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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः वासरे होकथाहं यो स्थित्वा पाणिपात्रयोः। भुङ्क्त साधुरनासक्त्या तत्स्थितिभोजनं मतम् ।। ६३ ।। एकस्मिन् दिवसे मुक्तिबेले विनिरूपिते ।
गृहिणां साधुसङ्घस्तु सम्मुक्ते टेकवारकम् ।। ६४ ॥ अर्थ-केशलोंच करना, नग्न रहना, स्नान नहीं करना, पृथिवोपर सोना, दातौन नहीं करना, खड़े-खड़े आहार करना और एक बार आहार लेना, ये मुनियोंके शेष सात गुण माने गये हैं। दो माह तोन माह अथवा चार माहमें शिर तथा डांढ़ी मूछके केशोंका हर्षपूर्वक लोंच करना चाहिये। लोंचके दिन नियमसे उपवास करना चाहिये । एकान्तमें केशलोंच करना श्रेष्ठ है क्योंकि उसमें अहंभाव-अहंकार नहीं होता। ब्रह्मचर्यको शुद्धिके लिये हर्षपूर्वक नान्यत्रत धारण करना चाहिये। निर्ग्रन्थ-निष्परिग्रह दशाके रहते हुए भी नागन्य व्रतको मूलमुण माना गया है। क्योंकि वस्त्रखण्डका परित्याग होनेसे ही ब्रह्मचर्यको परोक्षा होती है । वस्त्रके भीतर होनेवाला विकार प्राणियोंके द्वारा देखा नहीं जा सकता । जीव हिंसाको निवृत्ति तथा वैराग्यको वृद्धिके लिये मोक्षको साधना करनेवाले साधुओंको स्नानका त्याग करना चाहिये । बिस्तर आदिका त्याग हो जानेपर साधुओंकी भूशय्या ही शरण मानी गई है। कभो चटाई और पुआल आदि भो ग्राह्य-ग्रहण करने योग्य माने गये हैं। थकावटको दूर करनेके लिये मुनि रात्रिके पश्चिमा भागमें कर्कश पृथ्वी-पृष्ठपर कभी कुछ शयन करते हैं। कुन्दके फूल समान आभावाली दन्तपंक्तिको देख कर राग उत्पन्न होता है। उसका नाश करनेके लिये अदन्तधावन गुण कहा जाता है। मुनि दिन में एक बार खड़े होकर पाणिपात्र हाथ रूपी पात्रमें अनासक्त भावसे जो आहार करते हैं बह स्थिति-भोजन नामका गुण है। गृहस्थोंके लिये दिनमें भोजन करनेके लिये दो बेला कही गई है परन्तु साधु-समूह एक बार हो भोजन करते हैं उनका यह एक भुक्त-मूलगुण कहलाता है ।। ५४-६४ ।। इस प्रकार गुरुके मुखसे मूलगुणोंका वर्णन सुन दीक्षाके लिए उद्यत मनुष्य क्या करता है, यह कहते हैं
इत्थं मूलगुणान् श्रुत्वा गुरुवदनवारिजात् । ओमित्युक्त्वा मुदा जातो रोमाञ्चित कलेवरः ॥ ६५ ।।