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सम्पचारित्र-चिन्तामणिः अन्यरूपाभिधान नामका तीसरा असत्य है । गहित, अप्रिय तथा कर्कश आदि वचन गर्हितादि वचन कहलाते हैं। जैसे कानाको कनवा और पंगु को लंगड़ा आदि शब्दसे संबोधित करना । यह सत्य होनेपर भी गहित तथा कर्कश होने से असत्यकी कोटि में लिया जाता है। इन चार प्रकारके असत्यसे विपरीत जो वचन कहा जाता है वह सत्य कहलाता है। यह सत्य वचन सब दुःखोंका निवारण करने वाला है।
भावार्थ-तत्त्वार्थसूत्रमें असत्यका लक्षण लिखते हुए उमास्वामो महाराजने 'असभिवानमनतम्' यह सूत्र कहा है। इसको निम्न प्रकार व्याख्या करनेसे असत्यके चार भेद प्रतिफलित होते हैं-'सतो विद्यमानस्य अभिधानं कयनं सदभिधानं न सदभिधानम् असदभिधानम्' अर्थात् विद्यमान वस्तुका कहना तो सदभिधान है और उसका नहीं होना यह असदभिधान है। जैसे देवदत्तके रहते हुए भी कहना, नहीं है, यह सदपलाप-विद्यमानला नहीं कहना. पहला असाय है ! 'न मन असत अविद्यमानं तस्य अभिधानम् असवभिधानम्' अर्थात् अविद्यमान वस्तुका कथन करना यह असदुद्भावन नामका एक दूसरा असत्य है । 'ईषत् सत् असत् तत्सदृशमित्यर्थः तस्य अभिधानम्, असदभिधानम् 'अर्थात् मूलरूपसे वस्तुका अभाव है परन्तु कुछ अंशमें कार्य निकलने की दृष्टि से अन्यको अन्यरूप कहना यह अन्यरूपाभिधान नामका तोसरा असत्य है। जैसे अश्वके अभावमें भार ढोनेकी अपेक्षा गधेको अश्व कहना । 'सत् प्रशस्तं म भवतीति असत् अप्रियादि वचनं तस्य अभिधानं असदभिधानम् अर्थात् अप्रिय, कठोर, निन्द्य वचन बोलना । इन चारों प्रकारके असत्यका जिसमें मन, वचन, कायसे त्याग किया जाता है वह सत्य महावत कह' लाता है ।। ४५-५१ ॥ आगे अज्ञानजन्य और कषायजन्यकी अपेक्षा असत्यके दो भेद कहते हैं
अज्ञानाहा कषायावा ब्रूतेऽसत्यं वचो जनः। तयोः कषायजासत्यं दुर्गतर्बन्धकारणम् ॥ ५२ ।। अजानजनितासत्यं क्षीणमोहाधिस्मृतम् । कषायजं तु दीक्षाया ग्रहणे परिमुच्यते ॥ ५३॥ वसुराजस्य यवाक्यं कषायजनितं तु तत् । दुर्ग: कारणं नातं निम्बायाश्च निमित्तकम् ॥ ५४॥ असत्यवचनणागात् सत्यं नाम महावतम् । प्रशस्यते सा सद्भिः स्वात्मसन्तोषकारणम् ॥ ५५ ॥