________________
११६
सम्यमारिन-चिन्तामणिः मिश्यावृशामबन्धोऽस्ति केषां चिरपुण्यकर्मणाम् । तीर्थकृत्प्रमतीनां च संवरो नैव जायते ॥ ७८ ॥ सत्येव बन्धविच्छेचे संवरो हि निगद्यते । संहौज गुता दि निजता नामिह ॥ ७९ ।। सैव सार्थक्यमाप्नोति नान्या विग्रहमारिणाम् । समये समये जीवजातीनां कर्मणां चयः॥ ८० ।। अन्धमाप्नोति तावांश्च निर्जरामेति सर्वतः। सत्तायो विद्यते साधगुणहानिमितस्तथा ।। ८१॥ मोहनिद्राशमात् साधुसङ्घस्य शुभवेशनात् । सम्पत्वं प्राप्यते भव्य स्त्रिलोक्यामपि दुर्लभम् ॥ ८२।। संवरमेव सम्प्राप्त प्रयत्नं कर सर्वदा ।
संवरमन्तरा न स्यात् कर्मणां क्षपणं क्वचित् ॥ ८३ ॥ अर्थ--जो भास्रवका रुकना है वही संवर कहलाता है। संबरके विना मनुष्य कहीं भी इष्टस्थानको प्राप्त नहीं हो सकता। सच्छिद्र जहाजपर बैठा मनुष्य जलका आगमन होने पर जिस प्रकार गहरे समुद्र में नियमसे डूबता है, उसी प्रकार शुभ-अशुभ कर्मोके आसबसे सहित शुभाचारको प्राप्त हुआ ( मिथ्यादृष्टि ) नियमसे भयपूर्ण संसार सागरमें पड़ता है । मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति-इन तीन गुप्तियोंसे, उत्तमक्षमादि दश धर्मोसे, पांच समितियोंसे, पाँच प्रकारके चारित्रोंसे, बारह अनुप्रेक्षाओंसे तथा बाईस परोषहजयोंसे सम्यग्दृष्टि जीवोंके निश्चय ही संवर होता है। मिथ्यादष्टि जोवोंके तोर्थङ्कर प्रकृति आहारक शरीर तथा आहारक शरोराङ्गोपाङ्ग इन पुण्य प्रकृतियोंका अबन्ध है, संवर नहीं, क्योंकि बन्ध व्युच्छित्ति होने पर हो संवर कहलाता है। संवरके साथ जो कर्मोको निर्जरा होतो है वहो सार्थकताको प्राप्त होती है। वैसे तो सभी संसारी जोवोंके प्रत्येक समय जितना ( सिद्धोंके अनन्तवें भाग और अभब्यराशिसे अनन्तगुणित ) कर्मसमूह बन्धको प्राप्त होता है, उतना ही सब ओरसे निर्जराको प्राप्त होता है और डेढ़ गुणहानि प्रमाण कमसमूह सत्तामें रहता है। मोहनिद्राके उपशम तथा साधुसङ्घके उपदेशसे भव्य जीव त्रिलोक दुर्लभ सम्यग्दर्शन को प्राप्त करते हैं । इसलिये है आत्मन् ! संवरको हो प्राप्त करनेका सदा प्रयत्न करो, क्योंकि संवरके बिना कोका क्षय कहीं कभी नहीं होता है ॥ ७३-२३॥