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तृतीय प्रकाश स्वीकृत करते हैं उनका नरक और निगोदमें पड़ना सुनिश्चित है । यदि तुम्हारी गृहस्थोंमें पाई जानेवाली कर्तृत्वको इच्छा नहीं गई थी तो तुमसे किसने कहा था कि तुम मुनि हो जाओ और गृह त्याग कर दो। जिस प्रकार निर्मल चन्द्रमामें कलंक शोन हो दिखायी देता है उसी प्रकार निर्मल साधुमें छोटा भो दोष दिखायी देता है। इस जगत् में कहीं भी मुनिको कोई सदोष कार्य नहीं करना चाहिये जिससे निग्रंथ मुद्राका अपवाद हो। साधु की चर्या तलवारको धारपर चलनेके समान कठिन है। यदि निग्रन्थ दोमा धारण करनेको तुम्हारो सामर्थ्य नहीं है तो हे भव्योत्तम ! तुम श्रद्धामात्रसे संतुष्ट होओ।। ६३-१०० ॥ अब आगे महबतोंको स्थिरताके लिये पच्चीस भावनाओंका वर्णन करते हुए-प्रथम अहिंसा महारतकी पांच भावनाएं कहते हैं
अथाने सम्प्रवक्ष्यामि पञ्चविंशतिभावनाः । महावतानां स्थैर्वार्थ मुनयो भावयन्ति याः॥१०१।। वाचागुप्तिमनोगुप्तिरीयर्यासमितिपालनम् आदानन्यासनाम्न्यां च समित्यां सावधानता ॥ १०२ ।। पानभोजमवृत्तिश्च पञ्चैता भावना मताः।
अहिंसावतरक्षार्थ मुनयो भावयन्ति यः॥ १०३ ॥ अर्थ-अब आगे, महाव्रतोंको रक्षाके लिये मुनि जिन भावनाओंका चिन्तवन करते हैं उन पच्चीस भावनाओंको कहेंगे। वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्या समिति, आदान निक्षेपण नामक समितिमें सावधानता और आलोकितपान-भोजनवृत्ति ये पाँच भावनाएँ हैं जिन्हें मुनि अहिंसानत की रक्षाके लिये भाते हैं।
भावार्थ-जिन-जिन कार्योंसे हिंसा होतो है उन सबमें सावधानी रखनेके लिये पाँच भावनाएं निश्चित को गई हैं। वास्तवमें मनुष्य उपर्युक्त पांच हो कार्य करता है, शेष कार्य इन्हीं पाँच कार्योंमें गभित होते हैं ।। १०१-१२३॥ आगे सत्य महातको पांच भावनाएं कहते हैं
कोषलोभभयत्यागा हास्यसत्याग एव च । शास्त्रानुकलभाषा च पञ्चैता भावना मताः ॥ १० ॥
सत्यव्रतसुरक्षार्थ साधनो भावयन्ति याः । अर्थ-क्रोध-त्याग, लोभ-त्याग, भय त्याग, हास्य-दाग और शास्त्रानुकूलभाषा ( अनुवोचि भाषण ) ये वे पाँच भावनाएं हैं, सत्य. अतको रक्षाके लिये मुनि जिनका ध्यान करते हैं ।। १०४॥