________________
अष्टन प्रकाश
१७३
मिलकर भी मृत्युसे रक्षा नहीं कर सकते । दावानलसे ब्यास वन में वृक्ष पर बैठा हुआ मनुष्य सबको जलता देखकर जिस प्रकार अपने आपको सुरक्षित मानता है उसी प्रकार यह मनुष्य समस्त लोकको मृत्युरूप श्यामके मुख में स्थित देखकर भी अपने आपको व्यर्थ हो स्वस्थ मानता है । प्राणोंके निकल जानेपर मनुष्य जोवको घरसे निकाल देते हैं और बान्धव तथा मित्रवर्ग शमशान जाते है, मिलकर भस्म कर देते हैं, विलाप करते हैं और रोते हैं। सम्बन्धो जनोंको रोता चोखता देखकर कोई भी मृत व्यक्ति कहीं लौटकर नहीं आता । संसारका यह स्वभाव अनादिनिधन माना गया है। संसार रूपी मरुस्थलमें जोव उत्पन्न होते हैं और मरते हैं । कोई किसीके साथ नहीं जाता और न कोई लौटकर आता है। एक धर्मरूप मित्र हो जोवके साथ जाता है । पर्वतपर, वनमें, तालाब में तथा पर्वतकी शिखरोंपर धर्म हो उत्कृष्ट बान्धव - सहायक है. संसार सागरले तारने वाला है । हे आत्मन् ! अपने आपको अशरण मान धर्मकी हो शरणको प्राप्त हो धर्मके बिना तीनों लोकोंमें कोई भो तेरा रक्षक नहीं है ।। १२- २१ ।।
।
अब संसार भावनाका वर्णन करते हैं—
अस्मिन् भवार्णवे धोरे जन्ममृत्यु महान ऋकीर्णे
दुःखनीरोधसंभृते । व्याधितरङ्गके ॥ २२ ॥
धामनि ।। २३ ।।
मरस्तो दुःखसम्भारं चिरं सीवन्ति जन्तवः । श्वस्व तिर्यङ्मनुष्याणाममराणां च भूयोभूयो भ्रमित्वाहं श्रान्तवेहो बभूव हा । एकस्यां श्वास वेलायामथाष्टादशवारकम् ।। २४॥ विपद्योत्पद्यमानोऽहमभजे घोरवेदनाम् । नटवत्स्यामिभृत्यानां वेषस्य परिवर्तनम् ।। २५ ।। वृष्ट्वा कथं विरक्तो नो जायते मध्ये संचयः । निर्धनो धनकाङ्क्षायाः सधना धनतृष्णया ।। २६ ।। प्राप्नुवन्ति महादुःखं सुखी नास्त्यत्र कश्चन । व्रपं क्षेत्र तथा कार्ल मवं भावं च नित्यशः ॥ २७ ॥ पूर्णं करोति जीवोऽयं परावर्तनपञ्चकम् |
मृत्वा संजायते क्षिप्रं भूत्वा च त्रियते क्षणात् ॥ २८ ॥ एको शेदिति सन्तानाभावतो भुवि भूरिशः ।
अभ्यो रोदिति इयू ससंतानस्य समागमात् ॥ २९ ॥