुष्कपाडपसाशवत् ॥ ४ ॥ न दृश्यले बली रामो लक्ष्मणो न मलान्वितः। भरताधा महायजिताखिलवसुन्धराः ॥ ५ ॥ न दृश्यन्ते महीमागे बलविरुपासिताः। पथ लुप्ता सा च सौवर्णी सहा दशमुखस्य हि ॥ ६ ॥ शिरःस्थाः श्यामला वालाः क्रियन्ते जरसा सिताः। मुख चन्द्रस्य सौम्वर्य नश्यत् क्वापि प्रलोयते ।। ७ ।। बाहूबेतण्ड शुण्डाभौ जातो शुरुकमृणालबत् । जितमुस्ता मुखे बताः प्राप्तान्ताः कुत्र संगताः ॥ ८॥ जीवन जन्तुजातस्य शरववव भगुरम् । भगुरा धनसम्पतिः चला सौन्दर्मसम्पदा ॥ ९ ॥ वस्तुतत्त्वं विमृश्यात्मम् स्वस्थो भव निरन्तरम् । देहाद भिन्नमवेहि स्वं ज्ञानानन्दस्वभावकम् ॥ १० ॥ सर्व शमिश्यमेवसत् पर्यावार्यविवक्षया।
निखिलं नित्यमेवस्याद् द्रष्यार्थस्य विवक्षया ॥ ११ ॥ अर्थ-वैराग्यको वृद्धि के लिये बनमें स्थित मुनिराज अनित्यत्व आदि' भावनाओंका चिन्तवन करते हैं । तोनों लोकों में कहीं कोई भो वस्तु नित्य नहीं है। जो सूर्य प्रातःकाल उदित होता है। वह सार्य समय अस्तको प्राप्त हो जाता है। अमृतमय किरणोंसे समस्त जगत्को सींचने वाला चन्द्रमा भो अपने आप प्रातःकाल सूखे पलाश पत्रके समान कान्तिरहित हो जाता है। न बलवान राम दिखाई देते हैं और न बलिष्ठ लक्ष्मण । जिन्होंने महाचनके द्वारा समस्त वसुधाको जीत लिया था तथा बड़े-बड़े बलवान जिनकी सेवा करते थे ऐसे भरत आदि चक्रावर्ती दिखाई नहीं देते। रावणको वह सोनेको लंका कहां लुप्त हो गई। शिरके काले वाल वृद्धावस्थाके द्वारा शुक्ल कर दिये जाते हैं।
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१०८
सम्यक्षारित्र-चिन्तामणिः मुख चन्द्रका सौन्दर्य नष्ट होकर कहीं विलीन हो जाता है। हाथीको सूंड़के समान आभा वालो भुजाएँ सूखी मृणालके समान हो जाती हैं। मोतियोंको जीतने वाले मुख दांत सूट होकर कहा बरे माते हैं: जीवोंका जीवन शरद्के बादलोंके समान भङ्गुर है । धन सम्पत्ति नश्वर है, सौन्दर्य सम्पदा अस्थिर है । इस प्रकार हे आत्मन् ! वस्तु स्वभावका विचारकर तूं निरन्तर स्वस्थ रह अपना उपयोग अन्य पदार्थों में मत घमा। पर्यायापिकनपकी अपेक्षा सब पदार्थ अनित्य ही हैं और द्रव्यार्थिक नयको अपेक्षा सब पदार्थ नित्य हो हैं ।। २-११ ॥ आगे अशरण भावनाका चिन्तवन करते हैं
कण्ठौरवसमाकारतकुरङ्गस्येव कानने । यमाक्रान्तस्य जोवस्य नास्तीह शरणं क्यचित् ॥ १२ ॥ माता स्वसा पिता पुत्रो भ्राताम्रातृसुतोऽपि च । एते सर्वे मिलित्वापि त्रायन्ते ने मृत्युतः ॥ १३ ॥ दावानलेन संव्याप्ते गहने पावपस्थितः । वग्धं सर्व विलोक्याप्य दग्धं स्वं मन्यते यथा ।। १४ ।। सष निखिल लोक मृत्युम्यानमुखस्थितम् । दृष्ट्वापि हात मोऽयं स्वं स्वस्थ मन्यते मुधा ।। १५ ॥ निगते जीविते जीवं गृहान् निःसारयन्ति हा । बान्धवा मित्रवर्गाश्च नयन्ते शवशायनम् ॥ १६ ॥ भस्मयन्ति मिलित्वा ते विलपन्ति स्वन्ति च । विपद्यमानान् दृष्ट्वापि मृतःप्रत्येति न चित् ॥ १७ ॥ संसारस्य स्वभावोऽयमनाविनिधनो मतः।। उत्पद्यन्ते म्रियन्ते च जोवा भवमरुस्थले ।। १८॥ कोऽपि केनापि साधं नो याति वै प्रतियाति नो। एक एव सुहळू धर्मः सार्धं जीवेन गछति ॥ १९॥ शैले बने तडागे वा शैलस्य शिखरेष्वपि । धर्म एव परो बन्धुस्तरणं भववारिधः ।। २० ।। आत्मन्नशरणं मत्वा धर्मस्य शरणं व्रज ।
धर्मावृते न कोऽप्यस्ति त्राता तब जगस्त्रये ॥२१॥ अर्थ-जिस प्रकार वनमें सिंह के द्वारा चपेटे हुए हरिणका कोई शरण-रक्षक नहीं है उसो प्रकार यमके द्वारा आक्रान्त जोवको कहीं कोई शरण नहीं है। माता, वहिन, पिता, पुत्र, भाई और भतीजा, ये सब
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अष्टन प्रकाश
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मिलकर भी मृत्युसे रक्षा नहीं कर सकते । दावानलसे ब्यास वन में वृक्ष पर बैठा हुआ मनुष्य सबको जलता देखकर जिस प्रकार अपने आपको सुरक्षित मानता है उसी प्रकार यह मनुष्य समस्त लोकको मृत्युरूप श्यामके मुख में स्थित देखकर भी अपने आपको व्यर्थ हो स्वस्थ मानता है । प्राणोंके निकल जानेपर मनुष्य जोवको घरसे निकाल देते हैं और बान्धव तथा मित्रवर्ग शमशान जाते है, मिलकर भस्म कर देते हैं, विलाप करते हैं और रोते हैं। सम्बन्धो जनोंको रोता चोखता देखकर कोई भी मृत व्यक्ति कहीं लौटकर नहीं आता । संसारका यह स्वभाव अनादिनिधन माना गया है। संसार रूपी मरुस्थलमें जोव उत्पन्न होते हैं और मरते हैं । कोई किसीके साथ नहीं जाता और न कोई लौटकर आता है। एक धर्मरूप मित्र हो जोवके साथ जाता है । पर्वतपर, वनमें, तालाब में तथा पर्वतकी शिखरोंपर धर्म हो उत्कृष्ट बान्धव - सहायक है. संसार सागरले तारने वाला है । हे आत्मन् ! अपने आपको अशरण मान धर्मकी हो शरणको प्राप्त हो धर्मके बिना तीनों लोकोंमें कोई भो तेरा रक्षक नहीं है ।। १२- २१ ।।
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अब संसार भावनाका वर्णन करते हैं—
अस्मिन् भवार्णवे धोरे जन्ममृत्यु महान ऋकीर्णे
दुःखनीरोधसंभृते । व्याधितरङ्गके ॥ २२ ॥
धामनि ।। २३ ।।
मरस्तो दुःखसम्भारं चिरं सीवन्ति जन्तवः । श्वस्व तिर्यङ्मनुष्याणाममराणां च भूयोभूयो भ्रमित्वाहं श्रान्तवेहो बभूव हा । एकस्यां श्वास वेलायामथाष्टादशवारकम् ।। २४॥ विपद्योत्पद्यमानोऽहमभजे घोरवेदनाम् । नटवत्स्यामिभृत्यानां वेषस्य परिवर्तनम् ।। २५ ।। वृष्ट्वा कथं विरक्तो नो जायते मध्ये संचयः । निर्धनो धनकाङ्क्षायाः सधना धनतृष्णया ।। २६ ।। प्राप्नुवन्ति महादुःखं सुखी नास्त्यत्र कश्चन । व्रपं क्षेत्र तथा कार्ल मवं भावं च नित्यशः ॥ २७ ॥ पूर्णं करोति जीवोऽयं परावर्तनपञ्चकम् |
मृत्वा संजायते क्षिप्रं भूत्वा च त्रियते क्षणात् ॥ २८ ॥ एको शेदिति सन्तानाभावतो भुवि भूरिशः ।
अभ्यो रोदिति इयू ससंतानस्य समागमात् ॥ २९ ॥
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सम्यकुचारित्र-निम्तामणि:
करपचिग्मृतिमायालि सुगुणः प्रियपुत्रकः । कस्यचित् सुगुणामार्या प्रयाता यममन्दिरम् ॥ ३० ॥ एकेन राज्यमाश्वमेकः सोदति कानने । राज्यलक्ष्मीपरिभ्रष्टो विचित्रा मवपद्धतिः ।। ३१ ।। संसारस्य स्वरूपं ये चिन्तयित्वा स्वचेतसि । विरक्ता मवभोगेभ्यो अभ्यास्तं सन्ति भूतले ॥ ३२ ॥
दुःख
अर्थ - दुखःरूप जलसे परिपूर्ण, जन्ममृत्यु रूपी बड़े-बड़े मगरमच्छों से व्याप्त और रोगरूपी तरङ्गोंसे सहित इस भयंकर संसार सागर में का भार ढोते हुए जीव चिरकालसे दुःखी हो रहे हैं। बड़े दुःखको बात है कि मैं नरक, तिर्यश्व, मनुष्य और देवोंके स्थान - स्वर्ग में बार-बार भ्रमणकर श्रान्त शरीर हो गया हूँ-थक गया हूँ । एक श्वास के समय में अठारह बार जन्म मरण करते हुए मैंने घोर वेदना प्राप्त की हैं। नटके समान स्वामी और सेवकों का वेष परिवर्तन देखकर यह मनुष्योंका समूह विरक्त क्यों नहीं होता ? निर्धन मनुष्य धनकी आकाङ्क्षासे और धनवान् मनुष्य धमकी तृष्णासे महान् दुःख पा रहे हैं। इस जगत् में कोई सुखी नहीं है। यह जीव द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन पाँच परावर्तनोंको पूर्ण करता रहता है। मरकर शीघ्र ही उत्पन्न होता है और उत्पन्न होकर शीघ्र हो मृत्युको प्राप्त होता है । पृथिवोपर एक मनुष्य सन्तान के अभाव में अत्यन्त रोता है तो कोई दुराचारी संतान के संयोगसे रोता है । किसोका गुणवान् प्रिय पुत्र मृत्युको प्राप्त होता है तो किसी को गुणवती स्त्री भर जाती है। एक पुरुषने राज्य प्राप्त किया और एक पुरुष राज्य लक्ष्मी से भ्रष्ट हो वनमें दुःखी होता है, संसारकी पद्धति बड़ी विचित्र है । जो मनुष्य अपने मन में संसार के स्वरूपका विचारकर संसार सम्बन्धी भोगोंसे विरक्त होते हैं, पृथिवो तलपर वे ही धन्य हैंसर्वश्रेष्ठ हैं ।। २२-३२ ॥
आगे एकत्व भावनाका कथन करते हैं
एक एवात्र जायेऽहमेक एवं श्रिये तथा । एको निर्वाणमायाति नास्त्यन्यः कोऽपि में निजः ॥ ३३ ॥ यादृशे पुण्यपापे च कर्मणो विदधात्ययम् । तादृशे सुखदुःखे च स्वयमाप्नोति मानवः ॥ ३४ ॥1 वत्तं परेण नाप्नोति परस्मै नो ददाति च । अन्योऽन्यव्यत्ययो नास्ति पुण्यपापाठयकर्मणोः ।। ३५ ।।
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पिता नरकमायाति पुत्रो मोक्षं प्रयाति च । स्वकृतं सर्व आप्नोति दुरन्तेऽस्मिन् भवार्णवे ॥ ३६ ॥ अन्यस्य सुबसिद्धधर्थं कुदते दुरितं जनः । तत्फलं स्वयमाप्नोति नाभ्यः क्वापि कदाचन ।। ३७ ।। हे आत्मन् स्वहितं पश्य तदेव त्वस्सुखावहम् । परवृष्टिस्त्वयाश्याच्या सुखं वाञ्छसि चेद्ध्रुवम् ॥ ३८ ॥ अस्मिम्ननादिसंसारे स्वतन्त्राः सन्ति जस्तबः । कसरः सन्ति सर्वेऽपि स्वभावस्थैव सर्वदा ॥ ३९ ॥ परः परस्थकर्तास्ति दृष्टिरेषा न शोभना । इष्टानिष्टविकल्पानां जन करवाया वहा ॥ ४० ॥ दृष्ट्वेष्टं सुखसम्पन्नं मोदले रामिणो जनाः । दुष्ट्वा च दुःखसम्पन्नं इयन्ते नितरां हि ते ॥ ४१ ॥ रागद्वेषौ परित्यज्य परकीयेषु वस्तुषु । श्रीतरागस्वमा स्वमात्मनि सुस्थिरो भव ।। ४२ ।।
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अर्थ - इस जगत् में मैं अकेला ही उत्पन्न होता हूँ, अकेला ही मरता हूँ और अकेला हो निर्वाणको प्राप्त होता हूँ, अन्य कोई व्यक्ति मेरा निजी नहीं है । यह मनुष्य जैसे पुण्य-पाप कर्म करता है वैसे हो सुखदुःखको स्वयं प्राप्त होता है। यह मनुष्य न तो दूसरेके द्वारा दिये हुए को प्राप्त होता है और न दूसरेको देता है। पुण्य-पाप कर्मका परस्पर आदान-प्रदान नहीं होता। पिता नरकको प्राप्त होता है तो पुत्र मोक्षको जाता है । इस दुःखदायक संसार सागर में सब अपना किया हुआ हो प्राप्त करते हैं। दूसरेकी सुख-सिद्धिके लिए मनुष्य पाप करता है परन्तु उसका फल स्वयं प्राप्त करता है दूसरा कोई कहीं, कभी नहीं । हे आत्मन् ! तूं अपना हित देख, वही तेरे लिए सुखदायक होगा। यदि तू स्थायी सुख चाहता है तो तुझे परदृष्टि छोड़ने योग्य है । इस अनादिसंसार में सब जीव स्वतन्त्र हैं, सभी सदा स्वभाव के ही कर्ता हैं। पर, परका कर्ता है, यह दृष्टि-विचारधारा अच्छी नहीं है । इष्टानिष्ट विकल्पोंका जनक होनेसे संसारको बढ़ाने वाली है । द्दष्ट मनुष्यको सुखी देखकर रागी मनुष्य हर्षित होते हैं और दुःखी देखकर अत्यन्त दुःखी होते हैं । इसलिए पर-वस्तुओंमें राग, द्वेष छोड़कर वीतराग स्वभाव वाले आत्मा में - अपने आपमें स्थिर हो जा ।। ३३-४२ ।। -
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सम्पचारित्र-चिन्तामणिः संघ अन्य कामनाक:
पिरो हैं. .. माहं नोकर्मरूपोऽस्मि न च 4 फर्मरूपकः । माहं रागादिरूपोऽहं न च ज्ञेयस्वरूपकः ।। ४३ ।। न गुणस्थानरूपोऽहं न प + मार्गणामयः। न शब्दोऽहं न वर्णोऽहं न च स्पर्शो न गन्धवान् ॥ ४४ ॥ ने रसोऽहं न पुण्यातयो न च पापमयः क्वचित । एते सर्वे परद्रव्य संजाता विविधात्मकाः ॥ ४५ ॥ अहं ज्ञानस्वभावोऽस्मि परतो भिन्न एव हि। आत्मानं बेहतो भिन्न ये जानन्ति मुनीश्वराः ।। ४६ ।। त एव शिवमायान्ति कुर्वन्तः कर्मनिर्जराम् । यदा वेहोऽपि में नास्ति जन्मतः प्राप्तसंगतिः ।। ४७ ॥ तदा गेहादयो बाह्याः पदार्थाः सन्तु में कथम् । पुत्रभार्यादिषु भ्रान्ताः कुर्वाणा ममताश्रयम् ।। ४८।। 'मे मे में इति कुर्वाणा वर्करा इव मानव।। पतिता मोहपस्मिन् प्रविशन्ति मृतमखे ।। ४९ ।। यथा लोहस्य संसर्गावनलः पोइयतै घनः । तथा देहस्य संसदात्माऽयं पोड्यते घनः ।। ५० ॥ जीवानामत्र सन्स्यत्र यावत्यो हि विपत्तयः। तावत्यो निखिला ज्ञेयाः संयोगावेव देहिनाम् ॥५१॥ येषामात्मा पराच्युत्वा शुद्धाकाशनिमोऽभवत् ।
त एव भगवसिद्धाः सुखिनः सन्ति नेतरे ।। ५२ ॥ अर्थ-निश्चयसे मैं नो कर्मरूप नहीं हूँ, कर्म रूप नहीं हूँ, रागादिरूप नहीं हूँ, ज्ञेयरूप नहीं हूँ, गुणस्थानरूप नहीं हूँ, मार्गणामय नहीं हूँ, शब्द नहीं हूँ, वर्ण नहीं हूँ, स्पर्श नहीं हूँ, गन्धवान् नहीं हूँ, रसरूप नहीं हूँ, पुण्य सहित नहीं हूँ और कहीं पाप सहित भी नहीं हूँ। ये सब नाना रूप परद्रव्य के संयोगसे उत्पन्न हुए हैं। मैं ज्ञान स्वभावो हुं परसे भिन्न हो हूं जो मुनिराज शरोरसे भिन्न आत्माको जानते हैं वे हो कमौको निर्जरा करते हुए मोक्षको प्राप्त होते हैं । जब जन्मसे साथ लगा हुआ शरोर भो मेरा नहीं है तब घर आदि वाह्य पदार्थ मेरे कैसे हो सकते हैं ? पुत्र तथा स्त्रो आदिमें भूले मनुष्य ममताका आश्रय करते हुए 'मे मे मे करने वाले बकरोंके समान मोहरूपो कार्दममें पड़कर मृत्युके मुख में प्रवेश करते हैं-मर जाते हैं। जिस प्रकार लोहको संगतिसे
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अग्नि, घनोंके द्वारा पोटी जाती है उसी प्रकार देहको संगतिसे यह आत्मा, कर्म रूपो घनोंके द्वारा पीटो जाती है। इस जगत् में जीवोंको जितने कष्ट हैं वे सब स्त्री पुत्रादि प्राणियोंके संयोगसे हो जानना चाहिये | जिनकी आत्मा परसे च्युत हो शुद्ध आकाशके समान हो गई है वे भगवंत सिद्ध परमेष्ठी हो लोकमें सुखो हैं ।। ४३-५२ ।।
आगे अशुचित्व भावनाका चिन्तन करते हैं
मातातातरजीवीर्यादुत्पत्तिर्यस्य
जायते ।
रा देहः शुचितां वायात् कथमित्थं विचार्यताम् ।। ५३ ।। यः स्वमायावशुद्धोऽस्ति स शुद्धः स्यात्कथं परैः । मलमूत्रमयो बेहो सुन्दरवर्मणावृतः ॥ ५४ ॥
I
५६ ॥
स्वर्णपत्रसमाच्छन्नमलपूर्णघटोपमः एतत्संगतिमासाद्य विश्रमाद्यमित मानवाः ।। ५५ । यतीय सङ्क्रमासाद्य वस्तुन्यत्र शुत्रोन्यपि । अशुचीन्येव जायन्ते स वेहो रूयते कथम् ॥ पारोररागः सर्वेष रागाणां मूलमुच्यते । सर्व रागविरक्तिश्चेद् देहरागो विमुच्यताम् ।। ५७ ।। बेहरागेण संयुक्ता व शक्ताः स्युः परोषहान् सोढुं क्षुधापिवासान् देहपीडाकरान् सदा ॥ ५८ ॥ इत्थंभूता नराः क्वापि मुनिदीक्षां धरन्ति नो । मुनिदीक्षां विना क्वापि मोक्षप्राप्तिनं जायते ॥ ५९ ॥ यथार्थं सुखलिप्सा ते मानसे यदि वर्तते । देहरागस्त्वया त्याज्यस्तहि मुक्तिप्रबाधकः ।। ६० ।। येहस्याशुचितां नित्यं भावयित्वा मनोश्वराः । देहरागं परित्यक्तुं समर्थाः सन्ति भूतले ॥ ६१ ॥ एसे मुनीश्वरा एव कायक्लेशादिकं तपः । कुर्वन्ति श्रद्धयोपेताः कर्मक्षय विधायकम् ॥ ६२ ॥ ॥
अर्थ - माता-पिता के रजवीयसे जिसकी उत्पत्ति होती है वह शरीर शुचिता - पवित्रताको कैसे प्राप्त हो सकता है, ऐसा विचार करना चाहिये ? जो स्वभावसे अशुद्ध है वह दूसरे पदार्थोंसे शुद्ध कैसे हो सकता है ? मलमुत्रमय शरीर सुन्दर चर्मसे ढका हुआ है अतः स्वर्णपत्रसे आच्छादित मलपूर्ण घड़े के समान है । इस शरोरको संगति पाकर मनुष्य मत्त होते हैं-- अपने आपको भूल जाते हैं । यह आश्चर्य की बात
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि:
है। इस जगत् में जिसका सङ्ग पाकर अन्य पवित्र वस्तुएँ भी अपवित्र हो जाती हैं वह शरीर लोगों को कैसे रुचता है— अच्छा लगता है ? शरीरका राग ही सब रोगोंका मूल कहा जाता है । यदि सब रागों से विरक्ति हुई है तो शरीरका राग छोड़ना चाहिये । शरीरके रागसे सहित मनुष्य शरीकी पीड़ा करने वाले क्षुधा, तृषा आदि परोषहों को सहन करने में सदा समर्थ नहीं हो सकते। ऐसे मनुष्य कहीं भी मुनि दीक्षा धारण नहीं करते और मुनि दीक्षा के बिना कहीं भी मोक्षको प्राप्ति नहीं होती । है आत्मन् ! यदि तेरे मन में यथायें सुख प्राप्त करने की इच्छा है की चु मुक्तिका बाधक शरोर सम्बन्धी याग छोड़ देना चाहिये । पृथिवोतलपर मुनिराज सदा शरीरकी अशुचिता का विचारकर शरोर सम्बन्धी राग छोड़ने में समर्थ हैं । ये मुनिराज हो श्रद्धासे सहित हो कर्मक्षयकारक कायक्लेशादिक तप करते हैं ।। ५३-६२ ।।
अब आस्रव भावनाका स्वरूप कहते हैं
सच्छिद्रां नावमारुह्य यथा नो यान्ति मानवाः स्वेष्टं धाम तथा लोकाः सालवा: स्वेष्टधामकम् ॥ ६३ ॥ मनोवाक्कायचेष्टा या सेव योगः समुच्यते । योगेनं वासवस्यत्र विविधा कर्मसन्ततिः ॥ ६४ ॥
तस्य स्थित्यनुभागौ च कषायोदयतो मतौ । यथा स्थित्यनुभागं च सा बदाति फलं नृणाम् ।। ६५ ।। कर्मोदयवशाजीवा चतुरन्तभवार्णवे । मज्जनोन्मज्जने नूनं कुर्वन्ति विश्रामन्ति च ॥ ६६ ॥ एकान्तादिभेदेन मिध्यात्वं पञ्चघा मतम् । अविरतिश्च विख्याता द्वादशभेदसंयुता ॥ ६७ ॥ भेदाः सन्ति प्रमादस्य वशधा पञ्चधापि च । कषयाणां प्रभेदाः स्युः पञ्चविंशति संप्रकाः ।। ६८ ।। योगाः पञ्चवश प्रोक्ताः कर्मसिद्धान्त पारगः । द्वासप्ततिमिताः प्रोक्ताः कर्मसिद्धान्तपारगैः ।। ६९ ।। एम्यो रक्षा प्रकर्तव्या स्वात्मना सततं नृमिः । आसवे सति जीवानां कल्याणं नैव सम्भवेत् ॥ ७० ॥ यथा यथाहि जीवोऽयं गुणस्थानेषु वर्धते । तथा तथा हि जीवस्य श्रीयन्ते स्वत आस्रवाः ॥ ७१ ॥
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११५ एवं चतुर्दशे स्थाने सर्वालपनिरोधतः।
अबन्धः पूर्णएवास्ति अणान्मुक्तिं प्रयाति सः॥ ७२ ।। अर्थ-जिस प्रकार छिद्र सहित नावपर सवार हो मनुष्य अपने इष्ट स्थानको प्राप्त नहीं होते हैं उसी प्रकार आस्रव सहित मनुष्य अपने इष्ट स्थान-मोक्षको प्राप्त नहीं होते हैं। मन, वचन, कायको जो चेष्टा-व्यापार है वहो योग कहलाता है । इस योगके द्वारा हो आत्मामें विविध कर्मसमूहोंका आलव होता है। उन कर्मसमूहों में स्थिति और अनुभाग कषायके उदयसे होते हैं और स्थिति-अनुभागके अनूसार वे मनुष्योंको फल देते हैं। फर्मोदयके वशीभूत जीव चतुर्गतिरूप संसार सागरमें मज्जन और निमज्जन करते हुए, खेद है कि निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं। एकान्त आदिके भेदसे मिथ्यात्व पाँच प्रकारका माना गया है, अविरतिके बारह भेद प्रसिद्ध हैं, प्रमादके पन्द्रह भेद हैं, कषायोंके पच्चीस प्रभेद हैं और योग पन्द्रह प्रकारके हैं। कर्मसिद्धान्त के पारगामो आचार्योंने ये हो सब आस्रवके बहत्तर भेद कहे हैं। मनुष्योंको इन सारूवके भेदोंसे अपनी रक्षा करतासहियमोंकि आस्रवके रहते हुए जोवोंका कल्याण नहीं हो सकता है। जैसे-जैसे यह जीव गूणस्थानोंमें बढ़ता जाता है वैसे-वैसे ही उसके आस्रव अपने आप कम होते जाते हैं। इस प्रकार चौदहवें गुणस्थानमें सब आरबोंका अभाव हो जानेसे पूर्ण अजन्ध हो जाता है-बन्धका सर्वथा अभाव हो जाता है और तब यह आत्मा क्षणभरमें मुक्तिको प्राप्त हो जाता है ।। ६३-७२।। आगे संवर भावनाका चिन्तन करते हैं
मानवस्य निरोधो यः संवरः स हि कथ्यते । संबरेण विना लोको नेष्टं स्थानं व्रजेत् क्वचित् ।। ७३ ।। सञ्छित्रपोतमारुढो जलस्यास्त्रवणे सति । नियमेन अखत्येव गभीरे सागरे यथा ॥ ७४ ।। तथालवद्विधिदम्द शुभाधारमधिष्ठितः । नियमेन पतत्येव भयाद भवसागरे । ७५ ॥ मनो वाक्कायगुप्तोनो त्रयेण दशधर्मता। पञ्चभ्यः समितिभ्यश्च चारित्राणां च पञ्चकात् ॥ ७६ ॥ द्वादशभ्योऽनुप्रेक्षाभ्यो द्वाविंशत्या परीषहै। संयरो जायते भून सम्यषष्ट्या विशुम्भताम् ॥ ७७ ॥
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सम्यमारिन-चिन्तामणिः मिश्यावृशामबन्धोऽस्ति केषां चिरपुण्यकर्मणाम् । तीर्थकृत्प्रमतीनां च संवरो नैव जायते ॥ ७८ ॥ सत्येव बन्धविच्छेचे संवरो हि निगद्यते । संहौज गुता दि निजता नामिह ॥ ७९ ।। सैव सार्थक्यमाप्नोति नान्या विग्रहमारिणाम् । समये समये जीवजातीनां कर्मणां चयः॥ ८० ।। अन्धमाप्नोति तावांश्च निर्जरामेति सर्वतः। सत्तायो विद्यते साधगुणहानिमितस्तथा ।। ८१॥ मोहनिद्राशमात् साधुसङ्घस्य शुभवेशनात् । सम्पत्वं प्राप्यते भव्य स्त्रिलोक्यामपि दुर्लभम् ॥ ८२।। संवरमेव सम्प्राप्त प्रयत्नं कर सर्वदा ।
संवरमन्तरा न स्यात् कर्मणां क्षपणं क्वचित् ॥ ८३ ॥ अर्थ--जो भास्रवका रुकना है वही संवर कहलाता है। संबरके विना मनुष्य कहीं भी इष्टस्थानको प्राप्त नहीं हो सकता। सच्छिद्र जहाजपर बैठा मनुष्य जलका आगमन होने पर जिस प्रकार गहरे समुद्र में नियमसे डूबता है, उसी प्रकार शुभ-अशुभ कर्मोके आसबसे सहित शुभाचारको प्राप्त हुआ ( मिथ्यादृष्टि ) नियमसे भयपूर्ण संसार सागरमें पड़ता है । मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति-इन तीन गुप्तियोंसे, उत्तमक्षमादि दश धर्मोसे, पांच समितियोंसे, पाँच प्रकारके चारित्रोंसे, बारह अनुप्रेक्षाओंसे तथा बाईस परोषहजयोंसे सम्यग्दृष्टि जीवोंके निश्चय ही संवर होता है। मिथ्यादष्टि जोवोंके तोर्थङ्कर प्रकृति आहारक शरीर तथा आहारक शरोराङ्गोपाङ्ग इन पुण्य प्रकृतियोंका अबन्ध है, संवर नहीं, क्योंकि बन्ध व्युच्छित्ति होने पर हो संवर कहलाता है। संवरके साथ जो कर्मोको निर्जरा होतो है वहो सार्थकताको प्राप्त होती है। वैसे तो सभी संसारी जोवोंके प्रत्येक समय जितना ( सिद्धोंके अनन्तवें भाग और अभब्यराशिसे अनन्तगुणित ) कर्मसमूह बन्धको प्राप्त होता है, उतना ही सब ओरसे निर्जराको प्राप्त होता है और डेढ़ गुणहानि प्रमाण कमसमूह सत्तामें रहता है। मोहनिद्राके उपशम तथा साधुसङ्घके उपदेशसे भव्य जीव त्रिलोक दुर्लभ सम्यग्दर्शन को प्राप्त करते हैं । इसलिये है आत्मन् ! संवरको हो प्राप्त करनेका सदा प्रयत्न करो, क्योंकि संवरके बिना कोका क्षय कहीं कभी नहीं होता है ॥ ७३-२३॥
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११७ आगे निर्जरा भावनाका चिन्तन करते हैं---
कर्मणां पूर्वबहानामेकदेशस्य संक्षयः। निर्जरा घोच्च विनाविशारः।। ८४ ।। सविपाकाविपाकेतिमेवेन द्विविधा च सा। आद्या भवति सर्वेषां द्वितीया स्यातपस्विनाम् ।। ८५ ॥ फर्मस्थित्यनुसारेणाबाधाकाले समागते । वदतः स्वफलं कर्म-प्रवेशाः संचिता स्वयम् ।। ८६ ॥ पृथग भवन्ति जीवघ्या सविपाका मता श्रुतो। प्रभावात् तपसा केचिदाबाधा पूर्वमेव हि ॥ ८७ ॥ निर्जीर्णा यत्र जायन्ते सा मता हाविपाकजा । अविपाकाप्रभावेण जीया आयान्ति निर्वतिम् ॥ ८८ ।। सषिपाकाप्रभावात्तु तिष्ठन्त्यय विष्टपे। अनशनाविभेवेन तपांसिसम्ति द्वादश ॥८९॥ तान्येष सूरिभिः प्रोक्ता अविपाकासुहेतवः। हेतौ सस्येव सिंघन्ति कार्याणि न तु तं विना ॥ ९ ॥ आत्मन् ! धाग्छसि चेदुःखपरिमोक्षं समन्ततः । सद्यः कुरु तपांसि त्वं यथाकालं यथाबलम् ॥ ११ ॥ अग्नितप्तं यया हेमभिर्मलं जायते द्रुतम् । तपस्तप्तस्तथात्मायं निर्यको भवति ध्रुवम् ॥ ९२॥ अनास्तिो निबद्धानि कर्माणि तपसा विना।
क्षीयन्ते नैव जोवानां वाञ्छतामपि नित्यशः ॥ १३ ।। अर्थ-जनागमके ज्ञाता विद्वानों द्वारा, पूर्वबद्ध कर्मोके एकदेशका क्षय होना निर्जरा कही जाती है। यह निर्जरा सविपाका और अवि. पाकाके भेदसे दो प्रकारको होती है। सविपाका निर्जरा सभी जीवोंके होतो है परन्तु अविपाका निर्जरा तपस्वियों-मुनियोंके होतो है। कर्मस्थिति के अनुसार आबाधाकाल आनेपर संचित कर्मप्रदेश अपना फल देते हुए जीवोंसे जो स्वयं पृथक् हो जाते हैं, यह निर्जरा शास्त्रोंमें सविपाका' मानी गई है और जिससे तपके प्रभावसे कितने ही कर्मप्रदेश आबाधाके पूर्व ही निर्जीर्ण हो जाते हैं वह अविपाकमा निर्जरा मानो गई है। अविपाक निर्जराके प्रभावसे जो निर्वाणको प्राप्त होते हैं और सविपाक निर्जराके प्रभावसे इसो संसारमें स्थित रहते हैं। अनशनादिके भेदसे तप बारह हैं, ये तप हो आचार्योंने अविपाक निर्जरा
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सम्यक्चारित चिन्तामणिः
के हेतु कहे हैं। हेतुके रहते हुए हो कार्य होते हैं हेतुके बिना नहीं है आत्मन् ! यदि तू सब ओरसे दुःखोंसे छुटकारा चाहता है तो समय और शक्ति के अनुसार शीघ्र हो तपकरा । जिस प्रकार अग्नि संतस स्वर्ण शीघ्र ही निर्मल हो जाता है उसी प्रकार तपसे संतप्त यह आत्मा निश्चित हो निर्मल हो जाती है । जोव निरन्तर चाहें भी तो भो उनके अनादिकाल से बँधे हुए कर्म तपके बिना नष्ट नहीं होते हैं । ८४-८३ ॥ अब लोक भावनाका चिन्तन करते हैं
पादौ प्रसायं भूपृष्ठे बाहूनिषिध्य मध्यके । स्थितमसमाकारो लोकोऽयं विद्यते सदा ।। ९४ ।। न केनापि कृतो लोको न हर्तुं शक्य एव हि । अमादिनिधनो ह्येष पतित्रयसमावृतः ॥ ९५ ॥ अषोमध्योर्ध्वमेदेन लोकोऽयं त्रिविधो मतः ।
यात्रा वसन्त्यधो लोके मध्यलोके च मानवाः ॥ ९६ ॥ निलिम्पा ऊर्ध्व सम्भागे तियंश्वः सन्ति सर्वतः । अयं सुविस्तृतो लोको निचितो मोयराशिभिः ॥ ९७ ॥ एकोऽपि स प्रवेशो न विद्यते भुवनत्रये । यत्राहं न समुत्पन्नो यत्र में न च संमृतः ॥ ९८ ॥ हा हा क्षेत्रपरावर्ते सर्वत्र भ्रमितो भूशम् । जन्ममृत्यु महावुः खममजं भूरिशोऽप्यहम् ॥ ९९ ॥ लोकरूपं विचिन्त्यात्र ये विरक्ता भवन्त्यतः । त एवं कर्मनिर्मुक्ता लोकाग्रे निवसन्ति हि ॥ १०० ॥ सरिच्छेला विसौन्दयं राजतों चन्द्रिकाविभाम् । सूर्योदयस्य लालित्यं निर्झरास्फालनं तथा ।। १०१ ॥ दृष्ट्वा रज्यन्ति भूभागे तत्रैव विहरन्ति च । निर्जलां वृक्षहीनां च मरुभूमि विलोक्य ये ॥ १०२ ॥ द्विषान्ते मानवास्तेऽत्र रागद्वेषवशं गताः । उत्पद्यन्ते स्त्रियन्ते च तव
भुवनत्रये ॥ १०३ ॥ अर्थ - पृथिवोपर दोनों पैर फैलाकर तथा दोनों हाथ कमरपर रखकर खड़े हुए पुरुषका जैसा आकार होता है वैसा ही आकार वाला यह लोक सदासे विद्यमान है । यह लोक न तो किसी के द्वारा किया गया है और न किसी के द्वारा नष्ट किया जा सकता है । अनादि निधन और तीन वातवलयोंसे वेष्टित - घिरा हुआ है। अधोलोक, मध्य
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अष्टम प्रकाश
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लोक और ऊध्वंलोकके भेदसे यह तोन प्रकारका माना गया है । अधोलोकमें नारकी रहते हैं, मध्यलोकमें मनुष्य रहते हैं, कर्वलोकमें देव रहते हैं और तिर्यञ्च सभी लोकोंमें रहते हैं। यह अत्यन्त विस्तृत लोक जोवराशिसे व्याप्त है। तीनों लोकोंमें वह एक भी प्रदेश नहीं है जहाँ मैं उत्पन्न नहीं हुआ हूँ और मरा नहीं हूँ। बड़े दुःखकी बात है कि क्षेत्र परावर्तनमें में सर्वत्र अनेक बार घूम चुका हूँ। मैंने जन्म और मृत्युका महान् दुःख अनेक बार प्राप्त किया है। इस तरह लोकका स्वरूप विचार कर जो उससे विरक्त होते हैं वे हो कर्मरहित हो लोकके अग्रभागपर निवास करते हैं और जो नदी तथा पर्वतोंका सौन्दर्य, चांदी के समान चाँदनीकी प्रभा, सूर्योदयकी सुन्दरता और झरनोंके प्रपातको देखकर किसो प्रदेशमें राग करते हैं तथा वहीं विहार करते हैं एवं निर्जल तथा वृक्षहोन मरुभूमिको देखकर द्वेष करते हैं, रागद्वेषके वीभूत हुए वे मनुष्य इन्हीं तोनों लोकोंमें उत्पन्न होते और मरते रहते हैं ।। ६४-१०३ ॥ आगे बोधिदुर्लभ भावनाका चिश्तवन करते हैं
