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सम्यमारित्र-चिन्तामणिः आगे इस प्रकरणका समारोप करते हैं--- एवं सवं चिन्तयन्तः पुमास
श्चिन्ताकाले स्थीयचित्तं समन्तात् । पञ्चाक्षाणो दीर्घदुःखप्रवानां
द्वन्द्वाद् दूरीकृत्य सुस्था भवन्ति ॥ ६५ ॥ अर्थ-इस प्रकार इस सबका चिन्तन करने वाले पुरुष चिन्तनके कालमें अपने मन को अत्यधिक दुःख देनेवाले पञ्चेन्द्रियोंके द्वन्द्वइष्टानिष्ट विकल्प को दूरकर सुखी होते हैं ।। ६५ ॥ इस प्रकार सम्यक् चारित्र चिन्तामणिमें ध्यान सामग्रीका
वर्णन करने वाला नवम प्रकाश पूर्ण हुआ।
दशमप्रकाशः आर्यिकाणां विधिनिर्देशः
मंगलाचरणम् नाहं क्लीवो नव भामा पुमांश्च
__ नाहं गौरी नंव कृष्णो न पीतः । एते सर्वे सन्ति देहप्रपञ्चा
स्तेभ्यो मिन्नः शुद्धचिम्मानमात्मा ।। १ ।। एवं ध्यात्वा ये स्वरूपे निलीना
रागद्वेषाद ये विरक्ताश्च जाताः । तान् निग्रन्थान मोहमायाव्यतीतान्
भूयोभूयो भूरिशः संनमापि ।। २॥ अर्थ-मैं नपुंसक नहीं हूँ, मैं स्त्री नहीं हूँ, मैं पुरुष नहीं हूँ, मैं गोरा नहीं हूँ, मैं काला नहीं हूँ और मैं पोला नहीं हूँ। ये सब शरीर के प्रपन्च हैं। आत्मा इन सबसे भिन्न शुद्ध चैतन्य मात्र है। ऐसा ध्यान कर जो स्वरूप में लोन हैं और जो राग-द्वेषसे विरक्त हो चुके हैं, मोह मायासे रहित उन निम्रन्थ मुनियों को मैं बार-बार अत्यधिक नमस्कार करता हूँ॥१२॥