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सम्यचारित्र-चिन्तामणिः
चारित्र नहीं होता है - ऐसा आगममें उल्लेख है । आत्माका बोतरागता रूप जैसा स्वरूप माना गया है वैसा जिसमें प्रकट हो जाता है वह यथाख्यात चारित्र कहलाता है। मोहनीय कर्मका क्षय अथवा उपशम हो जानेपर नियमसे यथाख्यात चारित्र प्रकट होता है ।
भावार्थ - औपशमिक और क्षायिकके भेदसे यथाख्यात चारित्र दो प्रकारका है। उनमें से औपशमिक यथाख्यात संयम उपशान्त मोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में होता है और क्षायिक यथाख्यात क्षीणमोह बारहवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक होता है ।। २६-२८ ।। आगे संयम से पतित होकर पुनः संयमको प्राप्त होनेवाले मुनियोंके करणों का वर्णन करते हैं
संयमात्पतितो मत्यस्तीवसंक्लेशसो बिना । पुनश्चेत्संयमं गच्छेत् नाऽपूर्वकरणं श्रयेत् ॥ २९ ॥ यश्च संक्लेश बाहुल्यात्पतित्वाऽसंयमं गतः । भूयश्चेत्संयमं प्राप्तः स कुर्यात् करणद्वयम् ॥ ३० ॥
अर्थ - जो मनुष्य तीव्र संक्लेशके बिना संयम से पतित हो पुनः संयमको प्राप्त होता है वह अपूर्वकरण नामक करणको नहीं करता है और जो संत्रलेशकी बहुलतासे पतित हो असंयमको प्राप्त हुआ है वह यदि पुनः संयमको प्राप्त होता है तो करणद्वय- अधःप्रवृत्त और अपूर्वकरण नामक दो करणों को प्राप्त होता है ।
भावार्थ - संयमको प्राप्त हुआ मनुष्य बहुत संक्लेशको प्राप्त हुए बिना परिणामवश कर्मोंको स्थिति में वृद्धि किये बिना यदि असंयमपने को प्राप्त होकर पुन संयमको प्राप्त होता है तो न उसके अपूर्वकरण परिणाम हो होते हैं और न स्थितिकाण्डक बात तथा अनुभाग काण्डक घात । किन्तु जो संक्लेशकी अधिकता के कारण मिध्यात्वको प्राप्त होनेके साथ असंयमको प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त बाद या दीर्घकाल बाद संयमको प्राप्त होता है तो उसके अधःप्रवृत्त और अपूर्वकरण नामक दोनों करण होते हैं तथा यथाख्यात स्थितिकाण्डक घात और अनुभागकाण्डक घात भी होते हैं ।। २६-३० ।।
आगे संयमको प्राप्त हुए मनुष्योंकी प्रतिपात, प्रतिपद्यमान और अप्रतिपात अप्रतिपद्यमान के भेदसे तीन स्थानोंका वर्णन करते हैं-
प्राप्तसंयममर्त्यानां
प्रतिपालादिभवतः । त्रिप्रकाराणि धामानि वर्णितानि जिनागमे ॥ ३१ ॥