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तृतीय प्रकाशा
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वनस्पति और त्रस वादर ही कहे गये हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च संज्ञी और असंज्ञके भेदसे दो प्रकार के कहे गये हैं परन्तु मनुष्य, देव और नारको संज्ञी ही माने गये हैं । तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रियोंके जिनेन्द्र भगवान्ने जलचर, स्थलचर और नभचरके भेद से तीन भेद कहे हैं। नक्र-मगर आदि जलचर हैं, गाय आदि स्थलचर हैं और पक्षी नभचर हैं। आर्य और म्लेच्छके भेदसे मनुष्य दो प्रकार के हैं तथा चार निकाय ( भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकके ) भेदसे देव चार प्रकार के है । इन सब जीव जातियोंकी रक्षा करना प्रथम अहिंसा महाव्रत है । बहिरङ्गसे छह काय ( पाँच स्थावर और त्रस ) के जोवकी रक्षा करनेसे और अन्तरङ्ग से रागादि विभाव भावोंका निवारण करनेसे निश्चितही अहिंसा महाव्रत होता है। अब आगे सत्य महाव्रतका कथन करेंगे ॥ ३६-४४ ॥
क
वजः।
प्रमाज्जीवं तवसत्यं परिज्ञेयं तच्चतुविध्यमश्नुते ॥ ४५ ॥ निषेधो यत्र जायेत सद्भूतस्थापि वस्तुनः । असत्यं प्रथमं ज्ञेयं तत् सद्भूतापलापकम् ।। ४६ ।। यथा सतोऽपि देवस्य नास्तीति कथनं गृहे । यत्रासतः पदार्थस्य सद्भायो हि विधीयते ।। ४७ ।। असत्यमेतद् विज्ञेयमसद्धावनं परम् ।
असत्यपि देवदत्ते सोऽस्तीति कथनं यथा ॥ ४८ ॥ मूलतोऽविद्यमानेऽर्थे तत्सबुशो निरूपणम् ।
अश्वाभावे बरस्थाश्व कथनं क्रियते यथा ।। ४९ ।। एतवन्याभिधानं च तृतीया सत्यमुच्यते । गहिताप्रियक्षादिवचनं
एतच्चतुविधासस्य विपरीतं
गर्हितादिवाक ।। ५० ॥ यदुच्यते । तत्सत्यं वचनं प्रोक्तं सर्वदुःख निवारकम् ॥ ५१ ॥
अर्थ --- प्रमत्तयोगसे जीवोंद्वारा जो अनृत - मिथ्याकथन किया जाता है उसे असत्य जानना चाहिये। यह असत्य चार प्रकारका है । जिसमें विद्यमान वस्तुका भो निषेध किया जाता है उसे सद्भूतापलापक पहला असत्य जानना चाहिये । जैसे देवदत्तके रहते हुए भी कहना कि घरमें नहीं हैं। जिसमें अविद्यमान पदार्थका सद्भाव किया जाता है वह असदुद्भावन नामका दूसरा असत्य है । जैसे देवदत्तके न रहते हुए भी कहना कि देवदत्त है। मूल वस्तुके न रहनेपर उसके सदृश वस्तुका कथन करना । जैसे अपबके न रहने पर गृहस्थको भार ढोने की अपेक्षा अश्व कहना । यह