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षष्ठ प्रकाश
अष्टोत्तरशतोच्छवासाः कायोत्सर्गः प्रकीर्तितः । भोजनपानवेलायां सामान्तरगतो तथा ॥ ११ ॥ भर्हस्कल्याणकस्थाननिषचावन्दनेऽपि च । मलमूत्रनिवृत्तौ च युग्छ्वासाः पञ्चविंशतिः ।। १११॥ इष्ट ग्रन्थस्य प्रारम्भे समाप्त्ययसरे तथा । स्वाध्यायस्य समारम्भे समाप्तौ च यथाविधि ।। ११२ ।। बनाया मायेषु सरपसशु च जातुचित् । सप्सविंशतिच्छवासाः कायोत्सर्गः समिष्यते ॥ ११३ ॥ एतत्समयपर्यन्तं शरीरे रागवर्णनात् ।। आवश्यकः समाख्यातः कायोत्सर्गाभिधानकः ॥ ११४ ।। एककृत्वो नमस्कारमन्त्रस्योच्चारणे त्रयः। समुच्छ्वासा भवन्त्यत्र साधूनां हि यथाविधि ॥ ११५॥ केचिद् वीर्यवशिष्ट्य सहिताः साधुपुङ्गवाः। व्यन्तरादिकृतान् घोरानुपसर्गान् सुदुःसहान ।। ११६ ॥ सहन्ते धर्यसंयुक्ता भोषणे शवशायने ।
कुर्वन्ति निर्जरा दुष्टकर्मणां दुःखदायिनाम् ।। ११७ ।। अर्थ-एक वर्षको अवधि वाला उत्कृष्ट तथा अन्तर्मुहूर्तकी अवधिवाला जघन्य कायोत्सर्ग कहलाता है। देवसिक प्रतिक्रमणमें एकसौ आठ उच्छ्वास, रात्रि प्रतिक्रमणमें चौवन उच्छवास और पाक्षिक प्रतिक्रमणमें तोनसी उच्छ्वास जानना चाहिये । चातुर्मासिक प्रतिक्रमणमें चारसौ और साम्वत्सरिक प्रतिक्रमणमें पाँचसो उच्छवास प्रमाण कायोत्सर्ग करना चाहिये। यदि कदाचित् मुनिके हिंसा असत्यादि दोष हो जावे तो उस समय एकसौ आठ उच्छ्वासका कायोत्सर्ग करना चाहिये। भोजन, पान, आहारके समय, अन्य नामके जानेपर, जिनेन्द्र देवके कल्याणकोंके स्थानपर आसन लगाने एवं वन्दना करने में और मलमूत्रादि की निवृत्ति करने पर पच्चोस उच्छवास, इष्ट ग्रन्थके प्रारम्भ करने में, समाप्तिके अवसरमें, स्वाध्यायके प्रारम्भमें, समाप्तिमें, वन्दनामें तथा खोटे भावों के होनेपर सत्ताईस उच्छवासोका कायोत्सर्ग माना जाता है । अर्थात् इतने समय तक शरीर सम्बन्धो राग छोड़कर कायोत्सर्ग नामका आवश्यक करना चाहिये। विधिपूर्वक एक बार नमस्कार मन्त्र. का उच्चारण करने में साधुओंके तीन उच्छ्वास होते हैं ।। १०६-११७॥
भावार्थ- प्रथम उच्छ्वासमें णमो अरहताणं णमो सिद्धाणं द्वितीय