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प्रथम प्रकाश
लुञ्चित्वा पाणियुग्मेन कचान् शिरसि संस्थितान् । मुक्त्वा वस्त्रावृति सद्यः सजातोऽसौ दिगम्बरः।। ६६ ।। गुरुणा कृत संस्कारी धृतपिच्छकमण्डलुः। शुशुभे क्षीणसंसार साधुसङ्घाभिनन्वितः 11 ६७ ॥ करणानां विशुद्धिर्या दशिता परमागमे । तां सम्प्राप्य परिप्राप्तोऽप्रमत्तविरतस्थितिम् ॥ ६८ ॥ अन्तर्मुहुर्तमध्येऽसौ प्रमत्तविरतोऽभवत् । कृस्वारोहावरोहौ स षष्ठसप्तमयोश्चिरम् ॥ ६९ ॥ धृत सामायिकच्छेयोपस्थापनसंयमः।
विजहार महीपृष्ठे गुरुसङ्घ-समन्वितः ॥ ७० ॥ अष्टाङ्गसम्यक्त्वविभूषितो यो, यो ज्ञानशाखोल्लसितः समन्तात् । चारित्रसौगन्ध्यसमन्वितो यः स मोक्षमार्गो मम मोक्षवः स्यात् ।। ७१ ।।
अर्थ--इस प्रकार गुरुदेवके मुख कमलसे मूलगुणोंको सुनकर जिसका शरीर रोमाञ्चित हो रहा था ऐसे उस भध्यने 'ओम्' स्वीकार है. ऐसा कह दोनों हाथोंसे सिरके केशोंका लोंच किया तथा वस्त्रका आवरण दूरकर वह शोन हो दिगम्बर हो गया। गुरुने जिसका संस्कार किया था जो पोछो और कमण्डलुको धारण कर रहा था, जिसका संसार अल्प रह गया था तथा उपस्थित साधु समूहने जिसका अभिनन्दन किया था ऐसा वह नवीन दोक्षित, अतिशय सुशोभित हो रहा था। परमागममें करणों-अधःप्रवृत्त तथा अपूर्वकरण आदि परिणामोंकी जो विशुद्धि दिखलाई गई है उसे प्राप्तकर वह अप्रमत्त विरत नामक सप्तम गुणस्थानको प्राप्त हो गया। पश्चात् अन्तमुहूर्तके भोतर प्रमत्तविरत हो गया। इस तरह वह छठवें और सातवें गुणस्थानमें आरोह-अवरोह-चढ़ना उतरना करता हुआ सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्रसे युक्त हो गया। पश्चात् गुरु-आचार्य तथा सङ्घ-सङ्घस्थ मुनियोंके साथ उसने पृथिवोपर विहार किया।
ग्रन्थकर्ता कहते हैं कि जो अष्टाङ्ग सम्यग्दर्शनसे सुशोभित है, ज्ञानको शाखाओंसे उल्लसित-अतिशय शोभायमान है और चारित्ररूपो सुगन्धिसे सहित है ऐसा मोक्षमार्ग मुझे मोक्षका देनेवाला हो ॥ ६५-७ १।। इस प्रकार सम्यक्चारित्रचिन्तामणि ग्रन्थमें सामान्य रूपसे मूलगुणोंका वर्णन करनेवाला
प्रथम प्रकाश पूर्ण हुआ।