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दर्शन प्रका
गृहीत्वार्याव्रतं सद्यो जाताः शान्तिसुमूर्तयः । शुकवसताः साध्व्यो मुखविभ्रमवजिताः ॥ ३४ ॥ वात्सल्य मूर्तयः सन्ति
सत्य रक्षणतत्पराः ।
सोता राजमत्याद्याश्चन्दनाद्याश्च साध्यिकाः ।। ३५ ।। विहरन्तु चिरं लोके कुर्वाणा धर्मदेशनाम् । आत्मश्रेयः पथं नृणां दर्शयन्त्यः सनातनम् ॥ ३६ ॥
अर्थ - इस प्रकार आचार्य महाराजके मुखचन्द्र से निकली, अमृत धारा के समान आचरण करने वालों वचनावलीको पोकर श्रवण कर वे सब स्त्रियां चिरकालके लिये संतुष्ट हो गईं। वे सब आर्थिकके व्रत ग्रहण कर शान्ति को मूर्तियां बन गईं। जो सफेद रंगको एक साड़ी धारण करतो हैं, मुखके विश्रम हावभाव आदिसे रहित हैं, वात्सल्यको प्रतिकृति स्वरूप हैं और जीवरक्षा में तत्पर रहतो हैं ऐसी सोता आदि, राजो मतो आदि और चन्दना आदि आर्यिकाएँ धर्म देशना करती तथा मनुष्यों के लिये आत्म-कल्याण का सनातन मार्ग दिखलाती हुई लोक में चिरकाल तक विहार करें ।। ३३-३६ ॥
विशेष अधिकाओंका विशद वर्णन मूलाचार में दिया गया है वहीं बताया गया है कि आयिकाओंको वयस्क, जितेन्द्रिय तथा भवभ्रमण भीरु आचार्यको ही गुरु बनाना चाहिये तथा उनको आज्ञानुसार वयस्क, वृद्ध आर्यिकाओं को साथ में रहना चाहिये । अकेली विहार नहीं करना चाहिये ।
आगे इस प्रकरण का समारोप करते हैं-
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याभिस्यक्ता मोहनिद्रा विशाला
याभ्योजाता
नेमिपाश्र्वादयस्ताः ।
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देवीतुल्यास्तीर्था कुमातृतुल्याः
साध्वयों में स्युर्मोनमार्गप्रणेत्रयः || ३७ ॥
अर्थ- जिन्होंने मोहरूरो विशाल निद्राका त्याग किया है, जिनसे नेमिनाथ तथा पार्श्वनाथ आदि महापुरुष उत्पन्न हुए हैं, जो देवोक समान तथा तोर्थङ्करोंको माताओंके समान हैं वे साध्वी- आर्यिकाएँ मेरे लिए मोक्षमार्ग पर ले जाने वाली हों ॥ ३७ ॥
इस प्रकार सम्यक् चारित्र-चिन्तामणि धार्थिका व्रतका वर्णन करनेवाला दशम प्रकाश पूर्ण हुआ ।