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सम्यचारिन्न-चिन्तामणिः आगे अचौर्य महानतको दृढ़ताके लिये पांच भावनाओंका वर्णन करतेहैं
शून्यागारेषु वत्स्यामि मोचिता बासकेषु च ।। १०५ ।। भक्ष्यशुद्धि विधास्थामि न कुर्यामन्य रोधनम् । सटिसंवादं न करिगापि नाचित् ।। Ran अस्लेयवतरक्षार्थ पञ्चता भावना मताः ।
मुनयो भावना झेता भावयन्ति पुनः पुनः ॥ १०७ ॥ अर्थ-मैं पर्वतको गुफा आदि शून्यगृहोंमें निवास करूँगा, विमोचित दूसरोंके द्वारा छोड़े हुए स्वामिस्वहीन गृहोंमें रहूँगा, भिक्षा सम्बन्धो शुद्धि रक्खूगा, अपने स्थानपर ठहरनेवाले दूसरे साधुओंको रुकावट नहीं करूंगा तथा सहधर्मीजनोंसे विसंवाद विरोध नहीं करूंगा अचौर्यव्रतको रक्षाके लिये ये पाँच भावनाएं हैं। मुनि इनका बार-बार चिन्तन करते हैं ॥ १०५-१०७ ।।* अब ब्रह्मचर्यव्रतको रक्षाके लिये पाँच भावनाएं कहते हैं
यनितारागधिन्यः कथा या विश्रता अधि ।
ता अहं नैव श्रोष्यामि रागिनसमागमे ।। १०८॥ * मूलपार में तृतीय महाव्रतकी भावनाएं निम्न प्रकारसे कही है
जायण समपुण्यमणा अणण्णभावो वि चत्तपडिसेवी ।
साधम्मिनोवकरणस्सणुवीचीसेवणं चावि ।। ३३६ ।। याचना; समनुज्ञापना, अपनत्वका अभाव, त्यक्त्त प्रतिसेवना और सार्मिकोंके उपकरणका उनके अनुकूल सेवन करना ।
१. याचना-अपेक्षित वस्तुको गुरु या उसके स्वामी सहधर्मी मुनिसे विनयपूर्वक माँगना।
२. समनुज्ञापना-किसीकी बस्तुको यदि बिना अनुमतिके ली हो तो उसकी सूचना देना और कहना कि शीघ्रताके कारण मैं आपसे पहले आज्ञा नहीं ले सका।
३. अन्यकी वस्तुमें अपनस्य भाव नहीं करना--यह दुसरेकी है, उसकी आकासे मैं इसका उपयोग कर रहा हूँ।
४. त्यक्स' प्रतिसेबो-जिसका अन्य साधुने त्याग कर दिया है, अपना स्वामित्य छोड़ दिया है ऐसे उपकरण-शास्त्र आदिका उपयोग करना ।
५. सामियोपकरण-अनुवीचि सेवन-साधर्मी मुनियोंके उपकरणोंका उनकी आज्ञासे आगमानुसार सेवन करना ।