________________
१३
सम्यचारित्न-चिन्तामणिः
द्वितीय प्रकाश चारित्रलब्धिअधिकार
__मङ्गालाधरण परिन्द्रियाणि विनि चित्तस्य वाचल्य मनीरितञ्च । तान् संयताम् स्यात्मविशुखियुक्तान्,
वन्दे सवाहं शिषसौख्यसिद्ध्ये ॥१॥ अर्थ-जिन्होंने इन्द्रियोंको अपने अधीन किया है तथा चित्तको चञ्चलताको रोका है, स्वात्मविशुद्धिसे युक्त उन संयतों-ऋषि, मुनि, यति और अनगार भेदसे युक्त चतुर्विध साधुओंको मैं मोक्षसुखकी प्राप्तिके लिये सदा नमस्कार करता हूँ॥१॥ आगे चारित्रको कौन व्यक्ति प्राप्त करता है, यह लिखते हैं
चारि लमते कोत्र वत्यः कीदक् च मानवः । कोवृक् तस्यास्मभावः स्याविति चिन्ता विधीयते ॥ २॥ मनुजः कर्मभूम्युस्थोऽकर्मभूमिज एव च । भानोपयोगसंयुक्तः सल्लेश्माभिः समस्थितः ॥ ३॥ पर्याप्ती जागृतो योग्याव्यक्षेत्रादिशुम्मितः । लभते चारित्रलब्धि कर्मक्षयविधायिनीम् ।। ४॥ प्रश्रमाद्वा चतुर्थाद्वा पञ्चमाद्वा गुणावयम् ।
प्राप्मोति संयमं शुद्धि वर्धमानां समाश्रितः ॥५॥ अर्थ-इस पृथिवीपर कहाँ उत्पन्न हुआ कैसा मनुष्य चारित्रको प्राप्त होता है और उसका आत्मभाव कैसा होता है ? इसका विचार किया जाता है। जो कर्मभूमि अथवो अकर्मभूमिमें उत्पन्न हुआ है, ज्ञानोपयोगसे संयुक्त है, शुभलेश्याओंसे सहित है, पर्याप्त है, जागृत है तथा योग्य द्रव्य क्षेत्र आदिसे सुशोभित है ऐसा मनुष्य कर्मक्षय करने वालो चारित्रलब्धिको प्राप्त होता है। बढ़ती हुई विशुद्धिको प्राप्त हुआ यह मनुष्य प्रथम, चतुर्थ अथवा पञ्चम गुणस्थानसे संयम-महाव्रत को प्राप्त होता है। अर्थात इन गुणस्थानोंस संयमको प्राप्त होने वाला मनुष्य पहले सप्तम गुणस्थानको प्राप्त होता है, पश्चात् षष्ठ मुणस्थानमें आता है ॥२५॥