________________
अष्टम प्रकाश
११६
लोक और ऊध्वंलोकके भेदसे यह तोन प्रकारका माना गया है । अधोलोकमें नारकी रहते हैं, मध्यलोकमें मनुष्य रहते हैं, कर्वलोकमें देव रहते हैं और तिर्यञ्च सभी लोकोंमें रहते हैं। यह अत्यन्त विस्तृत लोक जोवराशिसे व्याप्त है। तीनों लोकोंमें वह एक भी प्रदेश नहीं है जहाँ मैं उत्पन्न नहीं हुआ हूँ और मरा नहीं हूँ। बड़े दुःखकी बात है कि क्षेत्र परावर्तनमें में सर्वत्र अनेक बार घूम चुका हूँ। मैंने जन्म और मृत्युका महान् दुःख अनेक बार प्राप्त किया है। इस तरह लोकका स्वरूप विचार कर जो उससे विरक्त होते हैं वे हो कर्मरहित हो लोकके अग्रभागपर निवास करते हैं और जो नदी तथा पर्वतोंका सौन्दर्य, चांदी के समान चाँदनीकी प्रभा, सूर्योदयकी सुन्दरता और झरनोंके प्रपातको देखकर किसो प्रदेशमें राग करते हैं तथा वहीं विहार करते हैं एवं निर्जल तथा वृक्षहोन मरुभूमिको देखकर द्वेष करते हैं, रागद्वेषके वीभूत हुए वे मनुष्य इन्हीं तोनों लोकोंमें उत्पन्न होते और मरते रहते हैं ।। ६४-१०३ ॥ आगे बोधिदुर्लभ भावनाका चिश्तवन करते हैं
लोकोऽयं सर्वतो व्याप्तः स्थावरजोवराशिभिः । स्थावरात् असताप्राप्तिदुर्लभा वर्ततेतराम् ।। १०४ ॥ असतायां च संजिस्वं संशित्वे च मनुष्यता। मनुष्यत्वे च सत्क्षे सक्षेत्रे बकुलीनता ॥ १०५ ।। कुलीनतायामारोग्यमारोग्ये दीर्घजीविता। तत्र सम्यक्त्वसंप्राप्तिस्तत्राप्तास्पनि लक्ष्मता ॥ १६ ॥ तत्राप्यदोषचारित्वं दुर्लभ अतिदुर्लभम् । एवं विचार्य सद्बोधेवालभ्यं सत् सुरक्ष्यताम् ॥ १०७ ।। यथेह दुर्लभं ज्ञात्वा मणिमुक्तादिक नराः। रक्षन्ति तत्परत्वेन बोधी रक्ष्यस्त्वया तथा ॥ १०८ ॥ बोधो रत्नत्रयं नाम दुर्लभं वर्तते नृणाम् । एकादशाद् गुणस्थानात् पतिताः साधवो ह्यधः ॥ १०९॥ अर्धपुद्गलपर्यन्तं पर्यटन्ति भवेभवे । केचिच्चान्तर्मुहुर्तेन लब्ध्वा रत्नत्रयं मिधिम् ॥ ११ ॥ प्राप्नुवन्ति शिवं सद्यः स्वास्मन्येव रता नराः। परिणामस्य विन्यं छप्रस्थ व बुध्यते ।। १११ ॥