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सभ्यक्चारित्र-चिन्तामणिः
अयोगेषु भवेदेकं क्षायिकं नेतरत्तु तत् । एकद्वियोग युक्तेषु सम्यक्त्वं नास्ति किञ्चन ।। ५२ ॥ वेदत्रयेण युक्तेषु जायते त्रिविधं तु तत् । भावतो, न तु ब्रध्यस्त्री क्षायिकं लभते क्वचित् ॥ ५३ ॥ गतवेदेषु जायेत द्वितयं वेवकं विना । क्षोणमोहादिषु ज्ञेयं केवलं क्षायिकं तु तत् ॥ ५४ ॥ क्षायोपशमिकज्ञानचतुष्केण विशोभिषु । त्रयः सम्यक्त्वमेवाः स्युः, क्षायिकज्ञानशालिषु ॥ ५५ ॥ के लिए अचेबेक क्षायिक नैतरत्पुनः । मन:पर्यययुक्तेषु शमजं नव जायते ।। ५६ ।।
अर्थ – इन्द्रियानुवादको अपेक्षा खोटो गति से युक्त, एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञो पञ्चेन्द्रिय तकके जोवोंके एक भो सम्यग्दर्शन नहीं होता । पञ्चेन्द्रिय जीवोंमें तोनों सम्यक्त्व होते हैं । काय मार्गणाको अपेक्षा स्थावरोंमें कोई भी नहीं होता प तोनों प्रकारका सम्यक्त्व होता है । योगमार्गणाको अपेक्षा तोनों योगोंसे युक्त जीवों में तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, अयोगियोंके एक क्षायिक ही होता है अन्य दो नहीं होते । एक योग वाले -स्थावरोंके और दो योग वाले- दोन्द्रियसे लेकर असंज्ञो पञ्चेन्द्रिय तक के जीवों को कोई भो सम्यक्त्व नहीं होता । वेदमागंणाको अपेक्षा तीनों भाव वेदोंसे युक्त जोबोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं परन्तु द्रव्य-स्त्री कहीं भी क्षायिक सम्यक्त्वको प्राप्त नहीं होती । अपगत वेदो जीवोंके क्षायोपशमिक को छोड़कर औपशमिक और क्षायिक, ये दो सम्यग्दर्शन होते हैं परन्तु अपगत वेदियों में जो क्षीणमोहादि गुणस्थानवर्ती हैं उनको एक क्षायिक हो जानना चाहिये। ज्ञानमार्गेणाको अपेक्षा चार क्षायोपशमिक ज्ञानों से सहित जीवोंके सम्यक्त्वके तोनों भेद होते हैं परन्तु क्षायिक ज्ञानसे सुशोभित केवलियोंके एक क्षायिक सम्यक्त्व हो होता है शेष दो नहीं । क्षायोपशमिक ज्ञानों में मन:पर्ययज्ञान से युक्त जीवोंके औपशमिक सम्यग्दर्शन नहीं होता ।। ४६-५६ ।।
आगे संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञो और आहारमार्गणाको अपेक्षा सम्यग्दर्शनका कथन करते हैं---
सामायिके तथा छेवोपस्थापन विशोभिते । श्रयः सम्यक्त्वमेयाः स्युराम पौरुषशालिनाम् ॥ ५७ ॥