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द्वितीय प्रकाश
आगे सूक्ष्म साम्पराय संयमका वर्णन करते हैं
क्षपकणिमारूदः सपणाविधिमाश्रितः। क्रमशः रुपयन् वत्त-मोहं दशममाषपेत् ॥ २१ ।। आरुह्योपशमश्रेणी कश्चित्कर्ममहीपतिम् । शमयन् वृत्तमोहाख्यं वशमं गुणमाश्रयेत् ।। २२ ।। वशमं धामसम्प्राप्तः सूक्ष्मसंज्वलनो भवेत् । श्रेणीयुग्मं समारोढुं शक्तः क्षायिकाभवेत् ।। २३ ॥ अन्यस्तपशमश्रेणीमेवारोढुं समर्थकः। आद्योपशमयुक्तो वा बेदकेन पुतोऽपि वा ॥ २४ ॥ कामपि श्रेणिमारोढुं नैव शक्नोति जातुचित् ।
एतद्वत्तं नियोगेन केवले दशमे भवेत् ॥ २५ ॥ अर्थ-क्षपकनेणोपर आरूढ़ तथा क्षपणाविधिको प्राप्त हुए मुनि क्रमसे चारित्र मोहका क्षय करते हुए दशम गुणस्थानको प्राप्त होते हैं
और कोई मुनि उपशम श्रेणोपर आरूढ़ होकर चारित्रमोह नामक कर्मों के राजाका क्रमसे उपशम करते हुए दशम गुणस्थान को प्राप्त होते हैं । दशम गुणस्थानको प्राप्त हुए मुनि सूक्ष्मसंज्वलन-सूक्ष्मसाम्पराय संयमके धारक होते हैं। इस संबम वालेके मात्र संज्वलन लोभका सूक्ष्म उदय शेष रहता है। क्षायिक सम्यष्टि मनुष्य दोनों श्रेणियोंपर आरूढ़ होने में समर्थ रहता है परन्तु दूसरा-द्वितीयोपशम सम्यग्दष्टि मनुष्य केवल' उपशम श्रेणोपर ही चढ़ने में समर्थ होता है। प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि मनुष्य किसो भो श्रेणोपर चढ़ने में कभी समर्थ नहीं होता! यह सूक्ष्मसाम्पराय संयम नियमसे मात्र दशम गुणस्थान होता है ।। २१-२५ ।। आगे यथाख्यातचारित्रका वर्णन करते हैं
इतोऽग्ने स्याद् यथाल्यातं चारित्रं शिवसाधनम् । मोक्षे किमपि चारित्रं नास्तीति समये स्थितम् ॥ २६ ॥ आत्मनो वीतरागत्यं स्वरूपं यादशं मतम् । तावृशं यत्र जायेत तम् यथारपासमुच्यते ।। २७ ॥ क्षीणे वा युपशान्त वा मोहनीमात्यकर्मणि ।
चारित्रं च यथाख्यातं प्रकटीमवति ध्रुवम् ॥ २८ ॥ अर्थ –सूक्ष्मसाम्प राय संयमके आगे-दशम गुणस्थानके आगे मोक्षका साधन स्वरूप यथाख्यात चारित्र होता है। मोक्षमें कोई भी
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