लोकोऽयं सर्वतो व्याप्तः स्थावरजोवराशिभिः । स्थावरात् असताप्राप्तिदुर्लभा वर्ततेतराम् ।। १०४ ॥ असतायां च संजिस्वं संशित्वे च मनुष्यता। मनुष्यत्वे च सत्क्षे सक्षेत्रे बकुलीनता ॥ १०५ ।। कुलीनतायामारोग्यमारोग्ये दीर्घजीविता। तत्र सम्यक्त्वसंप्राप्तिस्तत्राप्तास्पनि लक्ष्मता ॥ १६ ॥ तत्राप्यदोषचारित्वं दुर्लभ अतिदुर्लभम् । एवं विचार्य सद्बोधेवालभ्यं सत् सुरक्ष्यताम् ॥ १०७ ।। यथेह दुर्लभं ज्ञात्वा मणिमुक्तादिक नराः। रक्षन्ति तत्परत्वेन बोधी रक्ष्यस्त्वया तथा ॥ १०८ ॥ बोधो रत्नत्रयं नाम दुर्लभं वर्तते नृणाम् । एकादशाद् गुणस्थानात् पतिताः साधवो ह्यधः ॥ १०९॥ अर्धपुद्गलपर्यन्तं पर्यटन्ति भवेभवे । केचिच्चान्तर्मुहुर्तेन लब्ध्वा रत्नत्रयं मिधिम् ॥ ११ ॥ प्राप्नुवन्ति शिवं सद्यः स्वास्मन्येव रता नराः। परिणामस्य विन्यं छप्रस्थ व बुध्यते ।। १११ ॥
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सम्यचारित्र-चिन्तामणिः मोगाकांक्षाविशाला ते न पूविषपर्यये ।
सर्वसाधनसंयुते ॥ ११२ ।। अल्पायुषि नरस्ये सा पूर्यते कषमत्र सा।
ततो विरज्य भोगेभ्यः स्वस्मिन्नेव रतो भव ॥ ११३ ॥ अर्थ-यह लोक सब ओर स्थावर जीवोंके समूहसे व्याप्त है। स्थावरसे त्रस पर्यायको प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है। बस पर्यायमें संज्ञोपना, संज्ञियों में मनुष्यता, मनुष्यतामें अच्छा क्षेत्र, अच्छे क्षेत्रमें कुलीनता, कुलीनतामें आरोग्य, आरोग्यमें दोर्घायुष्य, दोर्घायुष्यमें सम्यक्त्वको प्राप्ति, सम्यक्त्व प्राप्तिमें आत्माका लक्ष्य और आत्माके लक्ष्यमें निर्दोष चारित्रका पालन करना अत्यन्त दुर्लभ है । इस प्रकार सदोधि की दुलभताका विचारकर उसकी रक्षा करना चाहिये। जिस प्रकार मनुष्य मणि, मुक्ता आदिको दुर्लभ जानकर तत्परतासे उसकी रक्षा करते हैं उसो प्रकार बोधिको दुर्लभ जान उसको रक्षा करना चाहिये । बोधि रत्नत्रयका नाम है। यह मनुष्यों के लिये दुर्लभ है । ग्यारहवें गुणस्थानसे नीचे गिरे हुए मनुष्य अधपुद्गल परिवर्तन पर्यन्त अनेक भवों में धमते रहते हैं और कोई रत्नत्रय रूप निधिको प्राप्त कर स्वात्मामें लोन रहने वाले मनुष्य अन्तर्मुहूर्त के भीतर शीघ्र ही मोक्षको प्राप्त कर लेते हैं। परिणामोंको यह विचित्रता छद्मस्थ जोव नहीं जान पाते। जहाँ सागरों प्रमाण आयु थो तथा सब साधन सुलभ थे ऐसी देवपर्यापमें तेरो विशाल भोगाकांक्षा पूर्ण नहीं हुई तो अल्पायु वाले मनुष्य पर्याय में कैसे पूर्ण हो सकतो है ? अतः हे आत्मन् ! तं भोगोंसे विरक्त हो, स्वकीय आत्मामें ही रत-लीन हो जा ॥ १०४-११३ ॥ आगे धर्म भावनाका स्वरूप कहते हैं---
कान्सारे मार्गतो सष्टं समुद्रे पतितं तथा। दारिद्रयाधिसले मग्नं शैलात्संपतितं नरम् ॥ ११४ ॥ रक्षितु धर्मएवास्ति शक्तो नान्योऽत्र भूतले । बर्मों मूलं त्रिवर्गस्य त्रिवर्गः सुखसाधनम् ॥ ११५ ॥ मुलस्य रक्षण कार्य मूलनाशे कुतः सुखम् । आत्मनो यः स्वभावोऽस्ति स धर्मःप्रोच्यते बुधः॥ ११६॥ रत्ननये क्षमाद्याश्च धर्मशब्देन कोतिताः । धर्मादेव मनुष्याणां जीवनं सकलं भवेत् ॥ ११७ ॥
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___ अष्टम प्रकाश
१२१ धर्म होना न शोमन्ते निर्गन्धा इव किशुकाः। सम्यक्त्यमूलो धर्मोऽस्ति मूलं रक्ष्यं ततो नभिः ।। ११८॥ सम्यक्त्ववन्तो ये जीक्षा चारित्रं वधते परम् । ते ब्रुतं शिवमायान्ति स्थायिसौख्यसमन्वितम् ॥ ११ ॥ ये नरा धर्मात्य भोगाकांक्षा पनि । ते नूनं काचखण्डन विक्रोणन्ति महामणिम् ।। १२० ॥ मोगाकांक्षामहानद्यो बहसाना नराः सवा । अन्ते निगोदनामानं महाब्धि प्रविशन्ति वै ॥ १२१ ॥ दुर्लभं मानुषं लन्ध्या धर्मेण सफलीकुरु । समुद्रे पतितं रत्नं यथा भवति दुर्लभम् ॥ १२२ ।। तथा गतं मनुष्यत्वं दुर्लभं व वर्तते ।
विपदप्रस्तं नरं लोके धर्मो रक्षति रक्षितः ॥ १२३ ॥ अर्थ-वनमें मार्गसे भ्रष्ट, समुद्र में पतित, दरिद्रतारूपो समुद्रके तलमें निमग्न और पर्वतसे गिरे हए मनुष्यको रक्षा करने के लिए पृथिवीपर धर्म ही समर्थ है अन्य कोई नहीं। धर्म, त्रिवर्गका मूल है
और त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ, काम-सूखका साधन है ! अतः मूलको रक्षा करना चाहिये क्योंकि मूलका नाश होनेपर सुख किससे हो सकता है ? आत्माका जो स्वभाव है वही ज्ञानीजनों द्वारा धर्म कहा जाता है ! रत्नत्रय और क्षमा आदिक भो धर्म शब्दसे कहे जाते हैं। धर्मसे हो मनुष्योंका जोवन सफल होता है। धर्महोन मनुष्य गन्धरहित टेसूके फूलके समान शोभित नहीं होते । धर्म, सम्यक्त्वमूलक है अतः मनुष्योंको मूलकी रक्षा करना चाहिये । जो सम्यग्दृष्टि मनुष्य उत्तम चारित्र धारण करते हैं वे शोन हो शाश्वत सुखसे सहित मोक्षको प्राप्त होते हैं । जो मनुष्य धर्म धारण कर उसके बदले भोगोंको आकांक्षा रखते हैं वे निश्चित ही कांच के टुकड़ेसे महामणिको बेचते हैं। निरन्तर भोगाकाङ्क्षारूपो महानदोमें बहने वाले मनुष्य अन्तमें निगोद नामक महासागरमें प्रवेश करते हैं । दुर्लभ मनुष्य पर्यायको प्राप्त कर उसे धर्मसे सफल करो। समुद्र में पड़ा हुआ रत्न जिस प्रकार दुर्लभ होता है उसो प्रकार गया हुआ मनुष्य भव दुर्लभ है । रक्षा किया हुआ धर्म हो लोकमें विपत्तिग्रस्त मनुष्यकी रक्षा करता है ॥ ११४-१२३ ।।
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सम्यक्तरिम-चिन्तामणिः आगे अनुप्रेक्षाधिकारका समापन करते हैंभन्या इमा वावशमाधना ये
स्थिरेण चित्तेन हि भावयन्ति । ने ग्रन्थ्यमुद्रापरिरक्षणे ते
__ शक्ता भवेयुनियमेन भव्याः ॥ १२४॥ अर्थ-जो भव्य पुरुष, स्थिर चित्तसे इन उत्तम बारह भावनाओंका चिन्तवन करते हैं वे नियमसे निर्धन्य मुद्राकी रक्षा करनेमें समर्थ होते हैं ॥ १२४ ॥
इस प्रकार सम्यक्-चारित्र-चिन्तामणिमें अनुप्रेक्षाओंका
वर्णन करने वाला अष्टम प्रकाश पूर्ण हुआ।
नवम प्रकाश ध्यान सामग्री
मङ्गलाचरणम् ध्यानेन भिस्वा भवबन्धनानि
रागाविदोषोनियन्धनानि । प्रापुः प्रियां मुक्तिमनस्विनी ये
सिद्धान् विशुद्धान् सततं नुमस्तान् ॥ १॥ अर्थ-जो ध्यानके द्वारा रागादि दोषरूप तीन कारणोंसे मुक्त संसारके बन्धनोंको तोड़कर मुक्तिरूपो गौरवशालिनी प्रियाको प्राप्त कर चुके हैं, मैं विशुद्ध परिणामोंसे युक्त उन सिद्ध परमेष्ठियोंको बारबार स्तुत करता हूँ ॥ १॥ अब चित्तकी स्थिरताके लिये ध्यानकी सामग्रोका वर्णन करते हैं
अथ वक्ष्ये गुणस्थानं मार्गणासु यथाक्रमम् ।
ध्यान तत्त्वस्य सिद्धयर्थं यथाबुद्धि ययागमम् ॥ २॥ १. श्रेष्ठाः ।
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नियम प्रकाश
नरकगती भवेवाद्यं गुणस्थानचतुष्टयम् । अपर्याप्त न विधेत द्वितीयं च तृतीयकम् ।। ३ ।। द्वितीयादि पृथिव्यां त्वपर्याप्तं प्रथमं मतम् । पर्याप्तेषु हि जायेस गुणधामचतुष्टयम् ॥ ४ ॥ तिर्यग्गतौ भवेदाद्यं गुणस्यानीयपञ्चकम् । अपर्याप्तेषु जायेत वर्जयित्वा तृतीयकम् ।। ५ ।। आद्यं चतुष्टयं ज्ञेयं भोगभूमिभवेषु वै । कर्मभूमिज सिर्यं पर्याप्तेषु तु पञ्चकम् ॥ ६ ॥
अपर्याप्त तृतीयं नो जातुचिदपि सम्भवेत् । कर्मभूमिज मर्त्येषु सर्वाण्यपि भवन्ति हि ॥ ७ ॥ अपर्याप्तेषु विमाचं बाधि
चतुर्थञ्च
समुद्धात गतवलिनी मतम् ॥ ८ ॥ देवेष्वाद्यचतुष्टयम् ।
त्रयोदश अपर्याप्तेषु
गुणस्यानं
विज्ञेयं तृतीयस्थानमन्तरा ॥ ९॥
अर्थ - अब आगे ध्यानतत्त्वको सिद्धिके लिये यथाबुद्धि और यथागम मार्गणाओं में गुणस्थानोंका कथन करूँगा । प्रथम ही गतिमार्गणाकी अपेक्षा कहते हैं - सामान्यरूपसे नरकगतिमें आदिके चार गुणस्थान होते हैं किन्तु अपर्याप्त नारकियोंके द्वितीय और तृतीय गुणस्थान नहीं होता [ इसका कारण है कि तृतीय गुणस्थान में मरण नहीं होता और द्वितीय गुणस्थान में मरा जीव नरक नहीं जाता । यह प्रथम पृथिवोके अपर्याप्तकोंको अपेक्षा कथन है ]। द्वितीयादि पृथिवियोंके पर्यात प्रथम गुणस्थान हो होता है क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीवकी उनमें उत्पत्ति नहीं होती । पर्याप्तकों के चार गुणस्थान होते हैं ।
तिर्यञ्चगतिमें आदिके पाँच गुणस्थान होते हैं परन्तु अपर्याप्तकों के तृतीय गुणस्थान नहीं होता । भोगभूमिज तियंवों में आदिके चार गुणस्थान होते हैं परन्तु अपर्याप्तक अवस्था में तृतीय गुणस्थान सम्भव नहीं है । कर्मभूमिज तिर्यश्वमं पर्याप्तकोंके आदिके पांच गुणस्थान हैं । परन्तु अपर्याप्तकों तृतीय गुणस्थान कभी नहीं होता ।
मनुष्यगति में कर्मभूमि मनुष्योंमें सभी चौदह गुणस्थान होते हैं । परन्तु अपर्याप्तकों के प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और समुद्घातगत केवलो - को अपेक्षा त्रयोदश-तेरहवाँ गुणस्थान होता है । भोगभूमिज मनुष्यों
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सम्यक्षारिन्न-चिन्तामणिः में आदिके चार गुणस्थान होते हैं परन्तु अपर्याप्तक अवस्था तृतीय गुणस्थान नहीं होता।
देवोंके आदिके चार गुणस्थान होते हैं परन्तु अपर्याप्तकोंमें तृतीय गुणस्थान नहीं होता ॥२-६॥ आगे इन्द्रिय और कायमार्गणाकी अपेक्षा वर्णन करते हैं
एकेन्द्रिये तु विज्ञेयं तेजो वायुविवजिते । आयद्वयं गुणस्थानमपर्याप्तवशायुते ॥१०॥ द्विहषीकातसमारभ्या संक्षिपञ्चेन्द्रियावधौ । गुणस्थानं भवेदराचं नान्यत्तत्र हि सम्भवेत् ॥ ११॥ पञ्चेन्द्रियेषु सन्स्येव धामानि निखिलान्यपि । स्थावरेषु भवेदाध-द्वयं नान्यत् प्रजायते। ॥ १२ ॥
असेषु सन्ति सर्वाणि गुणधामानि निश्चयात् । अर्थ-तेजस्कायिक और वायुकायिकको छोड़कर अन्य एकेन्द्रियोंके अपर्याप्तक दशामें आदिके दो गुणस्थान होते हैं। कारण यह है कि सासादन गुणस्थानमें मरा जीव यदि एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो तो तेजस्कायिक और वायुकायिकमें उत्पन्न नहीं होता। सासादन गुणस्थान अपर्याप्तक अवस्थामें हो रहता है। पर्याप्तक होते-होते सासादन गुणस्थान विघट जाता है। द्वीन्द्रियसे लेकर असंज्ञो पञ्चन्द्रिय तक प्रथम गुणस्थान हो होता है अन्य गुणस्थान सम्भव नहीं हैं [ द्वितोय गुणस्थान में मरण कर विकलत्रयों में उत्पन्न होने वाले जीवोंके अपर्याप्तक अवस्थामें द्वितीय गुणस्थान भी सम्भव होता है ] 1 पञ्चेन्द्रियों में सभी गुणस्थान होते हैं । स्थावरोंमें आदिके दो गुणस्थान सम्भव हैं अन्य नहीं। त्रसोंमें निश्चयसे सभो गुणस्थान होते हैं ।। १०-१२ ।। आगे योग मार्गणाको अपेक्षा चर्चा करते हैं--
चतुर्यु चित्तयोगेषु वायोगेषु तथैव च ॥ १३ ॥ गुणस्थानानि सन्त्यत्र प्रथमाडू याब द्वादशम् । सत्यानुभययोगेषु वचोमानसयोस्तथा ।। १४ ।। आद्य त्रयोदशजेया गुणस्थानसमूहकाः । ओरालमिश्रके बोध्यमाद्यं चापि द्वितीयकम् ॥ १५॥ चतुर्थ चापि जीवानां सयोगे च त्रयोदशम् । औदारिके तु बोध्यामि सान्यायानि प्रयोवरा ॥ १६ ।।
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आहारके तस्मिक्षे च षष्ठमेकं भवेदिह । वेत्रिपिके भवेवायं गुणस्थानवतुष्टयम् ॥ १७ ॥ तन्मिये नन विजेयं ततीयस्थानमन्तरा। कार्मणे काययोगे च प्रथमं च द्वितीयकम् ॥१८॥ चतुर्थ च समुधातगतकेवल्यपेक्षया।
त्रयोदशं मवेज्जातु समयत्रितयावधि ॥ १९॥ अर्थ-चार मनोयोगों और चार वचनयोगोंमें प्रथमसे लेकर द्वादश तक गुणस्थान होते हैं। सत्य मनोयोग और अनुभय मनोयोग तथा सत्य वचनयोग और अनुभय बचनयोगमें आदिके तेरह गुणस्थान होते हैं। औदारिक मित्रकाययोगमें पहला, दूसरा, चौथा और कपाट समुद्घात गतसयोग केवलीको अपेक्षा तेरहवाँ गुणस्थान होता है ।
औदारिक काययोगमें आदिके तेरह गुणस्थान जानना चाहिये । आहारक और आहारकमिश्र काययोगमें एक छठवां हो गुणस्थान होता है । वैक्रियिक काययोगमें आदिके चार गुणस्थान होते हैं परन्तु वैक्रियिक मिश्र काययोगमें तृतीय गुणस्थान नहीं होता और कामंण काययोगमें पहला, दूसरा, चौथा और समुद्घात केवलीको अपेक्षा तेरहशा गुणस्थान होता है। कार्मण काययोग अधिकसे अधिक तोन समय तक हो रहता है ।। १३-१६॥ आगे वेद, कषाय और ज्ञान मार्गणामें गुणस्थानोंका वर्णन करते हैं
आधानि स्युः सवेदानां नवधामानि भावतः । अभ्यस्त्रीणां तु विजेयं प्रथमात्पञ्चमावधिः ।। २०॥ सकषायस्य जोषस्य बराधामानि सन्ति हि । निष्कषायस्थ बोध्यायेकाशप्रभृतीनि ॥ २१ ॥ मतिश्रुतावधिज्ञाने चतुर्थाद्वादशावधिम् । मनःपर्ययबोधे तु षष्टाव द्वादशावधिम् ॥ २२ ॥ केवले च भवेवन्य युगलं गुण धामकम् । कुमतो कुश्रुते पाने विभङ्गे च नियोगतः ।। २३ ॥
प्रथम द्वितयं ज्ञेयं गुणस्थानं शरीरिणाम् । अर्थ--भाव वेदकी अपेक्षा सवेद जीवोंके आदिके नौ गुणस्थान होते हैं परन्तु द्रव्य स्त्रियोंके प्रथमसे लेकर पञ्चम तक गुणस्थान होते हैं। कषाय सहित जीवोंके प्रारम्भके दश गुणस्थान होते हैं और कषाय रहित जीवोंके एकादश आदि गुणस्यान होते हैं । मतिज्ञान, ध्रुतज्ञान
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः और अवधिज्ञानमें चतुर्थसे लेकर बारहवें तक गुणस्थान होते हैं । मनःपर्यय ज्ञानमें षष्ठ गुणस्थानसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक सात गुणस्थान होते हैं। केवलज्ञानमें अन्तके दो मुणस्थान होते हैं। कुमति, कुश्रुत और विभङ्ग ज्ञानमें आदिके दो गुणस्थान होते हैं [ तृतोय गुणस्थानमें मिश्र ज्ञान होता है ] || २०-२३ ।। आगे संयम मार्गणामें गुणस्थान कहते हैं
सामायिके तथा छेदोपस्थापनसुसंयमें ॥ २४ ॥ षष्ठान्नयमपर्यन्त गुणस्थानं भवेदिह । परिहारविशुद्धौ तु षष्ठं च सप्तमं स्मृतम् ॥ २५ ॥ सूक्ष्मादिसाम्पराये च दशमं हाकमेव तु । एकादशावितो ज्ञेयं यथाख्याताह संयमे ।। २६ ॥ संयमासंयमे ोकं पञ्चमं धामसंमतम् ।
असंयमे तु चत्वारि प्रयमादीनि सन्ति हि ॥ २७ ॥ अर्थ-सामायिक और छेदोपस्थापन संयममें छठवेंसे लेकर नौवें तक गुणस्थान होते हैं। परिहार विशुद्धि में छठवां और सातवां गणस्थान होता है । सूक्ष्मसापरायमें एक दशम गणस्थान ही होता है और यथाख्यात संयममें एकादश आदि गणस्थान हैं। संयमासंयममें एक पञ्चम गुणस्थान और असंयममें प्रथमसे लेकर चतुर्थ तक चार गुणस्थान होते हैं ॥ २४-२७ ॥ आगे दर्शन, लेश्या और भव्यत्व मार्गणामें गुणस्थान कहते हैं
लोचनदर्शने चाप्पचक्षुर्वर्शन के तथा । आदितो द्वादशं यावत् गुणधामानि सन्ति वै ।। २८ ।। अवधिवर्शनं ज्ञेयं चतुर्थाद् द्वादशावधिम् । केबलवर्शते ज्ञेयमन्तिमद्वितयं तथा ।। २९ ।। कृष्णा मोला च कापोता प्रथमात् स्यात्तुर्यावधिम् । पीता पद्मा च विज्ञया प्रथमात्सप्तमावधिम् ॥ ३० ॥ शुक्ला लेश्या चविज्ञवा ह्याधाद् यायत त्रयोदशम् । भय्यत्वे गुणधामानि भवन्ति निखिलान्यपि ।। ३१॥
अभध्ये प्रथमं शेयं नियमाद् भवयासिनि । अर्थ-चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन में प्रारम्भसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक बारह गुणस्थान होते हैं । अवधि दर्शनमें चतुर्थसे लेकर
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१२७ बारहवे तक गुणस्थान होते हैं और केवल दर्शन में अन्तके दो गुणस्थान माने जाते हैं। कृष्ण, नोल और कापोत लेश्या प्रथमसे चतुर्थ गुणस्थान तक होती है। पोत और पद्म लेश्या प्रथमसे सप्तम तक होतो है और शुक्ल लेश्या प्रथमसे तेरहवें गुणस्थान तक होती है। भव्यत्व मार्गणामें सभी गुणस्थान होते हैं परन्तु सदा संसारमें ही निवास करने वाली अभव्यत्य मागंणामें नियमसे पहला ही गुणस्थान होता है ।। २८-३१ ।। आगे सम्यक्त्व, संज्ञो और आहारक मार्गणामें गुणस्थान बताते हैं
आद्योपशमसम्यक्त्वे मायोपशमिके तया ।। ३२ ॥ चतुर्थात्सप्तमान्तानि गुणस्थानानि सन्ति । सायिके तु चतुर्थाविनिखिलान्यापि भवन्ति हि ॥ ३३ ॥
जोशमे के मौकामावलिम ! संशिनि गुणधामानि भवन्ति द्वादशावधिम् ॥ ३४ ॥ असंशिनि अवेवाचं केवलिनी स्ति तद द्वयम् । अनाहारे भषेबाचं द्वितीयं च चतुर्थकम् ।। ३५ ।। चतुर्दशं च विशेयमाहारस्य निरोधतः। आहारके तु योध्यानि ह्याधापेव प्रयोदश ।। ३६ ॥ इत्यं च मार्गणास्थाने गुणस्थाननिदर्शनम् । संक्षेपाद्विहितं धिनस्यं ध्यानस्येन सुयोगिना ॥ ३७ ।। एवं चिन्तयश्चित्तं विषयेभ्यो निवर्तते ।
निर्जरा विपुला च स्यात् कर्मणां दुःखदायिनाम ॥ ३८ ॥ अर्थ-प्रथमोपशम सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्वमें चतुर्थसे लेकर सप्तम तक गुणस्थान होते हैं। क्षायिक सम्यग्दर्शनमें चतुर्थसे लेकर सभी गणस्थान हैं और द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें चतुर्थसे लेकर एकादश तक गुणस्थान होते हैं [ सम्यक्त्व मार्गणाके भेद सम्यग्मिध्यात्वमें तृतीय, सासादन में द्वितीय और मिथ्यात्वमें प्रथम गुणस्थान जानना चाहिये ] । संजी मार्गणामें प्रथमसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक बारह और असंज्ञी मार्गणामें प्रथम गुणस्थान हो होता है । सासादन गुणस्थानमें मरकर एकेन्द्रियों में उत्पन्न होनेवाले जोवोंके अपर्याप्तक दशामें दूसरा गुणस्थान भी सम्भव है ] | केवली भगवान्के संज्ञी और असंज्ञोका व्यवहार नहीं होता है। अनाहारक मार्गणामें पहला, दूसरा, चौथा और चौदहवाँ गुणस्थान होता है [ समुद्घातको अपेक्षा तेरहवाँ गुणस्थान भी होता है ] । आहारक मार्गणामें आदिके तेरह
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सम्यवारिन्न-चिन्तामणिः गुणस्थान जानना चाहिये । इस प्रकार मार्गणा स्थानोंमें गुणस्थानोंका निर्देश संक्षेपसे किया है। ध्यानस्थ मुनिको इसका चिन्तवन करना चाहिये। ऐसा चिन्तवन करने वाले योगीका चित्त विषयोंसे हट जाता है और उससे दुःखदायक कोको अत्यधिक निर्जरा होती है ।। ३२.३० ।। अब आगे मार्गणाओंमें सम्यग्दर्शनका वर्णन करते हैं
इतोऽग्ने मार्गणामध्ये सम्यग्दर्शनमुच्यते । श्वम्रगत्यनुधावेन प्रथमायो क्षिती भवेत् ॥ ३९ ॥ पर्याप्तकेषु सम्यक्त्वभेवानां त्रितयं पुमः। अपर्याप्तकेषु विशेयोपमिकमन्तरा ॥ ४० ॥ आयतरासु पृथ्वीषु पर्याप्तानां मवेद्वयम् । क्षायिक तत्र नास्त्येवापर्याप्तेषु न किञ्चन ॥ ४१॥ तिर्यग्गत्यनुवादेन तिरश्चां भोगभूमिषु । पर्याप्तानां भवेद् भवत्रयं भव्यत्व शालिनाम ॥ ४२ ।। अपर्याप्तेषु विज्ञेयमोपशामिकमतरा। कर्मभूमिजतिया क्षायिकेण विना भवेत् ।। ४३ ।। द्वयं सम्यक्त्वभेवानां पर्याप्तत्वविशुम्मताम् । अपर्याप्सेषु नास्त्ये सम्यग्दर्शनसौरभम् ॥ ४४ ॥ पर्याप्तेषु मनुष्पेषु त्रिविधा वर्तते सुदृक् । अपयप्तेिषु नास्स्पेम मोहोपशमजा सुदा ॥ ४५ ॥ पूर्णसुवष्यनारीषु क्षायिकी दुग न वर्तते। अपूर्णब्रव्यभामासु गन्धोऽपि न वृशो भवेत् ॥ ४६॥ देवगत्यनुवादेन देवेषु द्विविधेष्वपि । अपर्याप्तासु नास्त्येव सम्यग्दर्शनसौरभम् ॥ ४७ ।। वानादिदेव देवीषु पर्याप्तासु भवेद्वयम ।
अपर्याप्तासु सम्यक्त्व-भेवो नास्त्येष कश्चन ॥ ४८ ।। अर्थ- यहाँसे आगे मार्गणाओंमें सम्यग्दर्शन कहा जाता है अर्थात् किस-किस मार्गणामें कौन-कौन सम्यग्दर्शन होता है, यह कहते हैं । नरकगतिको अपेक्षा प्रथम पृथिवीमें पर्याप्तक नारकियोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं परन्तु अपर्याप्तक नारकियोंके औपशमिक सम्यग्दर्शन नहीं होता है। तात्पर्य यह है कि प्रथम पृथिवो तक सम्यग्दृष्टि जा सकता है परन्तु औपशमिक सम्यग्दृष्टि मरकर देवगतिके सिवाय अन्य गतियों में नहीं जाता, इसलिये यहाँ उसका अभाव बतलाया है ।
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१२६ द्वितोयादिक पृथिवियोंमें पर्याप्तकोंके क्षायिकके बिना दो सम्यक्त्व हो सकते हैं परन्तु अपर्याप्तकोंके एक भी सम्यग्दर्शन नहीं होता।
तिर्यग्गतिको अपेक्षा भोगभूमिमें पर्याप्तक भव्य तिर्यञ्चोंके तोनों सम्यग्दर्शन होते हैं परन्तु अपर्याप्तकोके औपशमिक सम्यक्त्व नहीं होता। कर्मभूमिज पर्याप्तक तिर्यञ्चोंमें क्षायिकके बिना दो सम्यक्त्व होते हैं परन्तु अपर्याप्तकोंके सम्यग्दर्शनको सुगन्ध नहीं रहती। तात्पर्य यह है कि जिसने तिर्यमायुका बन्ध करनेके बाद सम्यक्त्व प्राप्त किया है ऐसा मनुष्य नियमसे भोगभूमिका हो तिर्यञ्च होता है, कर्मभूमिका नहीं। अतः कर्मभमिके अपर्याप्तक तिर्यञ्च सम्यक्त्वका अभाव रहता है। पर्याप्तक अवस्थामें औपमिक और क्षायोपशमिक नवीन उत्पन्न हो सकते हैं, इसलिये उनका सद्भाव बताया है।
पर्याप्तक मनुष्योंमें तोनों सम्यग्दर्शन होते हैं, परन्तु अपर्याप्तक मनुष्योंके औपशमिक सम्यग्दर्शन नहीं होता है। पासक प्रध्य स्त्रियाक क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता, नवोन उत्पत्तिको अपेक्षा शेष दो होते हैं परन्तु अपर्याप्तक स्त्रियोंके सम्यग्दर्शनका लेश भो नहीं होता है उसका कारण है कि सम्यग्दष्टि जीव द्रव्य-स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होता।
देवगतिकी अपेक्षा पर्याप्तक-अपर्याप्तक—दोनों प्रकारके भव्य देवों में तोनों सम्यग्दर्शन होते हैं। इसका कारण है कि द्वितीयोपशममें मरा जोव वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है। अतः अपर्याप्तक अवस्था में भो औपशमिकका सदभाव सम्भव है । पर्याप्त क देवियोंमें क्षायिक सम्य. ग्दर्शन नहीं होता, नवीन उत्पत्तिको अपेक्षा शेष दो सम्भव हैं। अपर्याप्तक देवियों के सम्यग्दर्शनकी गन्ध नहीं है। भवनत्रिक सम्बन्धो पर्याप्तक देव-देवियोंके नवीन उत्पत्तिको अपेक्षा औपशमिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यग्दर्शन होते हैं, अपर्याप्तकों के सम्यग्दर्शनका कोई भेद नहीं होताक्योंकि सम्यग्दृष्टिको उनमें उत्पत्ति नहीं होती ।। ३६-४८|| आगे इन्द्रिय, काय, योग, बेद और ज्ञानमार्गणाकी अपेक्षा सम्यग्दर्शनका वर्णन करते हैं---
एकेन्द्रियात्समारभ्या संज्ञिपश्चाक्षदेहिषु । नास्त्येकमपि सम्यक्त्वं दोर्गत्येन युतेषु वै॥४९॥ पञ्चेन्द्रियेषु जायेत सम्यक्त्वत्रितयं पुनः । स्थावरेषु च सम्यक्त्वं विद्यते नात्र किञ्चन ॥ ५० ॥ असेषु त्रिविधं ज्ञेयं सम्यक्त्वं पुष्पशालिषु । योगत्रयेण मुक्तषु सम्यक्त्वत्रितयं भवेत् ॥ ५१ ॥
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सभ्यक्चारित्र-चिन्तामणिः
अयोगेषु भवेदेकं क्षायिकं नेतरत्तु तत् । एकद्वियोग युक्तेषु सम्यक्त्वं नास्ति किञ्चन ।। ५२ ॥ वेदत्रयेण युक्तेषु जायते त्रिविधं तु तत् । भावतो, न तु ब्रध्यस्त्री क्षायिकं लभते क्वचित् ॥ ५३ ॥ गतवेदेषु जायेत द्वितयं वेवकं विना । क्षोणमोहादिषु ज्ञेयं केवलं क्षायिकं तु तत् ॥ ५४ ॥ क्षायोपशमिकज्ञानचतुष्केण विशोभिषु । त्रयः सम्यक्त्वमेवाः स्युः, क्षायिकज्ञानशालिषु ॥ ५५ ॥ के लिए अचेबेक क्षायिक नैतरत्पुनः । मन:पर्यययुक्तेषु शमजं नव जायते ।। ५६ ।।
अर्थ – इन्द्रियानुवादको अपेक्षा खोटो गति से युक्त, एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञो पञ्चेन्द्रिय तकके जोवोंके एक भो सम्यग्दर्शन नहीं होता । पञ्चेन्द्रिय जीवोंमें तोनों सम्यक्त्व होते हैं । काय मार्गणाको अपेक्षा स्थावरोंमें कोई भी नहीं होता प तोनों प्रकारका सम्यक्त्व होता है । योगमार्गणाको अपेक्षा तोनों योगोंसे युक्त जीवों में तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, अयोगियोंके एक क्षायिक ही होता है अन्य दो नहीं होते । एक योग वाले -स्थावरोंके और दो योग वाले- दोन्द्रियसे लेकर असंज्ञो पञ्चेन्द्रिय तक के जीवों को कोई भो सम्यक्त्व नहीं होता । वेदमागंणाको अपेक्षा तीनों भाव वेदोंसे युक्त जोबोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं परन्तु द्रव्य-स्त्री कहीं भी क्षायिक सम्यक्त्वको प्राप्त नहीं होती । अपगत वेदो जीवोंके क्षायोपशमिक को छोड़कर औपशमिक और क्षायिक, ये दो सम्यग्दर्शन होते हैं परन्तु अपगत वेदियों में जो क्षीणमोहादि गुणस्थानवर्ती हैं उनको एक क्षायिक हो जानना चाहिये। ज्ञानमार्गेणाको अपेक्षा चार क्षायोपशमिक ज्ञानों से सहित जीवोंके सम्यक्त्वके तोनों भेद होते हैं परन्तु क्षायिक ज्ञानसे सुशोभित केवलियोंके एक क्षायिक सम्यक्त्व हो होता है शेष दो नहीं । क्षायोपशमिक ज्ञानों में मन:पर्ययज्ञान से युक्त जीवोंके औपशमिक सम्यग्दर्शन नहीं होता ।। ४६-५६ ।।
आगे संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञो और आहारमार्गणाको अपेक्षा सम्यग्दर्शनका कथन करते हैं---
सामायिके तथा छेवोपस्थापन विशोभिते । श्रयः सम्यक्त्वमेयाः स्युराम पौरुषशालिनाम् ॥ ५७ ॥
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नवम प्रकाश
परिहारविशुद्धघाट्ये शमजं नास्ति सर्वया । सूक्ष्मादि साम्पराये तु श्रेदकं नैव विद्यते ।। ५८ ।। यथाख्याते तु विज्ञेयं क्षायिकं शमजं तथा । केवलदर्शनादयेषु केवलं क्षायिकं भवेत् ॥ ५९ ॥ अन्यदर्शन युक्तेषु त्रिविधमपि सम्भवेत् । सलेश्यानां त्रयो भेदा अलेश्यानां तु क्षायिकम् ॥ ६० ॥ त्रिविधं जायते भव्ये त्वभव्ये नास्ति किञ्चन । सम्यक्त्वानुवावेन वर्तते यत्र मा भिदा ।। ६१ ॥ तत्रैव सापरिशेया सिद्धान्तानुगमोद्यतेः । सम्यक्त्वस्य त्रयो भेदा: संज्ञिनां देहधारिणाम् ।। ६२ ।। जायन्तेऽसंज्ञिनां किन्तु हृोकं नापि प्रजायते । आहारकेऽप्यनाहारे त्रयो भेदा भवन्ति हि ॥ ६३ ॥ शमजं किन्त्वनाहारे निर्जरगत्यपेक्षया । शम्रजेन युतो मृत्वा देवेष्वेवोपजायते ॥ ६४ ॥
