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अष्टम प्रकाश
११७ आगे निर्जरा भावनाका चिन्तन करते हैं---
कर्मणां पूर्वबहानामेकदेशस्य संक्षयः। निर्जरा घोच्च विनाविशारः।। ८४ ।। सविपाकाविपाकेतिमेवेन द्विविधा च सा। आद्या भवति सर्वेषां द्वितीया स्यातपस्विनाम् ।। ८५ ॥ फर्मस्थित्यनुसारेणाबाधाकाले समागते । वदतः स्वफलं कर्म-प्रवेशाः संचिता स्वयम् ।। ८६ ॥ पृथग भवन्ति जीवघ्या सविपाका मता श्रुतो। प्रभावात् तपसा केचिदाबाधा पूर्वमेव हि ॥ ८७ ॥ निर्जीर्णा यत्र जायन्ते सा मता हाविपाकजा । अविपाकाप्रभावेण जीया आयान्ति निर्वतिम् ॥ ८८ ।। सषिपाकाप्रभावात्तु तिष्ठन्त्यय विष्टपे। अनशनाविभेवेन तपांसिसम्ति द्वादश ॥८९॥ तान्येष सूरिभिः प्रोक्ता अविपाकासुहेतवः। हेतौ सस्येव सिंघन्ति कार्याणि न तु तं विना ॥ ९ ॥ आत्मन् ! धाग्छसि चेदुःखपरिमोक्षं समन्ततः । सद्यः कुरु तपांसि त्वं यथाकालं यथाबलम् ॥ ११ ॥ अग्नितप्तं यया हेमभिर्मलं जायते द्रुतम् । तपस्तप्तस्तथात्मायं निर्यको भवति ध्रुवम् ॥ ९२॥ अनास्तिो निबद्धानि कर्माणि तपसा विना।
क्षीयन्ते नैव जोवानां वाञ्छतामपि नित्यशः ॥ १३ ।। अर्थ-जनागमके ज्ञाता विद्वानों द्वारा, पूर्वबद्ध कर्मोके एकदेशका क्षय होना निर्जरा कही जाती है। यह निर्जरा सविपाका और अवि. पाकाके भेदसे दो प्रकारको होती है। सविपाका निर्जरा सभी जीवोंके होतो है परन्तु अविपाका निर्जरा तपस्वियों-मुनियोंके होतो है। कर्मस्थिति के अनुसार आबाधाकाल आनेपर संचित कर्मप्रदेश अपना फल देते हुए जीवोंसे जो स्वयं पृथक् हो जाते हैं, यह निर्जरा शास्त्रोंमें सविपाका' मानी गई है और जिससे तपके प्रभावसे कितने ही कर्मप्रदेश आबाधाके पूर्व ही निर्जीर्ण हो जाते हैं वह अविपाकमा निर्जरा मानो गई है। अविपाक निर्जराके प्रभावसे जो निर्वाणको प्राप्त होते हैं और सविपाक निर्जराके प्रभावसे इसो संसारमें स्थित रहते हैं। अनशनादिके भेदसे तप बारह हैं, ये तप हो आचार्योंने अविपाक निर्जरा