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सम्यकचारित्र-चिन्तामणिः सेवन करना, विकारवर्द्धक गरिष्ठ वस्तुका सेवन करना और दुष्पक्वअर्धपक्व या अर्धदग्ध पदार्थको ग्रहण करना, ये भोगोपभोग परिमाण नामक तृतीय शिक्षानतके अतिचार हैं। इनका परित्याग करना चाहिये क्योंकि जिस प्रकार कलसे युक्त चन्द्रमा सुशोभित नहीं होता, उसो प्रकार दोषोंसे युक्त बतो इस भूतल पर सुशोभित नहीं होता ॥ ६७-६६ ।।
अतिथि संविभाग प्रतके अतिचार सचित्तभाजने वसः पिहितमच चिसतः । परः प्रदीयमानश्च मात्सर्यमितरंजनः ॥ ७० ।। कालस्योल्लङ्घन दाने प्रमाववशतो नृणाम् ।
तुर्यशिक्षाव्रतस्य॑ते दोषास्त्याज्याः सवा बुधः ॥ ७१ ॥ अर्थ-सचित्त--हरित पत्ते आदि बर्तन पर रक्खा हुआ आहार देना, सचित्त-हरित पत्र आदिसे ढका हुआ आहार देना, परव्यप. देश-दूसरेसे आहार दिलाना, मात्सर्य-अन्य दातारोंसे ईर्ष्या करना और कालोल्लंघन-प्रमादवश दानके योग्य समयका उल्लंघन करना, ये पांच अतिथिसंविभाग नामक चतुर्थ शिक्षावतके अतिचार ज्ञानो जनोंके द्वारा सदा छोड़ने योग्य है । ७०-७१ ।।
सल्लेखनाके अतिचार जोयिताशंसनं जातु मरणाशंसनं क्वचित् । भित्रैः सहानुरागश्चानुबन्धो भुक्तशर्मणः ।। ७२ ॥ निदानं चेति विज्ञयाः संन्यासस्य व्यतिक्रमाः।
एते सर्वे परित्याज्याः स्वर्गमोक्षामिलाषिभिः ।। ७३ ॥ अर्थ-- कभी जीवित होने की आकांक्षा करना, कहीं कष्ट अधिक होने पर जल्दी मरनेको इच्छा करना, मित्रोंके साथ अनुराग रखना, पूर्वभक्त सुखका स्मरण करना और निदान--आगामो भोगोंको इच्छा रखना, ये संन्यास-सल्लेखनाके अतिचार जानने योग्य हैं। स्वर्गमोअके इच्छुक पुरुषोंको इन सब अतिचारोंका परित्याग करना चाहिये ।। ७२-७३ ।।
व्रत और शीलका विभाग अणुसतानि कथ्यन्ते व्रतवदेन सूरिभिः । शेषाणि सप्त कम्यन्ते शोलशरोम सरिमिः ॥ ४४