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अर्थ- संयममार्गणाकी अपेक्षा सामायिक और छेदोपस्थापना संयमसे सहित आत्मपुरुषार्थी जीवोंके सम्यक्त्वके तीनों भेद होते हैं परन्तु परिहारविशुद्धि वालेके औपशमिक सम्यग्दर्शन नहीं होता । सूक्ष्मसाम्पराय संयम में वेदक सम्यग्दर्शन नहीं होता । यथाख्यातसंयम में क्षायिक और औपशमिकसम्यग्दर्शन जानना चाहिये | दर्शनमार्गणा को अपेक्षा केवल दर्शनसे युक्त मनुष्यो के मात्र क्षायिकसम्यक्त्व होता है शेष तीन दर्शनोंसे सहित जीवोंके तोनों सम्यग्दर्शन होते हैं । लेश्यामार्गणा को अपेक्षा सरेश्यजीवोंके तीनों भेद होते हैं, परन्तु अलेश्यलेश्या रहित जीवोंके मात्र क्षायिकसम्यक्त्व होता है । भव्यत्वमागंणा को अपेक्षा भव्यजोव के तोनों सम्यक्त्व होते हैं पर अभव्य के एक भी नहीं होता । सम्यक्त्वमार्गणाको अपेक्षा जहाँ जो भेद है सिद्धान्तशास्त्र के जानने में उद्यत मनुष्यों को वहाँ वही भेद जानना चाहिये । संज्ञी मार्गणाकी अपेक्षा संज्ञो जीवके तोनों सम्यग्दर्शन होते हैं किन्तु असंज्ञीजोदके एक भी सम्यग्दर्शन नहीं होता । आहारकमार्गणाकी अपेक्षा आहारक और अनाहारक- दोनों प्रकार के जीवोंके सम्यग्दर्शन के तीनों भेद होते हैं परन्तु अनाहारक अवस्था में औपशमिकसम्यग्दर्शन देवगति की अपेक्षा हो जानना चाहिये क्योंकि औपरामिकसम्यग्दर्शन के साथ मरा जोव देवोंमें ही उत्पन्न होता है ।। ५७-६४ ।।
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सम्यमारित्र-चिन्तामणिः आगे इस प्रकरणका समारोप करते हैं--- एवं सवं चिन्तयन्तः पुमास
श्चिन्ताकाले स्थीयचित्तं समन्तात् । पञ्चाक्षाणो दीर्घदुःखप्रवानां
द्वन्द्वाद् दूरीकृत्य सुस्था भवन्ति ॥ ६५ ॥ अर्थ-इस प्रकार इस सबका चिन्तन करने वाले पुरुष चिन्तनके कालमें अपने मन को अत्यधिक दुःख देनेवाले पञ्चेन्द्रियोंके द्वन्द्वइष्टानिष्ट विकल्प को दूरकर सुखी होते हैं ।। ६५ ॥ इस प्रकार सम्यक् चारित्र चिन्तामणिमें ध्यान सामग्रीका
वर्णन करने वाला नवम प्रकाश पूर्ण हुआ।
दशमप्रकाशः आर्यिकाणां विधिनिर्देशः
मंगलाचरणम् नाहं क्लीवो नव भामा पुमांश्च
__ नाहं गौरी नंव कृष्णो न पीतः । एते सर्वे सन्ति देहप्रपञ्चा
स्तेभ्यो मिन्नः शुद्धचिम्मानमात्मा ।। १ ।। एवं ध्यात्वा ये स्वरूपे निलीना
रागद्वेषाद ये विरक्ताश्च जाताः । तान् निग्रन्थान मोहमायाव्यतीतान्
भूयोभूयो भूरिशः संनमापि ।। २॥ अर्थ-मैं नपुंसक नहीं हूँ, मैं स्त्री नहीं हूँ, मैं पुरुष नहीं हूँ, मैं गोरा नहीं हूँ, मैं काला नहीं हूँ और मैं पोला नहीं हूँ। ये सब शरीर के प्रपन्च हैं। आत्मा इन सबसे भिन्न शुद्ध चैतन्य मात्र है। ऐसा ध्यान कर जो स्वरूप में लोन हैं और जो राग-द्वेषसे विरक्त हो चुके हैं, मोह मायासे रहित उन निम्रन्थ मुनियों को मैं बार-बार अत्यधिक नमस्कार करता हूँ॥१२॥
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दशम प्रकास
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आगे आयिकाओंको विधिका वर्णन करते हैं--
अथार्याणां विधि वक्ष्ये भामानां हितसिद्धये । यथागमं यथाबुद्धि प्रणिपत्य मुनीश्वरान् ॥ ३ ॥ जोवाः सम्यक्त्वसंपन्ना मृत्वा नार्यों भवन्ति नो। तथापि ताः स्वयं शुद्धचा लभन्ते सुदृशं पराम् ॥ ४ ॥ सीता सुलोचना राजी भत्याचा बहवः स्त्रियः।
विधृत्याव्रितं नूनं प्रसिद्धाः सन्ति भूतले ॥ ५ ॥ अर्थ-अब स्त्रियों के हितको सिद्धि के लिये मुनिराजों को नमस्कार कर मैं आगम और अपनी बुद्धिके अनुसार आयिकाओंकी विधि कहंगा। यद्यपि सम्यग्दृष्टि जीव मरकर स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होने अनि स्त्रो पर्याय प्राप्त नहीं करते तथापि भावशुद्धिसे वे स्त्रियाँ स्वयं उत्कृष्ट, औपशमिक अथवा क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेतो हैं । सोता, सुलोचना और राजीमतो आदि बहुत स्त्रियाँ आर्यिकाके व्रत धारणकर निश्चित हो भूतल पर प्रसिद्ध हुई हैं ॥ ३.५ ॥ अब आगे कुछ निकट भन्यस्त्रियां श्री गुरुके पास जाकर आयिका. दोक्षाको प्रार्थना करतो हैं
काश्चन क्षीण संसारा विरक्ता गृहमारतः। विरज्य भवभोगेभ्यो गुरु पादान् समाश्रिताः॥ ६ ॥ निवेदयन्ति तान भक्त्या भीताःस्मोभवसागरात। हस्तावलम्बनं दत्त्वा भगवस्तारय द्रुतम् ।। ७ ।। न सन्ति केचनास्माकं न वयं नाथ कस्यचित् । इमे संसारसम्भोगा भान्ति नो नागसन्निभाः ॥ ८ ॥ एषो विष प्रभावेण चिरात सम्मुच्छिता वयम्। अद्यावधि न विज्ञातं स्वरूपं हा निजात्मनः ॥ ९ ॥ ज्ञातादृष्टस्वभावाः स्मो देहाद भिन्नस्वरूपकाः । एतद् विस्मृत्व सर्वेषु नान्ताः स्वत्वधिया चिरात् ॥१०॥ पुण्योदयात्परं ज्योतिः सम्यक्त्वं मार्गदर्शकम् । अस्माभिलंबधमस्त्यत्र पश्पामस्तेन शाश्वतम् ।। ११ ।। आत्मानं सुखसम्पन्न ज्ञानवर्शनसंयुतम् । एतल्लध्या वयं तृप्ताः सततं स्वात्मसम्पदि ॥ १२॥ अतो विरज्य भोगेभ्यो भवदन्तिकमागताः । प्रार्थयामो वयं भूयो भूयो वीक्षा प्रदेहि नः ।। १३ ।।
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सम्यक्चारित-चिन्तामणिः वाष्पायरद्धकण्ठास्ता रोमाञ्चितकलेवराः।
शुश्रूषधो गुरोर्वाक्यं तृष्णीभूताः पुरः स्थिताः ॥ १४ ॥ अर्थ--जिनका संसार क्षोण हो गया है तथा जो गृहभारसे विरक्त हो चुकी हैं ऐसी कुछ स्त्रियां संसार सम्बन्धो भोगों से विरक्त हो गुरु चरणों के पास जाकर उनसे भक्तिपूर्वक निवेदन करती हैं. हे भगवन ! हम संसार सागरसे भयभीत हैं अतः हस्तावलम्बन देकर शीघ्र हो तारोपार करो। हमारे कोई नहीं हैं और हम भी किसीके कोई नहीं हैं। ये संसारके भोग हमें नामके समान प्रतिभासित होते हैं। इनके विष प्रयोगसे हम चिरकालसे मूच्छित हो रही हैं । खेद है कि हमने आज तक अपनो आत्माका स्वरूप नहीं जाना । हम शरोरसे भिन्न ज्ञाता, द्रष्टा स्वभाव वालो हैं। यह भुलकर हम सब पदार्थों में आत्मबुद्धि होने के कारण चिरकालसे भटकती आ रहो हैं 1 पुण्योदयसे हमने मार्गदर्शक सम्यक्त्वरूपो उत्कृष्ट ज्योति को प्राप्त कर लिया है। उस ज्योतिसे हम नित्य, सुख संपन्न तथा ज्ञानदर्शनसे सहित आत्मा को देख रही हैं-उसका अनुभव कर रहो हैं। इस सम्यक्त्व को प्राप्तिसे हम निरन्तर अपनो आत्मसम्पदामें संतुष्ट रहतो हैं। अतः भोगासे विरक्त होकर आपके पास आई हैं तथा बार-बार प्रार्थना करती हैं कि हमें आर्यिकाको दोक्षा दीजिये। यह कहते कहते जिनके कण्ठ वापसे अवरुद्ध हो गये थे तथा शरोर रोमाञ्चित हो उठा था, ऐसी वे स्त्रियां गुरु वचन सुनने को इच्छा रखतो हुई उनके सामने चुपचाप बैठ गईं ॥ ६-१४ ॥ आगे गुरुने क्या कहा, यह लिखते हैं
तासां मुखाकृति दृष्ट्वा परोक्षप मध्य भावनाम् । मुरुराह परप्रीत्या श्रेयोऽस्तु भववात्मनाम् ॥ १५ ॥ आर्याधीक्षा गृहीत्वा भो निर्वृता भवतद्रुतम् । संसाराविधरयं सत्यं दुःखदो देहधारिणाम् ॥ १६ ॥ बिरला एव सन्तीर्णा भवस्यस्मात् स्वपौषात् ।
सत्यं क्षीणभया भूयं विरक्तास्तेन भोगतः ।। १७ ॥ अर्थ-उनको मुखाकृति देख तथा भव्य भावना को परोक्षा कर श्री गुरु बड़ी प्रीतिसे बोले-आप सबको आत्माका कल्याण हो। आप लोग आयिवाकी दोसा लेकर शीघ्र हो संतुष्ट होवें। सचमुच ही यह संसार सागर प्राणियों को दुःख देने वाला है। बिरले हो जीव अपने
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दशम प्रकाश
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पुरुषार्थसे इस संसार सारस पार होते हैं। यथार्थमें आपका संसार क्षीण हो गया है इसीलिये भोगोंसे विरक्ति हुई है ॥ १५-१७ ॥ आगे श्री गुरु उन्हें आयिकाके व्रत का उपदेश देते हैं
महावतानि सन्धत समितीनां च पञ्चशम् । पञ्चेन्द्रियजयः कार्यः षडावश्यकपालनम् ॥ १८॥ विधिना नित्यशः कार्य न कुर्याद् दन्तधावनम् । एकवारं दिवाभोज्यमुपविश्य सुखासनात् ॥ १९ ॥ हस्तयोरेवभोक्तव्यं न तु धात्वाविभाजने । शुभंकाशाटिका घार्या मिताषोडशहस्तकः ॥ २० ॥ भूमिशय्या विधासध्या रजन्याश्चोभागके । कचानां लुचन कार्य स्वहस्ताभ्यां नियोगतः ।। २१ ॥ मासवयेन मासैस्तु त्रिभितिचतुष्टयात् । गणिन्या सहकर्तव्यो निवासो रक्षितस्थल ॥ २२ ।। चर्यार्थ सहगन्तव्यं नगरे निगमे तथा। अन्याभिः सह साध्वीभिः श्रावकःणां गृहेषु वै ।। २३ ।। एकाकिन्या विहारो न कर्तव्यो जातचित क्वचित् । आचार्याणां समोपेऽपि न गच्छेदेकमात्रका ।। २४ ॥ गणिग्या सामन्यामिद्विवाभिर्वा सह व्रजेत् । सप्तहस्तान्तरे स्थित्वा विनयेनोपविश्य वा ॥ २५॥ प्रश्नोत्तराणि कार्याणि सार्धमन्यतपस्विभिः । गहिणीजनसम्पकों ने कार्यों बिकथाकृते ।। २६ ।। जिनवाणीसमभ्यासे कार्यः कालस्य निर्गमः । काले सामायिक कार्य स्वाध्यायः समये तथा ।। २७ ।। पादयात्रेव कर्तव्या न जात वाहनाश्रयः ।। अग्नेः सन्तापनं शीते न चौधण्ये जलसेचनम् ॥ २८।। कार्य विहार काले च पादाणं न धारयेत् ।
इदमार्यावतं प्रोक्तं भवतीनां पुरो मया ॥ २९ ॥ अर्थ-महाव्रत धारण करो, पांच समितियों का पालन करो, पञ्चेन्द्रियविजय करो, पदके अनुरूप नित्य हो विधिपूर्वक षडावश्यकका पालन करो, दन्त धावन न करो, दिनमें एक बार सुखासन--- पालथोसे बैठकर हाथों में भोजन करो, धातु आदिके पात्रों में भोजन नहीं करो, सोलह हाथ की एक सफेद शाटो धारण करो, रात्रिके उत्तरार्धमें
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सम्यक्वारित्र-चिन्तामणिः जमोन पर शयन करो। दो माह तीन माह अथवा चार माह में नियमसे अपने हाथोंसे केश लोंच करो। तुम्हें गणिनोके साथ सुरक्षित स्थानमें निवास करना चाहिये । चर्या-आहारके लिये नगर अथवा ग्राममें अन्य आयिकाओंके साथ श्रावकों के घर जाना चाहिये । कभी भी और कहीं भी अकेली विहान करावाहिणे, शालार्मोके पास भी अकेली नहीं जाना चाहिये । गणिनी या अन्य दो तीन आयिकाओं के साथ जाना चाहिये 1 विनयसे सात हाथ दर बैठकर अन्य साधुओं के साथ प्रश्नोतर करना चाहिये। विकथा करने के लिये गहस्थ स्त्रियोंका संपर्क नहीं करना चाहिय। जिन वाणोके अभ्यास में समय व्यतीत करना चाहिये । समय पर सामायिक और समय पर स्वाध्याय करना चाहिये। विहार के समय पैदल यात्रा हो करना चाहिये। सवारोका आश्रय कभी नहीं करना चाहिये। शीतकालमें अग्नि का तापना और ग्रोष्मकाल में पानोका सींचना नहीं करना चाहिये और चलते समय पादत्राण नहीं रखना चाहिये । आप लोगों के सामने मैंने यह आयिकाके व्रतका वर्णन किया है ॥ १८-२६ ।। आगे क्षुल्लिकाके अतका वर्णन करते हैं-...
एतस्य धारणे शक्तिनंचेद् यो बर्तते क्वचित् । शादि कोपरि सन्चार्य एकोत्तरपटस्ततः ।। ३० ।। आयिकाणां यतं नूनं तुल्यमस्ति महावतेः। अतस्ताः योग्यमानेन प्रतिग्राह्याः सुवातृभिः ॥ ३१॥ क्षुल्लिकाणां व्रतं किन्तूत्तमश्रावकसन्निभम् ।
गुणस्थानं तु विज्ञेयं पञ्चमं द्विकयोरपि ।। ३२ ।। अर्थ-ईस आयिका ब्रतके धारण करने में यदि कहों तुम्हारो शक्ति नहीं हो तो धोतोके ऊपर एक चादर धारण किया जा सकता है। सचमुच आयिकाका नत महात्रताके तुल्य है अर्थात् उपधारसे महावत कहा जाता है। अतः दान-दाताओं को उन्हें उनके पदके योग्य सन्मानसे पडिगाहना चाहिये । क्षल्लिकाओंका व्रत उत्तम श्रावक-यारहवों प्रतिमाके धारक के समान है। आर्यिका और क्षुल्लिका दोनोंके पञ्चम गुणस्थान जानना चाहिये ।। ३०-३२ ॥ आगे श्री गुरुकी वाणी सुनकर उन स्त्रियों ने क्या किया, यह कहते हैं
इत्थमाचार्य वक्त्रंन्दु निःस्मृतां वचनावलीम् । सुधाधारायमाणां तां पीत्वाह्याप्यायिताश्चिरम् ।। ३३ ॥
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दर्शन प्रका
गृहीत्वार्याव्रतं सद्यो जाताः शान्तिसुमूर्तयः । शुकवसताः साध्व्यो मुखविभ्रमवजिताः ॥ ३४ ॥ वात्सल्य मूर्तयः सन्ति
सत्य रक्षणतत्पराः ।
सोता राजमत्याद्याश्चन्दनाद्याश्च साध्यिकाः ।। ३५ ।। विहरन्तु चिरं लोके कुर्वाणा धर्मदेशनाम् । आत्मश्रेयः पथं नृणां दर्शयन्त्यः सनातनम् ॥ ३६ ॥
अर्थ - इस प्रकार आचार्य महाराजके मुखचन्द्र से निकली, अमृत धारा के समान आचरण करने वालों वचनावलीको पोकर श्रवण कर वे सब स्त्रियां चिरकालके लिये संतुष्ट हो गईं। वे सब आर्थिकके व्रत ग्रहण कर शान्ति को मूर्तियां बन गईं। जो सफेद रंगको एक साड़ी धारण करतो हैं, मुखके विश्रम हावभाव आदिसे रहित हैं, वात्सल्यको प्रतिकृति स्वरूप हैं और जीवरक्षा में तत्पर रहतो हैं ऐसी सोता आदि, राजो मतो आदि और चन्दना आदि आर्यिकाएँ धर्म देशना करती तथा मनुष्यों के लिये आत्म-कल्याण का सनातन मार्ग दिखलाती हुई लोक में चिरकाल तक विहार करें ।। ३३-३६ ॥
विशेष अधिकाओंका विशद वर्णन मूलाचार में दिया गया है वहीं बताया गया है कि आयिकाओंको वयस्क, जितेन्द्रिय तथा भवभ्रमण भीरु आचार्यको ही गुरु बनाना चाहिये तथा उनको आज्ञानुसार वयस्क, वृद्ध आर्यिकाओं को साथ में रहना चाहिये । अकेली विहार नहीं करना चाहिये ।
आगे इस प्रकरण का समारोप करते हैं-
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याभिस्यक्ता मोहनिद्रा विशाला
याभ्योजाता
नेमिपाश्र्वादयस्ताः ।
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देवीतुल्यास्तीर्था कुमातृतुल्याः
साध्वयों में स्युर्मोनमार्गप्रणेत्रयः || ३७ ॥
अर्थ- जिन्होंने मोहरूरो विशाल निद्राका त्याग किया है, जिनसे नेमिनाथ तथा पार्श्वनाथ आदि महापुरुष उत्पन्न हुए हैं, जो देवोक समान तथा तोर्थङ्करोंको माताओंके समान हैं वे साध्वी- आर्यिकाएँ मेरे लिए मोक्षमार्ग पर ले जाने वाली हों ॥ ३७ ॥
इस प्रकार सम्यक् चारित्र-चिन्तामणि धार्थिका व्रतका वर्णन करनेवाला दशम प्रकाश पूर्ण हुआ ।
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सन्यच्चारित्र-चिन्तामणिः एकादशप्रकाश सल्लेखनाधिकार
मङ्गलाचरणम् सरलेखनां स्वात्महिताय धत्वा
मुनीन्द्रमार्गाव विचला न जाताः । मुनीश्वरास्तेऽद्य सुकोशलाया
दिशन्तु मां स्वात्महितस्य मार्गम् ॥ १ ॥ अर्थ-जो स्वकीय आत्माके हितके लिये सल्लेखना धारणकर मुनिराज के मार्गसे विचलित नहीं हुए, वे सुकोशल आदि मुनिराज मुझे आत्म-कल्याण का मार्ग बतावें ॥१॥ आगे सल्लेखना को उपयोगिता बताते हैं
यथा कश्चिद् विदेशस्यो माजयन् विपुलं धनम् ।
आयिमासुः स्वकं देशं विवेशस्य नियोगतः ॥ २ ॥ तद्धनं सार्धमानेतुं समथों नव जायते । तवा संक्लिष्टचेताः सन् हृदये बहु खिद्यते ।। ३ ॥ तथा मनुजः स्वस्थ प्रयत्नात सम्बितार्यकः । प्रयियासुः परं लोकमतल्लोकनियोगतः ॥ ४ ॥ तद्धनं सह सन्नेतुमसमर्थो यदा भवेत् । तदा दुःखेन सन्तप्तो विरौति कि करोम्यहम् ॥ ५ ॥ अनुभूय महाकष्टं वित्तमेतदाजितम् । साधं नेतुं न शक्नोमि प्रयासो मम निष्फलः ॥ ६ ॥ विलपन्तं नरं दृष्ट्वा करुणाकान्समानसः । विवेशस्याधिपः कश्चित् तस्मै ददाति पत्रकम् ।। ७ ।। एतत्पत्रं गृहीत्वा त्वं प्रयाहि स्वीयपत्तनम् । एतदूवित्तं त्वया सत्रावश्यं प्राप्तं भविष्यति ॥ ८ ॥ एवं दयालुराचार्यः परलोकं यियासवे । सल्लेखनाह्वयं पत्रं वस्था वदति भूरिशः ॥ ९ ॥ एतत्पत्र प्रभावेण त्यमेतन्निखिलं धनम् । परलोके नियोगेन प्राप्त्यस्येव न संशयः ।। १०॥ तात्पर्य मिवमेवात्र होतलोकस्य वैभवम् ।
परलोके निनीषुश्चेत् कुरु सल्लेखनां ततः ।। ११ ॥ १. ना पुरुषः ।
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एकादशं प्रकाश अर्थ-जिस प्रकार कोई विदेश में रहने वाला मनुष्य विपुल धन अर्जित करता है परन्तु जब स्वदेशको आनेकी इच्छा करता है तो उस देशके नियमानुसार वह उस धन को साथ लाने में समर्थ नहीं हो पाता। इस दशामें वह संक्लिष्ट चित्त होता हुआ बहुत दुःखी होता है। इसी प्रकार यह पुरुष अपने प्रयत्नसे बहुत धनका संचय करता है परन्तु जब वह परलोकको जाना चाहता है तब इस लोकके नियमानुसार उस धनको साथ ले जाने में समर्थ नहीं हो पाता, इस स्थितिमें वह दुःखसे संतप्त होता हआ रोता है, क्या करूं? महान् कष्ट सहकर मैंने यह धन उपाजित किया है परन्तु साथ ले जाने में समर्थ नहीं हैं, मेरा परिश्रम व्यर्थ गया। इस प्रकार विलाप करते हुए उस पुरुषको देखकर कोई दयाल विदेश का राजा उसके लिये एक पत्र देता है तथा कहता है कि तुम इस पत्र को लेकर अपने नगर जाओ, यह धन तुम्हें वहाँ अवश्य हो मिल जायेगा। इसी प्रकार दयाल आचार्य परलोक को जाने के लिये इच्छक पुरुष को सल्लेखना नामक पत्र देकर बार-बार कहते हैं कि तुम इस पत्रके प्रभावसे यह धन परलोको अवश्य ही प्राप्त कर लोगे, इसमें संशय नहीं है। तात्पर्य यही है कि यदि तुम इस लोक का बैभव परलोकमें ले जाना चाहते हो तो सल्लेखना करो।। २-११ ॥ आगे संन्यास सल्लेखना कबकी जातो है, यह कहते हुए उसके भेद बताते हैं
उपसर्गप्रतीकारे भिक्षे चापिभीषणे । च्यापाधापतिते घोरे संन्यासो हि विधीयते ॥ १२ ॥ संन्यासस्त्रिविधः प्रोक्तो जैनागमविशारवः। प्रथमो भक्तसंख्यानो द्वितीयश्चेङ्गिनीमृतिः ॥ १३ ॥ प्रायोपगमनं चान्त्यं कर्मनिर्जरणक्षमम् । यत्र यमनियमाभ्यामाहारस्त्यज्यते मात् ॥ १४॥ बंधावत्यं शरीरस्य स्वस्य यत्र विधीयते । स्वेन वा च परैर्वापि सेवाभावसमुद्यते। ॥ १५॥ ज्ञेयः स भक्तसंख्यातः साध्यः सर्वजनैरिह। जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदात् स विविधो गतः ।। १६ ।। जधन्य समयो यो घटिकाद्वय सम्मितः। अन्त्यो द्वादश वर्षात्मा मध्यमोऽनेकपा स्मृतः ॥ १७ ।।
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः इङ्गिनीमरणे स्वस्थ सेवा स्वेन विधीयते । परेण कार्यले नैव वैराग्यस्थ प्रकर्षतः ॥ १८॥ प्रायोपगमने सेवा नव स्वस्य विधीयते । स्वेन वा न परश्चापि निमोहत्वस्य वृद्धितः॥ १९ ।। एते विविधसंन्यासाः कर्तस्याः प्रीतिपूर्वकम् ।
प्रीत्या विधीयमानास्ते जायन्ते फलदायशाः ।। २० ।। अर्थ - प्रतिकार रहित उपसर्ग, भयंकर-दुभिक्ष और घोर-भयानक बोमारोके होनेपर संन्यास किया जाता है। जैन सिद्धान्तके ज्ञाता पुरुषों द्वारा संन्यास तीन प्रकार का कहा गया है। पहला भक्तप्रत्याख्यान, दूसरा इङ्गिनीमरण और तोसरा कमनिर्जरामें समर्थ प्रायोपगमन । जिसमें यम और नियमपूर्वक क्रमसे आहारका त्याग किया जाता है तया अपने शरीर को टहल स्वयं की जाती है और सेवामें उद्यत रहने वाले अन्य लोगोंसे भी करायो जाती है, उसे भक्त प्रत्याख्यान जानना चाहिये । यह संन्यास सब लोगों के द्वारा साध्य है । यह संन्यास जघन्य मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे तीन प्रकार का माना गया है। जघन्यका काल दो घड़ी अर्थात एक महतं और उत्कृष्ट का बारह वर्ष जानना चाहिये । मध्यमका काल अनेक प्रकार है। इङ्गिनीमरणमें अपनो सेवा स्वयं को जाती है, वैराग्य को अधिकताके कारण दुसरोंसे नहीं करायी जातो। प्रायोपगमन में अपनी सेवान स्वयं को जाती है और न दसरोंसे करायी जाती है। ये तोनों संन्यास प्रोतिपूर्वक करना चाहिये । क्योंकि प्रीतिपूर्वक किये जाने पर ही फलदायक होते हैं ।। १२-२० ॥ आगे निर्यापकाचार्य के अन्तर्गत सल्लेखना करना चाहिये, यह कहते हैं
सरिन्मध्ये या नौका कर्णधारं विना क्वचित ।। न लक्ष्यं शक्यते गन्तुं तथा निर्यापक विना ॥११॥ सल्लेखनासरिन्मध्ये सुस्थितः क्षपकस्तथा। न मातुं शक्यते लक्ष्य कार्यों निर्यापकस्ततः ॥ २२ ॥ उपसर्गसहः साधुरापुर्वेदविशारदः । वेहस्थितिमवगन्तुं क्षमः क्षान्ति युतो महान् ।। २३ ॥ मिष्टवाक् सरलस्वान्तः कारितानेक सन्मुतिः।
निर्यापको विधातव्यः संन्यास ग्रहणे पुरा ॥ २४ ॥ अर्थ-जिस प्रकार नबोके बीच खेवटियाके बिना नाव कहीं अपने लक्ष्य स्थानपर नहीं ले जायो जा सकतो उसो प्रकार निर्यापकाचार्य के
thi---
मोmar
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एकादश प्रकाश
१४१ बिना सल्लेखना रूप नदीके बीच स्थित क्षपक अपने लक्ष्य स्थानपर नहीं पहुंच सकता। इसलिये निर्यापकाचार्य बनाना चाहिये। जो साधु उपसर्ग सहन करने वाला हो, आयुर्वेदका ज्ञाता हो, शरीर स्थितिके जानने में समर्थ हो, क्षमासहित हो, महान् प्रभावशाली हो, मिष्टभाषी हो, सरल चित्त हो तथा जिसने अनेक संन्यासमरण कराये हैं, ऐसे साधुको संन्यास ग्रहण के समय निर्माणकाचार्य बनाना चाहिये । यह निर्यापकाचार्य का निर्णय संन्यासग्रहण के पूर्व कर लेना चाहिये
।। २१-२४ ।। आगे क्षपक निर्यापकाचार्य से सल्लेखना कराने की प्रार्थना करता हैभगवन् ! संन्यासदानेन मज्जन्मसफलीकुरु । इत्थं प्रार्थयते साधुनिपकमनीश्वरम् ॥ २५ ॥ क्षपकस्य स्थिति शास्था दद्यात्नियांपकी मुनिः । स्वीकृति स्वस्थ संन्यासविधि सम्पादनस्य वै ।। २६ ।। द्रथ्यं क्षेत्रं च कालं च भावं या क्षपकस्य हि । विलोक्य काश्येसेन ह्युत्तमार्थं प्रतिक्रमम् ॥ २७ ॥ क्षपकः सकलान् बोषान् निर्व्याजं समुदीरयेत् । क्षमयेत् सर्वसाधून् स स्वयं कुर्यात्क्षर्मा च तान् ॥ २८ ॥ एवं निःशल्यको भूत्वा कुर्यात्संस्तरोहणम् । निर्यापकरच विज्ञाय क्षपकस्य तनूस्थितिम् ॥ २९ ॥ अन्नपानादि संत्यागं कारयेतु यथाक्रमम् । पूर्वमन्नस्य संत्यागं नियमेन पेयस्यापि ततस्त्यागं कारयति क्षपकस्य महोत्साहं वर्धयेदनिशं अर्थ - 'हे भगवन् ! संन्यास देकर मेरा जन्म प्रकार साधु निर्यापक मुनिराज से प्रार्थना करता है। क्षपक की स्थिति जानकर संन्यास- विधि कराने के लिये अपनो स्वीकृति देते हैं । निर्यापकाचार्य सबसे पहले द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकोदेखकर क्षपकसे उत्तमार्थं प्रतिक्रमण कराते हैं। क्षपकको भी छल रहित अपने समस्त दोष प्रकट करना चाहिये । तत्पश्चात् क्षपत्र नि कल्य होकर सब साधुओंसे अपने अपराधोंको क्षमा कराता है और स्वयं भी उन्हें क्षमा करता है। निर्धापकाचार्य क्षपक्की शरीरस्थितिको अच्छी तरह जानकर क्रमसे अन्न-पानका त्याग कराते हैं। पहले
यमेन वा ॥ ३० ॥ यथाविधि ।
सुधीः ।। ३१ ।।
सफल करो, इस
निर्यापक मुनि
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः यम या नियम रूपसे अन्नका त्याग कराते हैं पश्चात् क्रमसे पेयका भो त्याग कराते हैं। बुद्धिमान् निर्यापकाचार्य निरन्तर रूपकका उत्साह बढ़ाते रहते हैं ।। २५-३१ ।। आगे नियपिकाचार्य क्षपकको क्या उपदेश देते हैं, यह कहते हैं
अस्पिासादिना म नातिनः। दूरीकुर्यात सवा साधुनिर्यापणविधिक्षमः॥ ३२॥ साधो ! न विद्यते कश्चित् पुदगलो जगतीतले । यो न भुक्तस्त्वया पूर्व केयं भुक्ते रतिस्तव ॥ ३३ ॥ नारके कियतो वाधा विसोडा क्षत्तषोस्त्वया । संस्मरनित्यमात्मानं ज्ञानानन्दस्वभावकम् ।। ३४ ॥ आत्मा न म्रियते जातु पर्यायो ह्येवमुच्यते। पर्यायस्य स्वभावोऽयं न हतु शक्य एष ते ॥३५॥ विधिना कृत संन्यासो भव्यः सान्तभवार्णवः। नियमानि ति याति पृथकत्वभव मध्यके ।। ३६ ॥ बालबालोऽथवा बालो बालपण्डित एव च । मृत्यवो बहनः प्राप्ता भ्रमता भवकानने ॥ ३७॥ पण्डितोऽधमृतिः प्राप्ता विधेोता सुनिर्मलाम् । पण्डिते मरणे प्राप्त पण्डित पण्डित सम्मृतिः ।। ३८।। सुलभा ते भवेवेव साहसं कुरु सत्वरम् । निर्यापकवचः श्रुत्वा कपकः शु बचेतसा ॥ ३९ ॥ ध्यायन पञ्च नमस्कार मन्त्रं प्राणान विसर्जयेत।। क्षपस्त्रिदिवं याति संभ्यासस्य प्रभावतः ॥ ४० ॥ तत्र भड़कते चिरं मोगान् वन्दते च जिनालयान् ।
मेरु नन्दीश्वरावीनां स्थायिनोऽकृतिमान् सदा ॥ ४१ ॥ अर्थ-निर्यापण विधि कराने में समर्थ साधु निर्यापकाचार्य, क्षधातृषा आदिसे उत्पन्न कष्टको अनेक दृष्टान्तोंके द्वारा दूर करता रहे। हे साधो ! इस पृथिवोतलपर ऐसा कोई पुरुष नहीं है जिसे तूने पहले भोगा न हो। अतः भक्त-भोगी हुई वस्तुमें तुम्हारा यह राग क्या है ? नरकपर्यायमें तूने क्षुधा तृषाको कितनी बाधा सही है । तूं निरन्तर ज्ञानानन्द स्वभावो आत्माका स्मरण करा । आत्मा कभी नहीं मरतो है, मात्र पर्याय हो छूटतो है, पर्यायका यह स्वभाव तुम्हारे द्वारा हरा नहीं जा सकता । जिसका संसार सागर सान्त हो गया है, ऐसा भव्य
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एकादम का
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जीव यदि विधिपूर्वक संन्यास मरण करता है तो वह सात-आठ भवमें नियमसे निर्माणको प्राप्त होता है। संसार बनमें भ्रमण करते हुए तूने बालबाल, बाल और बालपण्डितमरण बहत किये हैं। आज पण्डितमरण प्राप्त हुआ है सो इसे निर्मल-निर्दोष कर । पण्डितमरण प्राप्त होनेपर पण्डितपण्डितमरण सुलभ हो जावेगा, अतः शीघ्र हो साहस कर। निर्यापकाचार्य के बचन सुनकर क्षपक शुद्धचित्त से पञ्चनमस्कार मन्त्रका ध्यान करता हुआ प्राण छोड़ता है। संन्यासमरणके प्रभावसे क्षपक स्वर्ग जाता है तथा वहां चिरकालतक भोग भोगता है। साथ हो मेरु-नन्दीश्वर आदिके शाश्वत अकृत्रिम चैत्यालयोंकी वन्दना करता है ।। ३३-४१ ।।
भावार्थ-संक्षेपमें मरणके पाँच भेद हैं-१. बालबाल, २. बाल, ३. बालपण्डित ४. पण्डित और ५. पण्डित-पण्डित । मिथ्यादष्टिके मरणको बालवालमरण कहते हैं। अविरत सम्यग्दृष्टिके मरणको बालसरल नहते हैं । सितमले पर को सलपण्डितमरण कहते हैं। मुनिके मरणको पण्डितमरण कहते हैं और केवलीके ( मरण ) निर्वाणको पण्डितपण्डितमरण कहते हैं । आगे सल्लेखनाके प्रकरणका समारोप कहते हैंमनसि ते यदि नाकसुखस्पृहा
कुर हचि जिनसंयमधारणे। भज जिनेन्द्र पर्व यशारदा
जिन मुखाजभवां सुगुरुन् नम ।। ४२।। अर्थ-यदि तेरे मन में स्वर्ग सुखको चाह है तो जिनेन्द्र प्रतिपादित संयमके धारण करने में रुचि कर, जिनेन्द्र देवके चरणोंको आराधना कर, जिनेन्द्रके मुखकमलसे समुत्पन्न वाणीका आश्रय लें और सुगुरुओंको नमस्कार कर ॥ ४२ ।।
इस प्रकार सम्यक् चारित्र-चिन्तामणिमें संन्यास-सल्लेखनाका
वर्णन करनेवाला एकादश प्रकाश समान हुआ।
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सम्यचारित्र-चिन्तामणिः
द्वादशप्रकाशः देशचारित्राधिकार
मङ्गलाचरणम् यज्ज्ञानमार्तण्डसहस्सरश्मि
प्रकाशिताशेषधिगम्तराले । न विद्यते किश्चिदपि प्रकाश
विचजितं वस्तु समस्तलोके ॥ १ ॥ यश्वात्र नित्यं गतरागरोषः
शुद्धाम्बराभः सततं विभाति । स वीर नायो मम बोधरम्य
