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नवम प्रकाश
१२६ द्वितोयादिक पृथिवियोंमें पर्याप्तकोंके क्षायिकके बिना दो सम्यक्त्व हो सकते हैं परन्तु अपर्याप्तकोंके एक भी सम्यग्दर्शन नहीं होता।
तिर्यग्गतिको अपेक्षा भोगभूमिमें पर्याप्तक भव्य तिर्यञ्चोंके तोनों सम्यग्दर्शन होते हैं परन्तु अपर्याप्तकोके औपशमिक सम्यक्त्व नहीं होता। कर्मभूमिज पर्याप्तक तिर्यञ्चोंमें क्षायिकके बिना दो सम्यक्त्व होते हैं परन्तु अपर्याप्तकोंके सम्यग्दर्शनको सुगन्ध नहीं रहती। तात्पर्य यह है कि जिसने तिर्यमायुका बन्ध करनेके बाद सम्यक्त्व प्राप्त किया है ऐसा मनुष्य नियमसे भोगभूमिका हो तिर्यञ्च होता है, कर्मभूमिका नहीं। अतः कर्मभमिके अपर्याप्तक तिर्यञ्च सम्यक्त्वका अभाव रहता है। पर्याप्तक अवस्थामें औपमिक और क्षायोपशमिक नवीन उत्पन्न हो सकते हैं, इसलिये उनका सद्भाव बताया है।
पर्याप्तक मनुष्योंमें तोनों सम्यग्दर्शन होते हैं, परन्तु अपर्याप्तक मनुष्योंके औपशमिक सम्यग्दर्शन नहीं होता है। पासक प्रध्य स्त्रियाक क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता, नवोन उत्पत्तिको अपेक्षा शेष दो होते हैं परन्तु अपर्याप्तक स्त्रियोंके सम्यग्दर्शनका लेश भो नहीं होता है उसका कारण है कि सम्यग्दष्टि जीव द्रव्य-स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होता।
देवगतिकी अपेक्षा पर्याप्तक-अपर्याप्तक—दोनों प्रकारके भव्य देवों में तोनों सम्यग्दर्शन होते हैं। इसका कारण है कि द्वितीयोपशममें मरा जोव वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है। अतः अपर्याप्तक अवस्था में भो औपशमिकका सदभाव सम्भव है । पर्याप्त क देवियोंमें क्षायिक सम्य. ग्दर्शन नहीं होता, नवीन उत्पत्तिको अपेक्षा शेष दो सम्भव हैं। अपर्याप्तक देवियों के सम्यग्दर्शनकी गन्ध नहीं है। भवनत्रिक सम्बन्धो पर्याप्तक देव-देवियोंके नवीन उत्पत्तिको अपेक्षा औपशमिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यग्दर्शन होते हैं, अपर्याप्तकों के सम्यग्दर्शनका कोई भेद नहीं होताक्योंकि सम्यग्दृष्टिको उनमें उत्पत्ति नहीं होती ।। ३६-४८|| आगे इन्द्रिय, काय, योग, बेद और ज्ञानमार्गणाकी अपेक्षा सम्यग्दर्शनका वर्णन करते हैं---
एकेन्द्रियात्समारभ्या संज्ञिपश्चाक्षदेहिषु । नास्त्येकमपि सम्यक्त्वं दोर्गत्येन युतेषु वै॥४९॥ पञ्चेन्द्रियेषु जायेत सम्यक्त्वत्रितयं पुनः । स्थावरेषु च सम्यक्त्वं विद्यते नात्र किञ्चन ॥ ५० ॥ असेषु त्रिविधं ज्ञेयं सम्यक्त्वं पुष्पशालिषु । योगत्रयेण मुक्तषु सम्यक्त्वत्रितयं भवेत् ॥ ५१ ॥