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सम्पचारित्र-चिन्तामणिः संघ अन्य कामनाक:
पिरो हैं. .. माहं नोकर्मरूपोऽस्मि न च 4 फर्मरूपकः । माहं रागादिरूपोऽहं न च ज्ञेयस्वरूपकः ।। ४३ ।। न गुणस्थानरूपोऽहं न प + मार्गणामयः। न शब्दोऽहं न वर्णोऽहं न च स्पर्शो न गन्धवान् ॥ ४४ ॥ ने रसोऽहं न पुण्यातयो न च पापमयः क्वचित । एते सर्वे परद्रव्य संजाता विविधात्मकाः ॥ ४५ ॥ अहं ज्ञानस्वभावोऽस्मि परतो भिन्न एव हि। आत्मानं बेहतो भिन्न ये जानन्ति मुनीश्वराः ।। ४६ ।। त एव शिवमायान्ति कुर्वन्तः कर्मनिर्जराम् । यदा वेहोऽपि में नास्ति जन्मतः प्राप्तसंगतिः ।। ४७ ॥ तदा गेहादयो बाह्याः पदार्थाः सन्तु में कथम् । पुत्रभार्यादिषु भ्रान्ताः कुर्वाणा ममताश्रयम् ।। ४८।। 'मे मे में इति कुर्वाणा वर्करा इव मानव।। पतिता मोहपस्मिन् प्रविशन्ति मृतमखे ।। ४९ ।। यथा लोहस्य संसर्गावनलः पोइयतै घनः । तथा देहस्य संसदात्माऽयं पोड्यते घनः ।। ५० ॥ जीवानामत्र सन्स्यत्र यावत्यो हि विपत्तयः। तावत्यो निखिला ज्ञेयाः संयोगावेव देहिनाम् ॥५१॥ येषामात्मा पराच्युत्वा शुद्धाकाशनिमोऽभवत् ।
त एव भगवसिद्धाः सुखिनः सन्ति नेतरे ।। ५२ ॥ अर्थ-निश्चयसे मैं नो कर्मरूप नहीं हूँ, कर्म रूप नहीं हूँ, रागादिरूप नहीं हूँ, ज्ञेयरूप नहीं हूँ, गुणस्थानरूप नहीं हूँ, मार्गणामय नहीं हूँ, शब्द नहीं हूँ, वर्ण नहीं हूँ, स्पर्श नहीं हूँ, गन्धवान् नहीं हूँ, रसरूप नहीं हूँ, पुण्य सहित नहीं हूँ और कहीं पाप सहित भी नहीं हूँ। ये सब नाना रूप परद्रव्य के संयोगसे उत्पन्न हुए हैं। मैं ज्ञान स्वभावो हुं परसे भिन्न हो हूं जो मुनिराज शरोरसे भिन्न आत्माको जानते हैं वे हो कमौको निर्जरा करते हुए मोक्षको प्राप्त होते हैं । जब जन्मसे साथ लगा हुआ शरोर भो मेरा नहीं है तब घर आदि वाह्य पदार्थ मेरे कैसे हो सकते हैं ? पुत्र तथा स्त्रो आदिमें भूले मनुष्य ममताका आश्रय करते हुए 'मे मे मे करने वाले बकरोंके समान मोहरूपो कार्दममें पड़कर मृत्युके मुख में प्रवेश करते हैं-मर जाते हैं। जिस प्रकार लोहको संगतिसे