रश्मिप्रसारेश्वहितः सदा स्यात् ॥ २ ॥ अर्थ-जिनके ज्ञानरूपी सूर्य को हजारों किरणोंके द्वारा समस्त दिशाओंके अन्तराल-मध्यभाग प्रकाशित हो रहे हैं। ऐसे समस्त लोकमें कोई पदार्थ अप्रकाशित नहों रहा था अर्थात् जो सर्वज्ञ थे और जो नित्य ही रागद्वेषसे रहित होनेसे शुद्ध आकाशके समान सदा सुशोभित थे ऐसे महावीर भगवान मेरे ज्ञानको रमणोय किरणोंके प्रसारमें सदा तत्पर रहें ॥ १.२॥
भावार्थ-सर्वज्ञ और वीतराग भगवान् महावीरका पुण्य स्मरण हमारी ज्ञानवृद्धि में सहायक हों। आगे देशचारित्रका वर्णन करते हैं
अथाने देशचारित्रं किञ्चित्र प्रवक्ष्यते । हिताय हसशक्तीनां पूर्णचारित्रधारणे ॥ ३ ॥ देह संसार निविण्णः सम्यक्त्वेन विभाषितः। कश्विद् भव्यतमो जोवस्तीर्ण प्राय भवार्णवः॥ ४ ॥ हिसास्तेयानताबा द्विविधप्रस्थराशितः।।
देशतो विरलोभूत्वा देशचारित्रमश्नुते ॥ ५ ॥ अर्थ-अब आये पूर्णचारित्र धारण करने में शक्तिहीन मनुष्योंके हितके लिए कुछ देशचारित्र कहा जायगा। जो संसार और शरोरसे उदासीन हैं, सम्यग्दर्शनसे सुशोभित हैं तथा जिसने भव-सागरको प्रायः पार कर लिया है ऐसा कोई श्रेष्ठ भव्य जीव, हिंसा, असत्य,
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धादस प्रकाश
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चोरो, कुशील और द्विविध-चेतन अचेतन परिग्रह राशिसे एकदेश विरक्त हो देशचारित्रको प्राप्त होता है ।। ३-५ ॥ आगे पाँच अणुब्रतोंका स्वरूप निर्देश करते हैं
हिसादिप्रभेदेनाणवतं पञ्चधामतम् । निवृत्तिस्त्रहिंसातोऽहिसाणुव्रतमुच्यते ॥ ६ ॥ संकल्पाद् विहिता हिंसा भविना भववर्धनी।। एतत्प्रभावतो जीया जायन्ते श्वनभूमिषु ।। ७ ॥ आरम्भाज्जायते हिंसा या च युद्धात्प्राजयते । उधमाद या समुरपना तासां त्यागो न वर्तते ॥ ८॥ यथायथोद्ध्वमायान्ति प्रतिमादिविधानतः । तथा तथा परित्याग आसां हि सम्भवेन्नृणाम् ।। ९ ॥ स्थूलानृतवचनानां त्यागो यत्र विधीयते । मम्मतमेतत्म्यात् प्रजर्मशालिमाम ॥१०॥ स्थूलस्तेयाख्य पापाद् या विरति पुण्यशोभिनाम् । अचौर्याणवतं ज्ञेयं तवेतस्सौख्यकारणम् ॥ ११ ॥ धर्मेण परिणीतायाः पत्न्याः सम्बन्धमन्तरा। अन्यस्त्रीसङ्ग सन्त्यागो ब्रह्मचर्य भवेत्तु तत् ।। १२॥ धनधान्यादिवस्तुनां चेतनाञ्चेशनावताम् । यो देशेन परित्यागः सोऽपरिग्रहसंज्ञकम् ।। १३ ।। अणवतं परिज्ञेयं बनसौजन्यकारणम्।
वस्तुतो वर्धमानेच्छा जनानां दुःखकारणम् ।। १४ ।। अर्थ- अहिंसा आदिके भेदसे अणुव्रत पांच प्रकारका माना गया है। असहिसासे निवृत्ति होना अहिंसाणवत कहलाता है । संकल्पासे की गई हिंसा संसारो जीवोंके संसारको बढ़ानेवाली है। इसके प्रभावसे जोव नरककी पृथिवियोंमें उत्पन्न होते हैं। आरम्भसे, युद्धसे और उद्योग से जो हिसायें होती हैं उनका प्रारम्भमें त्याग नहीं होता। प्रतिमा मादिके विधानसे मनुष्य जैसे-जैसे ऊपर आते जाते हैं वैसे-वैसे हो उनका त्याग सम्भव होता जाता है। स्थूल असत्य वचनोंका जिसमें त्याग किया जाता है वह समोचोन धर्मसे सुशोभित पुरुषों का सत्याण यत' है । स्थूल चोरो नामक पापसे पुण्यशाली मनुष्योंको जो निवृत्ति है उसे अचौर्याणुव्रत जानना चाहिए। यह सुखका कारण है। धर्मपूर्वक विवाहो गई स्त्रोके सम्बन्धको छोड़कर अन्य स्त्रियोंके समागमका
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सभ्यश्चारित्र-चिन्तामणिः त्याग करना ब्रह्मचर्माण अत है । चेतन-अचेतन धनधान्यादि वस्तुओंका जो एकदेश त्याग है उसे परिग्रह परिमाणाणुव्रत जानना चाहिए। यह अत मनुष्योंके सौजन्यका कारण है। वास्तबमें बढ़ती हुई इच्छा हो मनुष्योंके दुखका कारण है ।। ६.१४ ॥ आगे तीन गुणवतोंका वर्णन करते हैं
अणुव्रतानां साहाय्यकरणं स्यात् गुणवतम् । दिशात्रतादिभेदेन तच्चेह त्रिविधं मतम् ।। १५ ।। प्राच्यपात्यादिकाष्ठासु यातायातनियन्त्रणम्। यायजीवं भवेत्काष्ठा व्रतमाचं गुणवतम् ॥ १६ ॥ काष्ठावतस्य मर्यादा मध्ये ह्यधिरकालकम् । यो हि नाम भवेन्नाम तरच वेशवतं स्मृतम् ॥ १७ ॥ मनो वाक्काय चेष्टा या सा हि वण्रः समुच्यते। अर्यो न विद्यते यस्य दण्डः सोऽनर्थको मतः ।। १८॥ त्यागश्चानर्थदण्डस्यानर्थदण्डवतं मतम् । कृष्यादिपापकायांणामुपदेशो निरर्थकः ।। १९।। दीयते यः स पापोपदेशो ह्यनर्थदण्डकः । तस्य त्यागो विधातव्यः पापात्रवनि रोधिभिः ॥ २० ॥ घनुर्वाणादि हिसोपकरणानां निरर्थकम् । हिसादानं प्रवानं स्यात्तत्यागस्तु व्रतं स्मृतम् ।। २१॥ रागद्वेषाविद्धिः स्याद् यासां श्रवणतो नृणाम् । ता हि :श्रतयो शेयास्तत्यागस्तु वतं मतम् ॥ २२ ॥ अन्येषां वधसन्धादि चिन्तनं रागरोषतः। अपध्यानं भवेत् त्यागस्तस्य च स्यान्महद् व्रतम् ॥ २३ ॥ शैलाराम समुद्रादौ यद् भ्रमणं निरर्थकम् ।
मताप्रमादचयों सा तत्यागो व्रतमुच्यते ।। २४ ॥ अर्थ-जो अणुक्तोंकी सहायता करता है वह गुणत्रत है। दिग्व्रत आदिके भेदसे वह गूणव्रत तोन प्रकारका माना गया है। पूर्व-पश्चिम आदि दिशाओंमें जीवन पर्यन्त के लिये यातायातको नियन्त्रित करना दिग्वत नामका पहला गुणवत है। दिग्वतको मर्यादाके बोचमें कुछ समयके लिए जो नियम लिया जाता है वह देशवत माना गया है। मन, वचन, कायकी जो चेष्टा है वह दण्ड कहलाती है। जिसका कोई प्रयोजन नहीं है वह अनर्थ कहलाता है, अनर्थदण्डका त्याग करना अनर्थ
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द्वादश प्रकाश
१७ दण्डग्रत है। कृषि आदि कार्योंका जो निरर्थक-निष्प्रयोजन उपदेश दिया जाता है वह पापोपवेश नामका अनर्थदण्ड है। पापासवका निरोध करनेवाले मायोको उसका मागबारा चाहिए अनुष बाण आदि हिंसाके उपकरणोंका निरर्थक देना हिसादान नामका अनर्थ दण्ड है, उसका त्याग करना व्रत है। जिनके सुननेसे मनुष्यों को रागद्वेषकी वृद्धि होती है वह दुःश्रुति नामका अनर्थदण्ड है, इसका त्याग करना व्रत है। रागद्वेषसे अन्य लोगोंके वध-बन्धन आदिका चिन्तन करना अपध्यान अनर्थदण्ड है, उसका त्याग करना श्रेष्ठ व्रत है। पर्वत, उद्यान तथा समुद्र आदिमें निरर्थक भ्रमण करना प्रमावर्या है उसका त्याग करना व्रत कहलाता है ।। १५-२४ ॥ आगे चार शिक्षावतोंका वर्णन करते हैं
मुनिधर्मस्य शिक्षायाः प्राप्तिर्यस्मात्प्रजापते । शिक्षावलं तु तज्ज्ञेयं चतस्त्रः सन्ति तजिवाः ॥ २५॥ आचं सामायिक शेयं द्वितीयं प्रोषधाह्वयम् ।। भोगोपभोगवस्तूनां परिमाणं तृतीयकम् ।। २६ ॥ शिक्षावतं चतुर्थ स्यादतियोसंविभागकम् ।
श्रावका पालनोयानि यथाकालं यथाविधि ॥ २७ ॥ अर्थ-जिससे मुनिधर्मको शिक्षाकी प्राप्ति होती है उसे शिक्षाव्रत जानना चाहिये। इसके चार भेद हैं.--पहला सामायिक, दुसरा प्रोषधोपवास, तीसरा भोगोपभोग परिभाग और चौथा अतिथि संविभाग। श्रावकोंको यथासमय विधि-पूर्वक इनका पालन करना चाहिये ।। २५-२७ ॥ आगे इनका स्वरूप कहते हैं
प्रातमध्याह्नसन्ध्यासु कृतिकर्मपुरस्सरम् । सामायिकं सुकर्तव्यं घटिकाद्वयसम्मितम् ॥२८॥ अष्टम्यां च चतुर्दश्यां चतुराहारवर्जनम् । प्रोषधः स हि विज्ञेय एकासनपुरस्सरः ॥ २९ ।। ये भज्यन्ते सकून् भोगा: कश्यन्ते तेऽशनादयः। भयोभूयोऽपि भुज्यन्ते ये तेऽलंकरणावयः ॥ ३०॥ उपभोगाः प्रकीयन्ते वस्तु तत्व विशारदै । परिमाणं सदा ह्येषां विधातव्यं विवेकिभिः ।। ३१ ॥
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सम्यक्चारित्न-चिन्तामणिः सुपात्राय सदा देयं वानमत्र चतुविधम् । सुपात्रं त्रिविधं पापुलमारि : ११ : रत्नत्रयेण संयुक्ता मुनयः शान्तमूर्तयः। शयापुत्तमपाणि ह्यायिका मातरस्तथा ॥ ३३॥ वेशवृत्तयुता जेया ऐलफादिपदान्विताः। सूक्तानि मध्यपात्राणि जनतत्त्वविशारः ।। ३४ ॥ व तेन रहिताः सम्यग्वृष्टयो जिनभाक्तिकाः । प्राप्ता जघन्य पात्रत्वं कथितारचरणागमे ॥ ३५ ॥ एभ्यस्त्रिविध पात्रेभ्यो देयं दानं चतुर्विधम् । माहारोषध शास्त्राद्यभयभेदाच्चतुर्विधम् ॥ ३६ ॥ वानं महर्षिभिः प्रोक्तं गृहिण पुण्यकारणम् । दानेनैव शुध्यन्ते गहाणि गहिणामिह ॥ ३७॥ अन्ते सल्लेखना कार्या प्रतिभिविधिसंयुता।
सल्लेखना विधिः पूर्व प्रोक्तो विस्तरतो मया ॥ ३८॥ अर्थ-प्रातः, पध्याह्न और सायंकाल कृतिकर्म-कायोत्सर्ग आवतं आदि सहित कमसे-कम दो घडोतक सामायिक करना चाहिये। अष्टमी और चतर्दशोको चारों प्रकारके आहारका त्याग करना प्रोषधोपवास है। यह धारणा और पारणाके एकासनसे सहित होता है। जो एक बार भोमे जाते हैं वे भोजन आदि भोग हैं और जो बारबार भोगे जाते हैं वे आभूषण आदि वस्तु स्वरूपके ज्ञाता पुरुषों द्वारा उपभोग कहे जाते हैं। विवेको मनुष्योंको इनका परिमाण करना चाहिये। यही भोगोपभोग परिमाणवत है। सुपात्रके लिये सदा चार प्रकारका दान देना चाहिये । उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे सुपात्र तीन प्रकारका' कहा गया है । जो रत्नत्रयसे सहित तथा शान्तिको मानों मति हैं ऐसे मुनि और आथिका मातार उत्तम पाय जानने योग्य हैं । जो देशवासे सहित हैं ऐसे ऐलक आदि पदसे सहित व्रतो, जैनतत्त्वके ज्ञाता पुरुषोंके द्वारा मध्यम पात्र कहे गये हैं और जो वतसे रहित हैं तथा जिनेन्द्र देवके भक्तसम्यग्दष्टि हैं वे चरणानु योगमें जघन्य पात्र माने गये हैं। इन तोनों प्रकार के पात्रोंके लिये चाय प्रकारका दान देना चाहिये। महषियोंने आहार, औषध, शास्त्रादि उपकरण और अभयके भेदसे दानके चाय भेद कहे हैं। वास्तवमें गृहस्थोंके घर दानसे हो शुद्ध होते हैं । अन्त में यती मनुष्योंको विधि
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वाश प्रकाश
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पूर्व मलेखना करनी चाहिये । सल्लेखनानो विधि पोछे विस्तारपूर्वक कही गई है ॥ २८-३८ ॥ आगे सत्तर अतिचारोंके कथनको प्रतिज्ञाकर सम्यग्दर्शनके अति चाय कहते हैं
इतोऽग्रे सम्प्रवक्ष्याम्यतीचाराणां च सप्ततिम् । श्रुत्वा सुपरिहार्यास्ते वतनेमल्य काक्षिभिः ।। ३९ ॥ शङ्का कांक्षा च भोगानां विचिकित्सा तथैव च । अन्यवृष्टेः प्रशंसा च संस्तवश्चापि मोहिनः ॥ ४ ॥ एते पञ्च परित्याज्याः सददृष्टे रति चारकाः।
शुद्ध सवृष्टिरेवस्यात् कर्मक्षपणकार णम् ।। ४१॥ अर्थ-अब इसके आगे सत्तर अतिचार कहेंगे । ब्रताको निर्मलता चाहनेवाले पुरुषोंको उन्हें सुनकर दूर करना चाहिये। शङ्का, भोगाकाया, विचिकित्सा, अन्य दृष्टि प्रशंसा और मोही -अन्य दृष्टिका संस्तव, ये सम्यग्दर्शनके पाँच अतिचार छोड़ने योग्य हैं क्योंकि शुद्धनिरतिचार सम्यग्दर्शन ही कर्मक्षयका कारण होता है ।। ३६-४१॥ आगे पांच अणुव्रतोंके अतिचार कहते हैं--
___ अहिंसाणुवतके अतिचार आश्रितजीवजातीनां तधो बन्धो विभेदनम् । आरोपोऽधिकभारस्य निरोधश्चान्न पानयोः ॥ ४२ ॥ अतीचारा इमे जया अहिंसाणुव्रतस्य हि ।
अतिचारान् परित्यज्य व्रतं कार्य सुनिर्मलम् ॥ ४३ ॥ अर्थ-आश्रित जीव जातियों-गाय, भैस आदिका वध-लाठी, चाबुक आदिसे पोटना, कष्ट देनेके अभिप्रायपूर्वक बन्ध- रस्तो आदिस बांधना, सौन्दर्य बढ़ानेको भावनासे विभेदन --कान आदि अंगोंको छेदना, अधिक भार लादना और अन्न पानोका विरोध करना-पर्याप्त भोजन नहीं देना, ये पांव अहिंसाणु व्रतके अतिचार हैं। इनका त्याग कर व्रतका निर्मल बनाना चाहिये ॥ ४२.४३ ।।
सत्याणवतके अतिधार अज्ञानाद्वा प्रमादादा जीयामां हितकाक्षिणाम् । बानं मिथ्योरवेशस्थ रहस्याखयापनं तया ।। ४४ ।।
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सभ्यधारित-चिन्तामणिः कूटलेख क्रिया निन्या न्यासस्यापतिस्तथा । साकारो मन्त्रभेवश्च सस्थाणुव्रतशालिभिः ॥ ४५ ॥ अतिचारा इमे त्याज्याः सत्याणुव्रतशालिभिः।
व्रतं निर्दोषमेवस्वादात्मशुद्धि विधायकम् ॥ ४६ ॥ अर्थ-हित चाहनेवाले पुरुषोंको अज्ञान अथवा प्रमादसे मिथ्या उपदेश देना, स्त्री-पुरुषोंके रहस्य-एकान्त बातको प्रकट करना, कूटलेख क्रिया-झूठे लेख लिखना, धरोहरका अपहरण करनेवाले वचन कहना और साकार मन्त्र भेद-चेष्टा आदिसे किसीका अभिप्राय जानकर प्रकट करना, ये सत्याणवतके अतिचार हैं। निर्दोष बतके इच्छुक सत्याणु व्रतियों को इनका त्याग करना चाहिये, क्योंकि निर्दोष बत ही आत्मशुद्धि करनेवाला होता है ।। ४४.४६ ।।
अचौर्षागुनतके अतिचार स्तेनप्रयोग चौरार्थावाने लोभस्थवद्धितः। बिरुद्धराज्येऽतिक्रान्तिानोन्मानीय स्तुनोः ।। ४७ ।। होनाधिक विधानं च सदशस्यापि मिश्रणम् । इत्येते पञ्च विशेषा अतिधारा: प्रदूषकाः ।। ४८॥ अचौर्याण व्रतस्येह वर्जनीया विवेकिभिः।
अतिचारयुतं वृत्तं न स्याच्छोभास्पदं चित् ।। ४९ ॥ अर्थ--स्तनप्रयोग-लोभको अधिकतासे चोरको चोरोके लिये प्रेरित करना, तवाहुतावान- चुराकर लायो हुई वस्तुको खरीदना, विरजराज्याति प्रम—विरुद्ध राज्यसे तस्कर व्यापार करना, हीनाधिक मानोन्मान-नाप-तौलके वस्तुओंको कम चढ़ रखना और सक्शसनिमय–असलो वस्तु में नकलो वस्तु मिलाना; ये अचोर्याणुव्रतके अतिचार विवेको जनोंके द्वारा छोड़ने योग्य हैं, क्योंकि अतिचार सहित व्रत कहीं भी शोभित नहीं होता ।। ४७-४६ ॥
ब्रह्मचर्याणवतके अतिचार कृतिरस्य विवाहस्थ द्विविधत्वरिकागती । अनङ्ग कोडनं तीव्र कामेच्छा प्रतधारिणः ॥ ५० ॥ अतिचारा हमे ज़या ब्रह्मचर्यवतस्य हि । एतान् सर्वान् परित्यज्य विधेयं त्रिमलं व्रतम् ॥ ५१ ।।
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द्वादश प्रकाश
अर्थ. अन्यविवाह करण- अपनो या अपने आश्रित सन्तानको छोड़कर दूसरोंका विवाह करना, परिगृहीतत्वरिकागति-दूसरेके द्वारा गृहोत कुलटा स्त्रियोंसे व्यवहार रखना, अपरिगृहीतत्त्वरिका गति-दूसरेके द्वारा अगृहोत कुलटा स्त्रियोंसे व्यवहार रखना, अनङ्गक्रीड़ा-काम-सेवनके लिये निश्चित अङ्गोंसे अतिरिक्त अङ्गों द्वारस क्रीड़ा करना और तीव कामेच्छा-काम-सेवनमें तोव लालसा रखना, ये ब्रह्मचर्याणुव्रतके अतिचार है। इन सबका त्याग कर व्रतको निर्मल करना चाहिये ।। ५०.५१ ॥
क्षेत्रवास्वो रुक्मभमणोधनमाययोस्तया। वासवास्योस्तयाकुप्प भाजयोश्च व्यतिक्रमः ।। ५२ ।। एते पञ्च परिप्रोक्ता अतिचारा जिनागमे ।
त्याज्याः स्वहित कामवं पञ्चमाणु व्रतस्य हि ।। ५३ ॥ अर्थ-क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिकम-खेल व मन मनाया उल्लङ्घन करना, रुक्मभमप्रमाणातिक्रम--चांदी, स्वर्णकी सोमाका उल्लंघन करना, धनधान्यप्रमाणातिकार-गाय-भैस आदि पशुधन और गेह, प्रान, चना आदि अनान की सोमाका व्यक्तिकम करना, बासीदासप्रमाणातिकम-संपत्ति रूपसे स्वीकृत दासोदासके प्रमाणका उल्लंघन करना और कुष्यभाण्डप्रमाणातिम-वस्त्र तथा बर्तनोंकी सोमाका व्यतिक्रम करना, ये परिग्रह परिमाण व्रतके अतिचार हैं। आत्महितके इच्छुक मनुष्योंको इनका त्याग करना चाहिये ।। ५२-५३ ।। आगे गुणवतोंके अतिचार कहते हैं
विग्नतके अतिचार अज्ञानाद्वा प्रमावाद्वा ह्यूय सीमध्यतिक्रमः। अधोग्यतिक्रमश्चंय तिर्यक्सीम व्यतिक्रमः ।। ५४ ॥ लोभावा क्षेत्र विश्व ह्याधाममन्पास्मृतेः ।
अतिचारा इमे स्याज्याः काष्ण व्रतममीसुभिः ।। ५५ ॥ अर्थ-प्रमाद अथवा अज्ञानसे ऊर्ध्व सोमाका उल्लंघन करना, अधः-नोचे जानेको सीमाका उल्लंघन करना. तिर्यक् सोमा-समान धरातलको सोमाका उल्लंघन, लोभवश किसो दिशाको सोमा घटाकर अन्य दिशाको सोमामें वृद्धि कर लेना और कुत सीमाको भूलकर अन्य
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः सोमाको स्मृतिमें रखना, ये दिग्वतके अतिचार हैं। निर्दोष दिग्बतको इच्छा रखने वाले पुरुषोंके द्वारा ये छोड़ने योग्य हैं ।। ५५-५५ ।।
वेशव्रतके अतिचार आनयनं बहिः सोम्नो यस्य कस्यापि वस्तुनः । प्रेषणं प्रेष्यवर्गस्य शब्दस्य प्रेषणं बहिः ॥ १६ ॥ प्रदर्शनं स्वरूपस्य क्षेपणं पुद्गलस्य च । इत्थं मनीषिभिः प्रोक्ता दोषा देशवतस्य हि ।। ५७ ॥ त्याज्या मनस्विििनत्यं निर्दोषव्रतवाञ्छिभिः ।।
वतं सदोषं नो भाति मलिनं ह्यम्वरं यथा ॥ ५८ ॥ अर्थ-मर्यादाके बाहरसे जिस किसी वस्तुको बुलाना, मर्यादाके बाहर सेवक समूहको भेजना, मर्यादाके बाहर अपना शब्द पहुँचानाफोन आदि करना, मर्यादाके बाहर कार्य करने वालाको अपना स्वरूप दिखाना और मर्यादाके बाहर पुद्गल-कंकड़-पत्थर फेंकना या पत्र आदि भेजना, ये विद्वज्जनोंके द्वारा देशवतके अतिचार कहे गये हैं। निर्दोषन्नतको इच्छा रखने वाले विचारशील मनुष्योंको इनका सदा त्याग करना चाहिये, क्योंकि सदोष व्रत मलिन वस्त्रके समान सुशोभित नहीं होता ।। ५६-५८ ।।
अनर्थदण्डवतके अतिचार कन्दर्पश्च कौत्कुच्यं च मौखयं चासमीक्ष्य वै । अधिकस्य समारम्भः स्वप्रयोजनमन्तरा ।। ५९ ।। भोगोपभोगवस्तूनां संग्रहोऽनर्थको महान् । चित्तविक्षेपकारित्वादाकुलताविधायकः ॥६०॥ अतिचारा इमेत्याज्यास्तृतीयेऽनर्थदण्डके ।
लक्ष्यप्राप्तिर्यतो नास्ति सदोष व्रतधारणे ।। ६१ ॥ अर्थ-कन्दर्प-रागमिश्रित भण्ड बचन बोलना, कौत्कुच्य-उसके साथ शरोरसे कुचेष्टा करना, मौखर्य-उसके साथ निरर्थक अधिक बोलना, स्वकोय प्रयोजनके न होने पर भी विचार बिना अधिक आरम्भ कराना और भोगोपभोगको वस्तुओंका निरर्थक ऐसा बड़ा संग्रह करना जो चित्तविक्षेपका कारण होने से आकुलता उत्पन्न करने वाला हो । अनर्थदण्डवत नामक तृतीय गुणतके ये अतिचार छोड़ने याग्य हैं क्योंकि सदोष व्रतके धारण करने पर लक्ष्यको प्राप्ति नहीं होतो ॥ ५६-६१ ॥
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द्वादश प्रकारों
सामापिकशिक्षावतके अतिचार चेतसश्चञ्चलत्वं च वयोवुष्प्रणिधानता। शरीरस्थान्यथावृत्तिरावराभाव एव च ॥ २ ॥ पाठस्य विस्मृतिश्चैते सामायिकस्यसिक्रमाः ।
त्याज्याः सुश्रावकनित्यं निन्दनीया महर्षिभिः ।। ६३ ॥ अर्थ-चित्तकी चञ्चलता, बचनको दुष्प्रणिधानता, शरीरको अन्यथा-वृत्ति-इधर-उधर देखना, आदरका अभाव और पाठको विस्मृति, ये सामायिकके अतिचार महर्षियोंके द्वारा निन्दनीय है। उत्तम श्रावकोंको इनका त्याग करना चाहिये ॥ ६२-६३ ॥
प्रोषधोपवास शिक्षावतके अतिचार अदृष्टामाजितस्थाने मलादीनां विमोचनम् । अवाटामातिराने दादा पस'मा ॥ ६४॥ अष्टामाजितादानमादराभाव एव च। तिथेय तिक्रमश्चापि विस्मरणं विधेरपि ॥ ६५ ॥ शिक्षाव्रतस्य विज्ञ या द्वितीयस्थ व्यतिकमाः ।
एते सर्वेऽपि संख्याज्या निर्मलक्तवाञ्छिभिः ॥ ६६ ॥ अर्थ-क्षुधासम्बन्धो शिथिलताके कारण बिना देखे, विना शोधे स्थान पर मलादिकका छोड़ना, बिना देखे, बिना शोध स्थान पर बिस्तर आदिका फैलाना, बिना देखे, बिमा शोधे उपकरण आदिका ग्रहण करना, आदरका अभाब और उपवासको तिथिका उल्लंघन करना, ये द्वितीय शिक्षाप्रतके अतिचार हैं। निर्मल व्रतको इच्छा रखने वाले पुरुषोंके द्वारा ये सभी छोड़ने योग्य हैं 11 ६४-६६ ॥
मगोपभोग परिमाण शिक्षावतके अतिचार लोल्यात्सचित्तसंसेवा सचित्तेन युतस्य च । मिश्रस्य च सचित्तेन भोगोऽरिषवसेवगम् ।। ६७ ।। दुष्पक्वस्थ पदार्थस्य ग्रहणं चातिगृद्धितः। शिक्षाबत तृतीयस्य परित्याश अतिक्रमाः ॥ ६८ ।। इन्दुर्यथा कलङ्कन युक्तो नैव विशोधते ।
तथा दोषश्च संयुत्तो व्रतो नैवात्र शोभते ॥ ६९ ।। भयं-भोगाकांक्षाको आतुरतासे सचित्त वस्तुका सेवन करना, सचित्तसे सम्बद्ध वस्तु का सेवन करना, सचित्तसे मिलो हुई वस्तुका
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सम्यकचारित्र-चिन्तामणिः सेवन करना, विकारवर्द्धक गरिष्ठ वस्तुका सेवन करना और दुष्पक्वअर्धपक्व या अर्धदग्ध पदार्थको ग्रहण करना, ये भोगोपभोग परिमाण नामक तृतीय शिक्षानतके अतिचार हैं। इनका परित्याग करना चाहिये क्योंकि जिस प्रकार कलसे युक्त चन्द्रमा सुशोभित नहीं होता, उसो प्रकार दोषोंसे युक्त बतो इस भूतल पर सुशोभित नहीं होता ॥ ६७-६६ ।।
अतिथि संविभाग प्रतके अतिचार सचित्तभाजने वसः पिहितमच चिसतः । परः प्रदीयमानश्च मात्सर्यमितरंजनः ॥ ७० ।। कालस्योल्लङ्घन दाने प्रमाववशतो नृणाम् ।
तुर्यशिक्षाव्रतस्य॑ते दोषास्त्याज्याः सवा बुधः ॥ ७१ ॥ अर्थ-सचित्त--हरित पत्ते आदि बर्तन पर रक्खा हुआ आहार देना, सचित्त-हरित पत्र आदिसे ढका हुआ आहार देना, परव्यप. देश-दूसरेसे आहार दिलाना, मात्सर्य-अन्य दातारोंसे ईर्ष्या करना और कालोल्लंघन-प्रमादवश दानके योग्य समयका उल्लंघन करना, ये पांच अतिथिसंविभाग नामक चतुर्थ शिक्षावतके अतिचार ज्ञानो जनोंके द्वारा सदा छोड़ने योग्य है । ७०-७१ ।।
सल्लेखनाके अतिचार जोयिताशंसनं जातु मरणाशंसनं क्वचित् । भित्रैः सहानुरागश्चानुबन्धो भुक्तशर्मणः ।। ७२ ॥ निदानं चेति विज्ञयाः संन्यासस्य व्यतिक्रमाः।
एते सर्वे परित्याज्याः स्वर्गमोक्षामिलाषिभिः ।। ७३ ॥ अर्थ-- कभी जीवित होने की आकांक्षा करना, कहीं कष्ट अधिक होने पर जल्दी मरनेको इच्छा करना, मित्रोंके साथ अनुराग रखना, पूर्वभक्त सुखका स्मरण करना और निदान--आगामो भोगोंको इच्छा रखना, ये संन्यास-सल्लेखनाके अतिचार जानने योग्य हैं। स्वर्गमोअके इच्छुक पुरुषोंको इन सब अतिचारोंका परित्याग करना चाहिये ।। ७२-७३ ।।
व्रत और शीलका विभाग अणुसतानि कथ्यन्ते व्रतवदेन सूरिभिः । शेषाणि सप्त कम्यन्ते शोलशरोम सरिमिः ॥ ४४
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द्वादश प्रकाश कृषीवला यथा लोके परितः क्षेत्रसंचयम् । कृस्था बति सुरक्षन्ति दुर्लभां सस्यसम्पदम् ॥ ७५ ॥ तथा शोलानि संधत्य प्रतिनो मानवा भवि।
अत्यन्त दुर्लभां लोके रक्षन्ति व्रतसम्पदम् ।। ७६ ॥ अर्थ-रणात. अगों द्वारा तदसे कहे जाते हैं और शेष सात-तीन गुणवत, चार शिक्षात्रत, शील शब्दसे कहे जाते हैं। जिस प्रकार लोकमें किसान खेतोके चारों ओर बाड़ लगाकर दुर्लभ धान्य संपत्तिको रक्षा करते हैं. उसी प्रकार प्रथिवो पर व्रती मनुष्य शीलोंको धारण कर लोकमें अत्यन्त दुर्लभ बतरूप सम्पत्तिको रक्षा करते हैं ॥ ७५-७६३ अब आगे श्रावकोंको जिनपूजा आदिका निर्देश देते हैं
भक्त्या जिनेन्द्र देवस्य द्रव्यः सारतरंरिह। अर्चा नित्यं विधेयास्ति सर्वसंकटहारिणों ।। ७७ ॥ मग्विराणि यथाशक्ति जिनबेवस्य भक्तितः । निर्मापयितुमहाँणि मेन्तुल्यानि सर्वदा ॥ ७८ ॥ तेषु जिनेन्द्रदेवस्थ प्रतिमाश्चापि सुन्दराः।
स्थापनीया प्रतिष्ठाभिः कृत्वा भव्य महोत्सवम् ॥ ७९ ॥ अर्थ-श्रावकों को प्रतिदिन अत्यन्त श्रेष्ठ अष्ट द्रव्योंके द्वारा भक्तिपूर्वक जिनेन्द्रदेवको पूजा करना चाहिये क्योंकि जिनपूजा सब संकटोंको हरने वाली है। श्रावकोंको सदा भक्तिपूर्वक सुमेरुके समान-उत्तुङ्ग जिनमन्दिर भी यथाशक्ति बनवानेके योग्य है, तथा उनमें प्रतिष्ठाओं द्वारा महोत्सब कर जिनेन्द्र भगवान्की सुन्दर-मनोज्ञ प्रतिमाएं स्थापित करना चाहिये ।। ७७.७६ ॥ आगे जिनवाणोके प्रसारका निर्देश देते हैं---
जिनवाणी प्रसाराय प्रयत्नो अतिभिर्जनः। कार्यः समा स्वद्रध्येग संचितेन सुभक्तितः ॥ ८ ॥ विद्यालयाश्च संस्थाप्याश्छात्रवृन्देन संयुताः । शिक्षकास्तत्र संयोज्या योग्यवृत्त्याभितोषिताः ॥ ८ ॥ विद्वांसो दानमानाहीः सच्छास्त्रेषु कृतश्रमाः। साम्प्रतं जिनशास्त्राणामाधारः सन्ति ते यतः।। ८२ ॥ निन्थमुन्थोपेता विरक्ता भवमोगतः। शाश्वयात्म हितोयुक्ताः परकल्याणकाक्षिणः॥ ८३ ॥
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सम्यचारित्र-चिन्तामणिः मुनयोऽपि सावन्द्या जनधर्मप्रभावकाः । तेषां प्रभावना कार्या जनतानम्बवायिनी ॥८४॥ दीनहीनजना लोके कारण्यावहमूर्तयः । अन्नवस्त्राविधानेन रक्षणीयाः सदा नरैः ।। ८५॥ आरोग्यलाभसंस्थान निचया धनवानतः। पोषणीयाः सदा स्वीय शरीर सहयोगतः ॥ ८६ ॥ लोककल्याण कारोणि कार्याणि विविधान्यपि ।
यथाशक्ति विधेयानि करुणापूर्ण मामसः ॥ ८७ ।। अर्थ-प्रत्तो मनुष्योंको अपने संचित द्रव्यके द्वारा सदा भक्तिपूर्वक जिनवाणोके प्रमारके लिये कार्य करना चाहिये। छात्र समूहसे सहित विद्यालय भी स्थापित करना चाहिये और इजा पोत्यक्षिसे संतो. षित अध्यापकोंको संयोजित करना चाहिये । समोचीन शास्त्रोंमें परि. श्रम करने बाले विद्वान् भी दान तथा सम्मानके योग्य हैं क्योंकि वे इस समय जिनशास्त्रोंके आधारभूत हैं। निग्रन्थ मुद्रासे सहित, संसार सम्बन्धो भोगोंसे विरक्त, निरन्तर आत्महितमें तत्पर, परकल्याणके इच्छुक तथा जैनधर्मकी प्रभावना करने वाले मुनि भी सदा वन्दनीय हैं। जनसमूहको आनन्द देने वाली उनको प्रभावना करना चाहिये । जिनके शरीरको देखक र करुणा उत्पन्न होतो है ऐसे दीन-हीन मनुष्य भो लोकमें सदा अन्न-वस्त्रादि देकर रक्षा करने के योग्य हैं। आरोग्य लाभ के संस्थान जो औषधालय आदि हैं वे भी धन-दानसे तथा अपने शारीरिक सहयामसे सदा पोषणीय है -पुष्ट करने के योग्य हैं। जिनका हृदय करुणास पूर्ण है ऐस मनुष्योंको यथाशक्ति लोककल्याणकारी अन्य कार्य भी करनेके याग्य हैं ।। ८०.६७।। आगे प्रतिमाओं का वर्णन करते हैं
अप्रत्याख्यानावरण मोहस्य क्षयोपशमात् । प्रत्याख्यानावृतेः किचोदयस्य तारतम्यतः । ८८।। थावकोऽये यथाशक्ति प्रतिमासु प्रवर्तते। प्रतिमाः सन्ति ता एता एकादश मिता भुवि ।। ८९ ।। दर्शनिको ती चापि सामायिकसमुद्यतः। प्रोषधवतधारी च सचित्तत्याग तत्परः।। ९० ।। रात्रिभुक्तिपरित्यागो ब्रह्मचर्यविशोभितः । कृतारम्भपरित्यागः सङ्गत्यागेन शुम्भितः ॥ ९१ ॥
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এষা মাথ
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विगतानुमतिः किन सन्तुष्टः स्वात्मसम्पदि । उहिष्टान्न परित्यागो तत्रस्थाः श्रावका मताः ॥ १२ ॥ क्रमशोवर्धमानेन संयमेन सुशोभिता।
एषां क्रमेण वक्ष्यामि लक्षणानि यथागमम् ।। ९३ ॥ अर्थ-अप्रत्याख्यानावरण नामक चारित्रमोहके क्षयोपशम और प्रत्याख्यानावरण कषायके उदयको तरतमता-हीनाधिकतासे यह श्रावक अपनो शक्तिके अनुसार प्रतिमाओंमें प्रवृत्त होता है उन्हें धारण करता है। बे प्रतिमायें यहां ग्यारह है- १. दर्शनिक, २. व्रतो, ३. सामयिको, ४. प्रोषधवतधारी, ५. सचित्त त्यागी. ६. रात्रिभक्ति त्यागी, ७. ब्रह्मचयंसे सुशोभित, ८. आरम्भ त्यागी, ६. परिग्रहत्यागसे सुशोभित, १० अपनो आत्म-संपदामें संतुष्ट रहने वाला अनुमति त्यागी और ११. उच्छिष्टान्न परित्यागो, ये ग्यारह प्रतिमाएं हैं। इनमें स्थित रहने वाले व्रतो, थावक कहलाते हैं। ये श्रावक क्रम से बढ़ते हुए चारित्र से सुशोभित रहते हैं। अब यहां क्रम से आगम के अनुसार इनके लक्षण कहूंगा ।। ८८.६३॥
