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सम्पचारित्र-चिन्तामणिः शरीरे रागहन्तारं सारं च कृतिकर्मणाम् ।
हरिं सर्वदोषाणां धरि गुणसम्पदाम् ॥ १०२ ॥ अर्थ-अब में लस कायोत्सर्ग अवश्यकको कहता हूँ जो कर्मक्षयका कारण है, मोक्षमार्मका उपदेशक है, घातिया कर्मों का नाश करनेवाला है, शरीरविषयक रामका घातक है, कृतिकर्मों में सारभूत है, सब दोषोंका हरण करनेवाला है और गुणरूपो सम्पदाओंको धारण करनेवाला है ॥ १०१-१०२ ॥ आगे कायोत्सर्ग करनेवाला कैसा होता है, यह कहते हैं
पाक्ष्योरन्तरं वस्वा चतुरङ्गुलसमितम् । सुस्थितो लम्बबाहुश्च निश्चलसर्वदेहकः ।। १०३ ।। विशुद्धभावना युक्तः सूत्रोऽर्थ च विशारदः। मोक्षार्थी जितनिद्रश्च बलवीर्यसमन्धितः ॥ १०४ ॥ चतुविधोपसणां जेता नष्टनियानकः ।
दोषाणां विनिवृत्यर्थ कायोत्सर्ग समाचरेत् ।। १०५ ॥ अर्थ-दोनों पैरोंके बीच चार अङ्गुलका अन्तर देकर जो खड़ा हुआ है, जिसको भुजाएं नोचेकी ओर लटक रही हैं, जिसका सर्वशरोर निश्चल है, जो विशुद्धभावनासे युक्त है, द्रव्यश्रुत और भावश्रुतमें निपुण है, मोक्षका इच्छुक है, निद्राको जीतनेवाला है, बल, वीर्य, शारीरिक और आत्मिक शक्तिसे सहित है, चतुर्विध उपसर्गको जोतने वाला है और निदान-भोगाकाक्षासे रहित है, ऐसा मुनि दोषोंका निराकरण करनेके लिये कार्योत्सर्ग करता है ॥ १०३-१०५ ॥ अब कायोत्सर्गका जघन्य और उत्कृष्ट काल तथा प्रतिक्रमण सम्बन्धो विभिन्न कायोत्सर्गों में श्वासोच्छ्वासोंका परिमाण बतलाते हैं
एकवर्षावधि: कायोत्सर्ग उस्कृष्ट उच्यते । अन्तर्मुहर्त पर्यन्तो जघन्यश्च निगद्यते ।। १०६॥ अष्टोत्तरशतोच्छ्वासा विवसीयप्रतिक्रमे । चतुः पञ्चाशदुच्छ्वासा ज्ञेया राश्रिप्रतिक्रमे ॥ १०७ ।। शसत्रयसमुच्छ्वासाः पाक्षिके च प्रतिक्रमे । चतुः शती समुच्छ्वासाश्चतुर्मास प्रतिक्रमे ॥ १८ ॥ पञ्चशतीसमुच्छ्वासाः संवत्सरप्रतिको । हिंसासत्यादिवोषेषु भवत्सु जातुचिन्मुनेः ॥ १०९॥