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सम्यक्चारित चिन्तामणिः
के हेतु कहे हैं। हेतुके रहते हुए हो कार्य होते हैं हेतुके बिना नहीं है आत्मन् ! यदि तू सब ओरसे दुःखोंसे छुटकारा चाहता है तो समय और शक्ति के अनुसार शीघ्र हो तपकरा । जिस प्रकार अग्नि संतस स्वर्ण शीघ्र ही निर्मल हो जाता है उसी प्रकार तपसे संतप्त यह आत्मा निश्चित हो निर्मल हो जाती है । जोव निरन्तर चाहें भी तो भो उनके अनादिकाल से बँधे हुए कर्म तपके बिना नष्ट नहीं होते हैं । ८४-८३ ॥ अब लोक भावनाका चिन्तन करते हैं
पादौ प्रसायं भूपृष्ठे बाहूनिषिध्य मध्यके । स्थितमसमाकारो लोकोऽयं विद्यते सदा ।। ९४ ।। न केनापि कृतो लोको न हर्तुं शक्य एव हि । अमादिनिधनो ह्येष पतित्रयसमावृतः ॥ ९५ ॥ अषोमध्योर्ध्वमेदेन लोकोऽयं त्रिविधो मतः ।
यात्रा वसन्त्यधो लोके मध्यलोके च मानवाः ॥ ९६ ॥ निलिम्पा ऊर्ध्व सम्भागे तियंश्वः सन्ति सर्वतः । अयं सुविस्तृतो लोको निचितो मोयराशिभिः ॥ ९७ ॥ एकोऽपि स प्रवेशो न विद्यते भुवनत्रये । यत्राहं न समुत्पन्नो यत्र में न च संमृतः ॥ ९८ ॥ हा हा क्षेत्रपरावर्ते सर्वत्र भ्रमितो भूशम् । जन्ममृत्यु महावुः खममजं भूरिशोऽप्यहम् ॥ ९९ ॥ लोकरूपं विचिन्त्यात्र ये विरक्ता भवन्त्यतः । त एवं कर्मनिर्मुक्ता लोकाग्रे निवसन्ति हि ॥ १०० ॥ सरिच्छेला विसौन्दयं राजतों चन्द्रिकाविभाम् । सूर्योदयस्य लालित्यं निर्झरास्फालनं तथा ।। १०१ ॥ दृष्ट्वा रज्यन्ति भूभागे तत्रैव विहरन्ति च । निर्जलां वृक्षहीनां च मरुभूमि विलोक्य ये ॥ १०२ ॥ द्विषान्ते मानवास्तेऽत्र रागद्वेषवशं गताः । उत्पद्यन्ते स्त्रियन्ते च तव
भुवनत्रये ॥ १०३ ॥ अर्थ - पृथिवोपर दोनों पैर फैलाकर तथा दोनों हाथ कमरपर रखकर खड़े हुए पुरुषका जैसा आकार होता है वैसा ही आकार वाला यह लोक सदासे विद्यमान है । यह लोक न तो किसी के द्वारा किया गया है और न किसी के द्वारा नष्ट किया जा सकता है । अनादि निधन और तीन वातवलयोंसे वेष्टित - घिरा हुआ है। अधोलोक, मध्य
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