___दर्शनिक श्रावक ( प्रथम प्रतिमाधारी ) का लक्षण सम्यग्दर्शनसंपन्न: सप्तव्यसनदूरगः। अष्टमूलगुणयुक्तो दर्शनिकः समुच्यते ।। ९४ ।। देवशास्त्रगुरूणां यो मोक्षमार्गोपयोगिनाम् । श्रद्धया परया युक्तः सम्यग्दृष्टिः स उच्यते ।। ९५ ॥ चूतं मांसं च मधं च वेश्याखेटको सथा। चौर्य परपुरन्ध्रीणां सेवनं व्यसनं मतम् ॥ १६ ॥ एषां यस्य परित्यागो दर्शनिकः स उच्यते । मद्यमांसंच क्षौनं च यो नाश्ताति कदाचन ॥१७॥ नोदुम्बराविक भक्त न भुसे निशि जात्वपि । कुरुते जोव कारुण्यं करोति जिनदर्शनम् ॥ ९८ ॥ मादत्तगालितं नीरं स स्थान्मूल गुणाश्रयी। परमेष्ठिपदाम्भोजं शरणं पतवान् सुधीः ॥ ९९ ॥ एष दर्शनिको नूनं घिरको भवनोगतः ।
प्रथमः श्रापकः प्रोक्तो जैनागम विशारदः।। १०० ॥ १. मद्य पल मधु निशासन पञ्चफली विरति पञ्चका प्तनुति। जीवदया जलंगालन मिति च क्वचिदष्ट मूलगुणाः ।।
सागार धर्मामृत
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सम्पचारित्र-चिन्तामणिः ___ अर्थ-जो सम्यग्दर्शन से सहित हो, सात व्यसनों से दूर हो, आठ मूलगुणों से युक्त हो वह दर्शनिक श्रावक कहलाता है। जो मोक्ष मार्ग में उपयोगी देव शास्त्र गुरु की उत्कृष्ट श्रद्धा से युक्त हो, वह् सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। जूआ, मांस, मदिरा, वेश्या, शिकार, चोरी और परस्त्री सेवन ये सात व्यसन माने गये हैं। इनका परित्यागो दर्शनिक होता है। जो कभी भी मद्य, मांस, मधु को नहीं खाता है, न उदम्बर आदि पांच फलोंको खाता है, न कभी रात्रि में भोजन करता है, जोव दया पालता है. जिनदर्शन करता है और बिना छना पानी नहीं लेता, वह अष्टमूल गुणों का धारक होता है। साथ हो जो संसारके भोगोंसे विरक्त हो पञ्चपरमेष्ठीके चरण कमलोंको शरण को प्राप्त हुआ है वह जैनागमके ज्ञाता पुरुषों के द्वारा दर्शनिक नामक प्रथम धावक कहा गया है ।। ६४-१००।।
प्रतिक श्रावक ( दूसरी प्रतिमा ) का लक्षण द्वावशक्त सम्पानो जैनाचारपरायणः।
प्रतिकः कथ्यते लोके द्वितीयः श्रावकस्तथा ॥ १०१।। अर्थ--जो पांच मणव्रत, तीन गुणन्नत और चार शिक्षाबत, इन बारह व्रतोंसे सहित तथा जैन कुलोचित आचारमें तत्पर है वह जगत् में तिक--द्वितीय प्रतिमाघारी श्रावक कहलाता है ।। १०१ ।।
सामायिकी ( तृतीय प्रतिमा ) का लक्षण सामायिक त्रिसन्ध्यासुप्रत्यहं विदधाति यः ।
सामायिकी से सम्प्रोक्तस्तस्वचिन्तन सस्परः॥ १०२॥ अर्थ—जो प्रतिदिन तीनों संध्याओंमें सामायिक करता है तथा तत्त्व विचार करने में तत्पर रहता है वह सामायिकी -तृतीय प्रतिमाधारी श्रावक कहा गया है ।। १०२ ।।।
प्रोधिक { सतुर्थ प्रतिमा ) का लक्षण अष्टम्यां च चतुर्दश्यां प्रोषधं नियमेन यः ।
करोति रुचि सम्पन्नः स हि प्रोषधिको मतः ।। १०३ ॥ अर्थ-जो रुचिपूर्वक अष्टमी और चतुर्दशीको नियमसे प्रोषध करता है वह प्रोषधिक चतुर्थ प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है ।। १०३।।
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शायश प्रकाश
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सचित्यागी ( पमप्रतिमा ) का लक्षण
सचितं वस्तु नो भुङ्क्ते योऽम्भः पत्रफलाविकम् । स सचित परित्यागी कथ्यते वयया युतः ॥ १०४ ॥ अर्थ -- जो दयासे युक्त होता हुआ पानी, पत्र तथा फलादिक सचित्त वस्तुको नहीं खाता है वह सचित्त त्यागी पञ्चम श्रावक कहलाता है ॥ १०४ ॥
रात्रिभुक्ति त्यागी ( षष्ठ प्रतिमा ) का स्वरूप
रात्रिमध्ये न यो मुङ्क्ते भोजनं च चतुविधम् । रात्रिमुक्ति परित्यागी षष्ठोऽसौ श्रावकः स्मृतः ॥ १०५ ॥ अर्थ- जो रात्रि में चार प्रकार का भोजन नहीं करता है वह रात्रिभुक्ति त्यागी षष्ठ श्रावक कहलाता है || १०५ ॥
ब्रह्मचारी ( सप्तम प्रतिमा ) का लक्षण वारमात्र परित्यागी ब्रह्मधारी समुच्यते । विरक्तिभावमापन्नो विभोतश्च भवार्णवात् ॥ १०६ ॥
अर्थ -- जो स्त्रो मात्रका परित्यागी है, वैराग्यभावको प्राप्त है तथा संसार सागरसं भयभीत है वह ब्रह्मचारी सप्तम प्रतिमाका धारी श्रावक कहलाता है ॥ १०६ ॥
आरम्भत्यागो ( अष्टम प्रतिमा ) का लक्षण
पुरासंचित वित्तेषु
सतुष्टोऽन्यगतस्पृहः । व्यापारस्य परित्यागी त्यक्तारम्भः समुच्यते ॥ १०७ ॥
अर्थ - जो पहले संचित किये हुए धनमें संतुष्ट है, अन्य घनमें जिसकी इच्छा समाप्त हो गई है और जिसने व्यापारका परित्याग कर दिया है वह आरम्भत्यागो अष्टम प्रतिमाधारो श्रावक कहलाता है ॥ १०७ ॥
अपरिग्रह ( नवम प्रतिमा ) का लक्षण
मुक्त्वा ह्यावश्यकं वस्त्रं भाजनं च कटादिकम् । यो नाभ्यधनमावत्तं सोऽपरिग्रह उच्यते ॥ १०८ ॥
अर्थ -- जो आवश्यक वस्त्र, बर्तन और चटाई आदिको छोड़कर अन्य परिग्रहको ग्रहण नहीं करता है वह अपरिग्रह नवम प्रतिभाधारी श्रावक कहलाता है ।। १०८ ।।
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सम्पचारिः दामणिः अनुमतिविरत ( दशम प्रतिमा ) का लक्षण ध्यापारगृह निर्माण प्रभृतो नानुमोदनम् ।
कुस्ते यः स विज्ञेयोऽनुमतेविरतोगृही ।। १०९।। अर्थ--जो व्यापार तथा गृह निर्माण आदिमें अनुमोदना नहीं करता है उसे अनुमतिविरत श्रावक जानना चाहिये ॥ १०६ ।।
____उद्दिष्टयाग ( ग्यारहवीं प्रतिमा ) का स्वरूप उद्दिष्ट चान्नानादि को न गृह्णाप्ति जातुचित् । जय उद्दिष्ट सन्त्यागी स एकादश उत्तमः ॥ ११०॥ उद्दिष्टस्याग मेवस्य हो भदौ च निरूपिता। ऐलक: क्षुल्लकश्चेति प्रसिद्धो चरणागमे ।। १११॥ कोपीममात्रकं धते लिङ्गावरणमेलकः । क्षल्लकस्तु समादत्ततिरिषतं खण्डवस्त्रकम ।। ११२ ।। ऐलकः पाणिभोज्यस्ति क्षक्षकः पात्रभोजिकः । उपविश्यव भुजाते क्षुल्लको झेलकस्तथा ॥ ११३॥ ऐलक: कुरुते लुन्छ केशानां च यथाविधि। क्षुल्लकोऽपनयेत् केशान् कर्तर्यापि करेण या ।। ११४॥ केकि पिच्छे च गल्लीतो जीवानां रक्षणाय तौ । शोचनाधानिवत्यर्थमानवाते कमण्डलुम ।। ११५॥ आर्या धत्ते सितां शाटी षोडशहस्तसंमिताम् । क्षुल्लिका च समादत्ते धवलं तूत्तरच्छदम् ॥ ११६ ।। ऐलकवत् परिशंय आसां चर्यादिसंविधिः । आयिकास्तूपचारेण महावतयुता मताः ।। ११७॥ क्षुल्लिकाः श्राविका एव वर्तन्ते नात्र संशयः । यः कृतं सफल जन्म निर्दोषाचार धारणात् ॥ ११८ ।। धन्यास्ते धन्य भागास्ते शुकमायभवार्णवाः। मुनीना महतां वृत्तं रक्षितुं शक्नुवन्ति नो ॥११९॥ तेषां कृते प्रयासोऽयं श्रावकाचार वर्णने ।
जैनधर्मों यतः सर्वजीवानां हित कारकः ।। १२०॥ अर्थ--जो अपने उद्देश्य से बनाये गये अन्न पानोको कभी ग्रहण नहीं करता वह उद्दिष्ट त्यामी एकादश प्रतिमाधारी उत्तम श्रावक माना गया है। उदिदष्ट त्याग प्रतिमाके दो भेद कहे गये हैं--एलक और क्षुल्लक । ये दोनों भेद चरणानुयोग में प्रसिद्ध है । ऐलक कोपोन
HPANAAM
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वाण प्रकाश
१६१ नामक लिङ्गका आवरण ( लंगोटो) धारण करते हैं और क्षुल्लक कोपीनके सिवाय एक खण्ड वस्त्र भो ग्रहण करते हैं। ऐलक हाथमें हो भोजन करते हैं परन्तु क्षुल्लक पात्रभोजी होते हैं। ऐलक और क्षुल्लकदोनों ही बैठकर आहार करते हैं । ऐलक, विधि अनुसार केशोंका लोंच करते हैं और क्षल्लक लोंच, कैची अथवा उस्तराके द्वारा केशोंको दूर करते हैं। दोनों हो जीव-रक्षाके लिये मयूरपिच्छ ग्रहण करते हैं और शौचबाधा की निवृत्तिके लिये कमण्डलु धारण करते हैं । ___ आर्यिका सोलह हायकी सफेद साड़ी ग्रहण करती है और क्षुल्लिका साडोके ऊपर एक सफेद चद्दर भी रखती है। इन सबको चर्मानित ऐलकके समान जानना चाहिये । आर्यिकाएं उपचारसे महावतसे युक्त कहो गई हैं परन्तु क्षुल्लिका श्राविका ही है इसमें संशय नहीं करना है। ग्रन्थकर्ता कहते हैं कि जिन्होंने निर्दोष-चारित्र धारण करनेसे अपना जन्म सफल किया है वे धन्य हैं तथा धन्यभाग हैं, उनका संसारसागर प्रायः सूख गया है । बड़े-बड़े मुनियोंका चारित्र धारण करनेको जिनकी शक्ति नहीं है उनके लिये श्रावकाचारका वर्णन करनेके लिये मेरा यह प्रयास है क्योंकि जैनधर्म सब जीवोंकर हित करने वाला है।। ११०-१२०॥ आगे इस प्रकरणका समारोप करते हैं--
वृत्तं मुनीनां गृहिणां नृणां च यथेच्छमाचर्य महोत्सवेन । दुःखानिवृत्योसमसौल्पराशौ मग्ना भवेयुः सततं पुमासः ।। १२१॥ आधार एवं प्रथमोऽस्ति धर्म इति श्रुति ये हृदये घरन्ते । तेश्वधनुःखाद विनिवर्तमानाः स्वर्गापवर्गीय सुखं लभन्ते ।। १२२॥
अयं--प्रग्यकारकी भावना है कि मुनियों तथा गृहस्य मानवोंके चारित्रको हर्षपूर्वक इच्छानुसार धारणकर पुरुष दुःखसे निवृत्त होते हुए उत्तम-सुख समूहमें सदा निमग्न रहे । 'आचारः प्रथमो धर्मः' आचार पहला धर्म है इस श्रुतिको जो हृदयमें धारण करते हैं वे नरक के दुःखसे दूर रहते हुए स्वर्ग और मोक्षके सुखको प्राप्त होते हैं ॥ १२१-१२२ ।।
इस प्रकार सम्यक्-चारित्र-चिन्तामणिमें श्रावकाचारका
वर्णन करने वाला द्वादश प्रकाश पूर्ण हुआ।
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सम्यक्षारित्र-चिन्तामणिः
त्रयोदश प्रकाश
संयमासंयम अधिकार
मंगलाचरणम्
संसाराब्धिनिमग्न जन्तुनिवहानुद्धर्तुं कामं जिनंनिर्दिष्टां सुबुढां सुरत्ननिभूतां रस्नत्रयीं पावनीम् । नौकां ये लम्प निर्वृतिपुरीं गच्छन्ति संमीबत
स्तानेतान् सुगुरून् गुरून् गुणगणे नित्यं नमस्याम्यहम् ॥ १ ॥
अर्थ - संसार सागर में निमग्न जोवसमूहोंका उद्धार करने के इच्छुक जिनेन्द्र भगवन्तोंके द्वारा निर्दिष्ट, सुदृढ़, सुरत्नोंसे परिपूर्ण और पवित्र रत्नत्रय रूपी नौकाका अवलम्बन लेकर जो प्रमोद से निर्वाणपुरोकी ओर जा रहे हैं तथा गुणों के समूह से श्रेष्ठ हैं उन इन सद्गुरुओं को मैं नित्य ही नमस्कार करता हूं ॥ १.
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आगे देशचारित्र प्राप्त करनेके लिये अन्तरङ्ग कारणभूत कर्मोकी क्या कैसो दशा होती है, इसका संक्षेपसे वर्णन करते हैं-
वैशचारित्र संप्राप्यं कर्मणां कीदृशो स्थितिः । भवतोति विचारोऽयं संक्षेपाविह दीयते ॥ २ ॥ संयमासंयमो लोके चारित्रं वेशतो मतम् । यस हिसानिवृत्तत्वात्संयमो व्यवह्रियते ॥ ३ ॥
सत्वात्स्थावर हिंसायाः कथितोऽसंयमस्तथा । विवक्षाभेदतः सार्धं संयमासंयमो
मलः ।। ४ ।।
देशतः सर्वतोऽपि वा । लोके मिथ्यादृष्टेरनर्हता ॥ ५ ॥
सध् दृष्टे रेवचारित्रं संघर्तुमर्हता
अर्थ — देशचारित्रको प्राप्तिके लिये कर्मोकी कैसी स्थिति होतो है, यह विचार संक्षेपसे यहां दिया जाता है । संयमा· संयमको लोकमें देशचारित्र माना गया है। त्रस हिंसा से निवृत्त होनेके कारण संयमका व्यवहार होता है और स्थावर हिसाके विद्यमान रहने से असंयम कहा गया है। विवक्षाभेदसे संयमासंयम एक साथ माना गया है। देशचारित्र और सकलचारित्रको धारण करनेको योग्यता सम्यग्दृष्टिके
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वयोवश प्रकाश होती है, मिथ्यादृष्टि में उसको अनर्हता- अयोग्यता या अपात्रता है ।। २-५॥ आगे उपशामनाका लक्षण तथा उसके भेद बताते हैं
उभयौं लब्धिमा प्रतिबन्धककर्मणाम् । नियोगेन भवत्येव विधिरनोपशामना ।। ६ ।। प्रकृत्यादिविभेदेन चतुर्षा सा च सम्मता । आबिमाष्टकषायाणामुग्याभाव एव हि ॥ ७॥ संयमासंयमप्राप्तौ प्रकृत्युपशमो मतः । यद्यपि वर्तते चात्र प्रत्याख्यानावृतेस्तथा ॥८॥ सज्वलनालय मोहस्य प्रकृतीनां च सन्तनः । नवानां मोकवायाणामुदयोऽपि यथाविधि ॥ ९॥ तथाप्यत्र न कर्तृवं देशचारित्रघातने । किञ्चिद्धि वर्तते तेषां वेशघातित्वहेतुतः॥ १० ॥ प्रत्याख्यानावृतेरस्ति यद्यपि सर्वघातिता। सपापि देशवृत्तस्य धातने देशघातिता ॥ ११ ॥ तत्सत्यप्युदये तस्य न बाधा तत्र वर्तते।
सज्वलनाकषायास्तु सन्त्येव देशघातिनः ।। १२ ।। अर्थ-चारित्रलब्धि और देशचारित्र-दोनों लब्धियोंको प्राप्त करनेके लिये नियमसे प्रतिबन्धक कर्मीको उपशामना विधि होती है। प्रकृति आदिके भेदसे वह उपशामना चार प्रकारको मानी गई है। अर्थात् प्रकृति-उपशामना, स्थिति-उपशामना, अनुभाग-उपशामना और प्रदेश-उपशामनाके भेदसे उपशामनाके चार भेद हैं।
संयमा-संयमकी प्राप्तिमें आदिके आठ कषाय-अनन्तानुबन्धी चतुष्क और अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका उदय नहीं रहना प्रकृत्युपशामना मानो गई है। यद्यपि यहां प्रत्याख्यानावरण चतुष्क, संज्वलन चतुष्क और नोकपायोंका यथाविधि उदय रहता है तथापि देशचारित्रके घातनेमें उनका कुछ भी कर्तत्व नहीं है। क्योंकि वे देशचारित्रके घातनेमें देशघाति रहते हैं। यद्यपि प्रत्याख्यानावरण सर्वघाति प्रकृति है तथापि देश-संयमके घातने में उसे देशघाति माना जाता है। इसलिये उसका उदय रहते हुए भी देश-संयममें बाधा नहीं मातो। संज्वलन कषाय चतुष्क और नोकषाय नवक तो देशघाति हैं ही ।। ६-१२॥
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सम्यचारित्र-चिन्तामणिः
आगे स्थिति-पशामना, अनुभाग-उपशामना और प्रदेश उपशामनाका कथन करते हैं
बाधक प्रकृतीनां यो नोवयस्तत्र वर्तते। स्थित्युपशमनासैका द्वितीयास्वत्र कथ्यते ॥१३॥ सर्वकर्मप्रकृतीनामन्तःकोटी कोटी स्थितिः । एतस्या अधिकस्तस्या नोवयस्तत्र वर्तते ॥ १४ ॥ प्राप्तोदयकवायाणां सर्वधाति प्रवेशकाः । आयान्ति युवयं नंव सानुभागोपशामना ॥ १५ ॥ पूर्योक्तानां कषायाणां यः प्रवेशोक्यो महि।
स एव च प्रदेशानां करयते चोपशामना ॥ १६ ॥ अर्थ-बाधक प्रकृतियोंका जो वहाँ उदय नहीं रहता है वह एक स्थित्युपशामना है और द्वितीय स्थित्युपशामना यह कहलाती है कि सर्व कर्म प्रकृतियों को स्थिति अन्तःकोटी कोटी ही रह जातो है इससे अधिक स्थितिका वहां उदय नहीं रहता। उदयागत कषायोंके सर्व घाति प्रदेश उदय में नहीं आते, यही अनुभागोपशामना है। पूर्वोक्त कषायोंका जो प्रदेशोदय नहीं हैं वहीं प्रदेशोपशामना कही जाती है ।। १३-१६ ॥
औपशमिकसम्यक्त्वसहिता बेवफेम वा। क्षायिकेणयुता वापि मनुजाः शास्तचेतसः ॥ १७ ॥ क्षाषिकेतर सम्यक्त्व युगमुक्ता मृगास्तथा। लभन्ते देशचारित्रं कषायस्यासिमान्यतः ॥१८॥ भव्या निकट संसारा विरक्ता भवभोगतः । किं कि न साध्यते लोके कषायोकहानिसः ॥ १९ ॥ मिथ्यादृगपि लोकेऽस्मिन् सम्यक्त्वं देशसंयमम् । युगपल्लभते क्यापि काललब्धि प्रभावतः ॥ २० ॥ देवायुर्वजयित्वा चेतरेषामायुषो पुनः । सत्ता तु विद्यते येषां तिरस्या वा नणां तया ॥२१॥ तस्मिन् भवे न ते जीवा लभन्ते देशवृत्तकम् । येर्नबद्धं परस्यायुद्धं चेत्सुरसंज्ञकम् ॥ २२ ॥ योग्यास्त एवं सन्यत्र ग्रहीतु वेश संयमम् । व्यवस्थेयं अधोध्या संयमग्रहणेऽपि च ॥ २३ ॥
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नगीदश प्रकाश अर्थ-औपशमिक; बेदक अथवा क्षायिक सम्यक्त्वसे सहित, शान्तचित्तके धारक मनुष्य और क्षायिक सम्यक्त्व को छोड़कर शेष दो सम्यग्दर्शनोंसे सहित तियञ्च भी कषायोंकी मन्दतासे देशचारित्रको प्राप्त होते हैं। ये मनुष्य और तिर्यञ्च भव्य, निकट संसारी और भवभोगोंसे विरक्त रहते हैं। ठोक ही है लोकमें कषायों की मन्दता से क्या-क्या सिद्ध नहीं होता है। इस लोकमें मिथ्यादष्टि भी कहीं काललब्धिके प्रभावसे एक साथ सम्यक्त्व और देशसंयम को एक साथ प्राप्त कर लेते हैं। जिन मनुष्य और तिर्यञ्चोंके देवायु को छोड़कर परभव सम्बन्धी अन्य आयु को सत्ता है वे देशचारित्र को प्राप्त नहीं होते। देशचारित्र उन्हें प्राप्त होता है जिन्होंने परभव सम्बन्धो आयु का बन्धन किया हो और किया हो तो देवायुका हो किया हो, वे ही इस जगत्में देशसंयम रहा इदोके योग होते हैं : प पइया संयन--सकलचारित्र ग्रहण करने के विषयमें भी ज्ञानी-जनोंके द्वारा ज्ञातव्य है ॥ १७-२३॥ आगे देश चारित्रको धारण करते समय प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि जीव कितने करण करता है? यह कहते हैं
आद्योपशमसम्यक्त्व सहितो मानयो मगः । लभते यदि चारित्रं संयमासंयमाभिधम् ॥ २४ ॥ परिणामधिशु ध्याठपः कुरुते करणत्रयम् ।
अधःप्रवृत्तप्रभृति भावशुद्धिसमन्वितम् ॥ २५ ॥ अर्थ-प्रथमोपशम सम्प्रदष्टि मनुष्य अथवा तिर्थन यदि संयमासंयम नामक देशचारित्र को ग्रहण करता है तो वह भावोंको विशुद्धिसे युक्त होता हुआ भाबशुद्धि सहित अध:प्रवृत्त आदि तोनों करण करता है ।। २४-२५ ॥ आगे वेदक सम्यग्दृष्टि अथवा वेदक कालके भीतर रहने वाला मिथ्या
दृष्टि जोव, देशसंयम प्राप्त करने के लिये कितने करण करता है यह कहते हैं
वेबकेन युतः कश्चिद् यदा मिथ्यादगेव वा। अन्तर्वदक कालस्थः समं वेदक सदृशा ।। २६ ।। प्राप्नोति देशचारित्रं युगपत् क्षीणसंसृतिः। अनिसि बिहायासों कुरुते करणद्वयम् ॥ २७ ॥
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सम्यक चारिस-चिन्तामांगः अर्थ-वेदक सम्यग्दर्शनसे सहित अथवा वेदक कालके भीतर स्थित कोई अल्पसंसारी मिथ्यादृष्टि जीव वेदक सम्यग्दर्शन और देशचारित्रको एक साथ प्राप्त करता है तो वह अनिवृत्तिकरण को छोड़कर शेष दो करण करता है ।। २६-२७ ॥ आगे किस करणमें क्या कार्य होता है, यह कहते हैं--
अधःप्रयत्ततः पूर्व जायमान विशुद्धितः । आयुर्वर्जमशेषाणां कर्मणां स्थितिबन्धनम् ॥ २८॥ कुरुतेऽन्तः फोटोकोटी प्रमितं पुण्यकर्मणाम् । अनुभागं चतुःस्थानमशुभानां तु कर्मणाम् ।। २९ ॥ विस्थानीय विधायासौ भवेद् देशवतोन्मुखः। अधःप्रवृत्तकरणे विशुद्धिरेव वर्धते ॥ ३० ॥ स्थितिकाण्डकघातोऽनुभागकाण्डक संशतिः। भवितुं नाहतस्तत्र योग्यशुद्ध रमावतः ॥ ३१॥ न स्यादत्र गुणक्षेणो न पात्र गुण संक्रमः। अपकरणे प्राप्त भवन्त्येतानि सर्वतः ॥ ३२ ॥ कुर्वनेतानि सर्वाणि लभते देशतो व्रतम् ।
वेशवतो सदा पुर्यान्निर्जरो गुणणितः॥ ३३ ॥ अर्थ-अधःप्रवृत्तसे पूर्व होने वाली विशुद्धिसे यह जीव आयुकर्म को छोड़कर शेष कर्मों का स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण करता है, पुण्य प्रकृतियोंके अनुभाग को चतुःस्थानीय गुड, खांड, शर्करा अमृत रूप और पाप प्रकृतियोंके अनुभाग को द्विस्थानीय-निम्ब औय कांजीर रूप करके देशवत धारण करनेके सन्मुख होता है। पश्चात् अधःप्रवृत्त करण को प्राप्त होता है। उसमें इसको विशुद्धि हो बढ़ती है। योग्य विशुद्धिका अभाव होनेसे स्थिति-काण्डक-धात और अनुभागकाण्डक-घात नहीं होते। अतः प्रवृत्तकरणमें न गुण श्रेणी निर्जरा होती है और न गुणसंक्रमण! पश्चात् अपूर्वकरणके प्राप्त होनेपर ये सब कार्य सब प्रकारसे होने लगते हैं। इन सब कार्योको करता हुआ मनुष्य अथवा तिर्यञ्च देशव्रतको प्राप्त होता है। देशवतो गुण' श्रेणी निर्जरा को सतत् करता है ।। २८.३३ ॥ आगे संयतासंयत जोव किस गुणस्थानवर्ती हैं, यह कहते हैं
संयतासंयता जोवा पचमस्थानतिन।। सम्यक्त्वमयोपेताः कान्ते जिनसूरिमिः ॥ ३४ ॥
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वयोवंश प्रकाश कदाचिद् भावशेथिल्यावन्नीचरपि पक्षन्ति ते । पुनर्भावविशुद्धित्वात्तत्रया यान्ति शीघ्रतः । ३५ ।। देशातयुताः केचिन्मनुजा भावशुद्धितः। महानतानि संगद्य सप्तमं यान्ति धामकम |२६| भावतः संयमो यत्र पर्तते द्रव्यसंयमः ।
नियमेन भवत्येव मावो द्रव्ये सु भाज्यतः ॥ ३७॥ अर्थ-नाचार्यों हार सम्पदा व सहित यता-संयत देशचारित्रके धायक पञ्चम गुणस्थानवर्ती कहे जाते हैं। वे कदाचित भावोंको शिथिलतासे यदि नीचे गुणस्थानों में भी आते हैं तो भावोंको विशद्धतासे शीघ्र ही पञ्चम गुणस्थानमें हो आ जाते हैं। देशत्रतसे सहित कितने हो मनुष्य महाव्रत ग्रहणकर सप्तम गुणस्थानको प्राप्त होते हैं। जहां भावसंयम होता है वहाँ द्रव्यसंयम नियमसे होता है परन्तु द्रव्यसंयमके रहते हुए भावसंयम भाज्य है-होता भी है और नहीं भी होला ॥ ३४-३७॥ ___ भावार्थ-प्रतिपक्षी कषायका क्षयोपशम होने से आत्मामें जो विशद्धता होतो है वह भाव-संयम कहलाता है तथा शरीरके द्वारा पदानुरूप क्रियाओंका होना द्रव्यसंयम है। जिसके प्रतिपक्षी कषायोंका अभाव होनेसे भावोंमें विशुद्धता उत्पन्न हुई है उसका वाह्य वेष तथा आचरण नियमसे भावानुरूप होता है परन्तु प्रतिपक्षी कषायके मन्द या मन्दतर उदयमें जो द्रव्यसंयम बना है उसके भावसंयम होता भी है और नहीं भी होता। भावसंयम या भावसंयमासंयमको परीक्षा प्रत्यक्ष ज्ञानी हो कर सकते हैं, साधारण लोग नहीं । वे तो चरणानुयोग के अनुसार निदोष आचरणको देखकर उसे संयत या संयतासंयत मानते हैं। इसोलिये आहार-दान तथा भक्तिवन्दना आदिमें चरणानुयोगका आलम्बन ग्राह्य बतलाया गया है, करणानुयोग का नहीं। अब देशचारित्रका धारक भनुष्य या तिर्यञ्च कहां उत्पन्न होता है, यह कहते हैं
वेशक्तप्रभावेण मनुजाः षोडशावषिम् । स्वर्ग यान्ति ततश्च्युत्वा भवन्ति पुरुषोत्तमाः ॥ ३८॥ तिर्यञ्चोऽपि समायान्ति प्रिदिवं षोडशावधिम् । सतपयुस्वा महीं यान्सि गृहीत्वा मानुषं भवम् ॥ ३१॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः ____ अर्थ-देशतके प्रभावसे मनुष्य सोलह स्वगं तक उत्पन्न होते हैं और वहांसे च्युत होकर उत्तम पुरुष होते हैं। बती तियञ्च भो सोलहवें स्वर्ग तक जाते हैं और वहाँसे च्युत हो मनुष्य भव लेकर पृथिवो पर आते हैं ।। ३८-३६ ॥ आगे देशव्रती तिर्यञ्चों और मनुष्योंका निवास बतलाते हैं
वेशनतन संयुक्तास्तिर्यञ्चो मानवास्तया। सार्धद्वयेषु द्वीपेषु निवसन्ति यथास्थिति ॥ ४० ॥ केचिन् नियंदा जीना देशमा निषिताः । स्वयंभरमणे द्वीपे निवसन्ति प्रमोवतः ॥४१॥ एते पूर्व भवायात सुसंस्कार प्रमावतः। उपदेशाइते सन्ति देशवतं विभूषिताः॥ ४२ ।। नियमेन स्वर्ग यान्ति भोरवो जीवघाततः ।
विरक्ता भवभोगेभ्यः प्रकृत्या शान्तचेतसः ॥ ४३ ।। अर्थ--देशव्रतसे सहित तिर्यञ्च तथा मनुष्य अपनी-अपनी स्थितिके अनुसार अढ़ाई द्वीपोंमें निवास करते हैं। देशवतसे विभूषित कोई तिर्यञ्च स्वयंभुरमण द्वोपमें हर्षपूर्वक निवास करते हैं । ये तिर्यञ्च, पूर्वभवसे आये हुए सुसंस्कारोंके प्रभाबसे उपदेशके बिना हो देशवतसे विभूषित होते हैं, जोवघातसे डरते रहते हैं, सांसारिक भोगोंसे विरक्त रहते हैं और प्रकृतिसे शान्तचित्त होते हैं एवं नियमसे स्वर्ग जाते हैं ।। ४०-४३ ।।
भावार्थ-मानुषोत्तर पर्वतसे आगे और स्वयंभरमण द्वोपके मध्य में स्थित स्वयंप्रभ पर्वतसे इस ओर असंख्यात द्वीप समुद्रोंमें जघन्य भोगभूमिको रचना है, वहां पञ्चेन्द्रिय तिर्यच और देवोंका निवास है, परन्तु स्वयंप्रभ पर्वतसे लेकर अर्धस्वयंभरमण द्वीप, स्वयंभूरमण समुद्र और उसके बाद कोनोंमें कर्मभूमिको रचना है। यहाँके कोई-कोई तिर्यञ्च पूर्वभवागत संस्कारसे उपदेशके बिना हो देशव्रत धारण कर लेते हैं तथा उसके प्रभावसे स्वर्ग जाते हैं। मनुष्योंका अस्तित्व अढ़ाई द्वीपसे बाहर नहीं है। आगे इस प्रकरणका समारोप करते हुए इन्द्रिय विजयका उपदेश देते
अये प्रमादिनो नराः समाहिताः स्त सत्त्वरम् । इये नमन्ति तस्करा हृषीकवेषधारिणः ॥ ४४ ॥
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त्रयोदश प्रकाश
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स्ववीय वृत्तरत्नमत्र दुर्लभं परं मतं । इमे हरन्ति वञ्चनापरा नराधमा इह ॥४५॥ प्रमानिद्रिता दशां प्रमुञ्चत प्रमुञ्चत । धरस्व संयम द्रुतं नियम्य बुर्धरं मनः ।। ४६॥ पराजिसो विधीयतां हृषीक शसंचयः ।
मनुष्य जन्म सार्थक विधीयता विधीयताम् ।। ४७ ।। अर्थ-ऐ प्रमादो मनुष्यों! शोन हो सावधान होओ, इन्द्रिय वेषको धारण करनेवाले ये चोर घूम रहे हैं । तुम्हारा चारित्ररूपी रत्न इस लोकमें दुर्लभ माना गया है। धोखा देने में तत्पर रहने वाले ये अधम मनुष्य उस संयमरूपो रत्नका हरण कर रहे हैं, अपनो अत्यधिक निद्रा दशाको छोड़ो, छोड़ो। दुर्धर मनको रोककर शोध हो संयमको धारण करो। इन्द्रियरूपी शत्रओंके समूहको पराजित करो और मनुष्य जन्मको सार्थक करो, सार्थक करो ।। ४४.४७ ॥ इस प्रकार सम्यक चारित्र-चिन्तामणि ग्रन्थ में संयमासंघमल ब्धिका संक्षिप्त वर्णन करनेवाला
त्रयोदश प्रकाश पूर्ण हुआ।
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प्रशस्ति
चारित्रचिन्तामणिरेष पुंसा
मनोरयान् पूर्णतरान् करोतु । संत्यज्य भोगाम् भवपातहेतुन्
जगज्जनाः स्वात्मपरा भवन्तु ।। १ ।। अर्थ-यह चारित्र-चिन्तामणि नन्थ पुरुषोंके मनोरथोंको परिपूर्ण करे और जगत्के जीव संसारपतनके कारणभूत' भोगोंको छोड़कर स्वकोय आत्मामें तत्पर हो---आत्मोय स्वभावमें रमण करें ॥१॥ शशि शशि बाणाशि मिते (२५११)
वोराने सोमवासरे रम्ये । अपराहो गगनतले
श्यामाब्दैः संवृते रचितः॥२॥ अर्थ-२५११ वीर-निर्वाण संवत्सरमें रमणीय सोमबारके दिन अपराह्न कालमें जबकि आकाश श्याम मेघोंसे घिरा हुआ था, यह ग्रन्थ रचा गया॥२॥ आषादमासीय बलक्षपक्षे
हरितुणालोलसरच्छ कक्षे। द्वितीय वारेण समागतायां
जयातिथौ पूति मयं जगाम ॥ ३ ॥ अर्थ-हरे-हरे घासके समूहसे जब वन सुशोभित है तब आषाढ़ मासके शुक्ल पक्षकी द्वितीय' बार' आई हुई जया तिथि-अष्टमी तिथि में यह ग्रन्थ पूर्णताको प्राप्त हुया ।। ३ ।। १. निन्दा भद्रा जया रिक्ता पूर्णा च तिथयः क्रमात्' ज्योतिष के इस उल्लेखा
नुसार प्रत्येक पक्ष में प्रतिपदा से लेकर पञ्चमी तक नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता और पूर्णा ये पांच तिथियां आती हैं। पुनः एष्ठी से दशमी तक यही नन्दा आदि तिथियां और एकादशी से पूर्णिमा तक पुनः इसी नाम से तिथियों आती हैं। इस तरह नन्दा आदि तिथियां प्रत्येक पक्ष में तीनतीन बार आती है । अतः अष्टमी दूसरी बार आई हुई जया तिथि है।
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प्रशस्ति
१७१
गल्लीलाल तनूजेन मानक्युपरसंभुवा । दयाचन्द्रस्थ शिष्येण सागरग्रामवासिना ॥ ४॥ पन्नालालेन बालेन रचितोऽल्पधिया मया । जोयाश्चिन्तामणिर्लोके चारित्राधो निरन्तरम् ॥ ५ ॥ अज्ञालाद्वा प्रमााा जाता ग्रन्थ विनिर्मिती । याः कश्चित् त्रुटयः सन्ति शोधनीया बुधस्तु ताः ॥ ६ ॥ जिनाज्ञा भङ्गतो नूनं मिमि भूरिमूरिशः । अतो मत्स्खलने वृष्ट्या हसन्तु बुधोत्तमाः ।। ७ ॥ त्रुटीनां शोधने कुर्य विद्वान्सी महती कृपाम् ।
