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अष्टम प्रकाश
पिता नरकमायाति पुत्रो मोक्षं प्रयाति च । स्वकृतं सर्व आप्नोति दुरन्तेऽस्मिन् भवार्णवे ॥ ३६ ॥ अन्यस्य सुबसिद्धधर्थं कुदते दुरितं जनः । तत्फलं स्वयमाप्नोति नाभ्यः क्वापि कदाचन ।। ३७ ।। हे आत्मन् स्वहितं पश्य तदेव त्वस्सुखावहम् । परवृष्टिस्त्वयाश्याच्या सुखं वाञ्छसि चेद्ध्रुवम् ॥ ३८ ॥ अस्मिम्ननादिसंसारे स्वतन्त्राः सन्ति जस्तबः । कसरः सन्ति सर्वेऽपि स्वभावस्थैव सर्वदा ॥ ३९ ॥ परः परस्थकर्तास्ति दृष्टिरेषा न शोभना । इष्टानिष्टविकल्पानां जन करवाया वहा ॥ ४० ॥ दृष्ट्वेष्टं सुखसम्पन्नं मोदले रामिणो जनाः । दुष्ट्वा च दुःखसम्पन्नं इयन्ते नितरां हि ते ॥ ४१ ॥ रागद्वेषौ परित्यज्य परकीयेषु वस्तुषु । श्रीतरागस्वमा स्वमात्मनि सुस्थिरो भव ।। ४२ ।।
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अर्थ - इस जगत् में मैं अकेला ही उत्पन्न होता हूँ, अकेला ही मरता हूँ और अकेला हो निर्वाणको प्राप्त होता हूँ, अन्य कोई व्यक्ति मेरा निजी नहीं है । यह मनुष्य जैसे पुण्य-पाप कर्म करता है वैसे हो सुखदुःखको स्वयं प्राप्त होता है। यह मनुष्य न तो दूसरेके द्वारा दिये हुए को प्राप्त होता है और न दूसरेको देता है। पुण्य-पाप कर्मका परस्पर आदान-प्रदान नहीं होता। पिता नरकको प्राप्त होता है तो पुत्र मोक्षको जाता है । इस दुःखदायक संसार सागर में सब अपना किया हुआ हो प्राप्त करते हैं। दूसरेकी सुख-सिद्धिके लिए मनुष्य पाप करता है परन्तु उसका फल स्वयं प्राप्त करता है दूसरा कोई कहीं, कभी नहीं । हे आत्मन् ! तूं अपना हित देख, वही तेरे लिए सुखदायक होगा। यदि तू स्थायी सुख चाहता है तो तुझे परदृष्टि छोड़ने योग्य है । इस अनादिसंसार में सब जीव स्वतन्त्र हैं, सभी सदा स्वभाव के ही कर्ता हैं। पर, परका कर्ता है, यह दृष्टि-विचारधारा अच्छी नहीं है । इष्टानिष्ट विकल्पोंका जनक होनेसे संसारको बढ़ाने वाली है । द्दष्ट मनुष्यको सुखी देखकर रागी मनुष्य हर्षित होते हैं और दुःखी देखकर अत्यन्त दुःखी होते हैं । इसलिए पर-वस्तुओंमें राग, द्वेष छोड़कर वीतराग स्वभाव वाले आत्मा में - अपने आपमें स्थिर हो जा ।। ३३-४२ ।। -