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सम्यक्वारित्र-चिन्तामणिः जमोन पर शयन करो। दो माह तीन माह अथवा चार माह में नियमसे अपने हाथोंसे केश लोंच करो। तुम्हें गणिनोके साथ सुरक्षित स्थानमें निवास करना चाहिये । चर्या-आहारके लिये नगर अथवा ग्राममें अन्य आयिकाओंके साथ श्रावकों के घर जाना चाहिये । कभी भी और कहीं भी अकेली विहान करावाहिणे, शालार्मोके पास भी अकेली नहीं जाना चाहिये । गणिनी या अन्य दो तीन आयिकाओं के साथ जाना चाहिये 1 विनयसे सात हाथ दर बैठकर अन्य साधुओं के साथ प्रश्नोतर करना चाहिये। विकथा करने के लिये गहस्थ स्त्रियोंका संपर्क नहीं करना चाहिय। जिन वाणोके अभ्यास में समय व्यतीत करना चाहिये । समय पर सामायिक और समय पर स्वाध्याय करना चाहिये। विहार के समय पैदल यात्रा हो करना चाहिये। सवारोका आश्रय कभी नहीं करना चाहिये। शीतकालमें अग्नि का तापना और ग्रोष्मकाल में पानोका सींचना नहीं करना चाहिये और चलते समय पादत्राण नहीं रखना चाहिये । आप लोगों के सामने मैंने यह आयिकाके व्रतका वर्णन किया है ॥ १८-२६ ।। आगे क्षुल्लिकाके अतका वर्णन करते हैं-...
एतस्य धारणे शक्तिनंचेद् यो बर्तते क्वचित् । शादि कोपरि सन्चार्य एकोत्तरपटस्ततः ।। ३० ।। आयिकाणां यतं नूनं तुल्यमस्ति महावतेः। अतस्ताः योग्यमानेन प्रतिग्राह्याः सुवातृभिः ॥ ३१॥ क्षुल्लिकाणां व्रतं किन्तूत्तमश्रावकसन्निभम् ।
गुणस्थानं तु विज्ञेयं पञ्चमं द्विकयोरपि ।। ३२ ।। अर्थ-ईस आयिका ब्रतके धारण करने में यदि कहों तुम्हारो शक्ति नहीं हो तो धोतोके ऊपर एक चादर धारण किया जा सकता है। सचमुच आयिकाका नत महात्रताके तुल्य है अर्थात् उपधारसे महावत कहा जाता है। अतः दान-दाताओं को उन्हें उनके पदके योग्य सन्मानसे पडिगाहना चाहिये । क्षल्लिकाओंका व्रत उत्तम श्रावक-यारहवों प्रतिमाके धारक के समान है। आर्यिका और क्षुल्लिका दोनोंके पञ्चम गुणस्थान जानना चाहिये ।। ३०-३२ ॥ आगे श्री गुरुकी वाणी सुनकर उन स्त्रियों ने क्या किया, यह कहते हैं
इत्थमाचार्य वक्त्रंन्दु निःस्मृतां वचनावलीम् । सुधाधारायमाणां तां पीत्वाह्याप्यायिताश्चिरम् ।। ३३ ॥