सर्वेषां सयोगेन अनवाक्प्रसरो मवेत् ॥ ८॥ अर्थ-गल्लीलालके पुत्र, जानको माताके उदरसे उत्पन्न, दयाचन्द्र जीके शिष्य, सामर-निबासी, अल्पबुद्धि वालक पन्नालालके द्वारा रचा हुआ यह सम्पा-चारित्र-चिन्तामणि ग्रन्थ निरन्तर जयवन्त रहे। ग्रन्धको रचनामें अन्नान अथवा प्रसादको न कोई बुद्धि हुई हैं जो विद्वज्जन शुद्ध करें। सचमुच हो मैं जिनाज्ञा भङ्गसे अत्यधिक भयभोत रहता हूँ। इसलिये उत्तम ज्ञानो जन मेरो त्रुटि देखकर हँसे नहीं । किन्तु विद्वज्जन त्रुटियोंको शुद्ध करने में महतो कृपा करें। भावना यह है कि सबके सहयोगसे जिनवाणीका प्रसार हो।। ४-८॥
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परिशिष्ट
आहार सम्बन्धी ४६ दोषों का विवरण मूलाचारके पिण्ड-शुद्धि अधिकारमें मुनियोंके आहार सम्बन्धी ४६ दोषोंके नाम निम्न प्रकार आये हैं
सोलह उदगम दोष १. औद्देशिक, २. अध्यधि, ३. पूति, ४. मित्र, ५. स्थापित, ६. बलि', ७ प्रावर्तित, ८. प्रादुकार, ६. क्रोत, १० प्रामृष्य, ११. परिवर्तक, १२. अभिघट, १३. उद्धिन्न, १४. माला रोह, १५. आच्छेय और १६. अनीशार्थ।
इनके सिवाय अधाकर्म नामका एक महादोष और भी है जो पञ्चसूनासे रहित हैं तथा मथके आश्रित है । षट्काय जीवोंके वधका कारण होनेसे महादोष कहा गया है। विदित होनेपर मुनि ऐसा आहार नहीं लेते। औद्देशिक आदि दोषोंकी संक्षिप्त परिभाषा इस प्रकार है
१. औद्देशिक-सामान्यजनको उद्देश्य कर बनाया गया आहार उद्देश है, पाखण्डो साधुओंको लक्ष्य कर बनाया गया अन्न समुद्देश है। आजोबक, तापसो, बौद्ध भिक्षुक तथा छात्रोंको लक्ष्यकर बनाया हुआ अन्न आदेश कहलाता है और निन्य साधओंको लक्ष्यकर बनाया हुआ समादेश है। यह चारों प्रकारका आहार औद्देशिक आहार कहलाता है। यह आहार खासकर मेरे लिये हो बनाया गया है, ऐसा ज्ञान होने पर भो जो साधु उस आहारको लेते हैं उन्हें यह औद्देशिक दोष लगता है।
२. अध्याधि दोष-श्रावका अपने लिये भोजन बना रहा था उसो समय किसो साधुको आया देख उसमें जल तथा चावल आदि अधिक डाल देना अध्यधि दोष है ।
३. पूति दोष-प्रासुक आहार भी यदि अप्रासुक–सचित्त आदिसे मिश्रित हो तो वह पूति दोष कहलाता है। वह चूल्हा, ओखलो, कलछी, बर्तन तथा गन्धके भेदसे पांच प्रकारका है । जैसे इस नये चूल्हे पर भात बनाकर पहले साधुको दूंगा तत्पश्चात् अपने काममें लगा, इस भावसे
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परिशिष्ट
१७६
बनाया आहार पूति दोषसे दूषित माना जाता है। इसी तरह ओखलो आदि के विषयमें जानना चाहिये ।
४. मिश्र बोष--जो अन्न; गृहस्थों और पाखण्डियोंको साथ-साथ दिया जाता है, वह मिश्र दोष है।
५. स्थापित दोष-जिस ननमें भान आदि बना है उसमे निकाल कर चौकाके बाहर अपने घर में रखना या अन्य के घरमें पहुंचाना स्था. पित दोष है।
६. बलि दोष-यन, नाग आदिके लिये जो नैवेद्य तैयार किया गया है, वह बलि कहलाता है। इस बलिमेंसे कुछ आहार साधुको देना बलि दोष है।
५. प्रालित दोष- अभ्य तिथियोंमें देने योग्य आहारको पूर्व तिथियोंमें देना और पूर्वतिथिमें देने योग्य आहार आगामो तिथिमें देना अथवा पूर्वाह्र में देने योग्य वस्तु अपराह्न में देना और अपराह्न में देने योग्य वस्तु प्रावर्तित पूर्वाह्नमें देना प्रावर्तित दोष है। यह प्राभृत दोष भो कहलाता है।
८. प्रावुष्कार दोष--बर्तन, भोजन तथा स्थान आदिका दिखावा कर बनाया हुआ आहार प्रादुष्कार दोषसे दूषित माना गया है।
९. क्रीत कोष--साधुको आया देख अपने यहाँ कमी होनेपर घी, दुध, फल आदिको तत्काल खरोदकर देना, क्रोत दोष है।
१०. प्रामष्य बोष-अपने घर साधके आने पर पड़ोसीके यहाँसे उधार लेकर किसी वस्तुको देना प्रामृष्य दोष है, इसे ऋण दोष भी कहते हैं।
११. परिवर्तक बोष-साधुके आनेपर अपने घर मोटे चावलोंसे बना भात आदि आहार पड़ोसीके धरसे अच्छे चावलोंका भात आदि बदल कर देना परिवर्तक या परावर्तित दोष है।
१२. अभिघट दोष-जिस चौकामें साधु गये हैं उस चौकाका आहार तो ग्राह्य है ही उसके अतिरिक्त सरल पंक्तिमें स्थित तोन या सात घरसे आया हुआ आहार भो ग्राह्य है। इससे अधिक दूरोसे आया आहार ग्राह्य नहीं है । वह अभिघट दोषसे दूषिस कहलाता है ।
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सम्यक्पारिव-चिन्तामणिः
१३. उद्विग्न दोष-साधुके सामने किसी बर्तनके ढक्कन और शील आदिको खोलकर उसमेंसे निकाली हुई वस्तु उद्भिन्न दोषसे दूषित है। इसी तरह फल आदिको साधुके सामने ही बनाकर तैयार करना उद्भिन्न दोष है।
१४. मालारोह दोष-साधूके सामने ही नसैनो आदिसे ऊंचे स्थान पर चढ़कर लाई हुई वस्तु मालारोह दोषसे दूषित है।
१५. आच्छेद्य दोष- अपनी इच्छा न रहते हुए भो किसी राजा आदिसे आतङ्कित होकर जो आहार दिया जाता है वह आच्छेद्य दोष से दूषित माना गया है।
१६. अनीशार्थ दोष-जिस देय पदार्थका अर्थ-कारण अप्रधान पुरुष हो अर्थात दाता स्वयं तो दान नहीं देता किन्तु अन्य लोगोंसे दिलाता है वह अनीशार्थ कहलाता है. ऐसे द्रव्यको यति साधु लता है तो वह अनोशार्थ दोष कहलाता है। इस दोषका स्पष्ट विवेचन मुलाचार की आचार-वृत्तिसे जानना चाहिये।
सोलह उत्पादन वोष १. धात्री, २. दूत, ३. निमित्त, ४. आजीव, ५. वनोपक, ६. चिकित्सा, ७ क्रोघी, ८. मानी, ६. माया, १०. लोभ, ११. पूर्व स्तुति, १२. पश्चात् स्तुति, १३. विद्या, १४. मन्त्र, १५. चूर्ण योग और १६. मूल कर्म । इनका स्वरूप इस प्रकार है
१. धात्री दोष-धात्रो-धायके समान गृहस्थके बालकको स्वयं विभूषित' करना अथवा उसके उपाय बताना। बालक के साथ साधका स्नेह देख गृहस्थ साधुको आहार देता है और साधु उसे लेता है, वह धात्री दोष है।
२. दूत बोष-एक ग्रामसे दूसरे ग्राम जानेपर पूर्व नाममें गृहस्थके सम्बन्धीका समाचार अन्य ग्रामके सम्बन्धोको बताना। ये साधु हमारा संदेश लाये हैं इससे प्रभावित हो गृहस्थ साधुको जो आहार देता और साधु उसे लेता है तो वह दूत दोष है।
३. निमित्त दोष-गृहस्थको ज्योतिष आदि अष्टाङ्ग निमित्तका शान कराकर प्रभावित करना और उसके माध्यमसे जो आहार प्राप्त किया जाता है, वह निमित्त दोष है ।
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परिमिष्ट
१७५ ४. भाजीवक दोष-जाति, कुल; शिल्प, तप और ईश्वरता ये आजोय हैं, इनसे आहार प्राप्त करना आजोवक दोष है। ये साधु हमारो जाति या कुलके हैं, ये अनेक शिल्पके ज्ञाता हैं, तपस्वी हैं और ये पहले हमारे स्वामो रहे हैं अथवा इनको बड़ी प्रभुता रही है, इस विचारसे जो आहार दिया जाता है और साधु उसे लेता है तो वह आधीपक कोष है ।
५. बनीपक बोष-.-'अमुक-अमुक व्यक्तियोंको दान देने में पुण्य होता है या नहीं इस प्रकार वाताके पूछने पर उसके अनुकूल वचन कहना तथा उससे प्रसन्न होकर दाता जो आहार देता है और साधु लेता है तो वह वनीपक दोष है।
६. चिकित्सा दोष-गृहस्थको किसो रोगकी चिकित्सा (औषध ) बताना उससे प्रभावित होकर गृहस्थ आहार देता है तथा साधू उसे ग्रहण करता है तो वह चिकित्सा दोष होता है ।
७. क्रोध दोष-क्रोध दिखाकर गृहस्पसे आहार प्राप्त करना क्रोध दोष है।
८. मान दोष-मान दिखाकर गृहस्थसे माहार प्राप्त करना मान दोष है।
९. माया दोष-माया दिखाकर गृहस्थसे आहार लेना माया दोष है।
१०. लोभ दोष-लोभ दिखाकर गृहस्थसे आहार लेना लोभ दोष है।
११. पूर्वस्सुति बोष-आहारके पूर्व हो गृहस्थको प्रशंसा करना जैसे आप बड़े दानो हैं, आपके सिवाय इस प्राममें साधुओंको आहार देने वाला कौन है ? इस प्रकारको प्रशंसासे प्रभावित होकर गहस्थ जो आहार देता है और साधु उसे लेता है तो वह पूर्वस्तुति दोष है।
१२. पश्चात् स्तुति दोष-आहार लेनेके बाद गृहस्थकी प्रशंसा करना जिससे वह पुनः भी आहार दे। इस तरह जो आहार प्राप्त किया जाता है वह पश्चात् स्तुति दोष है।
१३. विद्या दोष-मैं तुम्हें अमुक विद्या दूंगा। इस प्रकार विद्याका प्रलोभन देकर गृहस्थसे जो आहार लिया जाता है वह विद्या दोष है । * विद्या और मन्नमें अन्तर विद्या सिद्ध करने पर काम देती है और मन्त्र,
आज्ञा मानसे काम देता है।
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सम्यम्चारित्र-चिन्तामणिः
१४. मन्त्र दोष -- मैं तुम्हें अमुक मन्त्र दूँगा, इस तरह मन्त्र के प्रलोभन से प्राप्त किया हुआ आहार, मन्त्र दोषसे दूषित है |
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१५. चूर्ण दोष -- नेत्रोंका अञ्जन या शरीरको विभूषित करने वाले चूर्ण बनानेको विधि बताकर उससे प्रभावित गृहस्थसे माहार लेना चूर्ण दोष है ।
१६. मूलकर्म दोष -- जो वश में नहीं है उसे वश में करनेको या जो बिछुड़ा है उसे मिलानेको विधिको मूल कर्म कहते है । इससे जो आहाय प्राप्त किया जाता है, वह मूलकमं दोष से दूषित है ।
दस अशन दोष
अशन दोष १० प्रकारके हैं - १. शङ्कित, २. प्रक्षित, ३. निक्षिप्त, ४. पिहित ५ संव्यवहरण ६ दायक ७. उन्मिश्र, ८ अपरिणत, ६. लिप्स और १०. व्यक्त । इनका स्वरूप इस प्रकार है
F
१. शङ्कित- 'यह आहार मेरे योग्य है, या अयोग्य है', इस प्रकारके अनिर्णीत आहारको लेना शंकित दोष है ।
२. मित- घी, तेल आदिसे चिकने बर्तनोंमें रक्खा हुआ या चिकने हाथोंसे दिया गया आहार म्रक्षित दोषसे दूषित है ।
३. निक्षिप्त- सचित पृथिवो, जल, अग्नि तथा बीज आदि पर रक्खा हुआ आहार निक्षिप्त कहलाता है । ऐसे आहारको लेना निक्षिप्त दोष है ।
४. विहित --- जो सचित्त वस्तुसे ढका हो अथवा जो किसी भारी अचित्त वस्तुसे का हो उसे पिहित कहते हैं। ऐसे आहारको ग्रहण करना पिहित दोष है ।
५. संव्यवहरण दोष- दान आदिके बर्तनको शीघ्रता के कारण खींचना और बिना देखे उस वर्तन में रखखा हुआ आहार लेना संव्यवहरण दोष है ।
६. दायक दोष – घाय, मद्यपायी, सूतकपातक वाला, पिशाचग्रस्त, अतिबालक, अतिवृद्धा, पांच माहसे अधिक गर्भं वाली स्त्री, आड़ में खड़ौ या ऊँचे, नीचें स्थानपर खड़ी स्त्री आदिके द्वारा दिया हुआ आहार दायक दोष से दूषित होता है ।
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परिशिष्ट
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७. उम्मिश्र दोष-मिट्रो, अप्रासूफ जल, सचित्त वनस्पति तथा बोज आदिसे मिला हुआ आहार उम्मिश्न आहार है। इसे लेना उन्मिश्र दोष है।
८. अपरिणत दोष-तिलोदक; चणेका घोवन, चावलोंका धोबन तथा हरित वनस्पति आदिने जब तक अपना रूप, रस, गन्ध, स्पर्श नहीं बदला है तब तक वह अपरिणत कहलाता है ऐसा आहार लेना अपरिणत दोष है।
९. लिप्त पोष-गेरु, हरिताल आदिसे लिप्त बर्तन में रखा हुआ जल आदि आहार लिप्त दोषसे दूषित होता है।
१०. व्यक्त दोष–पाणिपुर में आये हुए आहारको अधिक मात्रामें नोचे गिराते हुए आहार करना, अथवा अञ्जलि में आयो हुई एक वस्तु को नोचे गिराकर दूसरो इष्ट वस्तु लेना व्यक्त दोष है।
संयोजनादि चार दोष १. संयोजना दोष, २. प्रमाण दोष, ३. अंगार दोष और १. धूम दोष।
इनका स्वरूप इस प्रकार है
१. संयोजना दोष-परस्पर विरुद्ध वस्तुओंके मिला देने पर संयोजना दोष होता है, जैसे--अत्यन्त गर्म जल में अप्रासुक शीतल जल मिला कर उसे पीने योग्य बनाना, या अत्यन्त गाढ़ो दाल आदिमें अप्रासुक शीतल जल मिला कर उसे खाने योग्य बनाना।
२. प्रमाण दोष-प्रमाणसे अधिक भोजन लेने पर प्रमाण दोष होता है। उदरके दो भाग आहारसे, एक भाग पानोसे भरना चाहिये तथा एक भाग वायुके संचारके लिये छोड़ना चाहिये।
३. अंगार दोष-गृद्धतावश अधिक आहार लेना अंगार दोष है ।
४. धूम दोष-अरुचिकर भोजनकी मनमें निन्दा करते हुए लेना धूम दोष है।
चौदह मल १. नख, २. रोम { बाल ), ३, जन्तु, ४. हड्डी, ५. कण ( जो गेहूँ आदिके बाहरका अवयव ), ६. कुण्ड ( चावलके ऊपर लगा हुआ मन आदि ), ७. पीप, ८. चम, ६ रुधिर, १०. मांस, ११. बोज
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मएकवारित जिन्टा पणिः ( अंकुर उत्पादनको शक्तिसे युक्त गेहूँ, चना तथा मुनक्काका बीज आदि ), १२. फल (जामुन आदि सचित्त फल), १३. कन्द ( जमीकंद आल, सुरण, शकरकन्द आदि ) और १४. मूल ( मूली तथा पिप्पली आदि)।
इन १४ मलोंमें कुछ महामल हैं और कुछ अल्पमल हैं। कोई महादोष हैं और कोई अल्प दोष । जैसे रुधिर, मांस, हड्डी, चर्म और पोप ये महादोष हैं। आहारमें इनके आ जाने पर आहार छोड़ दिया जाता है तथा प्रायश्चित भी किया जाता है। आहारमें इन्द्रिय, त्रोन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जोवका कलेवर यदि आ जाय तो आहार छोड़ देना चाहिये । बाल निकलने पर आहार छोड़ देना चाहिये । नखके निकलने पर आहार छोड़कर कुछ प्रायश्चित लिया जाता है। कण, कुण्ड, बोज, कंद, फल और मूलके आने पर यदि ये अलग किये जा सकते हों तो अलगकर आहार लिया जा सकता है और अलग न किये जा सकने पर आहार छोड़ देना चाहिये।
बत्तीस अन्तराम १. काफ-चर्याक लिये जाते समय मुनिके ऊपर यदि का या वक आदि पक्षो बोट कर दे तो यह काक नामका अन्तराय है।
२. अमेध्य--चर्याक लिये जाते समय यदि साधुका पर विष्ठा आदि अपवित्र पदार्थसे लिप्त हो जाय सो अमेध्य नामका अन्तराय
३. छदि-चर्या के लिये जाते समय मुनिको यदि वमन हो जाय तो छदि नामका अन्तराय है।
४. रोधन-चर्याक लिए जाते समय साधुको यदि कोई रोक दे या पकड़ ले तो रोधन नामका अन्तराय है। ___५. रुधिर-यदि आहार करते समय साधु के शरीरसे रुधिर निकल आवे या किसी अन्य के शरोरसे निकलता हुआ कधिर दिख जाय तो रुधिर नामका अन्तराय है।
६. अश्रुपात-दुःख के कारण अपने या सामने खड़े किसी अन्य व्यक्ति के नेत्रसे अश्रुपात होने लगे तो अश्रुपात नामका अन्तराय है।
७. जान्वधः परामर्श- घुटनोंसे नोचेके भागका यदि हाथ से स्पर्श हो जाय तो जाग्वधः परामर्श नामका अन्तराय है ।
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परिशिष्ट
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८. जातूपरि व्यतिक्रम-दाता पड़गाह कर ले जावे और चांका घटनोंसे ऊपर अधिक ऊंचाई पर है, साधुको बिना सीढ़ोके उतना ऊपर चढ़ना पड़े तो यह अन्तराय होता है । साधु लौट जाते हैं।
९. नाभ्यधो निर्गमन-साधुको चौकामें पहुँचनेके लिये इतनी छोटी खिड़कोसे जाना पड़े कि एकदम झुकना हो तो यह नाभ्यधो निर्गमन नामका अन्तराय है।
१०. प्रत्याख्यात सेवना-साधुने जिस वस्तुका त्याग किया है यदि वह वस्तु आहार में आ जाय तो प्रत्याख्यात सेवना नामका अन्तरराय है, जैसे साधु नमक छोड़े हुए है, दाता ने नमक वाला पदार्थ दे दिया, साधु कोन नमदका वन मनराधमानद शेष आहार छोड़ देते हैं।
११. जन्तु पद्य-चौकामें पहुँचने पर अपने द्वारा या दान देनेवाले अन्य व्यक्तिके द्वारा चिउटी आदि जीवोंका बध हो जाय या नीचे रखे हुए बर्तन में पड़कर कोई मक्खी आदि मर जाय अथवा आहार करते समय यह शब्द सुननेमें आवे कि अमुक व्यक्तिका वध हो गया है तो यह जन्तु वध नामका अन्तराय है।
१२. काकादि पिण्ड हरण-वनमें आहार लेते समय कोई काक आदि पक्षी झपट कर साधुके पाणिपुटसे ग्रास ले जाय तो यह काकादि पिण्ड हरण नामका अन्तराम है।
१३. पिण्ड पतन-यदि आहार करते समय साधुके पाणिपुटसे ग्रास मात्र नोचे गिर जाय तो पिण्डपतन नामका अन्तराय होता है ।
१४. पाणिजन्तु वध-यदि आहार करते समय कोई मक्खी आदि जन्तु पाणिपुट में आकर मर जाय तो पाणिजन्तु बध नामका अन्तराय
१५. मांस दर्शन-यदि आहार करते समय मरे हुए पञ्चेन्द्रिय जीवके शरीरका मांस दिख जाय तो मांस दर्शन नामका अन्तराय है ।
१६. उपसर्ग-आहारके समय देवकृत आदि उपसर्गके आ जानेपर उपसर्ग नामका अन्तराय होता है ।
१७. पावान्तर ओव-यदि आहार करते समय कोई चहिया आदि पञ्चेन्द्रिय जोव साधुके पैरों के बोनसे निकल जाय तो पादान्तर जीव नामका अन्तराय होता है।
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सम्यकचारित्र-चिन्तामणिः १८. भाजन पार.. यदि महारोवारको हासते होईन नोचे गिर जाय तो भाजनपात नामका अन्तराय होता है।
१९. उच्चार-पेचिश आदिको बोमारी होनेके कारण यदि साधु के उदरसे मल निकल जाय तो उच्चार नामका अन्तराय होता है।
२०. प्रस्रवण-यदि किसी बीमारोके कारण आहार करते समय साधुके मूत्रसाव हो जाय तो प्रस्रवणका नामका अन्तराय होता है।
२१. अभोज्य गृह प्रवेश-चर्याके लिये जाते समय यदि साधुका चांडाल आदिके घरमें प्रवेश हो जाय तो अभोज्य गृह प्रवेश नामका अन्तराय होता है।
२२. पतन-यदि आहार करते समय मूछी आनेसे साधु गिर पड़े तो पतन नामका अन्तराय होता है।
२३. उपवेशन-आहार करते समय शक्तिको क्षोणतासे साधुको बैठना पड़ जाय तो उपवेशन नामका अन्तराय होता है।
२४. सदंश-आहार करते समय यदि कुत्ता आदि काट खाये तो सदंश नामका अन्तराय होता है ।
२५. भूमि स्पर्श-सिद्ध भक्ति करनेके बाद यदि साधुसे भमिका स्पर्श हो जाय तो भूमि स्पर्श नामक अन्तराय होता है।
२६. निष्ठीवन-आहार करते समय यदि साधु के मुख से थूक या कफ निकल जाय तो निष्ठीवन नामका भन्तराय होता है।
२७. उपर कृमिनिर्गमन-आहार करते समय यदि साधुके उदरसे कृमि निकल पड़े तो उदर कृमि निगमन नामक अन्तराय होता है।
२८. अदत्त ग्रहण-यदि विना दो हुई वस्तु ग्रहण में आ जाय अथवा आहार करते समय यह विदित हो जाय कि दाता जो वस्तु दें रहा है वह चोरों को है तो साधु अन्तराय कर देते हैं ।
२९. प्रहार-आहार करते समय यदि कोई दुष्ट जीव साधु पर अथवा सामने उपस्थित श्रावकों पर लाठी आदि से प्रहार कर दे तो प्रहार नामका अन्तराय होता है।
३०. ग्रामदाह-आहार के समय यदि ग्राम में आग लग जाय तथा भगदड़ मच जाय तो ग्राम दाह नामका अन्तरराय होता है।
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परिशिष्ट
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३१. पादेन किंचिद् ग्रहण- यदि पैर से कोई वस्तु ग्रहण की जावे तो यह अन्तराय होता है ।
३२. करेण किचित् ग्रहण -- यदि आहार करते समय कोई दाता भूमि पर पड़ी वस्तु को हाथ से उठा ले तो करेण किंचिद् ग्रहण नामका अन्तराय होता है ।
विशेष - यद्यपि उपयुक्त ३२ अन्तरायों के सिवाय चाण्डाल स्पर्श, कलह, इष्टमरण, साधमिक संन्यास पतन तथा प्रधान का मरण आदि भी भोजन त्याग के हेतु हैं तथापि उपलक्षण होने से इनका उपयुक्त अन्तरायों में अन्तर्भाव समझना चाहिये ।
वन्दना सम्बन्धी कृति कर्मके बत्तीस दोष
१. अनादृत, २. स्तब्ध, ३. प्रविष्ट ४. परिपोडित, ५, दोलायित ६. अंकुशित, ७. कच्छप रिङ्गित, ८. मत्स्योदूर्त, ९. मनोदुष्ट, १०. वेदिकाबद्ध, ११. भय, १२. बिभ्यत्व, १३. ऋद्विगौरव, १४. गौरव, १५. स्ते निल, १६. प्रतिनिीत, १७. प्रदुष्ट, १८. तजित, १६. शब्द, २०. होलित, २१. त्रिवलित, २२. कुञ्चित, २३. दृष्ट, २४. अदृष्ट, २५. संघकर मोचन, २६. आलब्ध, २७. अनालब्ध. २०. होन, १६ उत्तर चूलिका, ३० मूक, ३१. दर्दुर और ३२. चुलुलित। इनके लक्षण इस प्रकार हैं
१. अनादृत - आदर या उत्साह के बिना जो कुतिकर्म किया जाता है वह अनादूत दोष से दूषित है ।
२. स्तब्ध - विद्या आदिके गर्वसे उद्धत होकर क्रिया-कर्म करता स्तब्ध दोष है ।
३. प्रविष्ट - पञ्चपरमेष्ठीके अति निकट होकर कृतिकर्म करना प्रविष्ट दोष है । वन्द्य और वंदक के बीच कम से कम एक हाथ का अन्तर होना चाहिये |
४. परिपीडित-हाथ से घुटनों को पीड़ित कर अर्थात् घुटनों पर हाथ लगाकर खड़े होते हुए कृति कर्म करना परिपोड़ित दोष है ।
५. दोलायित - दोला झूला के समान हिलते हुए वन्दना करना दोलायित दोष है ।
६. अंकुशित - अंकुश के समान हाथ के अंगूठों को ललाट पर लगा कर बन्दना करना अंकुशित दोष है ।
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सम्पचारित्र-चिन्तामणि ७.कच्छपरिणित-कछुवेके समान कटिभाग से सरक कर वन्दना करना कच्छपरिङ्गित दोष हैं ।
८. मत्स्योद्वर्त--मत्स्य के समान कारभाग को ऊपर उठाकर वन्दना करना मत्स्योद्वर्त दोष है।
९. मनोदुष्ट-मन से आचार्य आदि के प्रति द्वेष रखते हुए वन्दना करना मनोदुष्ट दोष है।
१०. बेदिकाबद्ध-दोनों घुटनों को हाथों से बांधकर वेदिका को आकृति में वन्दना करना वेदिकाबद्ध दोष है।
११. भय-भय से घबड़ाकर वन्दना करना भय दोष है ।
१२. बिभ्यत्व-गुरु आदिसे डरते हुए अथवा परमार्थ ज्ञान से शून्य अज्ञानी होते हुए वन्दना करना बिभ्यत्व दोष है ।
१३. ऋद्धि गौरव-वन्दना करने से यह चतुर्विध संघ मेरा भक्त हो जायगा, इस अभिप्राय से वन्दना करना ऋद्धिगौरव है।
१४. गौरव-आसन आदि के द्वारा अपनो प्रभुता प्रकट करसे हुए वन्दना करना गौरव दोष है।
१५. स्तेलित बोष-मैंने वन्दना की है, यह कोई जान न ले, इस. लिये चोर के समान छिपकर बन्दना करना स्तेनित दोष है।
१६. प्रतिनीत-गुरु आदि के प्रतिकूल होकर बन्दना करना प्रतिनोत दोष है।
१७. प्रदुष्ट-अन्य साधुओं से द्वेषभावकलह आदिकर उनसे क्षमाभाव कराये बिना वन्दना करना प्रदुष्ट दोष है।
१८. तजित-आचार्य आदिके द्वारा तजित होता हुआ वन्दना करना तजित दोष है, अर्थात् नियमानुकूल प्रवृत्ति न करने पर आचार्य कहते हैं कि 'यदि तुम विधिवत् कार्य न करोगे तो संघ से पृथक् कर देगें' आचार्य की इस तर्जना से भयभीत हो वन्दना करना तजित दोष
१९. शब्द-मौन छोड़, शब्द करते हुए वन्दना करना शब्द दोष है।
२०. हीलित-वचन से आचार्य का तिरस्कार कर पद्धतिवश वन्दना करना होलित दोष है।
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परिशिष्ट
१५३
२१. त्रिवलित-ललाट पर तोन सिकुड़न डालकर रुद्रमुद्रा में वन्दना करना विवलित दोष है।
२२. कुंचित-संकुचित हाथों से शिर का स्पर्श करते हुए अथवा घुटनों के बीच शिर झुकाकर वादना करना कुंचित दोष है ।
२३. दृष्ट-आचार्य यदि देख रहे हैं तो विधिवत् वन्दना करना अन्यथा जिस किसी तरह नियोग पूर्ण करना, अथवा इधर उधर देखते हुए वन्दना करना दृष्ट दोष है।
२४. अदृष्ट-आचार्य आदि को न देखकर भूमि प्रदेश और अपने शरोर का पीछोसे परिमार्जन किये बिना बन्दना करना अथवा आचार्य के पृष्ठ देश-पीछे खड़ा होकर वन्दना करता अदृष्ट दोष है ।
२५. संघकर मोचन-वन्दना न करने पर संघ रुष्ट हो जायगा; इस भयसं नियोग पूर्ण करनेके भाव से वन्दना करना संघकर मोचन दोष है।
२६. आलब्ध-उपकरण आदि प्राप्त कर वन्दना करना आलब्ध दोष है।
२७, अनालब्ध-उपकरणादि मुझे मिले, इस भाव से वन्दना करना अनालब्ध दोष है।
२८. हीन-शब्द, अर्थ और काल के प्रमाण से रहित होकर वन्दना करना होन दोष है, अर्थात् योग्य समय पर शब्द तथा अर्थ की ओर ध्यान देते हुए पाठ पढ़कर वन्दना करना चाहिये । इसका उल्लंघन कर जो चम्बना करता है वह होन दोष है।
२९, उत्तर धूलिका-वन्दना का पाठ थोड़े ही समय में बोलकर 'इच्यामि भन्ते' आदि अंचलिका को बहुत काल तक पढ़कर वन्दना करना उत्तर चुलिका दोष होता है।
३०. मूक-जो मूक-गूंगे के समान मुख के भीतर ही पाट बोलता हुआ अथवा गुंगे के समान हुंकार आदि करता हुआ चन्दना करता है उसके मूक दोष होता है।
३१. वर्दुर-जो मेंढक के समान अपने पाठ से दूसरों के पाठ को दबाकर कलकल करता हुआ वन्दना करता है उसके दर्दुर दोष होता है।
३२. मुकुलित - जो एक ही स्थान पर खड़ा होकर मुकुलित अंजलि को घुमाता हुआ सबको वन्दना कर लेता है उसके मुकुलित दोष होता है।
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः
इन बत्तोसों दोषों से रहित कृतिकर्म ही कर्मनिर्जरा का कारण होता है ।
कायोत्सर्ग के अट्ठारह दोष
१ घोटक, २. लता. ३. स्तम्भ ४. कुडघ ५ माला, ६. शवरवधू, ७. निगड, कलम्बोत्तर ६. स्तनदृष्टि १० वायस, ११. खलीन, १२. युग, १३. कपित्थ, १४. शोर्ष प्रकम्पितः १५. मुकत्व, १६. अंगुलि, १७. विकार और १८. वारुणीपायो ।
इनका स्वरूप इस प्रकार है ----
१. घोटक -- कायोत्सर्ग के समय घोड़े के समान एक पैर को उठाकर अथवा झुका कर खड़े होना घोटक दोष है ।
२. लता - लता के समान अड़ों को हिलाते हुए कायोत्सर्ग करना लता दोष है ।
३. स्तम्भ - स्तम्भ - खम्भा के आश्रय खड़े होकर कायोत्सर्ग करना स्तम्भ दोष है ।
४. कुडघ - कुडप -- दीवाल के आश्रय खड़े होकर कायोत्सर्ग करना कुडघ दोष है ।
५. माला - माला - पठि, आसन आदि ऊँचो वस्तु पर खड़े होकर कायोत्सर्ग करना माला दोष है ।
६. शबरबधू - भिल्लनी के समान दोनों जंघाओं को सटा कर खड़े हो कायोत्सर्ग करना शवस्वधू दोष है ।
७. निगड़ - निगढ़ - बेड़ो से पीड़ित हुए के समान दोनों पैरों के बीच बहुत अन्तराल दे खड़े होकर कायोत्सर्ग करना निगड़ दोष है ।
८. लम्बोत्तर - नाभि से ऊपर के भाग को अधिक लम्बाकर कायोत्सर्ग करना लम्बोत्तर दोष है ।
९. स्तनवृष्टि - अपने स्तनों पर दृष्टि देते हुए खड़े होकर कायोत्सर्ग करना स्तनदृष्टि दोष है ।
१०. बायस - बायस — कौए के समान अपने पार्श्वभाग को देखते हुए खड़े होकर कायोत्सर्ग करना वायस दोष है ।
११. खलीन - खलीग - लगामसे पीड़ित घोड़े के समान दांत कटकटाते हुए कायोत्सर्ग करना खलीन दोष है ।
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परिशिष्ट
१२. युग-युग-आसे पोड़ित बैलके समान गर्दन पसारकर खड़े हो कायोत्सर्ग करना युग दोष है।
१३. कपित्य-कथाके समान मुट्ठी बांधकर खड़े हो कायोत्सर्ग करना कपित्य दोष है।
१४ शिरःप्रकम्पित-शिरको कपाते हुए खड़े होकर कायोत्सर्ग करना शिर! प्रकम्पित दोष है ।
१५. मूकस्व-मूकके समान मुखविकार तथा नासाको संकुचित करते हुए खड़े होकर कायोत्सगं करना मूकत्व दोष है।
१६. अंगुलि कायोत्सर्गमें खड़े होकर अंगुलियां चलाना अथवा उनसे गणना करना अंगुलि दोष है ।
१७. धू-विकार--भौहोंको चलाते अथवा पैरोंको अंगुलियों को ऊंचा. नोचा करते हुए खड़े होकर कायोत्सर्ग करना भू-विकार दोष है ।
१८. वारुणोपायी--वारुणी--मदिरा पोने वाले के समान झूमते हुए खड़े होकर कायोत्सर्ग करना वारुणीपायो दोष है।
शोलके अट्ठारह हजार भेद मूलाचारके शोल-गुणाधिकारमें प्रतिपादित शोलके अट्ठारह हजार भेद इस प्रकार हैं--
