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द्वादश प्रकाश कृषीवला यथा लोके परितः क्षेत्रसंचयम् । कृस्था बति सुरक्षन्ति दुर्लभां सस्यसम्पदम् ॥ ७५ ॥ तथा शोलानि संधत्य प्रतिनो मानवा भवि।
अत्यन्त दुर्लभां लोके रक्षन्ति व्रतसम्पदम् ।। ७६ ॥ अर्थ-रणात. अगों द्वारा तदसे कहे जाते हैं और शेष सात-तीन गुणवत, चार शिक्षात्रत, शील शब्दसे कहे जाते हैं। जिस प्रकार लोकमें किसान खेतोके चारों ओर बाड़ लगाकर दुर्लभ धान्य संपत्तिको रक्षा करते हैं. उसी प्रकार प्रथिवो पर व्रती मनुष्य शीलोंको धारण कर लोकमें अत्यन्त दुर्लभ बतरूप सम्पत्तिको रक्षा करते हैं ॥ ७५-७६३ अब आगे श्रावकोंको जिनपूजा आदिका निर्देश देते हैं
भक्त्या जिनेन्द्र देवस्य द्रव्यः सारतरंरिह। अर्चा नित्यं विधेयास्ति सर्वसंकटहारिणों ।। ७७ ॥ मग्विराणि यथाशक्ति जिनबेवस्य भक्तितः । निर्मापयितुमहाँणि मेन्तुल्यानि सर्वदा ॥ ७८ ॥ तेषु जिनेन्द्रदेवस्थ प्रतिमाश्चापि सुन्दराः।
स्थापनीया प्रतिष्ठाभिः कृत्वा भव्य महोत्सवम् ॥ ७९ ॥ अर्थ-श्रावकों को प्रतिदिन अत्यन्त श्रेष्ठ अष्ट द्रव्योंके द्वारा भक्तिपूर्वक जिनेन्द्रदेवको पूजा करना चाहिये क्योंकि जिनपूजा सब संकटोंको हरने वाली है। श्रावकोंको सदा भक्तिपूर्वक सुमेरुके समान-उत्तुङ्ग जिनमन्दिर भी यथाशक्ति बनवानेके योग्य है, तथा उनमें प्रतिष्ठाओं द्वारा महोत्सब कर जिनेन्द्र भगवान्की सुन्दर-मनोज्ञ प्रतिमाएं स्थापित करना चाहिये ।। ७७.७६ ॥ आगे जिनवाणोके प्रसारका निर्देश देते हैं---
जिनवाणी प्रसाराय प्रयत्नो अतिभिर्जनः। कार्यः समा स्वद्रध्येग संचितेन सुभक्तितः ॥ ८ ॥ विद्यालयाश्च संस्थाप्याश्छात्रवृन्देन संयुताः । शिक्षकास्तत्र संयोज्या योग्यवृत्त्याभितोषिताः ॥ ८ ॥ विद्वांसो दानमानाहीः सच्छास्त्रेषु कृतश्रमाः। साम्प्रतं जिनशास्त्राणामाधारः सन्ति ते यतः।। ८२ ॥ निन्थमुन्थोपेता विरक्ता भवमोगतः। शाश्वयात्म हितोयुक्ताः परकल्याणकाक्षिणः॥ ८३ ॥