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सम्यकुचारित्र-निम्तामणि:
करपचिग्मृतिमायालि सुगुणः प्रियपुत्रकः । कस्यचित् सुगुणामार्या प्रयाता यममन्दिरम् ॥ ३० ॥ एकेन राज्यमाश्वमेकः सोदति कानने । राज्यलक्ष्मीपरिभ्रष्टो विचित्रा मवपद्धतिः ।। ३१ ।। संसारस्य स्वरूपं ये चिन्तयित्वा स्वचेतसि । विरक्ता मवभोगेभ्यो अभ्यास्तं सन्ति भूतले ॥ ३२ ॥
दुःख
अर्थ - दुखःरूप जलसे परिपूर्ण, जन्ममृत्यु रूपी बड़े-बड़े मगरमच्छों से व्याप्त और रोगरूपी तरङ्गोंसे सहित इस भयंकर संसार सागर में का भार ढोते हुए जीव चिरकालसे दुःखी हो रहे हैं। बड़े दुःखको बात है कि मैं नरक, तिर्यश्व, मनुष्य और देवोंके स्थान - स्वर्ग में बार-बार भ्रमणकर श्रान्त शरीर हो गया हूँ-थक गया हूँ । एक श्वास के समय में अठारह बार जन्म मरण करते हुए मैंने घोर वेदना प्राप्त की हैं। नटके समान स्वामी और सेवकों का वेष परिवर्तन देखकर यह मनुष्योंका समूह विरक्त क्यों नहीं होता ? निर्धन मनुष्य धनकी आकाङ्क्षासे और धनवान् मनुष्य धमकी तृष्णासे महान् दुःख पा रहे हैं। इस जगत् में कोई सुखी नहीं है। यह जीव द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन पाँच परावर्तनोंको पूर्ण करता रहता है। मरकर शीघ्र ही उत्पन्न होता है और उत्पन्न होकर शीघ्र हो मृत्युको प्राप्त होता है । पृथिवोपर एक मनुष्य सन्तान के अभाव में अत्यन्त रोता है तो कोई दुराचारी संतान के संयोगसे रोता है । किसोका गुणवान् प्रिय पुत्र मृत्युको प्राप्त होता है तो किसी को गुणवती स्त्री भर जाती है। एक पुरुषने राज्य प्राप्त किया और एक पुरुष राज्य लक्ष्मी से भ्रष्ट हो वनमें दुःखी होता है, संसारकी पद्धति बड़ी विचित्र है । जो मनुष्य अपने मन में संसार के स्वरूपका विचारकर संसार सम्बन्धी भोगोंसे विरक्त होते हैं, पृथिवो तलपर वे ही धन्य हैंसर्वश्रेष्ठ हैं ।। २२-३२ ॥
आगे एकत्व भावनाका कथन करते हैं
एक एवात्र जायेऽहमेक एवं श्रिये तथा । एको निर्वाणमायाति नास्त्यन्यः कोऽपि में निजः ॥ ३३ ॥ यादृशे पुण्यपापे च कर्मणो विदधात्ययम् । तादृशे सुखदुःखे च स्वयमाप्नोति मानवः ॥ ३४ ॥1 वत्तं परेण नाप्नोति परस्मै नो ददाति च । अन्योऽन्यव्यत्ययो नास्ति पुण्यपापाठयकर्मणोः ।। ३५ ।।
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