तीन योग, तोन करण, चार संज्ञाएं, पांच इन्द्रिय, दश पृथिवीकायिक आदि जीवभेद, और उत्तम, क्षमा आदि दशधर्म, इनका परस्पर गुणा करनेसे शोलके अट्ठारह हजार भेद होते हैं। योग, संज्ञा. इन्द्रिय और क्षमादि दशधर्म प्रसिद्ध हैं। अशुभ योगरूप प्रवृत्ति के परिहारको करण कहते हैं। निमित्तभेदसे इसके भी तीन भेद हैं..-मन, वचन और काय । पृथिवोकायिक, जल कायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, प्रत्येक वनस्पति, साधारण वनस्पति, द्वोन्द्रिय, पोन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय ये पृथिवीकायिक आदि १० जीवभेद हैं।
३४३४४४५४१०४१० - १८,००० शोलके अट्ठारह हजार भेद अन्य प्रकारसे भो परिगणित किये जाते हैं।
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि
मुनियोंके चौरासी लाख उत्तरगुण हिंसा, असत्य, चौयं, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, भय, जुगप्सा, रति और अरति ये तेरह दोष हैं। इनमें मन, वचन एवं काय इन तीनोंको दुष्टतारूप तीन दोष मिलानेसे सोलह होते हैं। इन १६ दोषोंमें मिथ्यात्व, प्रमाद, पिशुनता ( चुगलखोरी ) अज्ञान और इन्द्रियोंका अनिग्रह ( निग्रह नहीं करना ) ये ५ और मिला देनेसे २१ दोष हो जाते हैं। इन २१ दोषोंका त्याग करने रूप २१ गण होते हैं। यह त्याग अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचारके त्यागसे ४ प्रकारका होता है, अतः इन चारका २१ में गुणा करनेसे ८४ प्रकारके गुण होते हैं। इन ६४ में पृथिवीकायिक आदि ५ स्थावर एवं द्वन्द्रिय, त्रोन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय और संज्ञोपरचेन्द्रिय इन दशकायके जीवोंकी दयारूप प्राणिसंयम तथा इन्द्रियसंयमके ६ भेद सब मिलाकर १०० का गणा करनेपर ८४०० होते हैं। इनमें १० प्रकारकी विराधनाओं (स्त्रीसंसर्ग, सरसाहार, सुगन्ध संस्कार, कोमल शयनासन, शरीर-मण्डन, गोतवादित्र श्रवण, अर्थ ग्रहण, कुशोलसंसर्ग, राजसेवा एवं रात्रि-संचरणका गृणा करनेपर ८४,००० चौरासो हजार होते हैं । इनमें आलोचना सम्बन्धो १० दोष ( आकम्पित, अनुमानित, दृष्ट, वादर, सुक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त, तत्सेवी ) का गुणा करनेपर ८५,००,००० लाख उत्तरगुण हो जाते हैं।
निर्जरा निर्जरा भावनाके वर्णनमै पृष्ठ ११७ पर निर्जराके सविपाक और अविपाकके भेदसे दो भेदोंका वर्णन किया गया है। बद्धकर्म के प्रदेश आबाधा कालके बाद अपना फल देते हुए निषेक-रचनाके अनुसार क्रमसे निजीर्ण होते जाते हैं, इसे सविपाक निर्जरा कहते हैं । इस जीवके सिद्धोंके अनन्तवें भाग और अभव्य राशिसे अनन्त गुणित प्रमाण बाले समयप्रबद्धका प्रतिसमय बन्ध होता है। इतने हो प्रमाण वाले समयप्रबद्धको निर्जरा होती रहती है और डेढ़ गुणहानि प्रमाण समयप्रबद्ध सत्तामें बना रहता है। मोक्षमार्गमें इस निर्जराका कोई प्रभाव नहीं होता, क्योंकि जितने कर्मों की निर्जरा होती है उतने हो नवोन कर्मोका बन्ध हो जाता है। अविपाक निर्जरा वह है जो तपश्चरणके प्रभावसे उदय कालके पूर्व होतो है और जिसके होनेपर संबर हो जाता है।
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परिशिष्ट
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यह अगिताय निर्जरा हो कल्माणको नगिनोंदी विशुद्धतासे कदाचित् अचलावलीके वाद ही बद्धकर्म खिर जाते हैं, इसकी उदीरणा संज्ञा है । पृष्ठ ११७ पर
प्रभावात्तपसां केचिदाबाधापूर्वमेव हि ।
निजीयत्र जायन्ते सा मता ह्मविपाकजा ॥ ८७ ॥ श्लोकमें आबाधापूर्वमेवहिके स्थानपर 'उदयात्पूर्वमेव हि पाठ उचित लगता है। अनुबादमें भी 'आबाधाके पूर्व हो' के स्थानपर 'उदयकालके पूर्व' ऐसा पाठ उचित है। शुद्धिपत्र में यह संशोधन देनेसे रह गया है । आयुकमको छोड़कर शेष सात कर्मोको आवाधाका नियम उदयको अपेक्षा यह है कि एक कोड़ा-कोड़ी सागरको स्थितिपर सौ वर्षको आबाधा पड़तो है । अर्थात् १०७ वर्ष तक वे कर्मप्रदेश सत्तामें रहते हैं, फल नहीं देते। १०० वर्षके बाद निषेक-रचनाके अनुसार फल देते हुए स्वयं खिरने लगते हैं। आयुकर्मको आबाधा एक कोटि वर्षके विभागसे लेकर असंक्षेपाडा आवलो प्रमाण है। उदोरणाको अपेक्षा कोको आबाधा एक अचलावली प्रमाण है।
सल्लेखना श्रावक हो, चाहे मुनि, सल्लेखना दोनोंके लिये आवश्यक है । उमास्वामी महाराजने लिखा है-'मारणान्तिको सल्लेखनां जोषिता'-व्रतो मनुष्य मरणान्तकाल में होने वाली सल्ले खनाको प्रीतिपूर्वक धारण करता है। मलाराधना तथा आराधनासाय आदि ग्रन्थ सल्लेखनाके स्वतन्त्र रूपसे वर्णन करनेवाले ग्रन्थ हैं। इनके सिवाय प्रायः प्रत्येक श्रावकाचारमें इसका वर्णन आता है। प्रतीकाररहित उपसर्ग, दुभिक्ष अथवा रोग आदिके होने पर गृहोतसंयमकी रक्षाको भावनासे कषाय और कायको कुश करते हुए समताभावसे शरीर छोड़ना सल्लेखना है। इसीको संन्यास अथवा समाधिमरण कहते हैं।
दुक्खक्खयो का खयो समाहिमरणं च बोहिलाहो य । मम होऊ जगदबांधव तव जिणवरचरणसरणेण ॥
अर्थात् दुःखका क्षय तब तक नहीं होता जब तक कि कर्मोका क्षय नहीं होता, कर्मोका क्षय तब तक नहीं होता जब तक समाधिभरण नहीं होता और समाधिमरण तब तक नहीं होता जब तक वोधिरत्नत्रयको प्राप्ति नहीं होती। इन चार दुर्लभ वस्तुओंकी प्राप्ति जिनदेवके चरणोंको शरणसे प्राप्त होती है।
कुन्द कुन्द स्वामोने सल्लेखनाको गरिमा प्रकट करते हुए इसे
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सम्यक्लारित्र-चिन्तामणिः श्रावकके चार शिक्षाबतोंमें परिगणित किया है परन्तु पश्चाद्वर्ती आचार्योने वतोमात्रके लिये आवश्यक जानकर उसका स्वतन्त्र वर्णन किया है। नित्य सल्लेखना और पश्चिम सल्लेखनाके भेदसे सल्लेखना के दो भेद हैं । निरन्तर सल्लेखनाको भावना रखना नित्य सल्लेखना है और जीवनका अन्त आनेपर मल्लेखना करना पश्चिम सल्लेखना है । अमृतचन्द्राचार्यने पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें इसका महत्त्व बतलाते हुए लिखा है
इयमेव समर्था धर्मस्वं मे मया समं नेतुम् ।
सतल मिति भावनोया पश्चिमसल्लेखना भक्त्या ॥ १७५ ॥ अर्थात् यह एक पश्चिम सल्लेखना ही मेरे धर्मरूपी धनको मेरे साथ ले जाने में समर्थ है।
इसो भावको लेकर सल्लेखना-प्रकरणके प्रारम्भमें लौकिक वैभवका दृष्टान्त देकर सष्ट किया गया है। दुष्टान्त दृष्टान्तमात्र है । सल्लेखना करनेवाले मूनि अथवा श्रावकको लौकिक सम्पदाको सत्य ले जानेको भावना नहीं होती, क्योंकि लौकिक भोगोपभोगोंको आकांक्षा को तो आचार्योने निदान नामका अतिचार कहा है। भोगोपभोगके प्रति क्षरकको आकांक्षा उत्पन्न करना दृष्टान्तका प्रयोजन नहीं है। सल्लेखना आत्मघात नहीं है। आगममें इसके तोन भेद बतलाये हैं-- १. भक्तप्रत्याख्यान, २. इंगिनोमरण और ३. प्रायोपगमन । भक्तप्रत्याख्यानमें क्षपक आहार-पानीका यम अथवा नियम रूपसे त्याग करता है तया शरीरको टहल स्वयं अथवा अन्यसे करा सकता है। इंगिनोमरणमें शरोरको टहल स्वयं कर सकता है, दूसरेसे नहीं कराता और प्रायोपगमनमें न स्वयं करता है न दूसरेसे कराता है।
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अ
अकाले सूत्रपाठी हि अगाधे भवाब्धी पतन्तं
पद्यानुक्रमणिका *
--
७, ३२ ॥ ६१
६, १५ । ६३
अङ्गीकृत्य राज्ञां
अग्निप्रशमनो नाम अग्निकायिकजीवन
अग्नितप्तं यथा हेम अचित्तास्तु गृहाराणा पेह
१२, ४६ । १५०
अज्ञानाद्वा कायावा ३, ५२ । ३४ अज्ञानावा प्रमादाना ५०, ६ । १७१
अज्ञानाद्वा प्रमादाद्वा १२, ५४ । १५१
अज्ञानाद्वा प्रमादाद्वा १२, ४४ । १४६ अज्ञानजनितासख्यं
३, ५३ । ३४ १२:१५ । १४६
अणुव्रतानां साहाय्यं अणुव्रतं परिज्ञेयं
१२, १४ । १४५ १२, ७४ । १५४
अणुव्रतानि कथ्यन्ते यतस्तस्य सुरक्षार्थ
४ ३० | ४८
अतिचारा इमे ज्ञेया १२,५१ । १५० अतिचारा इमे त्याज्या १२, ४६ । १५० अतिचाच इमे त्या
१२, २१ । १५२ १२, ४३ । १४६
अतिचारा इमे ज्ञेया तो न विद्वज्जन माननीय
१७ । २ अतो विरज्य भोगेभ्यो १०, १३ । १३३ तो भेदा ७, ७३६८
अतो दिगम्बर: साधुः
४ ५८ ५१
असं तप आचारे ७, ११५ । १०४
७८०६८ ४, ४६ । ५०
३,२५ । ३०
८६२ । ११७ रें, पर्द
अथ वक्ष्ये गुणस्थानं अथ प्रवक्ष्यामि महाअथाग्रे सम्प्रवक्ष्यामि ३,
अथा सम्प्रवक्ष्यामि अावश्यककार्याणि
अथा देशचारित्रं बाग्रे सम्प्रवक्ष्यामि
अत्र क्रियते पंचां
अार्याणां विधि वक्ष्ये अयेन्द्रियजय लक्ष्यं अष्णासमित्याश्व
अयोपशमनाकार्यं
अपशमसम्यक्त्व
२ । १२२ ३, २ । २६ १०१ । ४१ ३, ८४ । ३८
६, २ । ५६
१२: ३ । १४४
३, ७२ । २७
४, ५६ । ४६ १०, ३ । १३३
५, २ । ५४
४, २५ । ६८
२, ३६ । ३७
अनुभूय महाकष्ट
अनुभागं चतुःस्थानं अनेकान्त दण्डः प्रचण्डं. अन्नपानादित्यागं अन्यदर्शन युस्तेषु
१३.२४ । १६५
१३, २८ । १६६
अधःप्रवृत्ततः पूर्व अघः प्रकरणं १३, ३० । १६६ अधोमध्योद्वभेदेन ८, ६६ । १०८ अदृष्टमाजितादान १३, ६५ । १५३ अष्टामाजितस्थाने १२, ६४ । १५३ अनलोऽनलकायश्च ३, १६ । २८ अनादिलो निजात ८, ६३ | ११७ अनादिकालाभ्रमता ३, ११६ १४४ अनागतादिभेदेन
६, ६२ । ८०
११, ६ । १३८ १३,२६ । १६६
६, २१ । ६५ ११, ३० । १४९
६ ६० । १३१
* प्रथम अंक प्रकाशका, द्वितीय अंक पथका और तृतीय अंक पृष्ठका समझना
चाहिये, प्र० - • प्रशस्ति ।
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40
सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः अन्यस्तु पशमश्रेणी २, २४ । १५ असत्यमेतद् विशेय ३, ४८ । ३३ जना मसिदार्थ , : 842 अयटनत्यागात् ३, ५५ । ३४ अन्येषां वघबन्धादि १२, २३ । १५६ असंझिनि भवेवानं ६, ३५ । १२७ अन्योऽयं कलहायन्ते ५ ३५। ५८ अस्तेयवतरक्षार्थ ३, १०७ । ४२ अन्तराये समायाते ४, ३३ । ४८ अस्मिन् केचन जीवाः ३; ३० । ३० अन्तर्वाह्योपधित्यागे १,५३ । ८ अस्मिन्ननादिसंसारे ८,३३ । १११ अन्तर्मुहूर्तमध्येऽसौ १,६६.११ अस्मिन् भवार्णवे घोरे -, २२ । १०६ अन्ते सल्लेखना कार्या १२, ३८॥ १४८ अस्पोत्पत्तिक्रमः प्रोक्तः ७, १०। ८८ अपराधस्य वैषम्यं ५,८१।६८ अहं ज्ञानस्वभावोऽस्मि ८, ४६ । ११२ अपर्याप्तेषु विज्ञेय E1 १२३ अहिंसादिप्रभेदेन १२, ६ । १५५ अपर्याप्तेषु विज्ञेय ४३ । १२८ अहिंसा सत्यमस्तेयं १, २६ । ५ अपर्याप्ते तृतीयं नो ६७ । १२३ अहिंसा सत्यमस्तेयं ७,५७ । ६६ अप्रत्याख्यानावरण १२, ८८ । १५६ अभव्ये प्रथम ज्ञयं ३२ । १२६ आचार एवं प्रथमोऽ-१२, १२२ । १६१ अभावान्भोकारक्षाया ६,६३ । ७४ आचार्यवर्यान् गुणरत्न- १.३।१ अभावकाश मातापो ७,७१ । ६७ माचार्यादिप्रभेदेन ७,१० ! १०० अयं गौरोह्ययं श्यामो ५, २७ । ५७ आजीवमुलापानीयं ५, १४ । ५५ अयि कथं सुविधेचर- ६,४११७० आतापनादियोगेषु ७,११६ । १०५ अये प्रमादिनो नरा: १३, ४४ । १६८ आत्मानं सुखसंपन्नं १०, १२ । १३३ अयोगेषु भवेदेकं ५२।१३० आत्मनो वीतरागत्वं ..." "" "". अर्धपृद्गलपर्यन्त ८, ११० । ११६ आत्मस्वभावे स्थिरता १,११। ३ अर्थो हि विद्यते पुस ३, ६४ । ३६ आमन् वाञ्छसि ८,#१ । ११७ ईतल्याणकस्थान ६, १११ । ८५ यात्मबलवर्धनेन ४,७१ । ५४ अल्पायुषि नरत्वे सा ८, ११३ । १२० आरमन्नशरणं मत्वा ८, २१ । १०६ अवमोदर्यनामा स ७, ६७ । ६७ मारमा न म्रियते ११, ३५ । ५४२ अवशस्य मुनेः कार्य ६,३।६० सादाने क्षेपणे चंपा ४, ५३ । ५१ अवधिदर्शनं ज्ञेयं ६,२६ । १२६ आद्यहिक समुल्ल वय २, ६८ । २३ अश्रुसिक्तमुखस्तिष्टान् प, २३ १५ आद्यक्षयोदश ज्ञेया १५ । १२४ अष्टम्यां च चतुर्दश्यां १२, २६ । १४७ आधं चतुष्टयं ज्ञेयं .६ । १२३ अष्टम्यां व चतु- १२, १०३ । १५८ ___ आद्यं सामायिक जेयं १२, २६ । १४७ अष्टाङ्गसम्यक्त्व- १,७१ । ११ आचं जीवादितत्वानां ७,६ । ८७ अष्टोत्तरशतोच्छवासा ६, ११० । ८५ माद्यानि स्युः सवेदानां ६, २०। १२५ अष्टोत्तरशतोच्छ्वासा ६. १०७ १४ मारवरासु पृथ्वीषु ६४१ १ १९८
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. पचानुक्रमणिका
११
बायोपशमसदृष्टि २,२०।१४ इतोऽग्रे संप्रथक्ष्याम्य १२, ३६ । १५६ आयोपशमसम्यक्त्व २,६ । १३ इतोडसे संप्रवक्ष्यामि २, ६३ । २३ आनयनं बहिः सीम्नो १२, ५६ । १५२ इतोऽग्रे संविधास्यामि ४, ६६ । ५३ आयतं वतुलाकारं ७,६८।६७ इरथमाघायंवयवेन्दु १०, ३३ । १३६ आयाते संकटे साधौ ७, ८६।१७० इत्थं च मार्गणास्थाने ६,३७ । १२७ आरम्भाजायते हिंसा १२, ८ | १४५ इत्थं विचार्य निर्गन्यो ५, २४ । ५७ आरुह्मोपशमश्रेणी २, २२ । १५ इत्यं मुक्त्वा नवद्रव्य २, ६० । २० आरोग्यलाभसंस्थान १२, ८६ । १५६ इत्थं मूलगुणान् श्रुत्वा १, ६५ । १० आतौ दुःचे भवेयत्ता ७, १०४ । १०३ इत्यंभूता नराः क्वापि ८, ५६ । ११३ आर्यखण्डसमुत्पन्न २, ११ । १३ इत्येवं बहुमानेन ७,४८ । ६३ आर्यखण्डे समायान्ति २, १२ । १० इन्दुयंथा कलङ्कन १२, ६६ । १५३ आर्या दीक्षा महीरवा १०, १६ । १३४ इण्टग्रन्थस्य प्रारम्भे ६, ११२ । ८५ आर्या धत्ते सिता. १२, ११२ । १६० प्रष्टस्त्रीसुतवित्तादि ७, १०५। १०२ आयिकाणां व्रतं नूनं १०, ३१ । १३६ इष्टानिष्टपदार्येषु १, ४८ । ८ आलोचनाविधानेयु ६, २६ । ६६ इष्टानिष्टेषु पञ्चानां ३.१६। ४३ आलोचनादिभेदेन ७,७५। ६८ इष्टानिष्टरसे भोज्ये १,४१।७ आलोचनायो कुटिलाश्च ६,६६। ८३ इष्टानिष्टप्रसङ्गेषु ६,६। ६० आश्रितजीवजातीनां १२, ४२ । १४६ इष्टानिष्टपसभेषु ५,३७ । ५८ आषाढमासीयवलक्ष प्र०, ३।१७० इण्टानिष्टवियोग६,४३ । ७१ आस्रवस्य निरोषो यः ८, ७३ । ११५ ईदृश्यो हि ममाहारो १, ३२ । ४० आहारं स्वेप्सितं गृहन् १, ३८ । ४६ ईर्या भाषादिभेदेन ४,३।४४ माहारो विद्यते पुंसां ७, ६५ । ६६ ईयया अपराधेषु ६,६६।७५ आहारके तन्मिये च ६.१७ । १२५ र्याभाषषणादान ७. ५८ । ६६
ईर्याभाषणादान इसिनीमरणं स्वस्य ११.१८ । १५० इच्छाया विनियोधोऽस्ति ७, ६२ । ६६ इति व्याजो न कर्तव्यो ३, ६५। ४० उज्वलज्योतिराकाउक्षी ५, २६ । ५७ इति हि विहितां भक्त्या ६, १६ । ७४ उस्थितश्चोस्थितः पूर्व ६, ११८ 1 ८६ इति ज्ञेयाश्चतुर्भेदाः ६, ११३।८६ उत्तुङ्गगिरिशृङ्गषु ७, ११८ । १७४ इति मदं विजही सुर. ६, ४२ । ७१ उद्दिष्टं चान्नपानादि १२, ११० । १६० इतोऽने मार्गणामध्ये ६,३६ । १२८ उद्दिष्टत्यागभेदस्य १२, १११ । १६० इसोऽने वर्गमिष्यामि ५, ६५। ६६ उपवासोऽवमोदयं ७ ६३ । ६६ इतोऽग्ने स्याद्यथाख्यातं २, २६ । १५ उपसर्गसहः साधुः ११, २३ । १४०
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१६२
सम्यकनारित-चिन्तामणिः
उपभोगाः प्रकीय॑न्ते १२, ३१ । १४७ एतस्मिस्तु गुणस्थाने २, ४५ । १६ उपसर्गप्रतीकारे ११, १२ । १२६ एवस्यापि चतुर्भदा, ७, ११२ । १०३ उभयो लब्धिमाहत्तुं १३, ६ । १६३ एतस्याविरतिर्या हि २७ । २७ उभयमन्थसंत्यागी ३,६।३६ एतत्सप्तप्रकृतीनां २, ६६ । २३ उल्कापाते प्रदोषे च ७, २६ । ६० एतस्मिन् हि गुणस्थाने २, ७२ । २५
एताश्चतुविधा नार्यस् ३,७७ । ३४ एकवार दिवा भुङ्क्ते १, ३५। ६ एते विविधसन्यासा ११, २० । १४० एककृत्वो नमस्कार ६, ११५। ८५
एते पूर्वभयायात १३, ४२ । १६८ एकघर्षावधिः कायो- ६, १०६ । ८४
एते हृषीकहरयः ५,१।५५ एक एवान जायेऽहं ८, ३३ । ११०
एते मुनीपवरा एवं ८, ६२ । ११३ एकस्मिन् दिवसे मुक्ति १, ६४ । १०
एते पञ्चेन्द्रियाः सन्ति ३, ११ । २८ एकस्य वचनं श्रुत्वा ४, २३ । ४७
एते पञ्च परित्या- १२, ४१ १ १४६ एकस्प वचनं श्रोतुं ४, २४ । ४७
एते पवमोर११, ११ एकान्तादिभेदेन
एतैरगैःसुपूर्ण स्यात् ७, २१ । मई
८, ६७ : ११५ एकाकिन्या विहारो १०, २५ । १३५
एतौ सुसंयमौ नून २, १५ । १४ एकेन राज्यमालब्ध ८, ३११ ११०
एवं सायोः प्रतिज्ञा यः ७,६२।६३ एकेन्द्रियादिभेदेन ३,१२ । २८
एवं निःपाल्यको भूत्वा ११, २६ । १५१ एकेन्द्रियात्समारभ्य ४६ । १२६
एवं दयालुराचार्यः ११.६ । १२८ एकेन्द्रिमे तु विशेम ८, १०१ १२४
एवमाधुनिका दोषा ६, १०० । ८३ एकैफस्मिन् स्थितेर्षात २, ४२ । १६
एवं विचारसम्पन्नो ६,६१८० एनकान्तमुहर्तन २, ७३ । २४ एवं ध्यात्वा ये स्वरूपे १०,२१३२ एको ऐदिति सन्ताना ८, २६ । १०६
एवं सर्वं चिन्तयन्तः ६, ६५ । १३२ एकोऽपि स प्रदेशो न ८,६८ | ११८ एवं दर्शनिको नूनं १२, १७० । १५७ एम्यस्त्रिविधपानेभ्यो १२, ३६ । १४८ एवं विश्वतः शास्त्र ७, ४६।६३ एभ्यो रक्षा प्रकर्तव्या ५, ७० | ११४ एवं चतुर्दशे स्थाने ,७२ । ११५ एतच्चतुविधासस्य ३, ५१ । ३३ एवं चिन्तयत पिचतं १,३८ । १२७ एतत्पन्न गृहीत्वा त्वं ११,८ । १३८ एष त्वनि हवाचारो १, ५१। ४ एतत्सनप्रभावेण ११, १० | १३८ एषा शरीरवृत्तिहि ४, ६६ । ५५ एतत्समयपर्यन्तं ६, ११४ । २५ एषाक्षक्षणी वृत्ति ४, ५० ५१ एतदन्याभिधानं च ३.५० । ३३ एपणा समितिः प्रोक्ता ४, २६ । ४८ एतस्य कारणे शक्तिर् १०, ३०॥ १३६ एषा हि गोचरी वृत्ति: ४, ४२ । ४६ एतस्मिन हि गुणस्थाने २. ४७ । १५ एषामाचरणे शेयं ७, ६० । ६६ एतद्धयातिरिक्तानि २, ३५ । १७ एषां यस्य परित्यागो १२, ६७ । १५७
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पद्यानुक्रमणिका
१६३
एषामादानवेलायां ५, ६५ । ५२ का च नाम स्पृहा पुंसां ३,७८ ! ३८ एषां विधिहि यो ७,७२ । १७ कान्तारे मागतो भ्रष्टं ६:१०१।८३ एषां स्वरूपमनाह ७, ४ । ७ कामपि श्रेणिमारोतुं २, २५ । १५ एषां विषप्रमाण १०, ६ । १३३ कामिनीकुचकक्षादि ३, १०६ । ४३ एषु यः सन्धिकालो. ७, २८ | ६५
कामिनीकोमलस्पर्श ५,४ । ५४ एषद भामा इतिः ५::
कामिनीकोग्लागं च १,४० । ७ एषोऽस्ति तप आचार:७,१५४।१०४
कायगुप्तिर्वचोगुप्ति ७, ५६ । ६६ कायक्लेशस्य संप्रोक्ता ७, ६४ । ६६
कायवृद्धी सहाया ये ३, ११० । ४३ ऐलकः कुरुते लुन १२, ११४ । १६० कार्य विहारकाले च १०, २६ । १३५ ऐलक: पाणिमोज्य- १२, ११३ । १६०
कायोत्सर्गस्य बोद्धाया ६, १२० । ८६ ऐलकवत् परिशेय- १२,११७ । १६०
कायोत्सर्गमयो चिम ६, १०१।३
कालशुद्धिविधातव्या १,२६।६० ओ
फालादनन्तम्भ्रमता ६, ७३ । ७६ औपमिकसम्यमत्व १३, १७ । १६४ कालाचारादिभेदेन ७, २५ । ६०
कालस्योल्लङ्घनं दाने १२,७५११५४
काश्चन क्षीणसं- १०,६।१३३ कमजकिजल्कपीताभ ५, १६ । ५६ काष्ठानतस्य मर्यादा १६२।६ कणोऽपि विद्यते यावन् २, ८२ । २४ कुरुते स्थितिकाण्डाना २, ४२ ।। कण्ठीरवसमाक्रान्त , १२ । १०८ कुर्वन्नेतानि सर्वाणि १३, ३३ । १६६ कथिता एषणादोषा- १, ३५ । ४८ कुस्तीनतायामारोग्यं ५, १०६ । ११६ कदाचिद्भावपिल्य- १३, ३५ । १६७ कुटलेखक्रिया निन्या १२,४५।१५० कन्वर्पश्च कौस्तुभ्यं च १२,५६ । १५२
कृतापराषशुद्ध्ययं ७,७४ । ६८ कपणानां विशुद्धिर्मा १,६८ । ११ कृतिरन्यविवाहस्य १२, ५० । १५० करोत्यातापनं योग ७, १२१ । १०५ कृषिकर्माणि कार्याणि ६, ३१ । ६६ क्रमवचित्र्ययोगेन ३, २६ । ३० कृत्वा क्षायिकसदृष्टि २,७० । २२ कर्मणां पूर्वबहान ८,८४ | ११७ कृत्वावधि मुनेः सङ्घात् ७, ७८ | ६८ कमस्थित्यनुसारेण ८, ८६ | ११७ कृत्वा कालावधि सम्धो ७,७१।८ करिंदुःखीकृतमान ६.३६ । ७० कृपाणं स्वपाणी समापि-६, ३६1 ७० कर्मोदयवशाजीवा ८, ६६ । ११५ कृषीवला यथा लोके १२, ७५ । १५५ कलिविजयते कालो ३, ६६ । ३७ कृष्णा नीला ६.३० । १२६ कस्यचिद् भवने वल्लि ४, ४३ । ५० कृष्यादिकार्येषु सदाभि- ६.१ । ७८ कस्यचिन्मृतिमायाति ८.३० । ११० केकिपिच्छ ध १२, ११५ । १६० काकःप्रियरवं श्रुत्वा १,२० । ४६ के के न पत्रिता लोके ५,८ । ५५
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१३४
सम्पधारित-चिन्तामणिः
केचित् तिर्यग्भवा १३४५। १६८ गगिन्या साधमन्या- १०,२५ । १३५ केचितितप्रिया लोके ५, ११ । ५५ गतंपूरणनाम्नीय ५, ५० कैचन वीर्यवैशिष्ठय- ६,११६ । ५ गालीलासतनूजेन प्र० ।। १७१ केनोक्तवं मुनिया १,६७।१० गव्यूतिप्रमितं नित्यं २, १८ । १५ केवलिघु भवेदेकं ५६ । १३० गार्हस्थ्यावसरे भोगा । ११० । ४२ के वलिद्विकपादानां २, ६५ । २३ पौण्मतो सप्तभूखण्डे ७, १२३ । १०५ केवले च भधेदनस्य २३ । १२५ गुणस्थानानि सन्स्यत्र १४ । १२४ कोऽपि केनापि साध ८१६।१०८ गुरक्रमान्जयोरने ७, ८५ । १०० कोपीनमान के पत्ते १२, ११२ । १६० गुरुणा कृतसंस्कारो १, ६७ । ११ क्रमशो वर्धमानेन १२, १३ । १५७ गुरु सम्प्राप्य तत्पाद १, २०१५ क्रोधलोभभरत्यागा १०४ । ११ गृहाण मुनिदीक्षा १, २५ । ५ क्रोधमानादिभावानी ७,३६ ३२ महिणां गृहमध्ये या ४,४१ क्रोधेन मानेन मदेश १,७६।६ गीता मेलमिलान ५, ५५ क्वचिच्च तासा साधं ७, ८७ । १०. गृहीरवार्यायतं सद्यो १०, ३४ । १३७ सणादेवोत्पतियारि ५२१ । ५६ गहीवव्रतेषु प्रदोष- १,७७ । ५३ धापकस्य स्थिति ११॥ २६ ॥ ११ गौराङ्गी रोचते महा ५, २८ । ५७ सपक: सफलान ११; २८ | ११ क्षपकथेगिमारुढ़: २.२६.१५ तदुग्धगुहादीनां
I समाप्रभृतिधर्मेण ११७ यायिकेतरसम्यक्ष १३, १८ । १६४ चतुषिधोपसर्गाणां , १०५ । ८४ क्षायोपशमकशान५५ । १६० चतुविशतितीला ६, ३२ । ६७ भीणे वा युपमान्ते वा २.२८ १५५ मतुविशतितीर्थेशा १,१६।८ क्षरिपपासादिना जातं ११, ३२११४२ चविशतितीर्थेन ६, १४ । १२ क्षद्रजन्तुक रक्षार्थ ४, ११। ५५ चतुर्थास्सप्समानतानि ६२३ । १२७ शुहिलकाः श्राविका १२; ११८ । १६० चतुर्थ चापि जीवानां ६,१६ । १२५ अहिलकार्या अतं १०, ३५ । १३६ चतुर्दशं च विर्य ३६ ॥ ९२७ क्षेत्रवास्त्वो कममम १२, ५२ । १५१ चतुर्णिकायभेदत्वाच् ३, ४२ । ३२
चतुर्मासापगधेषु ६८ । ७५ खण्डयत्येव स्वस्येर्या ५,१५। ५५ चर्षि सह गन्तव्यं १०, २३ । १३५
चलं मनो वसीकृत्य ७, ३८ । २ गज को जलं पीत्या ५, २२ । ५६ बारित्रं लभते कोऽत्र २, २ । १२ गतवेदेषु जायेत ५ । १३० चारित्रचिन्तामणिरेष प्र०, १।१७० गतिभेदेन जीवानां ३, ६।२८ चिन्तयन्त्यास्मरूपं तु ५, ३० 1 ५५
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पंधानुक्रमणिका
१६५
पेवसपचञ्चलत्वं - १६२९४३ मा ताम :२२६ वेलखण्डपरित्यागात १, ५८ । ६
सं वर्धमान वि वर्धमानं ६, ५८ ॥७४ छेदाभिधान तज्ज्ञेयं ७, ९२ । ६८ त एव मुनयो धीराः ५, ३३ । ५८
तएव शिवमायान्ति ५५७ । ११२ जगज्जीवधातीनि १७ । ६४ ततश्प क्लीववेवस्य २, ४६ । २० जघन्यसमयो शेयो ११, १७ । १३६ ततश्च मत्यवेवस्य २, ४७ । २० जयति जनसुवन्य- ६, ४५ । ७१ ततोऽसंखपगुणश्रेण्या २, ५३ । २० जलस्थलाघ्रचारित्वात् ३, ४१ । ३२ ततो ध्यानरूपं निशातं ६, २२ । ६५ अलस्य भेदा विद्यन्त ३, २४ । २६ तसो मुमुक्षुभिर्मोहः २, ८३ । २४ जलं हि जसकायस्य ३, १५ । २८ तत्त्वज्ञानयुतो भीतो १,१५ । २ जनाना क्षुद्रमाचारं ३, ७१। ३७ ततोऽनुभागकाशन! २, ७५ । २४ जातान धर्मात्मनां दोषान् ७, १७१६६ तरसत्यप्युदये तस्य १३, १२ । १६३ जायन्तेऽसंजिनां किन्तु ६३ । १२५ तज्जलं मधुरं वा स्यान् ४,५४|५० जिनवाणीसमभ्यासे १०, २७ । १३५ तस्यापि संशयभागेषु २,७६ । २४ जिनधर्मप्रसाराय ४, ५। १५ तस्या हरणसमीति ४, ६० । ५२ जिनवाक्यमिदं श्रोतु १५ । ६३ सत्र मुखवते चिरं ११,४१।१४२ जिनवाणीप्रसाराय १२, ८० । १५५ तत्र तस्णन्तिमे भागे २,८१ । २४ जिनाज्ञाभङ्गतो नूनं प्र०, ७ । १७१ सत्राप्यदोषचारित्रं ८, १०७ । १४६ जिह्वन्द्रियरसाधीना ५,६। ५५ तव सा परिशेया ६६२ । १३१ खीवजातिपरिशान ३, ८ । २७ तत्रानिपुतिकालान्ते २, ६७ । २३ पीवहिंसानिवृत्त्यर्थ १, ५६ । ६ तथैव निखिल लोकं ८, १५ । १०८ जीवन जन्तुषातस्य । १०७ तद्धनं सह सन्नेतु ११, ५ । १३८ जीवाः सम्यक्त्वसंपन्ना: १०,४ 1 १३३ सधनं सार्धमानेतु ११, ३ । १३८ जीवानामत्र सन्त्यत्र ८,५१ । ११२ सध्यानं कथ्यते लोकः ७,१०१।१०२ जीविताशंसनं जातु १२, ७२ । १५४ तदा सर्वेन्द्रियाधीना ५, ३६ । ५८ जीवे जीवे सन्ति मे ६८।६० सदा स्वभावमास्पृरुप ६, ६५ । ७५ शानदर्शन वारिनो ७, ८६ । १०० तदा गेहाक्यो बाह्याः ८, ४८ 1 ११२ ज्ञानाचारस्य संभेदा ७,५६ । ६५ सदेव शक्त्या भुवि- ३,११७। ४४ शानोपकरणवेन १,६२ । ५२ तस्या स्थिरपमुभागी ८, ६५ । ११४ हानोपकरणाचीनां १, ३६।६ तहि सरुकापश्च ३,१८।२८ शातादृष्टस्वभावाः १०; १०1१३३ तथाहि निर्मले साघौ ३, ६ । ४० शाखारष्टस्वभावोभ्यं ६, ६४ । ५५ सपा जिहोनियापोमा ५, १० । ५५
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सम्पचारित्र-चिन्तामगिः
सवालवाद्विधिद्वन्द्व ७५ । ११५ यक्वा प्रमाद पुषि ६, १२१ । ८६ सयामन्दमानन्दमाचन्त- ६, २३ । ६५ स्याज्या मनस्विभि- १२, ५८ ॥ १५२ तथा शीलानि संघस्य १२,७६ | ११५ वयाजनाद्या विहिता ६८७ | ५६ तथायं मनुजः स्वस्थ ११, ४ । १३८ असस्थावरजीवानों १, २७ । ५ तथाप्यत्र न कर्तव्यं १३, १० । १६३ बसेषु विविध ज्ञेयं ६५१ । १२६ तथा प्रयासः कत्तव्यो ३, ५७ । ३५ असतायां च संशित्वं ८, १०५ । ११६ तयायमौदरो गतः ४,४७ । ५० असेषु सन्ति सर्वाणि ८, १३ । १२४ तथा कामेन्द्रियाधीना ५,७ । ५५ त्रयोदशं गुणस्थानं ६,६१ १२३ तथागतं मनुष्यत्वं ८, १२३ । १२१ त्रिविधं जायतेभव्ये ६,६१। १३९ तथा क्षेत्रमापि त्याज्यं ३,६७ । ३६ त्रिविधा विदिता लोके ३, ८८ । ३६ सस्य प्रशमने हेतु: ४,४५ । ५० त्रिमादवर्षाणि यो धाम्नि २, १६ । १४ तस्य त्यागो नृभिर्यस्य १, ३१।६ वीन्द्रियो मदिना लोके ३,३७ । ३२ तस्मिन् भवे न ते १३, २२ । १६४ त्रुटीनां शोधने कुयुः प्र०, ८ । १७१ तम्मिश्रे ननु विज्ञेयं ६ १८ । १२५ तमादिदेवं सुरजातरो १५।२ दत्तं परेण नाप्नोति ८,३५ । ११० तो त्याला मुनयो यान्ति ३८५ । ३६ दवा निग्रंन्यसन्दीक्षा १, २२ । ५ तासां मुखाकृति हष्ट्वा १०,१५॥१३४ ददाति यादृशं दुःखं ५, १७।५६ सारुण्यभावे कमनीयकान्ता ६५६/७७ दर्शनिको व्रती पापि १२, ६० । १५६ तात्पर्य मिदमेवात्र ११, ११ । १३८ दशम धाम सम्प्राप्तः २, २३ । १५ तान्येक सूरिभिः प्रोक्ता ८ ६० । ११७ दानं महषिभिः प्रोक्तं १२, ३७ । १४८ सावदन्तरमस्यन्न ५, १६ । ५६ दायानलेन संव्याप्त ८; १४ । १०५ तिर्यग्गत्यनुवादेन ६ ६२ । १२८ दारमात्रपरित्यागी १२, १०६ । १५६ तिर्योधप समायान्ति १३,२६।१६७ दिवा दण्डामतं भूमो १, ३३ । ६ तिरावां विकलां वाणी ३, ५६ । ३५ दिवा विलोकिते स्थाने ४,१०। ४५ तियंग्गती भवेदाधं ; ५। १२३ दीक्षिस्वा ह्यष्टवर्षाणि २,१६ । १४ तिष्ठेदन्तमुहर्तन २, ४५ । १६ दीनहीनजना लोके १२, ८५ । १५६ तुषष्ठाष्टमादीनां ७, ६६ । ६६ दीयते यः स पापोए- १२, २० । १४६ तेभ्यः पिच्छस्य निर्माणं ४, ५७ । ५१ दुःखे सोध्ये बन्धुवर्ग ६, १० । ६१ सेषामभिमुख स्वेन६, ६२ । ७४ दुर्गन्धे वा सुगन्ध वा ५, २५ । ५७ तेषु जिनेन्ददेवस्य १२, ७ । १५५ दुर्लभ मानुषं लहवा ८, १२२ । १२१ तेषां पुरा गृहस्थाना ५, १५ । ५५ दुपक्वस्य पदार्थस्य १२, ६८ । १५३ तेषां कृते प्रयासोऽयं १२, १२० । १६० दृष्ट्वेष्टं सुम्बसम्पन्नं ८,४१ । ११ सागवानथं दण्डस्य १२, १६ । १४६ दृष्ट्वा कथं विरक्तो 5, २६ । १०६
