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( १५ ) आगममें चारित्रकी बड़ी महिमा बतलायो गई है। उससे मोक्षकों प्राप्ति होती है । यदि उसमें न्यूनता रहे तो उससे वैमानिकदेवको आयु बंधती है। सकलनाभिको पात दूर रहो, देशचारिखको भो इतनो प्रभुता है कि उससे भी देवायुका हो बन्ध होता है। जिस जोवके देवायुको छोड़कर अन्य किसो आयुका बन्ध हो गया है उसके उस पर्याय में न अणुव्रत धारण करनेके भाव होते हैं और न महावत धारण : करने के।
नराकायुका बन्ध प्रथम गुणस्थान तक होता है; तिर्यञ्च आयुका बन्ध द्वितोय गुणस्थान तक होता है। तृतीय गुणस्थानमें किसो भी आयुका बन्ध नहीं होता। चतुर्थ गुणस्थानमें देव और नास्कोके नियमसे मनुष्यायुका और मनुष्य के चतुर्थ से लेकर सप्तम गुणस्थान तक देवायुका हो बन्ध होता है। तिर्यञ्चक चतुर्थं और पञ्चम गुणस्थानों में देवायुका बन्ध होता है। अष्टमादि गुणस्थानोंमें किसी भी आयुका बन्ध नहीं होता। आयुका बन्ध किये बिना जो मनुष्य उपशम श्रेणी मलिकर एकादश गुणस्थान तक पहुंच जाता है वह क्रमशः पतन करा जब सप्तम या उससे अधोवर्जी गुणस्थानोंमें आता है तभी आयुका बन्धकर तदनुसार उत्पन्न होता है। ___ अविरत सम्यग्दृष्टि जीवके गुणश्रेणो मिर्जरा सदा नहीं होतो जब स्वरूपको ओर उसका लक्ष्य जाता है तब होतो है । परन्तु सम्यक् दर्शन सहित एकदेश-चारित्रके धारक श्रावक और सकल-चारित्रके धारक मुनियोंके निरन्तर होतो रहती है। समन्तभद्रस्वामीने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रकी प्राप्तिका क्रम तथा उद्देश्य वर्णन करते हुए लिखा है
मोहतिमिरापहरणे दर्शन लाभादवाप्तसंज्ञानः ।
रागद्वेषनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ।। अर्थात् मोह ( मिथ्यात्व ) रूपो अन्धकारका नाश होनेपर सम्यग्दर्शनके लाभपूर्वक जिसे सम्पज्ञान प्राप्त हुआ है ऐसा भद्र परिणामी जीव रागद्वेषको दूर करने के लिए सम्यक चारित्र को प्राप्त करता है।
करणानुयोगके अनुसार जिस जीवके मिथ्यात्वके साथ अनन्तानुबन्धी चतुष्क अप्रत्याख्यानावरण चतुष्कका अनुदय है और प्रत्याख्यानावरण चतुष्क तथा सज्वलन चतुष्कका उदय है उसके देशचारित्र होता है और जिसके मिथ्यात्वके साथ अनन्तानुबन्धो चतुष्क अप्रत्या