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तृतीय प्रकाश
सिरप दिसतां यःणी समालोचकीयकाम् । दृष्ट्वा वाणीफलं स्वस्थ सफलां कुरु सत्वरम् ॥ ५६ ॥ तथा प्रयासः कर्तव्यो येन त्या विशदं वचः। अर्य-प्राप्यते सद्भिः ऋतं नाम तदुच्यते ।। ५७ ॥ मृगतृष्णां जलं ज्ञात्वा जलं प्राप्तुं समुत्सुकः । म लभ्यते जलं क्वापि धावमानरपि द्रुतम् ॥ ५८।। यद् वस्तु यथा चास्ति तस्य च वचनं तथा । सध्यं नाम भवेत्सत्यं विसंवादविनाशकम् ॥ ५९॥ सते हितं भवेत्सत्यं भवबाधाविनाशकम् । हितं मितं प्रियं ब्रूयादित्याधाय स्थचेतसि ॥६० ।। सद् वचः सततं ब्यावसत्यं मा वदो वचः । मौनं हि परमो धर्मस्तवभावे च सत्यवाक् ।। ६१ ॥ वक्तव्या सततं पुम्भिः सर्वसन्तोषकारिणी।
इतोऽग्रे सम्प्रवक्ष्याम्यस्तेयं नाम महायतम् ॥ ६२ ।। अर्थ- मनुष्य अज्ञान अथवा कषायसे असत्य वचन बोलता है । इसलिये असत्यके दो भेद हैं- अज्ञानजन्य और कषायजन्य । इन दोनों असत्य वचनोंमें कषायजन्य असत्य दुर्गतिके बन्धका कारण है । अज्ञानजन्य असत्य वचन क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान तक होता है और कषायजन्य असत्य दोक्षा-ग्रहण के समय छूट जाता है। राजा वसुका असत्य वचन कषायजन्य था इसलिये वह दुर्गतिका कारण तथा निन्दाका निमित्त हो गया। असत्य वचनका त्याग करने से सत्य महाव्रत होता है। यह सत्य महावत अपने आपमें संतोषका कारण है तथा सत्पुरुषोंके द्वारा प्रशंसनीय है। तिर्यञ्चों को विकल-अस्पष्ट और अपनो सकल-स्पष्ट वाणोको देखकर वाणीके फलका विचार कर अपने वाणोको शीघ्र हो सफल करो । भाव यह है कि जिन जीवोंने पूर्वभवमें असत्य बोलकर वाणोका-वचन बलका दुरुपयोग किया उनको वाणी तियंञ्च पर्याय में विकल-अस्पष्ट हुई और जिन्होंने पूर्व पर्याय में सत्य बोलकर वाणोका सदुपयोग किया उनको वाणी मनुष्य भव में साल
स्पष्ट हुई। ऐसा विचारकर अपनी वाणोको शीघ्र हो सफल करना चाहिये। मनुष्यको ऐसा प्रयास करना चाहिये जिससे उसके वचन विशद-स्पष्ट हों। जो सत्पुरुषोंके द्वारा प्राप्त क्रिया जाय उसे ऋत कहते हैं। ऋत नाम सत्यका है, सत्य-यथार्थ वस्तु ही किसोके द्वारा प्राप्तको जा सकती है। मृगतृष्णाको जल जानकर उसे प्राप्त करने के