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दृष्ट्वा रज्यन्ति
देवगरनुवादेन
देवशास्त्र गुरूणां यो देवायुर्वर्जयित्वा चे
देशव्रतेन संयुक्ता देवप्रभावेण
देवावृत्तयुता ज्ञेया
पचानुक्रमणिका
१०१।१९८
८, ४७११२८
१२, ६५ । १५७ १३, २१ । १६४
१३,४० १६८
१३, ३८ । १६७
चारित्र सम्प्राप्य
१२,३४ । १४६ १३२ । १६२ देशव्रतयुताः केचिन् १३, ३६ ॥ १६७ देहसंसारनिविष्णः देहरागेण संयुक्ता देहस्याशुचितां नित्यं देहभान्यक्कृतपद्मदेवसिकादिभेदेन
१२, ४ । १४४
८५८ । १०३ ८, ६१ । ११३ ६, ३० । ७०
दोलेव भारती यस्य प्रभूतयो जीवा
६, ६६ । ७५ ४, २६ । ४७
३, ३६ । ३२ द्यूतं मा च मद्यं च १२, ६६ । १५७ द्रव्यं क्षेत्रं च कालं च ११२७ । १४१ द्वादश संपन्न १२, १०१।१८ द्वादशेोऽनुप्रेक्षाग्यो ८, ७७ । ११५ द्वितीयादिपृथिव्यां च द्वितीयोपशमं शमं द्विविधा गदिता लोके द्विषन्ति मानवास्तेऽत्र ८, १०३ | ११८
६. ४ । १२३
द्विहृषीकात्समारम्य६, ११ । १२४
६,२४ । १२७
३, ४० १ ३२
태
धनधान्यादिवस्तूनां १२, १३ । १४५
धनुर्बाणा दिहिखोप १२, २१ । १४६ धन्यास्ते मुनयो लोके ५, १३ । ५५ धन्यास्ते धन्यभागा- १२ ११६ । १३० धर्महीना न शोभन्ते ८, ११० १२१ धर्मेण परिणीतायाः १२, १२ । १४५ धर्मोपदेशनामा रा ७ ६८ । १०५
૧
५ ६ । ५४
१,१।१ ध्यायन् पञ्चनमस्कार ११, ४० | १४२
ध्यान भित्वा मय
धावमाना गया गतें ध्यानानले येन हुताः
ध्यायं ध्यायं जिन
धूतसामायिक च्छेदो
मे ११२२
२, ५४ । २५ १,७०।११
Ħ
न केनापि कृतो लोको ८ ६५११८
४४ । ११२
न गुणस्थानरूपोऽहं
न दृश्यन्ते महीभागे
न दृश्यते बली रामो
ܕܗ
८,६१०७
८,५।१०७ ४, ६ । ४५ ६ २७ । ६६ २, ६६ । ४०
४३ ६३ । ५२ ३, ७६, ३७
न मन्दं नातिशीघ्र प न वन्देत मुनिः क्वापि नरकेषु निगोदेषु न निषिद्धं मुनीन्द्राणां नरी सुरी तिरश्ची च
न रसोऽहं न पुण्याचो ८, ४५ । ११२ न मे कश्चिद् भवे नाहं १,२१ । ४ न सन्ति के बनास्माकं १० ८ । १३३ नस्यादत्र गुणश्रेणी १३, ३२ १६६ न हि शास्त्रस्य विज्ञस्य ७ ५१ । ४ नाहं नोकरूपोऽस्मि ८, ४३ । ११२ नाहं क्लीवो ने भामा १०, ११३२ नारके कियती बाघा ११, ३४ । १४२ नादरोऽगालितं नीरुं १२, ६६ । १५७ निःशङ्खत्वादिकं प्रोक्त निहत्य कर्माष्टकशत्रुनिगोदाद ये विनिर्गत्य
७, १२ । ८६
१,२ ॥ १ ३, ३१ । ३०
३, २६ । ३०
--- 7426
1134
नित्येल र विभेदेन नित्यं न विद्यते किचिद् ८ ३ १०७ निन्दायां स्वते यस्य निदानं चेति विज्ञेया १२,७३१५४ नियमेन स्वयं यान्ति १३,४३१६८ नित्यतां सन् १०४ । ४०
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सम्यक पारित-चिन्तामभिः
निरवद्यार्ययुक्तस्य ७,६४।१०१ परिणामविशुद्धपाठ्यः १३, २५। १६५ निर्गत जीविते वो ८, १६ । १०८ पर्याप्तकेषु सम्यवस्थ६० | १२८ मिपन्थमुदयोपेता १२, २३ । १५५ पर्याप्तो लागुतो योग्य २, ५ । १२ निर्षी यत्र जायन्ते ८,८८ । ११७ पश्यति थाससम्पृक्तं १, ४० | १६ मिलिम्पा ऊर्ध्वंसंभागे ८, ६७ । ११८ पारस्य विस्मृतिले १२,६६। १५३ निवेदयन्ति ताम भक्त्या १०,७॥१३ पादाभ्यामेव साधुना १४ । ४५ निशाया अपराधेषु ६,६७ । ७५ पादविक्षेपवेला , १२ । ४५ निषेधो यन्न जायेत ३,५६ । ३५ पादयात्रैय कसंख्या १०, २८ । १३५ नन्यवतरक्षार्थ ३, ११५ । ५३ पादयोरन्तरं दत्वा १,१०३ । ८४ नोदुम्बरादिकं भुपते १२, १ । १५७ पादी प्रसार्य भूपृष्ठे ८,६४ । ११८ न्यायालये हन्त विनिर्णयायं ६, ८२ । ७८ पानभोजनवृत्तिएच ३, १०३ । ४१
पापेन पापं बचमीयरूपं ६, ८६ । ७६ पञ्चमं या तुरीयं वा २, ३३ । १७ पिच्छपडितसमास्फास्य ४, ५५। ५१ पञ्चशतीसमुच्छ्वासाः ६, १०६।५४ पिता नरवमायाति ,३६ | १११ पञ्चषट्सप्तहस्तएच ६, २५। ६६ पीयूषनिसर इव ५, १६I V६ पञ्चाक्षाः सन्ति लोकेऽ- ३, ३८ । ३२ पुरस्तादात्मवीर्यस्य ७ १२० । १०५ पञ्चाचारमयं तपोइ- ७, १२५ । १०६ पुरासंचित वित्तेषु १२,१००। १५६ पञ्चाचारपरायणान् ७,१३७ वेवस्य मध्यं २, ४८ । २० पञ्चाचारमथो वक्ष्ये ७,२।७ पुण्योदयात्परं ज्योति: १०, ११।१३३ पञ्चेद्रियेषु जायेत ६.५० | १२६ पूर्व परिग्रह त्यक्त्वा ३, ६३ | ४७ पञ्चन्द्रियेषु सन्त्येव ६,१२ । १२४ ।। पूर्वोक्तानां कषायाणां १३, १६।१६४ पश्चादन्तर्मुहुर्तेन २, ५० । २० पूर्ण करोति जीवोऽयं ८, २८ । १०६ पश्चादन्तमुहर्तेन २, ५६।२० पूर्णासु द्रव्यनारीषु ६,४६ । १२८ पश्चादन्तमुहूर्तन २, ६ । २३ पूर्वाह पपरा प ७, २७ । ६७ पन्नालालेन बालेन प्र०, ५। १७१ प्रपरभवन्ति जीवेभ्यः ८, ६७ । ११७ पठनं बहुमास्त्राणा ४,६४ । ५० पृथ्वोदेहस्थितो जीवः ३, २० । २८ पण्डितोऽध मृति ११:३८ । १४२ प्रथिवी पृथिवीकायः ३,१४ । २८ परः परस्य कास्ति ८, ४७ । १११ पथिव्यप्तेजसाम्भेदाः ३, १३ । २८ परद्रस्यादिभिन्नस्य ७, ७ । ८८ पुथ्वीजीव: स विशेयः ३,२१ । २६ पराबितो विधीयताम् १३, ४७ । १६६ पृथिवीकायिकजीवन ३, १६ । २० परिहारविशुधध्याय २१६ : १५ पृथ्वीतोये पहिवायू प ६, ६ । ६० परिहारविशुद्ध्या - ५८ । १३१ पुथवितवीचार ७, ११३ । १०४ पारधाराभिधान तत् ७, ८६।६८ पुष्टबवमहाभारो ३३६२
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पणानुक्रमणिका
प्रकृस्यादिविभेदेन १३७ । १६३ प्राप्नुवन्ति शिवं ८, ११११ ११६ प्रघात स्थितिकापताना २,७४ । २४ प्राप्ती न पारो विदुषां ६४७ । ७२ प्रणम्य भवस्या भवभञ्जनाय १, ६ । २
प्रायोपगमनं वान्स्यं ११, ११ । १३६ प्रतिक्रमः स विशेय: ७, ७७ । ६६ प्रायोपगमने सैषा ११, १८ । १४० प्रतिकमणं च प्रस्थाण्यानं १, ४१ । ८ प्रावटकालेऽपि ७, १२२ । १०५ प्रस्यावयानमयो पश्मि ६,८६।२० प्रोक्ता मालोचना ७,७६ । ६८ प्रस्थाल्यानं च तज्ज्ञेयं ६,६०० प्रत्यास्यानावृत्तस्ति १३, ११।१६३ बदेवेवस्युको १, १७॥ ५ प्रत्याख्यानं तनस्सर्ग ६,५। ६० बन्धमाप्नोति तावांत्र ८, ८१ । ११६ प्रत्याख्यानावृतेर्जा १,१५। बधापसरणादीनि २,१०। १३ प्रत्येकास्त्रसमोवास्तु ३, ३६ । ३२ बन्धुवर्ग समापृच्छप १. १८१४ प्रथम द्वितयं अयं ६२ । १२५ बालबालोऽथवा ११, ३७ । १५२ प्रपमादा चतुर्थाद्वा २.५। १२ बाला पूवानो विधवा- ६, ८० । ७७ प्रदर्शनं स्वरूपस्य १२, ५७ । १५२ बास्ये मया चौघसमु. ६,७८ । ७७ प्रमत्तयोगाज्जीवानां ३,६।२७ वाह वैतण्ड शुण्डाभौ ८, ८ । १०७ प्रमत्तयोगाधनी ३, ४५ । ३५ बाहीकाभ्यन्तरोपध्यो ७,१००११०२ प्रमादनिहिता दशा १३, ४६। १६६ बोधी रत्नत्रय नाम , १०३।११६ प्रमादाद् यदत्तस्य ३, ६३ । ३६ ब्रह्मचर्यस्य रक्षार्थ ३, ११३ । १३ प्रमादमायग्मनसा मयैते ६, ७७ । ७७ ब्रह्मचर्यपरिभ्रष्टाः ३,७४ | ३७ प्रमादतो ये पतोऽपराषा: ६,६६।६३ ब्रह्मचर्यस्य शुख्ययं १, ५७ । ६ प्रमादरहिता वृत्ति: ५,४ । ४५ प्रवृत्तिरेषा साधूनां ७,३६२ भक्त्या जिनेन्द्रदेवस्य १२, ७७ । १५५ प्रशंसाशब्दमाकर्प ५, ३२ ॥ ५८ भगवन् संभ्यास ११, २५ । १५१ प्रशस्तं दर्शनं तद स्यात् ७, ८८ मन्या इमा द्वादश ८, १२४ । १२२ प्रश्नोत्तराणि कार्याणि १०,२६ । १३५ भव्या निकटसंसारा १३, १६।१६५ महतं रिपुचक्रमरं सुदृढं ६, ५५ । ५२ भरंतो दुःखसम्भार ८, २३ । १०३ प्रागहिसावतं वक्ष्ये ३, ५ । २७ भस्मयन्ति निलिस्वा ८, १७ । १०८ प्राच्यपाध्यादिकाष्ठासु १२.१६ । १४६ भावतः संघमो यन्न १३, ३७ । १६७ प्रासमध्याह्नसन्ध्यासु १२. २८ । १५७ भाविकाले विधास्यामि १, ५२ । . प्राप्तर्सयममानां २, ३१ । १६ भाषायाः सोष्ठवं प्राप्य ५, २२ । ४७ प्राप्तीचयकषायाणां १३, १५ । १६४ प्रान्तचित्तः स सम्भूय ३, ६६ । ३६ प्राप्नोति देश- १३, २७ । १६५ मवेन्द्रियालम्पट- ६६६ । ८२ प्राप्नुवन्ति महादुःखं ८, २७ । १०६ भूतकालिकदोषाणां ६,६३ । ८२
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२००
सम्पचारित-चिन्तामणि
भूतकालिकदोषाणो १, ५१ । ८ माथुकर्यादिवृत्तीनां ४, ३६ । ४६ भुषापुरस्ताद्भवतो ! ६ गायेन मान १, २ । ।३.५ भूमिशय्या विधातल्या १०,२१ । १३५ मासद्वयेन मासंस्तु १.५५ । ६ भूयोभुमो भ्रमित्वाहं ८, २४ । १०६ मायाया नवकं मुषत्वा २, ५५ । २० भोगाकांक्षामहानद्यां ८,१२१ । १२१ मिथ्यात्वादित्रिक चेति २, ३८ । १८ भोजने परिधाने च ३,८०।३८ । मिथ्याशामबन्धोऽस्ति ८,८ | ११६ भोगाकांक्षा विशाला ८, ११२ । १२० मिथ्याइगपि लोके - १३, २०। १६४ भोगा भजङ्गा न ६३७ । ७० मिष्टवाक् सरलस्वा- ११, २४ । १४० भोगोपभोगकांक्षायाः ७१४ । ६ मुक्त्वा ह्यावश्यकं १२, १०८ । १५६ भोगोपभोगवस्तूनां १२, ६० । १५२ मुनिधर्मस्य शिक्षायाः १२, २५ । १४७ भेदाः सन्ति प्रमा- ८, ६८ | ११४ मुनयोऽपि सदा वन्चा: १२, ८४ । १५६ भक्ष्यशुचि विघा- ३,१०६।४२ मूलस्य रक्षण कार्य म, ११६ । १२०
मूलतोऽविद्यमानेऽर्थे ३, ४६ । ३३
मृगतृष्णां जलं जारवा ३, ५८ ॥३५ मतिश्रयायधिशाने ६२२ । १२५
मृदुकर्कशभेदेन ३, २० । २६ मनास ते यदि नाक- ११, ४२ । १५३ मनोवाक्कायचेष्टा १२, १८ | १४६
मे मै मे इत्ति कुर्वाणा ८.४६ | ११२ मनोवाकायचेष्टा या ८, ६५ । ११४ मोहमल्लमदभेदन धीर ६, ५२ । ७३ मनोवाफकायगुप्तीनां ८,७६ ११४ मोहनिद्रायमात्साधुः ८,८२ । ११६ मनःशुद्धि विधायव ६, ७२ । ७५
मोहादिसप्तभेदानां ७, | ८८ मनोज्ञे मनोज्ञे च १,४३ । ७ मोहष्वान्तेनावृतोद्बोध- ६, १२ । ६१ मनुज: कर्मभम्युल्यो २३।१२ मोहस्य प्रकृतीः सप्त १,१३ । ३ मनुजस्तस्परित्यागो १,३०।६ मोहध्वान्तापहारे १,१० । ३ मन्सा यो व वेदतस्वार्थ ६,५३ । ७२ मन्दिरापि यथा- १२, ७८ । १५५ यज्ञानमार्तण्डसाहन. १२, १।१४४ मलमूत्रादिनाधाया १३७ ।। यत्र शास्त्राध्ययनेन ७,६२ । १०१ मले मलस्य पातो न ४, ६८५३ या दृष्टिनं मूढ़ा स्यात् ७,१६ । ८६ ममास्ति दोषस्य कृति: ६, ८६ । ५६ या कश्चिद् विदेश- ११,२ । १३८ महाव्रतं भवेत्साघोः ३, ४४ । ३२ यथार्थाः सन्ति नास्त्य. ७, १३ । ८६ महान्तमादरं तर , ७ । ३. स्थाययोद्वमायाति १२, ६। १४५ महावतानि संधत्त १०, १८ | १३५ यथा कृषीवला: क्षेत्र ४, २।४४ भातातातरजीवीर्या ८५३ । ११३ यथा लोहस्य संस- ८,५७ । ११२ माता तातः पुत्रमित्राणि ६, ११।६१ यथा प्रथा हि जीवोऊ ८,७१ ११४ माता स्वसा पिता ८, १३ । १०८ यथार्थ सुखलिप्सा ने ८, ६० । ११३
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पद्यानुक्रमणिका यथाख्याते तु विशेयं १, ५६ । १३१ येषां पैकशरीरे स्युः ३, २७ । ३० यथा सषिदेहोऽयं ५,४६५१ येषामारमा पराजयुत्वा , ५२१११२ यथा मधुकरः पुष्पात् ३; ३७ । ४६ येषु त्वेकपारीरस्य ३, ३२ । ३० यथा खलीनतो होना १, ४५ । ७ यरिन्द्रियाणि स्ववशी- २,१ । १२ यथानलस्य संसर्गात ३, ८१ । ३८ योगाः परदश प्रोक्ता; ८,६६।११४ यथा सतोऽपि देवस्य ३, ४७ । ३३ यो वर्तते यस्य निसर्गजातो १, ८ । २ यथाविधि यथा प्राप्तं ४, ३० । ४८ योग्यास्त एव सन्यत्र १३, २३। १६४ यह दुल में ज्ञात्वा ८, १०८ । ११ यो नो जित: कर्मकलाप-६, ३४ । यदि वेदकसम्यक्त्वी २,७ । १३ यदीयसङ्गमासाद्य ५६ । ११३
रक्तपीतारविन्दाना २, १८ ॥ ५६ यद्व्यञ्जनस्य यो ७; ५४ । ६५
रक्षार्थ तस्य भाषायाः ४, १७ १ ४६ यम् वस्तु यथा चास्ति ३,५६ । ३५ मवावश्यं ष यत् कृत्यं ६, ४ | ६०
रक्षित धर्म एवास्ति ८, ११५ । १२०
रजतस्वर्णलोहार ३, २३ 1 २६ पस्य पुरस्सात् रिपुवर ६, ४६ । ७२
रजन्याः पश्चिमे भागे १,६१ । । यः स्वभावादशुयोऽ- ८, ५४ । ११३
१२ कुन्धुममुना , ५ ०२ यस्यास्यकान्त्या जित- ६.४० । ७०
रत्नत्रयेण संयुक्ता १२,३३ । १४८ याचान नित्यं गत- १२, २1 १४७
रत्नत्रयं क्षमाधाश्च ८, ११७ । १२० यश्च संक्लेशबाहुल्या- २, ३० । १६
रत्नप्रभादिभेदेन में जन्मकल्याणमहो- ६.५७ । ७३
३,१०।२८
रागद्वेषव्यतीतस्य यादशे पुण्यपापे व ८, ३४ । ११०
६६० । ७४
रागद्वेषादिधुद्धिः १२, २२ । १४६ यावज्जीवापराधानां ६, ७० । ७५
रागद्वेषौ परित्यज्य ८, ४२१ १११ यानि स्वयं सन्ति महा- ३,२२६
रागद्वेषो यस्य नाशं ५, ३८ । ५६ याभिस्यक्ता मोह- १०, ३७ । १३७
रागद्वेषो निराकृत्य ६, १३ । ६१ युगपत् क्षपयेत् साधुः २,७८ । २४
रागद्वेषप्रवाहस्य ७६ | १०१ येन शिवासि मषी ६, ३३ । ६६ येन निर्ग्रन्यमुद्राया ३,६०। ४०
रागादीनां विभावानां ३, ४३ । ३२
रात्रिमध्ये न यो १२ १०५ । १५६ येनासिमान: कामयस्य ६,५६ । ७३
रानि मुक्तिपरित्यागी १२, १।१५६ येन स्वयं बोधमयेन लोके ६, ४४ । ७०
रामराज्यं प्रशंसन्तो ३७० । ३७ येनासिना ध्यानमयेन ४,१।४४
रुद्रस्य क्रूरभाषस्य ७, १०७ । १०३ ये नरा धर्ममाधुत्य ८, १२० । १२१
रोष तोषं च बिभ्राणा: ५, २६ । ५७ ये भुज्यन्ते सकृद्- १२, ३० । १४७ येषां देहे न सन्त्यन्ये ३३४ । ३० येषामाश्रयमासाद्य ३, ३३ । ३० लावण्यलीलाविजितेन्द्र. ६४।५८
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२०२
सम्यकनारित्र-चिन्तामणिः
लुचिताः पाणियुग्मेन १, ६६ । ११ विदग्धोऽपि लोकः कृतो ,१६१६५ लोककल्याणकारीणि १२,८७ । १५६ विद्यालयाश्च संस्था- १२,८१ । १२५ लोकरूप विधियान्न ८, १०० । ११८ विद्वांसो दानमाना- १२, ८२। १५५ लोके असरदज्ञानं ७, २० । ६ विधिना परिणीता मा ३,७५ । ३७ लोकोऽयं सर्वतो ८१०४ । ११६ विधिना नित्यशः १०, १६ । १३५ लोचाचेलस्यमस्नानं १; ५४ । ६ विधिना कृतसंन्यासो ११, २६ । १४२ लोचनदर्शने याप्प ६, २८ । १२६ विनयात्तीर्थकृत्त्वस्य ७, ८५। १०० लोभानिलोत्कीलितधैर्य-६; २५ ! ७८ विनयाप्रच्छनं श्रोतुः ७, ६५। १०१ लोभाता क्षेत्रवृद्धिश्च १२,५५ । १५१ विपद्यमान भुवनं ८,१.१०६ लौल्याव सचित्तसंसेवा १२, ६७ । १५३ विपद्योत्पद्यमानोह ८, २५ । १०६
विपिने मुनिभियुंक्तं १, १६।४ वक्तव्या सततं पृम्भिः ३.६२ । ३५ विपुलदियुता भूपाः ३, ६८ । ३६ वधिकानां शरमिना ५:३४ । ५८ विरला एव सन्तीर्णा: १०, १७ । १३४ वनिता रागवधिय: ३, ५०८ । ४२
क्षारखादे प
र वन्दना मुनिभिः कार्या ६,३०। ६६ विलपन्सं नरं दृष्ट्वा ११,७ । १३८ वन्दनायां च भावेषु ६, ११३ । ८५
विविक्ते यः स्थितः ७, १०१। १०२ वरबोधविरागशरेण हि ६, ४६ । ७१
विविक्त यक्ष जायेते ७, ७० । ६७ वर्धमानविशुद्धमाढ्यः २,६।१३ विशुदघा वधमानोऽयं २, ८ | १३ चलाहकावली दृष्ट्वा ६, ५४ : ५१ विशुम्भावनायुक्ता ६, १०१।४ वसुराजस्य यद्वाक्यं ३, ५४ । ३४ विष्टरादिपरित्यागे १०, ६० । वस्तुतत्त्वं विमृश्यास्मन् ८, १० । १०७ विहरन्ति कदाचिद् वै ४,६।१५ वाकशुद्धरयं शृद्धेश्ष ७, ५५ । ६५
विहरन्तु चिरं लोके १०, ३६ । १३७ वाचां गुप्तिमंनोगुप्ति ३, १०२। ४१ विहत्यार्यखण्डे ६, २० । ६५ थापना प्रच्छना चाप्य ७,२३ । १०१
वीणावेणुस्वरादीनां ५, ३१ । ५८ वात्सल्यमूर्तयः सन्ति १०, ३५ । १३७ चीर्यापारमया- ७,११७ । १०५ वाधकप्रकृतीनां पो १३, १३ । १६४ वीर्याचारस्य मध्ये ७, १२४ । १०५ वानादिदेवयोनिषु ४८ । १२८ बीर्य च पञ्चधा सन्ति ७, ३ । ८७ वायुहिं वायुकायम ३, १७ । २८ वृत्त मुनीना गृहि- १२, १३१ । १६१ वाप्पावरुद्धकण्ठास्ता: १०, १४ । १३४ वृद्धाप्येकाकिनी चार्या ३, २ । ३८ वासरे टेकवारं यः १,६३ । १० वेदकशा समायुक्तः २, ६४ । २२ विगतानुमति: किञ्च १२, १२ । १५७ वेदकदृष्टिसंयुक्तः
[95 विज्ञात लोकत्रितयं ५५। ७३ वेदकेन युतः कश्चित् १३, २६ । १६५ वितरन्ति मनुष्येभ्यस्ते ४, ५६ । ५१ घेदत्रयेण युमसेषु ६,५३ । १३०
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२०३
पद्यानुनमर्माणका वयावृत्यं शरीरस्य ११, १५। १३६ श्रावकोऽयं यथाशक्ति १२, ८६।१५६ वैराग्यसीमानममेयमानां ३, १।२६ श्रोतव्यं बहुमानेना ७,४७।६३ वैराग्यस्य' प्रकर्षाय , २ । १०७ श्रेष्ठसंहननोपेठ ७, १०२ । १०३ व्याक्षिप्तं वा परावृत्तं ६, २६ । ६६ वधगत्यां भवेशाय ६३ । १२२ व्यापाद्य लोकान् रहसि ६, ८३ । ७८ श्वासकासादिरोगाणां ७, १२६ । १०२ व्यापारगृहनिर्माण १२, १०६ । १६० व्यर्थ वचन विस्तारं ४, २५ । ४७
षष्ठान्नवमपर्यन्तं ६ २५ । १२६ असेन रहिताः सम्यग् ४,२५ । ४७
षोडशाप्रकृतीनो तु २,७६ । २४
षोडशकमभेदानां २,७७ । २४ शङ्का काक्षा च १२, ४० | १५६ शतहस्तमिले क्षेत्रे ७३५ । ६२ सतत्रयसमुच्छ्वासाः ६,१०८।४ मकसबोधधरं गणिनां ६, ५५ । ७३ शब्दस्योम्बार शुद्धं ७,५३ । १५ सकवारस्य जीवस्य , २१ । १२५ शयित्वा भवेज्जातु २, ३६ । १८ संकल्पाद्विहिता हिंसा १२, ७ । १४५ शमयेन्नवर्क द्रव्यं २,५६ । २० संश्लेशस्य हि बाहुल्यात २, ३२ । १७ शमयित्वाल्पकालेन २, ५४ । २० सचित्तमाजने दत्तः १२, १० । १५४ शरीररागः सर्वेषां ८, ५७ । ११३ सचित्तं वस्तु नो १२, १०४ । ११६ शरीरे रुधिरनावः ७,३४ । ६२ सद्धिपोतमारतो ८, ७४ | ११५ शरीरे रागहन्तारं ६. १०२।८५ सच्छिद्रां नावमारुह्म ८, ६३ । ११४ याशि शशि वाणाक्षि प्र०,२ । १७० संज्वलनाध्यमोहस्य १३, ६ । १६३ फास्त्रज्ञानादिना जाते ७.५० । ६४ संज्वलनस्य क्रोधादी २, ८० । २४ शिक्षाबतं चतुर्थ स्याद् १२, २७१ १४७ संज्वलनस्य रोषस्य २,४६ । २० शिक्षाव्रतस्य विशेषाः १२, ६६ । १५३ सति सूर्योदये मार्गे ४,७ । ४५ शिरःस्थं भारमुत्तार्य ३,६१।३६ सते हितं भवेत् सत्यं ३, ६० । ३५ शिर स्थाः श्यामला ८,७ । १०७ संतोषस्तत्र कर्तव्यों ३, ६६ । ३६ शुक्ललेण्या व विज्ञेया ६३० । १२६ सत्तास्थ सकलद्रव्यं २, ५२ । २० शुक्लस्व रागकालिम्ना ७, ११ । १०३ सस्पं सुस्तनौकास्ति १,४६ । ६३ शुबर्मनोहरक्यिः ७६७ | १०१ सत्येव बन्धविच्छेदे ८,७६। ११६ शुन्यागारेषु वत्स्यामि ३, १०५ । ४२ सत्नान स्थावरहिसा- १३, ४ । १६२ गोलारामसमुद्रादौ १२, २४ । १४६ सददृष्टे रेव चारित्रम् १३, ५ । १६२ मैसे बने तहागे वा ८, २० । १०७ सद्धनः सततं याद ३,६१ । ३५ शौचोपकरणं कुण्डी ५, ५० । ५१ सधर्मभिः कृतालापो ४, २१ । ४६ प्रधान दर्शनं प्रोक्तं ७,५। ८७ सबमभिः सह स्नेहो ७, १६ । ८६
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२०१
सभ्याचारित्र-चिन्तामपिः स निपानाद् विनिर्गस्य ३,६४ | ४० संसारतापविनिपात- ६, ३५१६६ संन्यासस्त्रिविधः ११, १३ । १३६ मंवेगवातज्वलितेन तापा-६, ८३ सप्तहस्तान्तरं स्थित्वा ३, ८३ । ३८ संवरमेव संप्राप्तु ८,६३ । ११६ स बोधो दर्शनाचारः ७, २२ । ६ सविपाकाविपाकेति ८,८५ । ११७ सम्यक्त्वबोधामलवृत्तमूलो ६, ११५६ सविपाकाप्रमावास्तु ८,८५।११७ सम्यमत्ववन्तोये ८,११६। १२१ सल्लेखनां स्वात्महिता-११, १।१३८ सम्यक्त्व सहितं जानं ७,२३ । ६० सल्लेखनासरिन्मध्ये ११, २२ । १४० सम्यव्यवस्था प्रविधाय यः १,४।१ सशिष्यः स विप्रो गुरु- ६, १८ । ६४ सम्यग्दर्शनसम्पन्नः १२, ६ । १५७ सहन्त नारका भूत्वा ५,५ । ५४ समये समयेऽसंख्य २, ४४ । १६ सहन्ते धर्य संयुक्ता ६११७ । ८५ संयमात् पतितो मयंस २, २६ । १६ सागसः मूरिचर्येण ७,८४।६८ संथमा संयमे ह्येक ६, २७ । १२६ सांज्वलनस्य लोभस्य २, ५८ । २० संयम प्रतिपद्यम्से २, ३४ । १७ साधवः सुकुलीनानां ४,३४१६८ संयमलनिधरित्येषा १, १६।४ साधारणश्च प्रत्येको ३, २६ । ३७ संयतासंयवा जीवा १३, ६४ 1 १६६ साधुनानुदिनं कार्य १,४६ । । संयमासंयमो लोके १२, ३ १ १६२ साधो न विद्यते ११, ३३ । १४२ संयमार्सयमप्राप्ती १३, ७ । १६३ सामायिक तथा छेदो ६ ५७ । १३० सर्व चिन्तामणौ प्रोवतं ७, ११ । ८८ सामायिकाच्च्युतो सत्यां २, १४ । १४ सर्वथा परवस्तूनां १, २६ । ६ सामायिक त्रिसन्ध्यासु १२, १०२।१५८ सर्वथा शान्तमोहोऽय २१, ६२ । २१ साम्यभाषस्य सिद्धयर्थ६,७।७ सर्वसावद्यसंयोग २, १३ । ५३ सायं निमीलिते पद्मं ५,२० । ५६ सर्वसीयकृतां भवत्या १,५०।८ सा सिद्धान्तविशेषः ७, १५ । ८६ सर्वज्ञ! सर्वत्र विरोधान्य ६, ७४ । ७६ सिहनिष्क्रीडिता- ७, ११६ । १०४ सर्वकर्मप्रकृतीनां १३, १४ । १६४ सीता सुलोचना राजी १०,५। १३३ सर्व ह्यनित्यमेवैतद ८, ११ । १०७ सुदुलंभ मयंभवं पवित्र ६,६७ । १३ सरिन्छलादिसौन्दर्य ८,१० । ११८ सुधर्माच्च्यवलो मान् ७, १८।८६ सरिनमध्ये यथा नौका ११.२१। १४० सुधांशुभिर्जगत् सर्व ८, ४ । १०७ संसारोऽयं महादुःख १, २४ । ५ सुपात्राय सदा देयं १२, ३२ । १५८ संसाराभिनिगम्नजन्तु- १३, १।१६२ सुरेन्द्रानुगेनालका नाय- ६, १६ । ६४ संसारस्य स्वभावोऽयं ८, १८ । १०८ सुलभा ते भवेदेव ११,४६ । १४२ ससारस्थ स्वरूपं ये ८, ३२ ११० सुक्ष्मकृष्टिगतं लोभ २६१ । २० संसारकारणनिवृत्तिपरा- १,६।२ सूक्ष्मस्पूल विभेदेन १, २८ । ६ संखारसिन्धोविनिमग्न- ६४५। ७२ सूक्ष्मादिसाम्पराये ६२६ । १२६
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२०५
पंधानुक्रमणिका सूक्ष्मोऽपि दशितो बन्ध ४, १३ । ४५ स्वप्रतिष्ठा स्थिरीकतु ५, २७ । ४७ सूत्रं गणधरैः प्रोक्तं ७,३१।६० स्वस्थभावस्य सिद्ध्यर्य ७६१ | १०१ सैव सार्थक्यमाप्नोति ८, ८० | ११६ स्वर्णपनसमाग्छन्न ८, ५५ । ११३ सेवात्र साधुभिर्याया ४, ६० । ५२ स्थितिकाण्डकघातो- १३, ३१ । १६६ सूरीणां वा गुरूणां वा ६, २५ । ६६ स्थलस्तेयाख्यपापाद् १२, ११ । १४५ सोऽयमन्तमुहर्तेन २,७१ । २३ स्थू लानतवचनानां १०, १० । १५५ सोकयिह साधना ६,७१ । ७५ स्तेनप्रयोगधौरार्थी १२४७ । १५० सौगन्ध्यलोभतो मृत्यं ५, २३ । ५६ सौगन्ध्ये चापि दोर्गमध्ये १,४२ । ७ स्पर्शन रसनं चाणं १,३८ । ७
हरिद्घासावसंकीर्ण ४,६७ । ५३ साद धमागे ७ !! .१३ हरियात संकीर्णे १,८ । ४५ स्थादाज्ञाविचयः पूर्वो ७, ११० । १०३ हस्तयोरेव भोक्तव्यं १०,२० । १३५ स्वपरस्त्रीपरित्यागी ३, ७३ । ३७ हस्ती पादौ प प्रक्षाल्य ७, १७ । ६२ स्वशरीरस्य संस्कार ३, ११२। ४३ हा हा क्षेत्रपरावर्ते ८,६६।११८ स्वस्याहारनिमित्तं यः १.५१ । ५१ हास्यादयश्च षट् चते ३,८७ । ३६ स्वाध्यायगतशास्त्रस्य ७,४१।६३ हिसास्तेयानुताब्रह्म १२, ५ । १४४ स्वकीयवृत्तरलमत्र १३, ४५ । १६६ हिंसादिपापाद् व्यवहागतो १, १२ । ३ स्वाध्यायो नैव कर्तव्यः ७,३०।६० हिंसानदो मुपानन्दस् ७, १०८११०३ स्वाध्यायं विदधत् साधुः ७, ४० १ ६२ हिसा दिपापाद घिरते ३, ४ । २७ स्वाध्यायः क्रियते पुम्मिः ७,४३ । ६३ हिता मिना प्रिया वाणो १, २४ । ६ स्वपरभेदविज्ञानं ७, २४ । ६० हितां ते मितां ते ४,१८१४६ स्वकीयपुण्यपापाभ्या ३६५ । ३६ होनाधिकविधानं च १२, १८ । १५० स्वाध्यायो नाम विझयो ७६६।१०१ हृषीकविषयाबीना ५.३ ५४ स्वाध्यायं विदधस्साधुः ७, ४४ । ६३ हृषीकाणी जयः कार्य: १.३६ । ७ स्वाध्यायावसरे पुम्भिः ७, ३३ । ६२ हे आत्मन् स्वहितं , ३८ ! १११
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शुद्धिपत्र
पृ०२० प. सं०
अशुद्ध
शुद्ध
१
२
निजभावशुदध्य विश्वान्य देवान्
धय
निजभावशुद्ध्य विश्वाम्यदेवान् श्रेय --समितिरक्ता होकवारं यः
२४
६३
एतद्वृत्तं
१२
४१
२८
-समितिरक्ता टेकवाहं यो एतद्वत्तं विशुद्धया विशुद्धया সা।। रुहन्ते - कार्याश्चतुर्विधा तच्चतुविध्य महद्वाल्पतर --धारिणी शिरास्थं केनोक्तस्तवं मुनिभूर्या सामर्थ्य
३३
३६
७
७७
६१
विशुद्ध्या विशुदघ्या धाता सहन्ले
कायाश्चतुर्विधाः तत्वातुर्विध्य महृद् वाल्पतरं - धारिणि शिरस्थं केनोक्तस्त्वं मुनिर्भूया सामथ्य या: ---मक्षाणां पादाभ्यामेव -..-लक्ष्मण काकाप्रियं बह्वपि प्रत्ययं
१०.
४१
य:
१०३ ११४
४३
१४
५६
१६
१६
-मक्षणां पद्धयामेव
-लक्षणा काकप्रियरवं बपि प्रत्यवं
२७
२१
एव
एवं
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पृ० सं० १० सं० अशुद्ध
५०
५१
५१
५१
५१
૧
સર
५३
५३
૬૧
७०
७३
७४
*
७५
७७
७८
७६
८३
८५
८६
६२
६३
प
१०५
१०८
१०६
११९
११४
११८
१२०
१२३
४३
४ ६
५२
५४
५५
५६
६१
૬૭
६६
१२
४०
५५
६१
६४
७१
१७७
८४
८८
१००
११६
१६
३३
४६
७३
११६
૧૬
२३
४१
६६
१०३
११७
३
वह्निर्ज्यालर
शकटाभा
कुण्ठी
विद्युत्स्फति-पिच्छक्ति
शुद्धि-पत्र
गृहोत: केन चिज्जातु एकद्वित्रोणि
संकीर्ण
धेयं
-रश्मि
जितचन्द्रमा विज्ञानलोक
- धर्मषु
ज्ञातादृष्टस्व
मनसशुद्धि
द्वयेाद्या
परेष्यां
स्वभाव
प्रत्याख्यानाञ्च
केचिद्
मता मूढदृष्टिता स्वाध्यायसमुद्यतैः
बहुमानाद्य
वयन्ते यथागमम्
- दारमचः
जोवं
मरन्तो
इयन्ते
चतुरन्त ---
द्विषाते
रत्नत्रये
नरकगतौ
शुद्ध
बह्नज्वला
पाकटाभः
कुण्डी विद्यत्रमूर्ति - पिच्छपंक्ति
गृहोताः केनचिज्जातु एकद्वित्राणि
संकीर्णे
देय
-रस्मि
जितचन्द्रमस् विज्ञातलोक
- धर्मेषु
ज्ञातादृष्टास्व
मनसः शुद्धि
द्वये केन्द्रियाद्या
परेषां
स्वभावो
प्रत्याख्यानाच्च
केचन
मता मूढदृष्टिता स्वाध्यायार्थं समुद्यतैः
बहुमानाख्य
वर्ण्यन्ते हि यथागमम्
- दात्मन।
देहं
२०७
भरन्तो
दूयन्ते
श्चतुरन्त -
द्विषन्ति
रत्नश्रयं
स्वगत्यां
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________________
२०५
पृ० सं० १०सं० १२७ ३८
१२८ र १३३६ १३३ १० १३७ ३७
एषो
१४५
૧૭
.
१४८
३७ ४२ ५५ ११७
१५१ १६० १६७
३५
सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः अशुद्ध
शुद्ध चिन्तयश्चित्तं चिन्तयतश्चित्तं नपर्चा जवष अपर्याप्तेषु नास्त्ये
नास्त्येव
एषां ज्ञातादृष्ट स्वभावाः ज्ञातादृष्टास्वभावाः तोकिन- सीर्थ कुन्नाकसुखस्पहा मुक्तिसुखपृहा विरति
विरतिः -दतिथी- -दतिथिदानेनैव शुध्यन्ते दानेनैव हि शुध्यन्ते तृधो
वधो काष्ण
काष्ठा ऐलकवत् ऐलकवत्तु शैथिल्यादन्तो- शैथिल्याल्नोदेशवतं
देशवतसार्थक
सार्थक चारित्राद्यो चारित्राढयो हसन्तु
तो हसन्तु मशुद्ध गृहस्थको
गर्दभको समूहसे मणि समहसे मण्डित मध्यरात्रिके दो घड़ी मध्यरात्रिके दो घड़ी
पश्चात्से सुर्यारूप
सूर्यास्त आदिके तीन संहन- छहों संहननोंसे सहित नोंसे सहित जीवको
देहको शुभाचारको प्राप्त शुभाचारको भी प्राप्त हुआ आबाधाकाल आनेपर आबाधाकाल बोत' जानेपर आवाधाके पूर्व ही अपने उदयकालके पूर्व निर्जीर्ण
निर्जीर्ण
१६६
१७१५ १७१ पृ० सं० १० सं०
.
६१
१२
पूर्वसे
६१
१०२
११६
११७ ११७
२६
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________________ संघमा शुद्धि-पत्र पृ० सं० पं.सं. अशुद्ध शुद्ध 126 तिर्यञ्च सम्य. तिर्यञ्चों में सम्यक्त्वका पत्यका 137 16 आयिकाओंको आयिकाओंके 12 (प्रका०) विष-वेला विष-वेल 6 (भूमिका ) भूतिबनो भूतबलो संगों नामानियोऽत्ति नामानि योऽत्ति सचित्तविरलो सचित्तविरतो सचित्त त्याग प्रतिभा सचित्तत्यागप्रतिमा 15 23 (ले०) एकदशम दशम 15 16 अधोवर्जी अधोवर्ती 16 17 // समाज समता नोट-समासवाले पदोंके मूढा अधिकांश अलग-अलग छापे गये हैं। शुद्धि-पत्र में उनका संशोधन शक्य नहीं है / अतः संस्कृतज्ञ विद्वान उनका संशोधन करा पढ़नेका कष्ट करें। -प.सा.