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नवम प्रकाश
परिहारविशुद्धघाट्ये शमजं नास्ति सर्वया । सूक्ष्मादि साम्पराये तु श्रेदकं नैव विद्यते ।। ५८ ।। यथाख्याते तु विज्ञेयं क्षायिकं शमजं तथा । केवलदर्शनादयेषु केवलं क्षायिकं भवेत् ॥ ५९ ॥ अन्यदर्शन युक्तेषु त्रिविधमपि सम्भवेत् । सलेश्यानां त्रयो भेदा अलेश्यानां तु क्षायिकम् ॥ ६० ॥ त्रिविधं जायते भव्ये त्वभव्ये नास्ति किञ्चन । सम्यक्त्वानुवावेन वर्तते यत्र मा भिदा ।। ६१ ॥ तत्रैव सापरिशेया सिद्धान्तानुगमोद्यतेः । सम्यक्त्वस्य त्रयो भेदा: संज्ञिनां देहधारिणाम् ।। ६२ ।। जायन्तेऽसंज्ञिनां किन्तु हृोकं नापि प्रजायते । आहारकेऽप्यनाहारे त्रयो भेदा भवन्ति हि ॥ ६३ ॥ शमजं किन्त्वनाहारे निर्जरगत्यपेक्षया । शम्रजेन युतो मृत्वा देवेष्वेवोपजायते ॥ ६४ ॥
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अर्थ- संयममार्गणाकी अपेक्षा सामायिक और छेदोपस्थापना संयमसे सहित आत्मपुरुषार्थी जीवोंके सम्यक्त्वके तीनों भेद होते हैं परन्तु परिहारविशुद्धि वालेके औपशमिक सम्यग्दर्शन नहीं होता । सूक्ष्मसाम्पराय संयम में वेदक सम्यग्दर्शन नहीं होता । यथाख्यातसंयम में क्षायिक और औपशमिकसम्यग्दर्शन जानना चाहिये | दर्शनमार्गणा को अपेक्षा केवल दर्शनसे युक्त मनुष्यो के मात्र क्षायिकसम्यक्त्व होता है शेष तीन दर्शनोंसे सहित जीवोंके तोनों सम्यग्दर्शन होते हैं । लेश्यामार्गणा को अपेक्षा सरेश्यजीवोंके तीनों भेद होते हैं, परन्तु अलेश्यलेश्या रहित जीवोंके मात्र क्षायिकसम्यक्त्व होता है । भव्यत्वमागंणा को अपेक्षा भव्यजोव के तोनों सम्यक्त्व होते हैं पर अभव्य के एक भी नहीं होता । सम्यक्त्वमार्गणाको अपेक्षा जहाँ जो भेद है सिद्धान्तशास्त्र के जानने में उद्यत मनुष्यों को वहाँ वही भेद जानना चाहिये । संज्ञी मार्गणाकी अपेक्षा संज्ञो जीवके तोनों सम्यग्दर्शन होते हैं किन्तु असंज्ञीजोदके एक भी सम्यग्दर्शन नहीं होता । आहारकमार्गणाकी अपेक्षा आहारक और अनाहारक- दोनों प्रकार के जीवोंके सम्यग्दर्शन के तीनों भेद होते हैं परन्तु अनाहारक अवस्था में औपशमिकसम्यग्दर्शन देवगति की अपेक्षा हो जानना चाहिये क्योंकि औपरामिकसम्यग्दर्शन के साथ मरा जोव देवोंमें ही उत्पन्न होता है ।। ५७-६४ ।।