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अष्टम प्रकाश
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अग्नि, घनोंके द्वारा पोटी जाती है उसी प्रकार देहको संगतिसे यह आत्मा, कर्म रूपो घनोंके द्वारा पीटो जाती है। इस जगत् में जीवोंको जितने कष्ट हैं वे सब स्त्री पुत्रादि प्राणियोंके संयोगसे हो जानना चाहिये | जिनकी आत्मा परसे च्युत हो शुद्ध आकाशके समान हो गई है वे भगवंत सिद्ध परमेष्ठी हो लोकमें सुखो हैं ।। ४३-५२ ।।
आगे अशुचित्व भावनाका चिन्तन करते हैं
मातातातरजीवीर्यादुत्पत्तिर्यस्य
जायते ।
रा देहः शुचितां वायात् कथमित्थं विचार्यताम् ।। ५३ ।। यः स्वमायावशुद्धोऽस्ति स शुद्धः स्यात्कथं परैः । मलमूत्रमयो बेहो सुन्दरवर्मणावृतः ॥ ५४ ॥
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५६ ॥
स्वर्णपत्रसमाच्छन्नमलपूर्णघटोपमः एतत्संगतिमासाद्य विश्रमाद्यमित मानवाः ।। ५५ । यतीय सङ्क्रमासाद्य वस्तुन्यत्र शुत्रोन्यपि । अशुचीन्येव जायन्ते स वेहो रूयते कथम् ॥ पारोररागः सर्वेष रागाणां मूलमुच्यते । सर्व रागविरक्तिश्चेद् देहरागो विमुच्यताम् ।। ५७ ।। बेहरागेण संयुक्ता व शक्ताः स्युः परोषहान् सोढुं क्षुधापिवासान् देहपीडाकरान् सदा ॥ ५८ ॥ इत्थंभूता नराः क्वापि मुनिदीक्षां धरन्ति नो । मुनिदीक्षां विना क्वापि मोक्षप्राप्तिनं जायते ॥ ५९ ॥ यथार्थं सुखलिप्सा ते मानसे यदि वर्तते । देहरागस्त्वया त्याज्यस्तहि मुक्तिप्रबाधकः ।। ६० ।। येहस्याशुचितां नित्यं भावयित्वा मनोश्वराः । देहरागं परित्यक्तुं समर्थाः सन्ति भूतले ॥ ६१ ॥ एसे मुनीश्वरा एव कायक्लेशादिकं तपः । कुर्वन्ति श्रद्धयोपेताः कर्मक्षय विधायकम् ॥ ६२ ॥ ॥
अर्थ - माता-पिता के रजवीयसे जिसकी उत्पत्ति होती है वह शरीर शुचिता - पवित्रताको कैसे प्राप्त हो सकता है, ऐसा विचार करना चाहिये ? जो स्वभावसे अशुद्ध है वह दूसरे पदार्थोंसे शुद्ध कैसे हो सकता है ? मलमुत्रमय शरीर सुन्दर चर्मसे ढका हुआ है अतः स्वर्णपत्रसे आच्छादित मलपूर्ण घड़े के समान है । इस शरोरको संगति पाकर मनुष्य मत्त होते हैं-- अपने आपको भूल जाते हैं । यह आश्चर्य की बात